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नागपंचमी का सच : स्वरूप और वास्तविकता

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नागपंचमी का सच : स्वरूप और वास्तविकता

नाग एक जाति नहीं बल्कि एक संस्कृति हुआ करती थी. इसी संस्कृति के नाग लोग भारत के मूल निवासी हैं. उन्हें सुरा न पीने के कारण असुर भी कहा गया है. नागवंशी राजा व योद्धओं में अनंत, बासुकी, शेष, पदम्, कवल, ककोटिक, अस्तर, शंखपाल, कालिया और पिंगल नागवीर प्रसिद्ध हैं.

भारत में इनका ही वर्चस्व था और यह नाग भगवान बुद्ध के अनुयाई व बौद्ध धर्म के प्रचारक थे. उनका साम्राज्य भारत, यूनान, मिश्र, चीन, जापान आदि देशों में भी रहा है. नाग वंश के बौद्ध लोग सावन की पंचमी के दिन वार्षिक पंचायत करते थे.

यह पंचायत मुखिया का चुनाव के लिए होती थी. इस दिन लोग नहा धोकर अपने आराध्य देव तथागत बुद्ध की वंदना करके सुबह ही गांव के संस्थागार में एकत्र होते थे. इनका आपसी रहन-सहन समता, एकता, न्याय और भाईचारे पर आधारित था.

मुखिया तथा संघ नायक के चुनाव के दौरान प्रत्याशी के योग्यता प्रदर्शन के लिए कई तरह की प्रतियोगिता हुआ करती थी जैसे तलवारबाजी, घुड़सवारी, तीरंदाजी, मल्लयुद्ध आदि.

वर्तमान में भी नाग पंचमी के दिन कुश्ती, दंगल कबड्डी, युद्ध कला से संबंधित दौड़, घुड़सवारी, निशानेबाजी आदि वीरता, साहस, कौशल और शक्ति के प्रदर्शित करने वाले खेलों का आयोजन किया जाता है. इसलिए नाग पंचमी नागों द्वारा चयन किया गया वही दिन है जिस दिन वह अपने सेनापति, मुखिया और किसी श्रेष्ठ पद का चुनाव करते थे. वार्षिक बैठक किया करते थे.

यह दिन नाग वंश के लिए केवल परंपरा और पराक्रम और वीरता दिखाने का ही नहीं था बल्कि इस दिन का महत्व धार्मिक श्रद्धा और समर्पण की दृष्टि से और भी अधिक था क्योंकि इसी दिन आर्य राजा परीक्षित व जन्मेजय द्वारा असंख्य नागों को आग में झोंक कर मार डाला गया था. इससे आर्य व नागों मे संघर्ष बढ़ गये. तभी से नागों को गुमराह करके उनके क्रोध को शांत करने के लिए उनके नाम की पूजा प्रारम्भ हो गई. यह दिन उन्हीं नागों का स्मृति दिवस है.

नागवंश की स्त्रियां इसी दिन को नदी, तालाब के किनारे जाकर स्नान कर बोधवृक्ष, स्तूप, चैत्य, गुफा, विहारों आदि बौद्ध प्रतीकों की पूजा करके घर परिवार व समाज के लिए मंगल कामनाएं करती थीं. धम्म संस्कृति के नष्ट हो जाने व जातियों के निर्माण होने पर इसी समय घात लगाकर विकृत मानसिकता के लोगों ने इन स्त्रियों की पिटाई तथा बेज्जती की.

कालान्तर में सामाजिक जागरूकता के कारण ऐसा कर पाना असंभव हो गया. फिर भी परम्पराओं के क़ैद लोग इस परंपरा का निर्वाह अपने ही लोग गुड़िया पीटकर करते हैं. अर्थात् चरित्र और आचरण के स्थान पर परम्परा ही श्रेष्ठ हो गयी.

बाबा साहब डॉक्टर अंबेडकर 14 अक्टूबर 1956 को अशोक विजयदशमी के दिन 10 लाख लोगों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा के लिए नागपुर को ही चुना था क्योंकि नागपुर प्राचीन काल में नागों की भूमि थी और समस्त भारतवंशी नाग शासक बौद्ध धर्म के अनुयायी थे.

नागवंशियों का ऐतिहासिक सच

इस देश की विरासत हम नागवंशियों की है; मूल निवासियों की है. नाग वंशियों में एक श्रेष्ठ नाम शेषनाग का भी आता है.

शेषनाग का पूरा नाम शेषदात नाग था. उनके पूरे नाम की जानकारी हमें ब्रिटिश म्यूजियम में रखे सिक्कों से मिलती है. शेषनाग ने विदिशा को राजधानी बनाकर 110 ई.पू. में शेषनाग वंश की नींव डाली थी. शेषनाग की मृत्यु 20 सालों तक शासन करने के बाद 90 ई. पू. में हुई. उसके बाद उनके पुत्र भोगिन राजा हुए जिनका शासन – काल 90 ई. पू. से 80 ई. पू. तक था. फिर चंद्राशु ( 80 ई. पू. – 50 ई. पू. ), तब धम्मवर्म्मन ( 50 ई. पू. – 40 ई. पू. ) और आखिर में वंगर ( 40 ई. पू. – 31ई. पू. ) ने शेषनाग वंश की बागडोर संभाली. शेषनाग की चौथी पीढ़ी में वंगर थे. इस प्रकार शेषनाग वंश के कुल मिलाकर पाँच राजाओं ने कुल 80 सालों तक शासन किए. इन्हीं पाँच नाग राजाओं को पंचमुखी नाग के रूप में बतौर बुद्ध के रक्षक कन्हेरी की गुफाओं में दिखाया गया है. जिन बुद्ध की के रक्षक सातमुखी नाग हैं वे पंचमुखी नाग वाली प्रतिमाओं से कोई 350 साल बाद की हैं.

नागपंचमी ये त्योहार दरअसल उन पाँच महान पराक्रमी नागवंशी राजाओं की याद में मनाया जाता था जिन्होंने बुद्ध – संदेश का प्रसार भारत व भारत के पार भी किया. उनके नाम थे – “अनंत, वासूकी, तक्षक, करकोटक और पांचवा ऐरावत.”

नागपंचमी का संबंध “नाग” इन सांप से न होकर नागवंशी राजाओं से है. यह “टोटेम ” पांच पराक्रमी नाग राजाओं से संबंधित है. उनके गणतांत्रिक (republican) स्वरुप में अनेक स्वतंत्र राज्य अस्तित्व में थे. जिसमें अनंत यह सबसे बड़ा. जम्मू – कश्मीर का अनंतनाग ये शहर उनकी याद की गवाही देता मौजूद है. उसके बाद दूसरे वासुकि नागराज ये कैलास मानसरोवर क्षेत्र के प्रमुख थे. तीसरे नागराजा तक्षक जिनकी यादगार- रूप पाकिस्तान में तक्षशिला है. चौथे नागराजा करकोटक और पांचवें ऐरावत (रावी नदी के पास). इन पांचों नाग राजाओं के गणतांत्रिक राज्य थे जिनकी सीमा एक दूसरे से जुड़ी हुई थी.

इस क्षेत्र के लोग इन पांच पराक्रमी राजाओं की याद कायम रख सकें इस आशय से हर साल समारोह आयोजित हुआ करते थे. वो नागपंचमी के नाम से जाना जाने लगा. इसका अनुसरण उन राज्य के अन्य प्रांतों के लोगों द्वारा भी किया गया. इस तरह नागपंचमी का समारोह पूरे देश में मनाया जाने लगा. आर्यों ने अपना वर्चस्व कायम करने के लिए नागराजा को सांपराजा में परिवर्तित कर दिया और नाग – सांप समानार्थी शब्द प्रचलित हो गए.

नागवंश के इस पुरामिथकीय सच को ऐतिहासिक रिसर्च की अपेक्षा है. सभी समाज अपने सामाजिक विरासत को लेकर गौरवान्वित होते हैं. ऐतिहासिक रिसर्च की व्यवस्था करते हैं ताकि वे अपने गौरवपूर्ण इतिहास का संरक्षण कर सकें. हम इस दिशा में न सिर्फ पिछड़े हुए हैं बल्कि उधार के उन ऋषियों से स्वयं को महिमा मंडित कर रहे हैं जिन्होंने हमारी समता, स्वतंत्रता और न्याय मूलक संस्कृति को नष्ट करके अपनी विभेदकारी संस्कृति को हमारे ऊपर थोप दिया. ये हमारे लिए घातक है.

नागपंचमी अब सांपों की पंचमी हो गई और नागवंशिओं की पंचमी लुप्त हो गई. बावजूद इसके आज भी हम लोग घर की दीवारों पर पांच नाग बनाना भूले नहीं. ये पांच नाग ही हमारे पूर्व के नागराजा हैं. धार्मिक परिसीमा से बाहर निकल कर नागपंचमी के त्यौहार का महत्व नागवंशियों को जान लेना चाहिए.

किसी भी परिवार का केंद्र बिंदु स्त्रियां ही होती हैं; वे अगली पीढ़ी की संवाहक होती हैं. नाग परिवारों की केंद्र बिंदु भी स्त्रियां ही थीं. इन्हीं स्त्रियों में एक नाम नागनिका का आता है. नागनिका वह पहली स्त्री थी जिसे इतिहास में पहली रानी होने का गौरव प्राप्त है. नागनिका ज्ञान, आचरण, बहादुरी और शारीरिक सुंदरता में इतनी श्रेष्ठ थी नागों में निका अर्थात् श्रेष्ठता का पर्याय बन गया.

नागनिका = नाग + निका. जिसमें नाग का अर्थ सांप नहीं बल्कि नाग वंश से है. निका = नीका स्त्रीलिंग है. जिसका पुल्लिंग निक = नीक है.

नीक का अर्थ सौम्य, सुकोमल, गोल मटोल, सुडौल, सौष्ठवयुक्त, शीलवान, शुद्ध, निर्मल, प्रांजल आदि होता है.

उसी प्रकार निका या नीका को सौम्या, छरहरी, क्षीणकटिका व शीलवती, शुद्धा, निर्मला, प्रांजला आदि अर्थों में समझना चाहिए. अंग्रेज़ी भाषा में इसका समकक्ष शब्द elegent है.

भोजपुरी क्षेत्र में सावन माह में घर का पुरुष (या पति) जब धम्म दीक्षा लेते थे तो घर पति विहीन होने से युवतियों (ननद और भौजाई) के लिए सूना हो जाता था.
अक्सर घर का सबसे बड़ा पुत्र ही धम्म दीक्षा लेते थे तब घरों की स्त्रियां एक सावन गीत अक्सर गाया करती थीं – ‘नीक सैंया बिन अंगनवा नाहीं लागे गोरिया…’,
इस गीत को भोजपुरी फ़िल्म ‘बिदेशिया’ में फिल्माया भी गया है.

उक्त गीत में जो ‘नीक’ शब्द आया है व ‘अच्छा’ या ‘रमणीय’ के अर्थ में रूढ़ हो गया है.

ब्राह्मण ग्रंथों में शूद्रों के सबसे बड़े पुत्र को शैशव काल में गंगा दान (जिंदा गंगा नदी में बहाकर मार डालना) का जो विधान बनाया गया था जिसे कानून बनाकर अंग्रेज़ों ने बंद कराया.

वह ब्राह्मणी प्रथा बड़े पुत्र की धम्म दीक्षा से रोकने के उद्देश्य से ही किया गया है – न रहेगा बांस न बाजेगी बांसुरी. सबसे बड़ा पुत्र ही नहीं रहेगा तो धम्म दीक्षा कौन लेगा? जब परिवार में कोई भी व्यक्ति धम्म दीक्षा नहीं लेगा तो वह पूरा परिवार ब्राह्मणवाद के जाल में बड़ी आसानी से फंस जाएगा.

वह प्रथा बुद्ध के क्रांति के विरोध में ब्राह्मणों ने प्रतिक्रान्ति के रूप में किया है.
बात यहीं तक नहीं रुकी; ब्राह्मणों ने सांकेतिक रूप से उस गंगा माता से पुत्र प्राप्ति हेतु पियरी (पीली साड़ी) चढ़ाने का विधान भी बना दिया जिस गंगा को उसने अपने पुत्र को दान कर कर दिया था. इस गीत से इस बात की पुष्टि होती है – ” हे गंगा मइया तोहें पियरी चढ़इब, सैयां से करि द मिलनवा हाय राम…” पियरी चढ़ाना एक सांकेतिक चिन्ह है किसी युवती के विवाह में उसके होने वाले पति के मिलन के लिए.

जिस स्त्री का पति घर है उससे मिलन को किसने रोक रखा है ? और जिस स्त्री का पति संघ की दीक्षा लेकर बुद्ध के संघ में शामिल हो चुका है क्या उससे गंगा माता मिलन करा सकती हैं – नहीं. तो फिर गंगा नदी के घाट पर जाकर पियरी चढ़ाने और सैंया से मिलन की याचना करने का क्या मतलब है; क्या औचित्य है?

यह सिद्ध करता है जिस स्त्री ने अपना पहला पुत्र गंगा को दान कर दिया है या जिस स्त्री का पति धम्म दीक्षा लेकर संघ में शामिल हो गया है उससे घाट पर सैंया से मिलन के विधान के नाम पर उस स्त्री से अनैतिक सम्बन्ध बनाने की प्रथा के अलावा क्या है? अक्सर उस प्रथा में वे स्त्रियां फांसी जाती हैं जिनका पहला पुत्र गंगा दान में बलिदान चढ़ाया जा चुका और उसे पीढ़ी चलाने के लिए अन्य पुत्र को पैदा करने की इच्छा उस पर परिवार द्वारा थोपी गई थी. क्योंकि पुरुष प्रधान समाज में अगली पीढ़ी को चलाने के लिए पुत्रवती होने या न होने के लिए समाज आज भी स्त्री को ही ज़िम्मेदार ठहराता है जिसके कारण नासमझ परिवार की स्त्रियां लंपट कामी साधुओं, सन्यासियों, महंतों, पुजारियों आदि के जाल में आसानी से फंस जाती थीं. समाज की उस प्रथा ने आज भी लंपट साधुओं, संतों, संन्यासियों के जाल में फंसने का अवसर दे दिया है. आशा राम, राम रहीम, नित्यानंद आदि इसी श्रेणी के सन्यासी हैं.

आज भी समाज को इन दुराचारियों से सचेत रखने की ज़रूरत है. ये ईश्वर से मिलन के नाम पर व्यभिचार, बलात्कार और शोषण कर रहे हैं जबकि स्टीफन हॉकिंग के सामने जाकर ईश्वर को सिद्ध करने की हिम्मत किसी भी भक्त की नहीं हुई क्योंकि तथाकथित ईश्वर के भक्तों में इतनी शक्ति नहीं है कि वे अपने काल्पनिक ईश्वर को स्टीफन हॉकिंग से मिला सकें; प्रकट करा सकें; साक्षात्कार करा सकें. जबकि स्टीफन हॉकिंग अपनी सभी संपत्ति उसे दान करने के लिए भी तैयार तैयार थे. स्टीफन हॉकिंग की उस इच्छा को ईश्वर की पैरवी करने वाले भक्त पूरा नहीं कर सके क्योंकि झूठ के पैर नहीं होते.

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