उच्चतम न्यायालय के चीफ जस्टिस एनवी रामना ने बहुत मौलिक बात कही है कि न्यायपालिका को हर हालत में विधायिका और कार्यपालिका के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण से बाहर रखना चाहिए. यह बात संविधान सभा में भी उठी थी लेकिन उस वक्त बहुमत ने इसे ठीक नहीं समझा और खारिज किया था.आज यह सवाल उठ खड़ा हुआ है. जिन आधारों पर संविधान सभा ने इस सुझाव को खारिज किया था जो प्रोफ़ेसर के टी शाह ने उठाए थे वे सारे के सारे कारण सुप्रीम कोर्ट के जजों के आचरण के कारण फिर पैदा हो गए हैं कि सरकारों से उनकी नजदीकी बढ़ने से जनता को न्याय नहीं मिल पा रहा है.
जेएनयू की गलियारों से कन्हैया कुमार के सहारे निकली ‘आजादी’ शब्द समूचे देश में गूंज रही है. विगत सात वर्षों से देश की जनता की सर्वोच्च विश्वास का आधार सुप्रीम कोर्ट केन्द्र की मोदी सरकार का पालतू कुत्ता बनकर रह गया था. कहना न होगा कि जज लोया की हत्या न्यायिक इतिहास में खुद सुप्रीम कोर्ट के आंगन में भय की तरह पसर गया और देश के तमाम जजों के लिए एक गंभीर चेतावनी छोड़ गया कि अगर मोदी-शाह के रास्ते में आये तो ‘लोया’ कर दिये जायेंगे. जिसके बाद ही सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों का प्रेस काम्फ्रेंस हुआ, जो भारत के न्याययिक इतिहास में न केवल अभूतपूर्व ही था, अपितु इस बात की गंभीर चेतावनी भी थी कि सुप्रीम कोर्ट केन्द्र की मोदी सरकार का पालतू कुत्ता बन गया है, देश चाहे तो इसे बचा ले अन्यथा लोकतंत्र खतरे में है.
जज लोया की हत्या से सहमे खासकर सुप्रीम कोर्ट के जजों ने केन्द्र की मोदी सरकार के आगे न केवल घुटने ही टेक दिये अपितु मोदी सरकार के इशारे पर निर्लज्ज की भांति नंगा नाचने लगे. अब जब इजरायली पैगासस स्पाईवेयर के जरिये सुप्रीम कोर्ट के जजों के फोन के जरिये जासूसी के मामलों का खुलासा हुआ तब यह पुख्ता तौर पर तय हो गया कि सुप्रीम कोर्ट के जजों के उपर केवल जज लोया ही उदाहरण नहीं थे, अपितु उनकी जासूसी कर जजों के कमजोर नसों की पड़ताल कर उसका केन्द्र की सत्ता को किसी भी जनाक्रोश से बचाने के लिए भी एक हथियार की तरह इस्तेमाल करने के एक अन्य तरीका भी खुलासा हुआ, जिसमें पूर्व चीफ जज रंगन गोगोई एक उदाहरण बनकर आये.
लोया और पैगासस का मामला केवल खुल चुके कुछ तरीकों का उदाहरण है, इसके अलावा और न जाने कितने तरीकों का इस्तेमाल केन्द्र की मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट समेत अन्य तमाम संस्थाओं को नियंत्रित करने के लिए उठाये होंगे, इसका खुलासा संभवतः भविष्य में कभी हो, तभी इसकी विभत्स चेहरा सामने आयेगा.
ऐसे में देश की तमाम स्वायत्त संस्थाओं के लिए यह एक गंभीर चेतावनी भी है कि कमजोर, पदलोलुप, पददलित और अपनी ही कमजोरियों से पतन की ओर लुढ़क रहे व्यक्ति को किसी भी कीमत पर सुप्रीम कोर्ट समेत किसी भी संस्थाओं पर काबिज होने से रोका जाना, लोकतंत्र की रक्षा के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है.
अब जब सुप्रीम कोर्ट के कई जजों के बीच खासकर भ्रष्ट, चरित्रहीन और पदलोलुप रंजन गोगोई अपनी की कमजोरियों से त्रस्त होकर मोदी सरकार का एक पालतू कुत्ता बन गये थे, और मोदी सरकार को बचाने के लिए नंगे-चट्टे तौर पर एक उदाहरण बन गये हैं, तब ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के नये मुख्य जज एन. वी. रमन्ना जब हास्यास्पद बन चुके सुप्रीम कोर्ट की छवि को सुधारने के लिए कुछ नये कदम उठाने की कोशिश कर रहे हैं तब एक आशा की एक उम्मीद तो दिखती है, पर वह देश के आम जनों के बीच अपनी छवि को कितना सुधार पाती है, यह तो भविष्य की गर्भ में है.
छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता कनक तिवारी जज एन. वी. रमन्ना से काफी उम्मीद रखते हुए सोशल मीडिया पर लिखते हैं, वह इस प्रकार है –
मानसून के मौसम में देश के कई हिस्सों में भारी बारिश के चलते बाढ़ के हालात हैं. राजधानी दिल्ली में सड़कों और घरों में भी पानी भर गया है. बहुतों को नहीं मालूम कि संविधान के पाठ में संसद, सरकार और राष्ट्रपति वगैरह के मुख्यालय के किसी शहर के नाम का उल्लेख नहीं है. अपनी सूझबूझ से डा. अंबेडकर ने लिखा सुप्रीम कोर्ट का मुख्यालय नई दिल्ली में ही होगा. सुगबुगाहट और बौछारों की सुप्रीम कोर्ट पर भी कुछ इनायत तो हो रही है. चीफ जस्टिस एन. वी. रमन्ना कई निर्णयात्मक संकेत दे रहे हैं जिन्हें देख, पढ़, सुनकर लगता है सुप्रीम कोर्ट के धीरे-धीरे ही सही, अच्छे दिन शायद आने वाले हैं. बहुत थोड़े कार्यकाल के लिए जस्टिस उदय ललित चीफ जस्टिस रमन्ना के रिटायर होने के बाद मुख्य न्यायाधीश बन सकते हैं. फिर लगभग दो वर्षों के लिए जस्टिस धनंजय चंद्रचूड सुप्रीम कोर्ट की कमान संभालेंगे तो उम्मीद है न्याय और कानून के इलाके में मौसम सूखा नहीं रहेगा.
जस्टिस प्रमोद दिनकर राव देसाई की स्मृति में 30 जून के महत्वपूर्ण भाषण में जस्टिस रमन्ना ने सुप्रीम कोर्ट को लेकर महत्वपूर्ण और सुधारात्मक बातों का ठोस इशारा किया. वे पहले या इने गिने जजों में होंगे जब उन्होंने बेलाग कहा कि न्यायपालिका को पूरी तौर पर कार्यपालिका और विधायिका के नियंत्रण से अलग किया जाकर स्वायत्त होना चाहिए. यह वाक्य किताबी नस्ल का और अकादेमिक लग सकता है, लेकिन इसके पीछे एक इतिहास कथा मुखर हो उठती है.
प्रारूप समिति के अध्यक्ष डा. अंबेडकर ने सुप्रीम कोर्ट की रचना का अनुच्छेद 103 (अब 124), प्रस्तुत किया, जो अंततः पारित हुआ. वह सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की इबारत में नहीं कहता कि सुप्रीम कोर्ट की देश के जीवन में स्वतंत्र और स्वायत्त उपस्थिति होगी. संविधान सभा के सबसे जागरूक सदस्य प्रो. के. टी. शाह ने मौलिक अवधारणाओं का कोलाज बिखेरा. शाह का कहना था संविधान के प्रावधानों के तहत सुप्रीम कोर्ट को पूरी तौर पर कार्यपालिका और विधायिका से स्वतंत्र निकाय के रूप में स्थापित किया जाए.
शाह ने कहा यह याद रखना चाहिए जजों की भी संसद में बहुत जरूरत नहीं होती, क्योंकि वे वक्त के साथ कदमताल किए बिना लकीर के फकीर बने पुराने फैसलों के आधार पर तकरीरें कर सकते हैं. न ही विधायिका और कार्यपालिका को कानून की व्याख्या करने के जंजाल में पड़ना चाहिए, क्योंकि वह न्यायपालिका का उर्वर खेत है. शाह ने जो कहा था ठीक वही शब्द जस्टिस रमन्ना ने कहे कि न्यायपालिका को विधायिका और कार्यपालिका से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित नहीं होना चाहिए. विधायिका का कर्तव्य है कानून की रचना करे लेकिन उसके बाद न्यायपालिका को अपनी अवधाराणाओं के आकाश में विचरण करने को लेकर किसी समझाइश, प्रतिबंध या सरकारी दबाव की जरूरत नहीं होनी चाहिए.
बहुत प्रमुख सदस्य कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने शाह का विरोध किया. उन्होंने कहा अंगरेजों के वक्त प्रशासनिक और न्यायिक अधिकार एक ही अधिकारी में निहित हो चुके थे और वह प्रथा वर्षों से चल रही थी. शाह की तार्किक अभिव्यंजना को सांसदों के बहुमत की राय में विचलित करने के उद्यम में मुंशी ने कुछ ऐसा कह दिया जिस पर आज देश को पुनर्विचार करना होगा. उन्होंने कहा था हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की स्वायत्तता के लिए काफी है कि जजों को संसद के दो तिहाई बहुमत के बिना महाभियोग के जरिए भी नहीं हटाया जा सकता.
फिर कहा जज रिटायरमेंट के बाद न तो प्रैक्टिस करेंगे और मुझे उम्मीद है वे सरकार से किसी तरह का कोई पद पाने की आकांक्षा नहीं रखेंगे. न्यायिक आजादी के लिए इतनी गारंटियां पर्याप्त हैं. आज मुंशी होते तो वक्त सवाल पूछ सकता कि चीफ जस्टिस सदाशिवम रिटायर होते ही राज्यपाल, चीफ जस्टिस रंजन गोगोई राज्य सभा सदस्य, चीफ जस्टिस एच.एल. दत्तू और जस्टिस अरुण मिश्रा रिटायर होते ही राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष बन तो गए ! कई हाई कोर्ट के जज रिटायर होते ही सुप्रीम कोर्ट में अपने आलीशान दफ्तर स्थापित कर बाल बच्चों समेत प्रैक्टिस भी करने लगते हैं. पहले ही दिन से उनकी प्रैक्टिस कई सरकारी और काॅरपोरेट सहित सरकारी सेक्टरोें के संगठनों की मदद से भी क्यों चल निकलती है ?
ठोस तकरीर की थी शाह के पक्ष में नजीरूद्दीन अहमद ने. उन्होंने याद दिलाया यह आजादी की लड़ाई का पैगाम था कि न्यायपालिका को पूरी तौर पर कार्यपालिका के दबाव से मुक्त करना होगा. जिस मुद्दे को लेकर अंगरेजों से जद्दोजहद होती रही, आजाद होते ही देश को उसी मानसिक गुलामी की तरफ क्यों धकेला जा रहा है ? ऐतिहासिक चेतावनी दी थी नजीरुद्दीन अहमद ने कि कार्यपालिका और न्यायालिका में जुगलबंदी हो गई तो उसका जहरीला असर तो जनता पर होगा. जनता में इस बात से सबसे ज्यादा आत्मविश्वास का सैलाब उमड़ता है कि देश में न्यायपालिका सरकार और संसद द्वारा नियंत्रित नहीं है, वरना तो सब कुछ वही ढाक के तीन पात है. यही तर्क हरिविष्णु कामथ का भी था. शाह का संशोधन फिर भी खारिज हो गया.
संविधान सभा में ऐसे सदस्य बड़ी संख्या में रहे हैं जो वकालत, न्यायिक सेवाओं और राजेरजवाड़ों में बड़े पदों पर होने से अपने प्रशासनिक अनुभवों का निचोड़ तर्कों में गूंथते थे लेकिन उससे लोकतांत्रिक प्रतिबद्धताओं का नुकसान होता रहा है, जो संविधान के मूल अधिकारों के परिच्छेद में धड़कती रहती हैं. इनमें से एक अलादि कृष्णास्वामी अय्यर ने किसी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर की मुद्रा अपनाकर कहा कि न्यायपालिका को पूरी तौर पर आजादी देने से प्रशासनिक क्षेत्र की व्यापकता में तरह तरह के गलत असर हो सकते हैं. उससे पूरे प्रशासन को चलाने में ही रोड़े अटकाए जा सकते हैं.
उन्होंने खुलकर कहा जितनी आजादी दी जा रही है, उसके मद्देनजर पूरी तौर पर आजादी या पूरी तौर पर कार्यपालिका से पृथक्करण जैसे जुमलों से व्यापक तौर पर नुकसान होगा. नजीरुद्दीन अहमद ने यह भी कहा था यदि न्यायपालिका को कार्यपालिका से पूरी तौर पर अलग और स्वायत्त नहीं किया गया तो देश में बौद्धिक भ्रष्टाचार बढे़गा. यही तो लोकतंत्र का 21वीं सदी में दु:खद अनुभव है कि नोटबंदी, राजद्रोह, जीएसटी, कश्मीर, राफेल, कोरोना महामारी, राममंदिर, पेगासस और न जाने कितने मसलों में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका को लेकर सोशल मीडिया में कटाक्षों का कोलाहल चल रहा है.
सुप्रीम कोर्ट की स्वायत्त न्यायिक हैसियत घोषित हो, जो संविधान का मकसद है तो देश में जनविश्वास के थर्मामीटर पर नागरिक आकांक्षाओं को बुखार तो नहीं चढ़ेगा. बहुत विनम्रता, संक्षेप और ठोस शब्दों में जस्टिस रमन्ना ने एक संवैधानिक सुगबुगाहट की ओर इशारा भी कर दिया है तो उसे भी राष्ट्रीय बहस के केन्द्र में क्यों नहीं होना चाहिए ?
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