सुब्रतो चटर्जी
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की जीत क़रीब-क़रीब निश्चित है. अमरीका भाग गया है. ये वही तालिबान है जिसे अमरीका ने सोवियत संघ के विरुद्ध खड़ा किया था. दुनिया भर की दक्षिणपंथी ताक़तों की आंखों का तारा था तालिबान उस समय. मुझे लियोनिद ब्रेझनेव की विस्तारवादी नीतियों की आलोचना में रंगने वाले हर अख़बार याद है. बीबीसी, सीएनएन, वॉयस ऑफ़ अमेरिका, ऑल इंडिया रेडियो वग़ैरह से दिन रात सोवियत संघ के विरुद्ध उगलता हुआ ज़हर भी याद है.
इतिहास में ब्रिटिश अफ़ग़ान नीति के बारे बहुत कुछ पढ़ा था. मुग़ल अफ़ग़ान संघर्ष के बारे भी वाक़िफ़ था. शेरशाह सूरी और हुमायूं की लड़ाई औरंगज़ेब की काबुल के क़िले की घेराबंदी तक चलती रही. ब्रिटिश सरकार ने भी अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश की. सोवियत संघ और अमरीका की अफ़ग़ान नीति भी कमोबेश सोलहवीं सदी की मुग़ल नीति का ही विस्तार रहा, जो अंतर था, वह नीयत का रहा.
मुग़ल बादशाह अफ़ग़ानिस्तान से मूंछों की लड़ाई लड़ते थे और प्रकारांतर में भारत के अंदर के अफ़ग़ान चैलेंज को भी शिकस्त देने के इरादे से लड़ते थे. मुग़लों की महत्वाकांक्षा केंद्रीय एशिया पर प्रभाव विस्तार करने की थी, जिसके लिए अफ़ग़ानिस्तान का रास्ता सबसे उत्तम था. मुग़ल अपनी जड़ों को कभी अपने अवचेतन से नहीं निकाल पाए. ये अलग बात है कि उनको सफलता नहीं मिली.
ब्रिटिश अफ़ग़ान नीति के मूल में पश्चिमी एशिया पर कंट्रोल की इच्छा भी थी और चीन को भी औक़ात दिखानी थी. सोवियत संघ और अमरीका भी इसी इरादे से अफ़ग़ानिस्तान में उतरे. पिछले कई दशकों से अमरीका अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के ख़िलाफ़ लड़ता रहा, लेकिन अन्ततः हार कर भागा.
सवाल ये है कि जिस तालिबान को अमरीका ने खड़ा किया वही तालिबान बिना अमरीका के सहयोग से कैसे इतना ताक़तवर हो गया ? वो कौन सी शक्तियां हैं जो इस क्रिमिनल लोगों की गिरोह को ताक़त देती हैं ? जिस अमरीका को अल क़ायदा को ख़त्म करने में समय नहीं लगा, वह क्या तालिबान से सिर्फ़ अफ़ग़ानिस्तान के भूगोल के चलते हार गया ? मुझे ऐसा नहीं लगता है.
जहां तक मैं समझता हूं, तालिबान के पीछे पाकिस्तान और चीन दोनों खड़े हैं. पाकिस्तान में शक्ति के दो स्रोत हमेशा से रहे हैं – सिविल गवर्नमेंट और सेना एवं आईएसआई. चीन में जो सरकार है वही फ़ौज भी है.
दरअसल, उभरते हुए नये विश्व शक्ति संतुलन में चीन संपूर्ण एशिया को अपना पिछवाड़ा मानता है. चीन एशिया में और ख़ासकर पश्चिम और दक्षिण पश्चिम एशिया में अमरीका की दख़लंदाज़ी बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करता. साउथ चाईना-सी में अमरीका जितना भारत के मूर्ख नेतृत्व की सहायता से चीन पर दवाब बढ़ाएगा, चीन उतना ही अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा करेगा, चाहे इसके लिए उसे तालिबान का सहारा ही क्यों न लेना पड़े. पाकिस्तान के पास चीन के साथ खड़े होने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.
इन सारी परिस्थितियों में सबसे दयनीय हालत भारत की है. एक मूर्ख नेतृत्व का दंश झेलने को अभिशप्त नोटबंदी और तालाबंदी से कंगाल हुआ देश अमरीका के साथ खड़े हो कर क्वाड का मेंबर बनता है और चीन से दुश्मनी मोल ले कर अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारता है. भारत का अफ़ग़ानिस्तान में सारा निवेश मिट्टी हो गया है. सरकार भारतीयों को अफ़ग़ानिस्तान से यथा शीघ्र निकल आने की हिदायत दे चुकी है. सारी दुनिया में लात खाई हुई सरकार अब अपने ही देशवासियों के ख़िलाफ़ जंग लड़ रही है.
तालिबान की मजबूती से भारत पर कितना असर
एक न्यूज चैनल के अनुसार पाकिस्तान के बाद अपने पड़ोस में एक और हुकुमत हिंदुस्तान के लिए बड़ी चुनौती है. पड़ोस में अफगानिस्तान की मजबूती भारत के हक में है इसके जरिए भारत पाकिस्तान तो घेर ही सकता है, साथ ही आतंकवादी गतिविधियों पर नकेल कसने में मददगार हो सकता है. लेकिन तालिबान का चीन की तरफ झुकाव भारत के लिए किसी लिहाज से फायदेमंद नहीं है, इससे व्यापारिक और कूटनीतिक दोनो तरह का नुकसान हो सकता है.
भारत ने अपने पुराने पड़ोसी अफगानिस्तान में करीब 3 अरब डॉलर का भारी भरकम निवेश कर रखा है कई प्रोजेक्ट पूरे हुए तो कई पर काम चल रहा है जो अफगानिस्तान के विकास में बेहद मददगार साबित हुए हैं चाहे सड़क और पुल का निर्माण हो, बिजली के पावर प्रोजेक्ट हों या स्कूल अस्पताल.
भारत की सबसे बड़ी चिंता फिलहाल उन प्रोजेक्ट को सुरक्षित रखने की है जिसे लगाने में उसने न सिर्फ अरबों डालर लगाए हैं बल्कि जिनके साथ उसके रणनीतिक हित भी जुड़े हुए हैं. इनमें सबसे अहम परियोजना ईरान के चाबहार बंदरगाह से अफगानिस्तान के देलारम तक की सड़क परियोजना है. 218 किलोमीटर लंबी ये सड़क आने वाले दिनों में अफगानिस्तान को सीधे चाबहार बंदरगाह से जोड़ेगी.
अफगानिस्तान में तालिबान का फिर से उभार चिंता का विषय इसलिए भी है क्योंकि इसके करीब 20 से ज्यादा आतंकी संगठनों से तार जुड़े हैं. यह सभी आंतकी संगठन रूस से लेकर भारत तक में ऑपरेट होती हैं.
अफगानिस्तान में बिगड़ते हालात को देखते हुए भारत सरकार ने कंधार से अपने दूतावास में तैनात कर्मचारियों को हिंदुस्तान वापस बुला लिया है. हालाकि विदेश मंत्रालय का कहना है कि इसका ये मतलब नहीं है कि हमने अफगानिस्तान में अपना दूतावास बंद कर दिया है, लेकिन असली बात यही है कि भारत अब अफगानिस्तान से भगाया जा रहा है.
तालिबान का चीनी संबंध
चीन अमेरिकी फौज के जाने से खुश है. चीन चाहता है कि पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर को अफगानिस्तान तक बढ़ाकर वो अमेरिका की जगह ले ले. चीन को अफगानिस्तान में अपना बड़ा व्यापार नजर आता है. चीन की मंशा अफगानिस्तान को भी चाइना-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (CPEC) का हिस्सा बनाने की है. जब तक अफगानिस्तान में भारत अमेरिका साथ खड़े थे, चीन अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हो पा रहा था. अमेरिकी फौज के जाने से उसकी बांछे खिल गई हैं.
दरअसल चीन ने अफगानिस्तान में अपने निवेश को बढ़ाया है. चीन वन बेल्ट वन रोड के लिए 1 बिलियन डॉलर खर्च का ऐलान किया है. चीन CPEC प्रोजेक्ट के जरिए दायरा अफगानिस्तान तक बढ़ाना चाहता है, जिससे पेशावर और काबुल को एक राजमार्ग से जोड़ना शामिल है.
चीन इसलिए भी खुश है कि तालिबान ने कह दिया है कि वो चीन को अपना दोस्त मानता है. उसने चीन के निवेश को सुरक्षा देने का वादा भी किया है. चीन की एक बड़ी चिंता भी तब खत्म हो गई है जब तालिबान ने कह दिया कि शिनजियांग प्रात में उइगर इस्लामिक आतंकवाद को बढ़ावा नहीं देगा.
अफ़ग़ानिस्तान से ले कर मंचूरिया या सेंट्रल एशिया और ईरान से ले कर पूरे पश्चिम एशिया की क़िस्मत अब चीन के हाथों में है. तालिबान को चीन जब चाहे ख़त्म कर सकता है, उसकी आर्थिक रीढ़ को तोड़ कर.
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