96 साल पहले आज ही के दिन (9 अगस्त) डाली गई थी काकोरी ट्रेन डकैती. बात सन 1925 की है. आठ डाउन पैसेंजर गाड़ी के दूसरे दर्जे के डिब्बे में अशफ़ाकउल्ला, शतीद्रनाथ बख़्शी और राजेंद्र लाहिड़ी सवार हुये. उन्हें ये काम सौंपा गया था कि वो निश्चित स्थान पर ज़ंजीर खींच कर ट्रेन खड़ी करवा दें.
बाकी सात लोग जिसमें रामप्रसाद बिस्मिल, केशव चक्रवर्ती, मुरारी लाल, मुकुन्दी लाल, बनवारी लाल, मन्मथ नाथ गुप्त और चंद्रशेखर आज़ाद उसी ट्रेन के तीसरे दर्जे के डिब्बे में सवार थे. उनमें से कुछ को गार्ड और ड्राइवर को पकड़ने को काम सौंपा गया था जबकि बाकी लोगों को गाड़ी के दोनों ओर पहरा देने और ख़ज़ाना लूटने की ज़िम्मेदारी दी गई थी.
जिस समय गाड़ी की ज़ंजीर खींची गई, तब अंधेरा हो चला था. गार्ड और ड्राइवर को पेट के बल लिटा दिया गया और तिजोरी को ट्रेन से नीचे गिरा दिया गया. तिजोरी काफ़ी वज़नी और मज़बूत थी. हथौड़ों और छेनी से उसे तोड़ा जाने लगा. अशफ़ाकउल्ला के हथौड़ै की मार से ये मज़बूत तिजोरी भी मुंह खोलकर अंदर का ख़ज़ाना उगलने के लिए विवश हो गई.
तिजोरी में नक़द रुपये 4601 थी, जो उस वक्त के हिसाब से बहुत थे इसलिए उनको गठरी में बांधा गया और क्रांतिकारियों ने पैदल ही लखनऊ की राह पकड़ी. शहर में घुसते ही ख़ज़ाना सुरक्षित स्थान पर रख दिया गया. उन लोगों के ठहरने के जो ठिकाने पहले से तय थे, वो वहाँ चले गए. लेकिन चंद्रशेखर आज़ाद ने वो रात एक पार्क में ही बैठकर बिता दी.
सुबह होते ही ‘इंडियन टेली टेलीग्राफ़’ अख़बार बेचने वाला चिल्लाता सुना गया कि ‘काकोरी के पास सनसनीख़ेज डकैती.’ इस ट्रेन डकैती से ब्रिटिश शासन बौखला गया. गुप्तचर विभाग के लोग सजग होकर उन सभी लोगों पर निगरानी रखने लगे जिनपर क्रांतिकारी होने का शक़ था.
47 दिन बाद यानी 26 सितंबर, 1925 को उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्थानों पर छापे मार कर गिरफ्तारियां की गईं. इनमें से चार लोगों को फांसी पर चढ़ा दिया गया. चार को कालापानी की उम्रकैद की सजा सुनाई गई और सत्रह को लंबी कैद की सजा मिली.
अंग्रेजों की नजर में उस वक्त यह घटनाक्रम हुकूमत से टक्कर लेने का खुला एलान था. उस वक्त जब ब्रितानी शासकों और उनके संसाधनों तक सीधी पहुंच बनाना आसान नहीं था, तब अंग्रेजी शासकों की रेल को बिना स्टापेज वाले स्थान पर रोककर उसमें मौजूद कैश लूटना तत्कालीन शासकों के लिए बड़ी चुनौती थी, इसीलिए अंग्रेजी हुकूमत ने इसके खिलाफ युद्ध स्तर पर कार्रवाई की थी.
सत्ता के खिलाफ केवल सत्ता ही खड़ा हो सकता है. काकोरी कांड के जरिए देश के क्रांतिकारी ताकतों ने अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ एक नई सत्ता की उपस्थिति का आगाज किया. यह ठीक उसी प्रकार अंग्रेजी सत्ता को हिलाकर रख दिया था, जिस प्रकार अंग्रेजी हुकूमत के भारतीय प्रतिनिधि भारत सरकार को सशस्त्र नक्सलबाडी किसान विद्रोह ने थर्रा दिया था.
काकोरी कांड की चुनौती से निपटने की कोशिश में अंग्रेजी हुकूमत ने जिस प्रकार दमन का सहारा लिया उससे काकोरी कांड अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एक प्रतीक बनकर नौजवान हृदयों को ही न केवल उद्वेलित किया अपितु समूचे देश में साहस का संचार कर दिया, यह ठीक उसी तरह हुआ जैसे नक्सलबाड़ी सशस्त्र किसान विद्रोह के दमन ने नक्सलबाड़ी को ‘वसंत का बज्रनाद’ बना दिया, जिसकी चिंगारी आज सीपीआई माओवादी के रुप में समूचे देश में फैलकर पूंजीवादी सत्ता के प्रतिनिधि भारत सरकार के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह की आग जलाये हुए है.
आज काकोरी कांड का महत्व इस बात में भी निहित है कि जिस प्रकार काकोरी से निकली चिंगारी ने अंग्रेजी हुकूमत को यहां से भागने पर विवश होना कर दिया था, उसी प्रकार नक्सलबाडी से उठी लाल चिंगारी भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था को भी खत्म कर देगी.
(रेहान फजल के एक आलेख के साथ)
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