हाल में प्रमुख समाचार पत्रों में योगी सरकार द्वारा दिये गए विज्ञापनों में 4.5 लाख सरकारी नौकरी देने का दावा किया गया है. 4.5 लाख सरकारी नौकरी (नियमित) के इस दावे के चंद रोज पहले तक दिल्ली समेत देश भर में 4 लाख सरकारी नौकरी के प्रोपेगैंडा के लिए बड़े बड़े होल्डिंग लगाये जा रहे थे. हैरत की बात है कि इन चंद दिनों के अंतराल में 50 हजार नौकरी प्रचार में जुड़ गई जबकि 69,000 शिक्षक भर्ती में शेष बचे 6 हजार पदों पर नियुक्ति के अलावा और कोई नियुक्ति पत्र भी इस अवधि में नहीं दिया गया.
इसके पूर्व अमर उजाला के लखनऊ संस्करण में 24 जुलाई 2021 को प्रकाशित अधिकृत सरकारी आंकड़ों के अनुसार 3.44 लाख नियमित नौकरी, 45,546 संविदा और 2,73,657 आउटसोर्सिंग में नौकरी का दावा किया गया था. सरकारी नौकरी व रोजगार के दावों में भी पर्याप्त विरोधाभास देखा जा सकता है.
भाजपा ने विधानसभा चुनाव में सभी रिक्त पदों के बैकलॉग को भरने का वादा किया था लेकिन सबसे पहले योगी सरकार ने बैकलॉग को भरने के लिए कार्यवाही के बजाय पहला काम चतुर्थ श्रेणी के तकरीबन 3.5 लाख स्वीकृत पद, प्राथमिक विद्यालयों के प्रधानाचार्य के पदों समेत अन्य हजारों पदों व विभागों को अनुपयोगी बताते खत्म कर दिया.
दरअसल मोटे तौर पर आंकलन है कि 1.37 लाख शिक्षकों की बर्खास्तगी व रिटायरमेंट से रिक्त हुए पदों को भी संभवतः नहीं भरा गया है, यही वजह है कि 5 लाख से ज्यादा रिक्त पदों का बैकलॉग यथावत है. स्थिति यह है कि तमाम प्रमुख विभागों में 30-70 फीसद तक पद रिक्त हैं.
आउटसोर्सिंग में 2.73 लाख पदों पर भर्ती करने की बात का दावा तो सरासर झूठ है.
आउटसोर्सिंग कंपनियों में किसी तरह की नयी भर्ती नहीं हुई है. संविदा के तहत रखे गए जो संविदा मजदूर दशकों से संविदाकार के अंतर्गत नियोजित थे, अब उन्हीं का नियोजन आउटसोर्सिंग कंपनियों के तहत हो गया, सरकार ने इन्हीं आउटसोर्सिंग कंपनियों में नियोजित मजदूरों की सर्वे कर दावा कर दिया कि 2.73 हजार आउटसोर्सिंग कंपनियों में नौकरी दी गई है.
इसी तरह 74 हजार पदों पर कार्यवाही तेज होने का जो प्रोपेगैंडा है वह भर्तियां तो वास्तव में अस्तित्व में ही नहीं है, महज भर्तियों का प्रस्ताव है, न कि विज्ञापन जारी हुए हैं. इसी तरह के प्रस्ताव 52 हजार पुलिस भर्ती, 97 हजार प्राथमिक शिक्षक भर्ती, तकनीकी शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों के पदों से लेकर तमाम भर्तियों सालों से हैं.
प्रदेश में स्थिति यह है कि 5-10 साल पुरानी भर्तियां अधर में हैं. किसी भर्ती में जितने पदों को विज्ञापित किया गया है उन्हें भी भरा नहीं जा रहा है. यहां तक कि बीपीएड के 32 हजार, यूपीपीसीएल में तकनीशियन के विज्ञापन को ही रद्द कर दिया गया.
2001 से ही कंप्यूटर विषय के अध्ययन के बाद भी यूपी बोर्ड अंर्तगत राजकीय विद्यालयों में महज 7 शिक्षकों की नियुक्ति की गई है जबकि जरूरत कम से कम 10 हजार शिक्षकों की है. इसी तरह कोरोना काल में 181 वूमेन हेल्पलाइन, महिला सामाख्या आदि सेवाओं को खत्म कर महिलाओं व अन्य लोगों का रोजगार छीना गया.
मनरेगा योजना से डेढ़ करोड़ लोगों को रोजगार देने की आंकड़ेबाजी व प्रोपैगैंडा का सच
योगी सरकार बड़े बड़े होर्डिंग्स लगाने से लेकर अखबारों में विज्ञापन के माध्यम से दिल्ली समेत देश भर में रोजगार मिशन नंबर वन का प्रोपेगैंडा कर उत्तर प्रदेश सरकार का सफल रोजगार मॉडल तस्वीर पेश करने की कोशिश की जा रही है. प्रदेश में करीब साढ़े चार करोड़ लोगों को रोजगार देने यानी नया रोजगार सृजन का दावा व प्रचार किया जा रहा है, उसमें केंद्र सरकार द्वारा संचालित मनरेगा योजना में डेढ़ करोड़ लोगों को मिला रोजगार शामिल बताया जा रहा है.
पहली बात तो यह मनरेगा जैसी तमाम सरकारी योजनाएं पहले से ही संचालित है. उत्तर प्रदेश में विगत 4.5 सालों में मनरेगा समेत अन्य किसी भी सरकारी योजना में ऐसी कोई भी नयी बात नहीं है जो नोट करने लायक हो. इन सरकारी योजनाओं में मिलने वाली दिहाड़ी मजदूरी जिसकी साल भर गारंटी भी नहीं है, योगी सरकार उसे भी रोजगार की श्रेणी में गिना कर अपनी उपलब्धियों का प्रोपेगैंडा कर रही है. जबकि इन सभी सरकारी योजनाओं को मिलाकर साल भर में गरीबों को इतने दिन भी दिहाड़ी मजदूरी नहीं मिलती कि उनका गुजारा हो सके. इसमें सबसे बड़ी योजना मनरेगा है. इसके विश्लेषण से आप वस्तु स्थिति का सही अंदाजा लगा सकते हैं.
24 मार्च 2020 में लाक डाऊन के बाद गरीबों के सामने भुखमरी की विकट समस्या पैदा हुई, बड़े पैमाने पर प्रवासी मजदूर गांवों में आ गए. जरूरत थी कि सभी गरीबों व जरूरतमंदों को काम दिया जाता लेकिन मनरेगा जैसी योजना में जिसमें न्यूनतम 100 दिन की गारंटी का जो कानूनी प्रावधान है उसे भी उत्तर प्रदेश सरकार ने लागू नहीं किया. जिन डेढ़ करोड़ लोगों को मनरेगा में रोजगार देने के सरकारी प्रचार में पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है, इन डेढ़ करोड़ लोगों को मनरेगा औसतन 30 दिन से कम काम मिला है. जिस मजदूर ने साल में एक दिन भी काम किया है, वह भी डेढ़ करोड़ के आंकड़ों में शामिल है.
इसी तरह के भ्रामक व झूठ पर आधारित आंकड़े इनकी अन्य उपलब्धियों के भी हैं. हद तो यह है कि इन डेढ़ करोड़ लोगों को दी गई दिहाड़ी के एवज में महज 9 हजार करोड़ खर्च किया गया है. संभवतः सरकार कहीं इससे ज्यादा रोजगार मिशन नंबर वन के प्रोपेगैंडा में खर्च कर रही है.
इस तरह स्पष्ट है कि डेढ़ करोड़ लोगों को मनरेगा योजना में रोजगार देने का प्रचार आंकड़ेबाजी के सिवाय कुछ नहीं है. इसी तरह के रोजगार का प्रोपैगेंडा कर योगी सरकार को रोजगार सृजन में अव्वल बताया जा रहा है. योगी सरकार रोजगार व विकास के दावों का जिस तरह सरकारी मशीनरी व संसाधनों का दुरुपयोग कर देश भर में प्रचार कर रही है, उसकी असलियत को युवा मंच तथ्यों सहित प्रस्तुत कर पर्दाफाश कर रहा है.
दरअसल सच्चाई यह है कि प्रदेश में भी बेकारी की भयावह स्थिति है. यही वजह है कि 5-6 हजार रुपए मानदेय की कैजुअल नौकरियों के लिए एमटेक-बीटेक, एमबीए और पीएचडी डिग्री होल्डर बड़े पैमाने पर आवेदन कर रहे हैं. हाल में ही सीएमआईई की रिपोर्ट आयी है कि जुलाई महीने में 32 लाख सैलरीड क्लास (वेतनभोगी) की नौकरी चली गई. जाहिरा तौर पर कैजुअल जाब कहीं इससे ज्यादा खत्म हुए होंगे.
एमएसएमई सेक्टर में 2 करोड़ रोजगार सृजन का सच
योगी सरकार द्वारा मिशन रोजगार के जारी प्रोपेगैंडा में एमएसएमई सेक्टर में 2 करोड़ रोजगार सृजन का दावा किया जा रहा है. इसके लिए बाकायदा बड़ीबड़ी होर्डिंग्स से लेकर अखबारों में विज्ञापन दिये गए हैं. इस दावे का सच जानने के लिए सरकार के मंत्रियों व सचिवों के बयानों को देखते हैं.
हिंदुस्तान टाईम्स दिल्ली के ऑनलाईन संस्करण दिनांक 15 जुलाई 2021 को उत्तर प्रदेश सरकार में एमएसएमई सेक्टर के मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह के बयान के अनुसार 2017-18 से अब तक 4 लाख करोड़ का निवेश हुआ है, जिसमें 2.5 लाख करोड़ लोन शामिल है और इस सेक्टर से 2.6 करोड़ लोगों को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रोजगार के अवसर प्राप्त हैं.
इस बयान से यह स्पष्ट नहीं है कि इन 2.6 करोड़ लोगों में से कितना नया रोजगार सृजन है और उसमें कितने लोगों को इन ईकाइयों में प्रत्यक्ष रोजगार मिला है और कितने लोगों को अप्रत्यक्ष रूप से मिला है ?
दरअसल कोरोना की पहली लहर के बाद अन्य औद्योगिक ईकाइयों की तरह इन ईकाइयों में उत्पादन ठप्प हो गया है, उसके बाद सरकार का दावा है कि उसके लोन पैकेज से इन ईकाइयों का पुनर्जीवित किया जा सका, जिससे 2 करोड़ लोगों को रोजगार के अवसर प्राप्त हुए. लेकिन इसमें नया रोजगार सृजन का प्रोपेगैंडा तो पूरी तरह से भ्रामक और झूठा है क्योंकि जब तक सरकार यह आंकड़ा पेश न करे कि इन ईकाइयों में 2017 में कितने लोगों को रोजगार मिला हुआ था और उसमें कितनी बढ़ोतरी हुई है, तब तक यह स्पष्ट नहीं हो सकता कि किसी सेक्टर में रोजगार सृजन हुआ है कि रोजगार के अवसरों में गिरावट दर्ज हुई है ?
जहां तक इस सेक्टर की जमीनी हकीकत है, यह सेक्टर बर्बादी की ओर अग्रसर है. पहले नोटबंदी जीएसटी की मार से उबरा नहीं था कि कोरोना के बाद लाक डाऊन से पूरी तरह तबाह हो गया है. कहीं से भी सरकार की ओर से अधिकृत आंकड़े नहीं हैं कि किस सेक्टर का उत्पादन और जीडीपी में हिस्सा बढ़ा है ?
राष्ट्रीय स्तर पर करीब 7 करोड़ लोग इस सेक्टर में लगे हैं, उसमें 14 फीसद उत्तर प्रदेश का है. लिहाजा यह संख्या तकरीबन एक करोड़ होती है. लेकिन यह एक करोड़ की संख्या भी नया रोजगार सृजन कतई नहीं है बल्कि पहले से ही लोग इसमें लगे हैं. रिपोर्ट यह भी है कि पहले से भी जो लोग इसमें काम कर रहे हैं उनके वेतन में भी गिरावट आयी है. इस तरह एमएसएमई सेक्टर में भी 2 करोड़ रोजगार सृजन का प्रोपेगैंडा पूरी तरह से भ्रामक और झूठ पर आधारित है.
- राजेश सचान, संयोजक युवा मंच
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