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आवाज दो

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आवाज दो
रात के सघन अंधेरे में आवाज दो
हमारे पास कुछ नहीं, आवाज है
तुम्हारे पास कुछ नहीं, आवाज है
सघन अंधेरे में आवाज दो

अंधेरे की न राह है, न दिशा
न सिद्धांत न नियम
अंधेरा चाहे सुरंग का हो
या खुले मैदान का
अंधेरा बस अंधेरा होता है
तिमिराच्छन्न काला स्याह
इसलए हे मित्र, तुम आवाज दो
निर्भय, निस्संकोच, निर्द्वंद्व, तुम आवाज दो

सुनसान अंधेरे बीहड़ में
न हाथ की जरुरत है
न तुम्हारे कंधे की
अंधेरे में बस आवाज चाहिए
हम टटोल लेंगे सिद्धांत
पढ़ लेंगे सेल्फ पर रखी मोटी किताब
अछोर रात के अंधेरे में, आवाज दो

जब उड़ सकता है बेवकूफ उल्लू
जब विचर सकता है नाचीज चमगादड़
और जब रेंग सकते हैं कीड़े मकोड़े
कोई वजह नहीं हमारी अंधेरे में नहीं चलने की
जरुरी नहीं आवाज समझी जाय
जरुरी नहीं आवाज पढ़ी जाय
जरुरी नहीं आवाज
स्वरबद्ध संगीतमय हो
छंदबद्ध काव्यमय हो
तुम चाहो तो चीखो
तुम चाहो तो गरजो मेघ सम
तुम चाहो तो फेंकों पत्थर शांत अंधेरी झील में
जरुरत है तो सिर्फ सुनने की
अंधेरे जंगल में हांक लगाने की

आवाज की इस छोटी कश्ती में
हम झेल लेंगे अंधेरे की बाढ़
हम बना लेंगे अंधेरे की तेज धार के विपरीत राह
हम काटेंगे अंधेरों का पहाड़
शब्दों की छैनी से
हम तोड़ेंगे सन्नाटे का मौन
अपने हृदय के भू बिस्फोट से

आवाज दो
अंधेरे के बियावान में आवाज दो
घबराओ नहीं
कि संविधान उनकी तरफदारी करता है
कि न्यायपालिका में बैठे हैं
उनके ही प्रतिनिधि दलाल
कि जिनके पास है स्वामित्व
नमक, तेल, चीनी, रसायन, कपड़ा और प्याज का
उनकी ही सामूहिक रखैल है संसद
कि कानून के रखवाले अधिशासी
उनके ही जरखरीद गुलाम हैं
कि आजाद प्रेस में रोज
रात दिन की तरह लिखी जाती है
कि अंधेरे के कूट शब्दों में अंकित है
देश के रक्त रंजित भाल पर
सत्यमेव जयते
कि रंगीन ध्वज तिरोहित है
कल तक के गद्दार कंधों पर
जो आज बैठे हैं शालीन मुद्रा में
देशभक्तों की सब से अग्रिम पंक्ति में
कि उनके प्रेस सम्मेलन का कूड़ा
रोज बदबूदार करता है
दैनिक अखबार का मुखपृष्ठ

कोई दुःख पहाड़ नहीं होता
कोई खुशी राई नहीं होती
सब से बड़ा होता है
अंधेरी व्यवस्था के विरुद्ध उठी
कतारबद्ध मुट्ठियां, समवेत प्रतिवादी स्वर
इसलिए हे, मित्र
तुम आवाज दो
रात के अछोर उफनते
अंधेरे में आवाज दो

  • राम प्रसाद यादव

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