इतिहास हर युग प्रवर्तक नेता को तयशुदा खास भूमिका सौंपता है. तिलक भी उसका अपवाद नहीं हैं. उनके हिन्दुइज़्म को संघ परिवार के प्रचार की तरह नहीं समझा जाना चाहिए. जिन हिन्दुओं को एक संगठित कौम और फिर राष्ट्र के रूप में खड़ा करने की इनकी जिम्मेदारी थी, उनकी कोई समकालीन भाषा और समझ भी कहां थी. यह मकसद तिलक का था.
कनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़
गणेष उत्सव तिलक ने 1893 में शुरू किए. इसका मुख्य मकसद था हिन्दुओं में निडरता तथा संघर्ष की ताकत पैदा करना. 1895 में तिलक ने शिवाजी उत्सव की शुरुआत की. शिवाजी उत्सव और गणेश उत्सव की तिलक की परम्परा ने राष्ट्रीय आन्दोलन की बुनियाद उन्नीसवीं सदी में डाली.
तिलक ने राजनीति को धर्मनिरपेक्षता के आधार पर खड़ा करने के आदर्श को मान्यता दी थी. तिलक सनातनी हिन्दू थे. उन्हें हिन्दू धर्म पर गर्व था. उनके मन में हिन्दू धर्म की व्यापक धारणा थी. उन्हें भारत के अतीत से गहरा प्यार था. 3 जनवरी 1908 को भारत धर्म महामंडल में उन्हांेंने कहा था, ‘पश्चिम की मनोवैज्ञानिक शोध संस्थाएं तथा जगदीश चंद्र बोस के अनुसन्धान के विचार हिन्दू धर्म के आधारभूत सिद्धान्तों की पुष्टि कर रहे हैं.’ तिलक के अनुसार हिन्दू वह है जो वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार करता है. ‘दी इन्डियन अनरेस्ट’ के लेखक वेलेन्टाइन शिरोल बुद्धिजीवियों के उस गिरोह के सरगना रहे हैं, जिन्हें तिलक से बेसाख्ता परहेज रहा है.
इसमें शक नहीं कि तिलक परम्परावादी हिन्दू थे. 1880 से 1920 के हिन्दुस्तान के इस सबसे बड़े नेता को जनमानस की अगुआई राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए करनी थी. वह अपने समय के सामाजिक प्रतिमानों से बाखबर थे. तिलक इसलिए सामाजिक सुधार के मामले में धीरे धीरे अर्थात क्रमिक बौद्धिक विकास के पक्ष में थे. तिलक वेदान्ती तथा अद्वैतवादी थे. तिलक लेकिन संकीर्ण हिन्दू नहीं थे.
‘रेनासेन्ट इंडिया’ में जकरिया ने लिखा है ‘(तिलक) हिन्दुओं की मुस्लिम-विरोधी बदले की भावना के प्रतिनिधि थे.’ (पृष्ठ-121). पावेल प्राइस के अनुसार ‘मुस्लिम लीग भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जवाब थी और ज़रूरत भी थी क्योंकि तिलक की असहिष्णुता से अलगाव की जिस भावना को बल मिला था, वह स्वशासन की सम्भावना से और भी अधिक तीव्र हो गई थी.’ रजनी पामदत्त ने ‘इंडिया टुडे’ में तिलक और अरविन्द को दोषी ठहराया है.
तिलक 1856 में जन्मे थे. कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई. तब तिलक तीसवें बरस में थे. धर्मनिरपेक्षता से संबंधित सवालों को लेकर तिलक में गहरी जिज्ञासा, अध्यवसाय और समझ है. उन्होंने इसी सिलसिले में स्वामी विवेकानन्द से भी बातचीत की थी. उन्नीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध अपने टूटते बनते मूल्यों के बावजूद पर्दाप्रथा, सतीप्रथा, विधवा विवाह निषेध, बाल विवाह, छुआछूत, अशिक्षा, धर्मांतरण, गुलामी जैसी बीमारियों का भी समय रहा है. खुद तिलक का बाल विवाह हुआ था.
चरित्र निर्माण के लिए तिलक धार्मिक शिक्षा दिए जाने के पक्ष में थे. एक भाषण में कहा भी था, ‘इन स्कूलों में हिन्दुओं को हिन्दू धर्म तथा मुसलमानों को इस्लाम की शिक्षा दी जाएगी. वहां यह भी सिखाया जाएगा कि मनुष्य को दूसरे धर्मों के भेदों को भूलना और क्षमा करना चाहिए.’
तिलक को परम्परावाद का कट्टर समर्थक समझना ठीक नहीं है. दिसम्बर 1890 में कलकत्ता में हुए चौथे सामाजिक सम्मेलन में तिलक ने आर.एन. मुधोलकर के बाल विवाह के खिलाफ रखे गए प्रस्ताव का समर्थन किया था. 1891 में नागपुर में जी.एस. खापर्डे की अध्यक्षता में हुए पांचवें सामाजिक सम्मेलन में तिलक ने विधवा विवाह का समर्थन करते हुए यह भी कहा कि समर्थकों को अपनी सचाई दिखाने के लिए विधवा विवाह सम्बन्धी वैवाहिक भोजों में भी भाग लेना चाहिए.
4 अक्टूबर 1890 का दिन पूना के सामाजिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण दिन बन गया। उस दिन तिलक, रानाडे तथा गोखले सहित 42 व्यक्तियों ने एक ईसाई मिशनरी के घर पर चाय पी थी। इस विषय को लेकर उनके खिलाफ शंकराचार्य के धार्मिक न्यायालय में एक मुकदमा भी दायर किया गया था।
तिलक छुआछूत के विरुद्ध थे. गणेश उत्सव के जुलूसों में नीची जातियों के लोगों को ऊंची जातियों के सदस्यों के साथ अपनी अपनी गणेश प्रतिमाएं लेकर चलने की आज्ञा थी. 1918 में लोनावाला में तिलक ने डिप्रेस्ड क्लास मिशन के वी.आर. शिन्दे के साथ गहन विचार विमर्श किया और बम्बई सम्मेलन में छुआछूत के खात्मे का आह्वान किया. उन्होंने यहां तक कहा, ‘यदि ईश्वर भी छुआछूत को बर्दाश्त करने लगे तो मैं ऐसे ईश्वर को कतई मान्यता नहीं दूंगा.’ अपनी मृत्यु के कुछ पहले 1 जुलाई 1920 में तिलक दलित वर्गों के द्वारा आयोजित एक कीर्तन समारोह में शामिल हुए.
जिन्ना, हसन, इमाम और एम.ए. अन्सारी ने तिलक की राष्ट्रवादी भावनाओं और समझौते की पहल की सराहना की है. उनके कारण 1916 का लखनऊ समझौता हुआ. जिन्ना ने तिलक के मुकदमे की पैरवी भी की है. शौकत अली तथा हसरत मोहानी तिलक को अपना राजनीतिक गुरु मानते रहे हैं. शौकत अली ने लिखा है, ‘मैं पुनः सौवीं बार कहना चाहता हूं कि मुहम्मद अली और मैं तिलक की पार्टी के थे और आज भी हैं.’
बकौल हसरत मोहानी उन्होंने कम उम्र में ही तिलक को अपने लिए आदर्श नेता मान लिया था. उन्होंने तिलक को भारत के सभी नेताओं से हर दृष्टि से बेहतर माना था. तिलक ने यह कहा था कि यदि बहुसंख्यक मुसलमान उनका साथ दें तो वे खिलाफत आन्दोलन का समर्थन करने को तैयार हो सकते हैं. सच है तिलक भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन को हिन्दू धर्म के सशक्त सांस्कृतिक और धार्मिक पुनरुत्थान के द्वारा ताकत देना चाहते थे. आधुनिक परिभाषा की धर्मनिरपेक्षता के चश्मे से देखने पर तिरंगे के बदले भगवा रंग से रंगा देखना अनावश्यक बौद्धिक कसरत है.
इतिहास हर युग प्रवर्तक नेता को तयशुदा खास भूमिका सौंपता है. तिलक भी उसका अपवाद नहीं हैं. उनके हिन्दुइज़्म को संघ परिवार के प्रचार की तरह नहीं समझा जाना चाहिए. जिन हिन्दुओं को एक संगठित कौम और फिर राष्ट्र के रूप में खड़ा करने की इनकी जिम्मेदारी थी, उनकी कोई समकालीन भाषा और समझ भी कहां थी. यह मकसद तिलक का था.
आलोचकों के अनुसार भी तिलक के विचारों में धीरे धीरे सकारात्मक परिष्कार होता गया. विख्यात इतिहासकार विपनचन्द्र लिखते हैं कि गैर ब्राह्मण प्रतिनिधित्व तथा छुआछूत से जुड़े सवालों पर तिलक का दृष्टिकोण कतई जातिवादी नहीं था. धीरे धीरे तिलक के राजनीतिक आह्वान में धार्मिक आग्रह की कमी भी होती गई थी. तिलक ने यहां तक कहा था, ‘वह जो भारत के लोगों के हित में आचरण करता है – चाहे वह मुसलमान या अंग्रेज़ ही क्यों न हो-विदेशी नहीं है. विदेशीपन का गोरी या काली चमड़ी या धर्म से कोई ताल्लुक नहीं है.’
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