भारत और पाकिस्तान दोनों एक साथ आजाद हुए थे, फर्क बस इतना था कि यहां नेहरू थे वहां नहीं. आज भाजपा में भी नेहरू को याद किया जा रहा है. इसीलिए आज जो चाहे नेहरू को कुछ भी कह दे मगर जब वह अपने दिल पर हाथ रखकर सोचता है तो उसे अहसास होता है कि नेहरू ने देश को खोखला नहीं होने दिया. प्रेम, भाईचारे और समावेशी विचार से अंदर से मजबूत बनाया इसीलिए आज राजनीति, सरकार के उच्चतम स्तर के हमलों के बाद भी देश लड़खड़ाता नहीं है.
शकील अख्तर
पता नहीं फहमीदा रियाज आज ये नज्म लिखती तो क्या लिखती कि ‘दोस्त तुम तो हमसे भी तेज निकले. बहुत सही जा रहे हो.’ फहमीदा रियाज अभी नहीं रही. दो- ढाई साल हुए होंगे. पाकिस्तान की शायरा थी. हिन्दुस्तान से बहुत मोहब्बत थी. खूब आती रहती थी. वहां हमेशा सरकार और कट्टरपंथियों के निशाने पर रहती थी. कई साल जेलों में गुजारे. उनकी एक बहुत लोकप्रिय नज्म है –
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
अब तक कहां छिपे थे भाई
वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गंवाई
अखिर पहुंची द्वार तुम्हारे
अरे बधाई, बहुत बधाई
लंबी नज्म है. पूरी भारत को संबोधित. धार्मिक कट्टरपन ने कैसा विनाश किया बताते हुए कहती हैं कि क्या करें एक ही कौम हैं दोनों (इसे ही अब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने एक ही डीएनए कहा है) ‘कुछ भी नहीं पड़ोस से सीखा.’ बहुत दुःख, तकलीफ के साथ लिखा है कि तुम भी वहीं पहुंच रहे हो. हम तो पहले से वहां पर हैं. पहुंच जाओ तो बताना कौन से नरक में हो. ‘चिट्ठी विट्ठी डालते रहना.’
भारत और पाकिस्तान दोनों एक साथ आजाद हुए थे, फर्क बस इतना था कि यहां नेहरू थे वहां नहीं. आज भाजपा में भी नेहरू को याद किया जा रहा है. नितिन गडकरी ने उन्हें आदर्श नेता बताया. भाजपा जो हर बात के लिए नेहरू को दोषी बताती है उन्हें याद करने पर क्यों मजबूर हुई ? शायद इसलिए कि वक्त ने उन्हें दिखाया उनकी पार्टी में तो छोड़िए विश्व में भी पिछले सौ साल में ऐसा नेता कोई पैदा नहीं हुआ जिसने एक नए देश का ऐसा निर्माण किया हो कि जो इतने झंझावतों के बावजूद मजबूती से खड़ा हो.
कांग्रेस भी कोई बहुत ज्यादा नेहरू को याद नहीं करती है, मगर दुनिया में जब भी कोई संकट आता है नेहरू की दूरदर्शिता को याद किया जाता है. ताजा उदाहरण अफगानिस्तान है जो तब तक प्रगतिशील और उदार देश रहा जब तक कि वह नेहरू की गुटनिरपेक्ष नीति पर चलता रहा. उसके बाद जैसे ही वह शीत युद्ध के जाल में फंसा तो वहां की आजादी और संप्रभुता दोनों खत्म हो गई. पहले रूस की सेनाएं वहां आईं, फिर अमेरिका की और अब वह वापस कट्टरवादी तालिबानियों के पास पहुंच गया. तीसरी दुनिया के देशों के लिए नेहरू की गुटनिरपेक्ष नीति कितनी कारगर थी, यह आज सब याद करते हैं.
मगर खैर बात हो रही थी भारत और पाकिस्तान के बीच फर्क की, जिसे बयान करते हुए फहमीदा रियाज कहती हैं कि –
क्या हमने दुर्दशा बनाई
कुछ भी तुमको नजर न आई
तो वह दुर्दशा जो पाकिस्तान की बनी और उससे भारत बच गया, उसके पीछे नेहरू का ही विविधता में एकता का सिद्धांत और मजबूत धर्मनिरपेक्ष आस्था थी. पाकिस्तान एक धार्मिक देश बना और कट्टरपंथियों के हाथों चला गया. धार्मिक कट्टरपंथ ने ही उसकी सारी तरक्की को रोका. जिसे फहमीदा रियाज ने कहा, ‘जाहिलपन के गुन गाना.’ एक तरफ कट्टरपंथ का जाहिलपन और दूसरी तरफ तरफ नेहरू का वैज्ञानिक मिज़ाज.
भारत में बड़े बाँध बने, जिन्हें आधुनिक तीर्थ कहने की हिम्मत नेहरू की ही थी. आईआईटी, एम्स, भिलाई स्टील प्लांट, बीएचईएल की देश भर में फैक्ट्रियां, नेहरू ने एक आधुनिक भारत खड़ा कर दिया. और इसे कायम रखने के लिए देश की जो सबसे बड़ी जरूरत थी शांति और सद्भाव उसका माहौल बनाया. शांति और सद्भाव के माहौल का मतलब केवल हिन्दु मुसलमान भाईचारा ही नहीं था. वह तो था, जो उस समय 1947 के घावों की वजह से बहुत जरूरी था मगर उसके साथ राजनीति में, देश के वर्क कल्चर (कार्य संस्कृति) में आत्मविश्वास और परस्पर सहयोग भाव बहुत जरूरी था, इसे कायम करना नेहरू की बहुत बड़ी उपलब्धि थी.
भारत जब अंदर से एक हुआ तभी विदेशों में उसकी उसकी इज्जत हुई. अफ्रीकी, एशियाई देश गुटनिरपेक्ष आंदोलन के साथ आए. सोचिए आज से 60- 65 साल पहले जब अमेरिका और रूस दूसरा विश्व युद्ध जीतकर खुद को महा योद्धा समझ रहे थे, हथियार से लेकर आर्थिक सारी ताकत उनके पास थी, तब एक नया आजाद हुआ देश इन दोनों के मुकाबले एक तीसरी शक्ति बन रहा था. भारत का नेतृत्व करते हुए नेहरू दुनिया के सबसे ज्यादा देशों को इन दोनों खेमों में जाने से बचाते हुए विश्व शांति की बात कर रहे थे. शीत युद्ध के उस दौर में नेहरू की भूमिका ने भारत को जो सम्मान दिलाया, वह आज भी कायम है इसीलिए तालिबान पर अभी तक कोई स्टेंड नहीं लिए जाने पर देश के साथ अन्तरराष्ट्रीय जगत में भी आश्चर्य हो रहा है.
अफगानिस्तान में तालिबान के आने का असर भारत पर भी पड़ेगा, खासतौर से कश्मीर में. पाकिस्तान अभी तक वहां अपने लोगों की घुसपैठ करवा रहा था. अब तालिबानियों की भी करवा सकता है. इस समय उत्तरी कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर बर्फ पिघली हुई है. घुसपैठ के लिए यह समय सर्वोत्तम माना जाता है. सुरक्षा बल तो वहां अपनी भूमिका निभाएंगे हालांकि आजकल तो भक्त टीवी चैनल घुसपैठ को लिए भी सेना को सीधे जिम्मेदार बताते हुए आरोप लगा देते हैं कि यह सेना की गलती से घुसे सरकार का इसमें क्या दोष है ? अभी चीन के सैनिकों की घुसपैठ पर यही कहा गया. इससे पहले कभी रक्षा मामलों में इस तरह सेना और सुरक्षा बलों पर दोषारोपण नहीं हुआ मगर आजकल तो मोदी सरकार की हर कमी, गलती को दुरुस्त करने का ठेका गोदी मीडिया लिए हुए है.
गरीब की पिटाई होती है. भीड़ से कहा जाता है कि एक एक हाथ सब मारो इसको और मीडिया जस्टिफाई करने के लिए डिबेटें करता है कि चुड़ी वाले का कसूर यह था. इसी तरह कानपुर में रिक्शे वाले को उसकी मासूम बच्ची के साथ मारने के वीडियो के बाद भी उसी पर आरोप लगाकर हिंसा को उचित ठहराने की कोशिशें हुईं थी.
इसी नफरत की आग को नेहरू ने रोका था. 1947 में बहुत सारी चुनौतियां थी. मगर उन सबसे निपटने के लिए जरूरी था कि देश एक रहे और वह काम नेहरू ने किया. इसीलिए आज जो चाहे नेहरू को कुछ भी कह दे मगर जब वह अपने दिल पर हाथ रखकर सोचता है तो उसे अहसास होता है कि नेहरू ने देश को खोखला नहीं होने दिया. प्रेम, भाईचारे और समावेशी विचार से अंदर से मजबूत बनाया इसीलिए आज राजनीति, सरकार के उच्चतम स्तर के हमलों के बाद भी देश लड़खड़ाता नहीं है.
‘कुछ बात है कि हस्ती कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’ और इसमें सबसे मजेदार बात यह है कि इस बार दुश्मन बाहरी जमाना नहीं है. अन्दर के और इंस्टिट्यूश्नल (संस्थागत) लोग हैं. न्याय और कानून व्यवस्था सवालों के घेरे में है. मीडिया पूरी तरह डरा हुआ और इशारों पर काम कर रहा है. ऐसे में एक अव्यक्त चेतना ही है जो कभी यहां कभी वहां जाग जाती है और प्रतिरोध के कुछ स्वर गूंज जाते हैं. शांति के लिए नोबल पुरस्कार पाने वाले मशहूर वैज्ञानिक नार्मन बोरोलाग ने इसे कहा था भारत के जनजीवन का सामान्य सहज बोध, वाकई बहुत सही बात कही थी. देश में जब सब बड़ी और संस्थागत ताकतें खामोश हो जाती हैं तो जनता के बीच से हर बार कुछ नए समूह निकलते हैं और वे ही उम्मीद के चिराग बनते हैं.
फहमीदा रियाज कट्टरपंथ से अपने देश की दुर्दशा देखते, उससे लड़ते और भारत को सावधान करते हुए चली गईं. भारत भी उस रास्ते पर तेज जा रहा है मगर उसका सहज बोध (कामन सेंस) इसे रोकेगा. राजनीति से भी चाहे वह भाजपा की ही क्यों न हो, जैसा कि उसमें से ही गडकरी बीच-बीच में बोल रहे हैं या न्यायपालिका जहां से अब थोड़ी आशा की किरन चमकना शुरू हुई है या मिडिया को वह हिस्सा जिसमें कुछ अख़बार या एकाध न्यूज चैनल आते हैं या ब्युरोक्रेट (कार्यपालिका) जिसमें भारी बैचेनी है. कोई न कोई या थोड़े थोड़े सब, कहीं ने कहीं इस दुर्गति को रोकेंगे. कभी खुद को बचाते हुए तो कभी बिल्कुल सामने खड़े होकर खुली चुनौती देते हुए. अंत हर चीज का होता है और जब अति हो जाए तो बहुत जल्द.
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