बिहार में चारा घोटाला में लालू प्रसाद यादव का क्या नाम आया, खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है. बार-बार लालू प्रसाद यादव को जेल भेजने के बाद भी पूरे देश में अगर किसी घोटाले का जिक्र होता है तो एक मात्र चारा घोटाला ही नजर आता है. आखिर ऐसा क्या हो गया है इस घोटाले में जिसके आगे देश में अन्य कोई घोटाला नजर ही नहीं आता है ?
लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री पद पर विराजमान होने वाले पिछड़े वर्ग से आने वाले एकमात्र ऐसे नेता रहे हैं, जो समाज के निम्न वर्ग से आने के कारण निम्न वर्ग के लोगों के सम्मान की लड़ाई को तेज किया. संभवतः देश के इतिहास में पहली बार दलित-पिछड़ों – जिन्हें हिन्दु वर्ण व्यवस्था में शुद्रों की संज्ञा से नवाजा गया है और ससम्मान जीने तक के अधिकार से सदियों से वंचित रखा गया है. सही मायने में शुद्र हिन्दु वर्ण व्यवस्था में वह बहुसंख्यक हिस्सा है, जो यूरोप के मध्ययुगीन दास-प्रथा का जीता-जागता नमूना है – पर सवर्ण ब्राह्मणवादी अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाया.
पहली बार लालू प्रसाद यादव के ही कारण सवर्ण ब्राह्मणवादी तबकों में दलित-पिछड़ों का उत्पीड़न करने में सिहरन पैदा हुई. संभवतः पहली बार लालू प्रसाद यादव ही वह व्यक्तित्व थे, जिन्होंने सरेआम कलक्टर को थप्पड़ जड़ कर उन्हें जनता का सेवक होने का अहसास दिलाया और दलित-पिछड़े तबके की जनता के बीच यह संदेश संचारित किया कि कलक्टर कोई मालिक नहीं, जिनकी जी-हूजूरी की जाये. वह जनता का सेवक है, जिससे जनता जब चाहे सहज ही मिल सकता है और अपनी समस्या से उसे अवगत करा सकता है.
लालू प्रसाद यादव वह आवाज थे, जिनका दलित-पिछड़े समाज को सदियों से इंतजार था. लालू प्रसाद यादव ने दलित-पिछड़े समाज के बहुसंख्यक लोगों के मूंह में आवाज दिये ताकि वह सवर्ण तबकों के उत्पीड़न के खिलाफ आवाज बुलन्द कर सके. यही कारण है कि लालू प्रसाद यादव एकबारगी सवर्ण तबकों के निशाने पर आ गये और सत्ता प्रतिष्ठान की सवर्णवादी ब्राह्मणवादी बर्चस्व का शिकार हो गये और आज जेल में सजायाफ्ता कर दिया गया. उन्हें हर बार राजनैतिक तौर पर अक्षम बनाने की कोशिश की गई, ताकि देश के अन्य हिस्सों की तरह बिहार में भी सवर्ण ब्राह्मणवादी बर्चस्व को कायम रखा जा सके जैसा गुजरता के ऊना, उत्तरप्रदश के सहारनपुर, महाराष्ट्र के भीमा कारेगांव में आज देखने को मिल रहा है.
सवर्ण ब्राह्मणवादी मानसिकता का इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है कि मुख्यमंत्री पद पर आसीन लालू प्रसाद यादव को सवर्ण ब्राह्मणवादी तबका इन्हें हमेशा अपभ्रंश नाम ‘ललुआ’ से ही पुकारता रहा. क्या भारत के किसी अन्य लोगों के नाम के नाम इस प्रकार का अपभ्रंश प्रयुक्त किया गया ?
सीबीआई के बारे में यह सर्वज्ञात है कि यह सत्ता की जूती है तो फिर सीबीआई कोर्ट इससे अलग कैसे हो सकता है ? कोर्ट में जब लालू प्रसाद यादव से कोर्ट के जज कहते हैं कि यहां कोई जातिवाद नहीं है, तब यह सहज ही सवाल उठ खड़ा होता है कि आखिर बिना किसी प्रसंग के जज को यह कहने की जरूरत क्यों आन पड़ी ? निःसंदेह कोर्ट और उसके जज जातिवादी मानसिकता से अलग कतई नहीं हैं, और वह सवर्ण ब्राह्मणवादी मानसिकता और भाजपा की केन्द्र व राज्यशासित सरकार के महज प्रतिफलन हैं, जिसका परिणाम लालू प्रसाद यादव को सजा देकर जेल भेज देने और ब्राह्मण मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र को बरी करने के मामले में दिखता है.
इससे भी बढ़कर सीबीआई कोर्ट की मानसिकता और दवाब का सबसे बड़ा सबूत जस्टिस लोया की हत्या है, जिसमें उन पर लगतार अमित शाह का मुक्त करने का दबाव बनाया जाता रहा, और जब वे उस दवाब के आगे नहीं झुके तो उनकी हत्या कर दी गई. विदित हो कि सीबीआई जस्टिस लोया सोहराबुद्धीन केश में अभियुक्त अमित शाह के खिलाफ चले मुकदमें की सुनवाई कर रहे थे.
उपरोक्त प्रकरण से एक बात तो साफ होती है कि सीबीआई की तरह ही सीबीआई कोर्ट भी स्वतंत्र नहीं है. वह केवल जनता के सामने स्वतंत्र होने का नकाब पहने हुआ है और कोर्ट की अवमानना जैसी कार्रवाई कोर्ट की सवर्ण ब्राह्मणवादी सामंती मानसिकता का द्योतक है, जिसका विरोध किया जाना जनता का प्रकृतिप्रदत्त अधिकार भी है क्योंकि कोर्ट और कानून एक ओर जहां सत्ता के ब्राह्मणवादी स्वरूप का द्योतक है तो वहीं वह केवल समाज के कमजोर तबके पर ज्यादा कारगर तरीके से काम करती है वनिस्पत अमीर तबके के.
इतना ही नहीं इन दिनों सीबीआई कोर्ट सहित अन्य कोर्ट भी – सुप्रीम कोर्ट सहित – सवर्ण ब्राह्मणवादी हितों की हिफाजत करता नजर आता है, जब वह भाजपा की केन्द्र सरकार के ईशारे पर थिरकती नजर आती है. वर्तमान भाजपा शासनकाल में सुप्रीम कोर्ट को किस हद तक पंगु किया गया है इसका सबसे बड़ा उदाहरण तब झलकता है जब पूर्व मुख्य न्यायाधीश टी. एस. ठाकुर विभिन्न मौकों पर अपनी असहायता का बयान करते हैं और केन्द्र की शासनव्यवस्था के सामने गिरगिड़ाते हैं, जिसकी खबरें बीते दिनों कई मौकों पर आई थी. इससे भी आगे जब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल सुप्रीम कोर्ट के जजों की मोबाईल से होने वाली बातचीत के टेप होने के डर को सार्वजनिक तौर पर सुप्रीम कोर्ट में आयोजित एक कार्यक्रम में रखते हैं, जहां स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी मौजूद थे जिसमें उनका विदीर्ण चेहरा साफ तौर पर दीख रहा था.
केन्द्र की मौजूदा भाजपा सरकार ने अपने नये ब्राह्मणवादी आवरण में कोर्ट को ढाल दिया है, जो कोई इसके विरोध में सवाल उठाता है, उसे खत्म करने की पूरी कोशिश की जाती है. देश की जनता के सामने यह महत्वपूर्ण सवाल सहज ही तैर रहा है कि खून बहाकर हासिल किये गये मामूली से अधिकार की रक्षा किस प्रकार की जाये, जब आज संविधान को ही पलटने की साजिश में मौजूदा शासक आमादा हो गया है ?
लालू प्रसाद यादव जैसी शख्सियत को जेल में सजायाफ्ता करना और जगन्नाथ मिश्र जैसे ब्राह्मण आरोपियों सहित 2जी आदि जैसे मामले में अभियुक्तों को बा-ईज्जत बरी करना कोर्ट की स्वतंत्रता और जातिवादी से मुक्त होने जैसी छवि पर गहरा आघात है. समय रहते कोर्ट को अपनी छवि की हिफाजत जरूरी है, ताकि वह सवर्ण ब्राह्मणवादियों के लिए वाशिंग मशीन बनने की भूमिका से खुद को मुक्त कर सके. वरना वह वक्त भी शायद दूर नहीं रहेगा जब न्यायालय पर से ही जनता का विश्वास उठ जाये और लोग अपनी न्यायवस्था खुद स्थापित करने लग जाये.
ऐसे वक्त जब आज लालू प्रसाद यादव को जेल में बजाप्ता सजायाफ्ता कर दिया है, लालू प्रसाद यादव देश में व्याप्त सवर्ण ब्राह्मणवादी मानसिकता और अत्याचार के खिलाफ सशक्त बुलंद आवाज के तौर पर स्थापित हो गये हैं जो सवर्ण ब्राह्मणवादी मानसिकता और अत्याचार से कभी भी समझौता नहीं किया.
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