प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह किसी भी मानवीय संवेदना और जिम्मेदारी से शून्य पशु है. मोदी और अमित शाह हर जवाबदेही से मुक्त है. वह कुत्ते की मौत और क्रिकेटर के अंगूठे की चोट पर दुःख जाहिर कर सकते हैं लेकिन इंसानों की मौत या पीड़ा पर जवान को लकवा मार जाता है. ताजा मिजोरम-असम सीमा विवाद में मारे गये असम के पांच जवानों की मौत पर एक शब्द नहीं कहा. उसी तरह अफगानिस्तान में तालिबानियों के हाथों मारे गये भारतीय पत्रकार दानिश पर भी एक शब्द तक नहीं कहा.
वहीं, दिल्ली बॉर्डर पर छह सौ से अधिक किसान प्रदर्शनकारी शहीद हो गये, मगर मजाल है जो एक शब्द भी जुबान से फिसल पड़े ! रातोंरात नोटबंदी जैसे फैसलों से देश के अर्थव्यवस्था की नींव को हिला डालने वाले नरेन्द्र मोदी नोट बदलने की लाईन में मर गये लोगों की मौत का मजाक उड़ाते हुए मंच से यह कहा था ‘जवान बेटा भी मर जाता है तब भी उसे लोग एक साल में भूल जाते हैं…’, (पर इस नृवंश को नहीं पता कि अपने बेटे की मौत को एक पिता जीवन भर नहीं भूलता है), तभी इसके इंसान होने पर संदेह हो गया था.
इंसानों की मौत या पीड़ा को मजाक बनाने वाले नरेन्द्र मोदी जिस प्रकार एक कुत्ते की मौत पर पिघल जाते हैं, इससे तो यही समझ में आता है कि मोदी स्वयं को इंसान के बजाय कुत्ते से अधिक नजदीक समझते हैं. ऐसे में यह प्रश्न भी मौजूं हो जाता है कि क्या नरेन्द्र मोदी-अमित शाह कुत्ता प्रजाति का ही कोई जानवर है ? यह वैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों के लिए रिसर्च का विषय हो सकता है ?
बहरहाल, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की कार्यशैली जिस तरह अचानक और लोगों को चमत्कृत कर देने की होती है, उससे तो यही लगता है कि वे खुद को करोड़ों देशवासियों का प्रतिनिधि नहीं, बल्कि अपराधियों के गैंग का सरगना (डॉन) मानते हैं, जो अपने अजीबोगरीब फैसलों से लोगों को चमत्कृत करते हैं, जैसा कि फिल्मों में देखा जाता है.
मसलन, नोटबंदी, जीएसटी, एनआरसी, जम्मू कश्मीर के राज्य के दर्जा को खत्म करना, लॉकडाऊन, कृषि कानून वगैरह-वगैरह जिस तरह रातोंरात लागू किया और करोड़ों लोग तबाह, बरबाद हुए, लाखों लोग मारे गये, वह पागल शासक तुगलक को भी छोटा साबित करता है. प्रसिद्ध पत्रकार रविश कुमार लिखते हैं –
मिज़ोरम-असम सीमा विवाद की ख़बर आते ही ग़ायब और गुमसुम से हो गए हैं गृह मंत्री अमित शाह. असम पुलिस के पांच जवानों की मौत हुई है. पुलिस के दो बड़े अधिकारी घायल हैं. इस सूचना के आने के दो दिन बीत जाने के बाद भी गृहमंत्री अमित शाह का कोई सार्वजनिक बयान नहीं है. मारे गए जवानों के प्रति श्रद्धांजलि के दो शब्द नहीं है. अपने भाषणों में हर समय मज़बूत और सख़्त नेता दिखने वाले गृहमंत्री संकट और जवाबदेही के ऐसे लम्हों में सुन्न हो जाते हैं. उनके बयान सुनाई नहीं देते हैं.
दूसरी लहर के दौरान जब भारतीयों का नरसंहार हो रहा था, तब गृहमंत्री के बयान भी ऑक्सीजन की तरह कम पड़ गए थे जबकि आपदा प्रबंधन एक्ट उनके ही मंत्रालय के तहत संचालित होता है. सारे विभागों से ताल-मेल कर बंदोबस्त की ज़िम्मेदारी गृह सचिव की होती है, ख़ैर.
असम और मिज़ोरम के बीच जो हुआ है उसे लेकर असम पीड़ित की तरह बर्ताव कर रहा है. ज़ाहिर है उसके पांच जवान मारे गए हैं. असम के मुख्यमंत्री ललकार भी रहे हैं कि हम अपनी एक ईंच ज़मीन नहीं देंगे जैसे किसी दूसरे देश को देनी है. कह रहे हैं कि मिज़ोरम की सीमा पर हज़ारों कमांडो तैनात करेंगे. इतने कमांडो हैं भी या नहीं किसी को पता नहीं लेकिन 4000 कमांडो तैनात करने की बात कर रहे हैं.
जब नागरिकता क़ानून लाना था तब देश में किस तरह का माहौल पैदा किया गया, उस समय के गृहमंत्री के भाषणों को निकाल कर देखिए. इस क़ानून का विरोध कर रहे लोगों पर गोलियां चलवाई गईं. पटना में दंगाइयों को भेज कर प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाई गई. लोग मारे गए और कई राज्यों में पुलिस ने भयंकर ज़ुल्म किए. इस क़ानून के सहारे तरह-तरह की भ्रामक बातें राष्ट्रवाद के नाम पर जनता के बीच ठेल दी गईं. ऐसा लग रहा था कि इस क़ानून को लागू होना अभी और इसी घंटे बहुत ज़रूरी है.
दो साल हो गए हैं. अभी तक सरकार इस क़ानून के नियम नहीं बना सकी है. ये हाल है सरकार के काम करने का. बहस पैदा करने के लिए क़ानून लाओ और जब उल्टा पड़ जाए तो क़ानून को लागू करने में टाल-मटोल करते रहो. जब असम में उल्टा पड़ गया तो चुनाव में इसका नाम तक नहीं लिया गया जबकि नागरिकता क़ानून उसी असम के नाम पर लाया गया और इसे लाने के बाद हो रहे पहले चुनाव में ही बीजेपी इसका ज़िक्र नहीं कर सकी जबकि दिल्ली की बहसों में इस क़ानून को ऐतिहासिक बता रही थी. दो साल हो गए हैं नियम नहीं बने हैं. गृहमंत्री जवाबदेही के हर सवाल से मुक्त हैं.
पता चलता है कि सरकार कैसे काम करती है. क़ानून बनाने से पहले इसकी जटिलताएं के बारे में नहीं सोचती है. सरकार को यह अंदाज़ा क्यों नहीं हुआ कि इस क़ानून से असम और पूर्वोत्तर में क्या प्रतिक्रिया होगी ? अब कहा जा रहा है कि असम मिज़ोरम सीमा विवाद की जड़ में यह क़ानून भी है. इसे लेकर आशंकाएं भी हैं. इससे पता चलता है कि सरकार को डिबेट चाहिए क्योंकि डिबेट के दौरान ही भाषण का स्वर ऊंचा होता है.
राष्ट्रवाद का शोर पैदा कर सांप्रदायिक एजेंडा जनमानस में ठेल दिया जाता है. जब वह एजेंडा पहुंच जाता है तब क़ानून का पता नहीं चलता. आख़िर सरकार अब क्यों नहीं दम के साथ कहती है कि हम यह क़ानून असम में लागू करने जा रहे हैं. क्या वह भी तुष्टिकरण करने लगी है ? कब तक सरकार इसके नियमों को नहीं बनाएगी ? जिसके लिए उसने तमाम सवालों को कुचल दिया. लोगों की आशंकाओं को कुचल दिया. ऐसा समां बांधा जैसे सरकार ही सही सोच रही है लेकिन जब अपनी ज़िद पूरी कर ली तब उसे ऐसा क्या दिखाई देने लगा है जिसके कारण नागरिकता क़ानून की बात बंद हो गई है ?
संसदीय नियमों के अनुसार क़ानून लागू होने के छह महीने के भीतर नियम बनाने होते हैं. 10.1.2020 से यह क़ानून प्रभावी हो चुका है लेकिन डेढ़ साल से अधिक समय बीत जाने के बाद भी नियम नहीं बने हैं. अब सरकार ने 9 जनवरी 2022 तक का समय मांगा है. पहले अप्रैल तक था, फिर बढ़ाकर जुलाई किया गया और अब जनवरी कर दिया गया है. सरकार पांच बार अतिरिक्त समय मांग चुकी है.
गृहमंत्री अमित शाह जवाबदेही से मुक्त गृहमंत्री हैं. शिवराज पाटिल ही आख़िरी गृहमंत्री थे जिन पर जवाबदेही लागू होती थी. एक समुदाय विशेष को ललकारना हो तब आप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के तेवर देखिए. कपड़ों से पहचानने की ललकार हो या करंट लगने की हुंकार, भाषा तुरंत बदल जाती है. लेकिन जब रफ़ाल का मामला आता है, पेगासस का मामला आता है, रोज़गार का मामला आता है, तब चुप हो जाते हैं. लगता ही नहीं है कि भाषण देने आता है. प्रधानमंत्री और गृहमंत्री सड़क दुर्घटना से लेकर बादल फटने की घटना पर शोक व्यक्त करते हैं लेकिन असम के पांच पुलिस के जवान मारे गए हैं, उस पर एक शब्द नहीं बोल पाते
असम ने ट्रैवल एडवाइज़री जारी की है कि मिज़ोरम न जाएं
यह भी होने लगा है. असम अपने नागरिकों से कह रहा है कि वे मिज़ोरम न जाएं और जो किसी काम से गए हैं सतर्कता बरतें. यह शर्मनाक भी है और ख़तरनाक भी. अभी तक इस तरह की हिदायतें एक देश दूसरे देश के लिए जारी करता था लेकिन मेरी नज़र में यह पहली बार देखने को मिल रहा है कि भारत के भीतर एक राज्य दूसरे राज्य के प्रति यात्रा हिदायतें जारी कर रहा है. मोदी और शाह को असम आकर मिज़ोरम जाना हो तो लगता है अब हिमांता बिस्वा शर्मा से इजाज़त लेनी होगी ?
यह उस नेता के नेतृत्व में हो रहा है जिनकी ब्रांड वैल्यू मज़बूती के नाम पर बनाई गई है. जिन्होंने खुद दो दिन तक असम के मारे जवानों के लिए दो शब्द नहीं कहे उसके बाद मैंने भी देखना छोड़ दिया. ये नेता दावा करते रहते हैं कि उनकी सरकार में पूर्वोत्तर पर सबसे अधिक ध्यान दिया, शायद इसी का नतीजा है कि ज़्यादा ध्यान दिया. पूर्वोत्तर को समझने के नाम पर ग़लत समझने लगे हैं. दिल्ली में दावा किया गया कि हालात सामान्य हो गए लेकिन यह यात्रा हिदायत बता रही है कि सच्चाई क्या है ?
क्या असम और मिज़ोरम दो अलग संविधान के तहत काम करते हैं ? क्या दोनों अलग देश हैं ? क्या यह विखंडन नहीं है ? इन्हें बात कर समस्याओं को सुलझाना नहीं आता है. आप इनका रिकार्ड देख लीजिए. जम्मू कश्मीर के साथ क्या किया ? बिना बात किए धड़ाम से राज्य का दर्जा ख़त्म कर दिया. नेताओं को पाकिस्तानी और देश के लिए ख़तरा बता कर साल साल भर नज़रबंद किया. फिर याद आया कि अरे बात भी करनी है. बात करने का फ़ोटो खिंचवाया और बात ख़त्म.
नागरिकता क़ानून का हाल देखिए. अचानक क़ानून ले आए. विरोध करने वालों से बात तक नहीं की. ऐसे जताया कि हम परवाह नहीं करते. हम मज़बूत नेतृत्व वाले हैं. आज तक उस क़ानून के नियम नहीं बना सके हैं. पास होकर भी लागू नहीं है.
किसानों से बातचीत का नतीजा आपके सामने है. ऐसे दम दिखाया कि हम जनदबाव की परवाह नहीं करते लेकिन आज एक साल हो गए हैं उस क़ानून को भी लागू नहीं कर पा रहे हैं. न पहले बात करने का तरीक़ा आता है और न बाद में, बस कुछ लोगों को फंसाने, डराने और जेल में बंद करने में ही सारी बहादुरी नज़र आती है.
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