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हिसाब तो तुझे देना ही होगा सरकार !

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हिसाब तो तुझे देना ही होगा सरकार !

दुुनिया सहित भारत भी कोरोना महामारी की भयानक चपेट में है. तीसरी लहर की आशंका की चेतावनियां अकड़ रही हैं. केन्द्र सरकार की हिदायतें लगातार वाचाल और सक्रिय हैं. राज्यों की सरकारें कठपुतलियां लगती केवल हुक्म बजा लाने वफादार बताई जा रही हैं. केन्द्र सरकार की हिदायतें फुलझड़ियों या मानसून की बौछार की तरह रोज फूटती झरती हैं. आम नागरिक तो क्या राज्य सरकारें और जिम्मेदार एजेंसियां बदलते हुक्मनामों को लेकर संशय ढो रही हैं. भेड़ों के रेवड़ में खूंखार भेड़िया घुस आने जैसी हालत कोरोना के आने से सरकारों की हो गई है. नतीजतन लोग कीड़ों मकोड़ों की तरह मर रहे हैं. बीमारियां झेल रहे हैं. उनके रोजगार और नौकरियां छिन रही है. आगे के जीवन में भी अंधेरा छा गया है. परिवार के सदस्यों तक के लिए सहानुभूति की नसें सूख रही हैं. संविधान के मकसद को नकली धर्मनिरपेक्षता कहते उसे अपने मुुंह में पान, सुपारी की तरह चबुलाते लोगों के भी घरों से लाशें उठाकर इस्लामी और ईसाई प्रथाओं के अनुसार ज्यादातर तो गंगा नदी के किनारे ही दफनाई या फेंकी गईं. मां कहलाती गंगा का ही कोरोना के कारण सरकारी असफलताओं ने धर्मविरोधी क्रियाकर्म कर दिया.

संविधान में केन्द्र और राज्यों के बीच अधिकारों और कर्तव्यों का बंटवारा है. वह हकीकत में धरा रह गया है. महामारी से जूझते देश की मौजूदा जिन्दगी पर कब्जा संसद में बने आपदा प्रबंधन अधिनियम ने 23 दिसम्बर 2005 से कर रखा है. नागरिकों को कुछ नहीं मालूम होता. आपदा कानून में राज्यों ने खस्ता माली हालत के बावजूद विदेशों से सीधे कोरोना वैक्सीन खरीदने पेशकश की. अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की फितरत के कारण खरीदी नहीं हो सकी. पूरा धन केन्द्र सरकार की मुट्ठी में बन्द है. उसकी मर्जी से ही राज्यों को धन आवंटित होता है. कोरोना की बदइंतजामी को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दो युवा अधिवक्ताओं ने जनहित याचिका दाखिल की. मांगा कि पीड़ित और मृत लोगों को कम से कम चार लाख रुपयों का मुआवजा केन्द्र से दिलाया जाए. सरकार ने इस मांग पर भी तीन तीर छोडे़े. कह दिया कोरोना महामारी ही नहीं है. अधिनियम दूसरी तरह की महामारियों के लिए बना है. परिभाषा में साफ लिखा है ‘आपदा’ किसी क्षेत्र में कुदरती या इन्सानी कारणों से या दुर्घटना या लापरवाही से पैदा ऐसी कोई महाविपत्ति, अनिष्ट, विपत्ति या घोर घटना का अर्थ है जिसका नतीजा जीवन के असरकारक नुकसान या इन्सानी तकलीफों या धन दौलत का नुकसान और तबाही या पर्यावरण का नुकसान या अवमूल्यन है. ऐसा कुदरती कहर जनता द्वारा सामना करने की ताकत के परे हो.

केन्द्र के स्थायी तर्करक्षक साॅलिसिटर जनरल तुषार मेहता सरकारी नस्ल की दबंगई से निजाम के पक्ष में बड़बोली पैरवी करते रहते हैं. सरकार को हालिया वर्षों में सुप्रीम कोर्ट से मुनासिब पुचकार के आदेश मिलते भी रहे हैं. इशारा रहा होगा कि कोरोना प्राकृतिक नहीं है. चीन के वुहान प्रांत से पैदा की गई बीमारी है. सरकार भूल गई परिभाषा में इन्सानी कारण भी लिखा है. सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र के तर्क खारिज किए. बदहाली में जी और मर रहे देशवासियों के प्रति इन्सानियत और सहानुभूति उकेरने के बदले कमजोर कानूनी बचाव की जुगत हुई. यह भी कहा कि अदालत को अधिकार नहीं है कि सरकार के अधिकारों और जिम्मेदारियों में हस्तक्षेप करे. संवैधानिक अवधारणा तो है कि कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच अधिकारों की अदृश्य लक्ष्मण रेखा है. सुप्रीम कोर्ट ने लेकिन अपने अधिकारों के दायरे को मानवीय संदर्भों में विस्तृत करते दो टूक कहा कि कोर्ट तमाशबीन या उदासीन संस्था नहीं है. सरकार ने फिर नया तर्क दिया कि उसके पास धन नहीं है. पलटकर तुरंत कहा धन तो है लेकिन उसे पीड़ितों और मृृतकों के लिए अनुग्रह राशि के बदले अस्पतालों, दवाओं, डाक्टरों तथा अन्य कर्मियों की नियुक्ति सहित वैक्सीन वगैरह की मद में खर्च करना ज्यादा ज़रूरी होगा. कोर्ट ने इतना कह दिया कि वह गणित के आधार पर नुकसान का हिसाब नहीं करेगी, लेकिन मुआवजा तो देना होगा. सरकार अपने विवेक और आर्थिक हालात देखकर फैसला करे. दिलचस्प है 135 करोड़ लोगों के मुल्क में आपदा कानून के तहत बनाए गए राष्ट्रीय प्राधिकरण में प्रधानमंत्री ही पदेन अध्यक्ष रहेंगे. वे अधिकतम नौ सदस्यों और एक उपाध्यक्ष की नियुक्ति कर सकते हैं. देश नहीं जानता उपाध्यक्ष का चेहरा और सदस्यों की भूमिकाएं कहां हैं ? नेशनल अथाॅरिटी की तयशुदा जिम्मेदारी पीड़ितों के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत बनाकर लागू भी करवा रही है. कान को घुमाकर क्यों पकड़ा जा रहा है ? हर जिम्मेदारी के काम और प्राधिकरण के अध्यक्ष तो प्रधानमंत्री ही हैं. अधिनियम में लोकतंत्र फिर कहां है ? वहां राजतंत्र की सामंती ठसक है.

ओडिशा और बंगाल के हालिया भयंकर समुद्री तूफान के वक्त हाथ पर हाथ धरे बैठी मजबूर राज्य सरकारें प्रधानमंत्री के उड़नखटोले पर चातक पक्षी की तरह टकटकी लगाए रही. बंगाल के मुख्य सचिव की बैठक में नहीं आ पाए तो पीड़ितों के दुख को पीछ़े छोड़ राष्ट्रीय शोहरत का मुद्दा बना दिए गए. कोरोना को लेकर श्वेत पत्र राष्ट्रीय प्राधिकरण के अध्यक्ष अर्थात प्रधानमंत्री की ओर से जारी तो हो. जाहिर होगा बंगाल, असम, पुडुचेरी, तमिलनाडु और केरल विधानसभा चुनावों को आपदा प्रबंधन अधिनियम मौन रहकर सलाम कर रहा था ! कोरोना पीड़ित लाचार लोग वोट डालने मरते खपते धकेले जा रहे थे. संसद इस केन्द्रीय अधिनियम पर पुनर्विचार क्यों नहीं करना चाहता ? राज्यों के साथ अधिकारों और जिम्मेदारियों का विकेन्द्रीकरण लोकतंत्र की जरूरत है. हताशा महसूस करती राज्य सरकारें ऐसी मांग क्यों नहीं करतीं ? जिम्मेदारियों के अमल के लिए संविधान में संयुक्त जिम्मेदारी की मंत्रिपरिषदें हैं. केवल प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को कोरोना के इलाज के नाम पर अखबारों, टीवी चैनलों में हातिमताई क्यों बनाया जा रहा है ? बस वे ही लोकतांत्रिक देवदूत हैं ?

आपदा प्रबंधन अधिनियम कांग्रेस सरकार ने बनाकर प्रधानमंत्री की स्थायी ताजपोशी मुकर्रर कर दी. भाजपा चुप रही. भविष्य की सत्तानशीनी की शुभ संकेत की उसकी आंख शायद फड़क रही होगी. नहीं सोचा संसद ने भी कि जब तक प्रधानमंत्री की बंद मुट्ठी खुल जा सिमसिम नहीं कहेगी करोड़ों लोग जिन्दगी और मौत के बीच झूलते रहेंगे. राहुल गांधी कहें कि आपदा प्रबंधन में प्रधानमंत्री का ध्रुवतारा और सभी राज्यों का सप्तर्षि होना ठीक नहीं है. राहुल आपातकाल और सिक्खों के कत्लेआम पर तो साफगोई दिखा ही चुके हैं. पीएम केयर्स फंड की मुट्ठी भी प्रधानमंत्री के मार्फत जनविश्वास की खजांची हैं इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने हिसाब मांगा. नतीजतन पूरे देश को कोरोना की मुफ्त वैक्सीन देने का मजबूर फैसला केन्द्र सरकार को करना पड़ा. वक्त है नागरिक समाज सरकारों की संवैधानिक जिम्मेदारियों का खुद ऑडिट करे. 130 करोड़ से ज्यादा ‘हम भारत के लोग‘ पुुलिसिया लाठी खाने वाली खोपड़ियां भर नहीं हैं. जिम्मेदार और संविधानसम्मत होने का नागरिक बोध खुद को अकाल मौत से बचाने के लिए करना होगा.

7  साल में भाजपा के 900 हाईटेक कार्यालय

अभी न्यूज फीड देख रहा था तो एक अपडेट आया, जिसमें बीजेपी के आधिकारिक ट्वीटर हेंडल के एक ट्वीट का एसएस लगाकर बताया गया था कि ‘पिछले 7 सालों में अमित शाह के नेतृत्व में 500 बीजेपी कार्यालय बन चुके हैं और 400 कार्यालयों में काम चल रहा है. और नीचे जेपी नड्डा (वर्तमान बीजेपी अध्यक्ष के नाम के साथ लिखा गया है कि) आने वाले 2 सालों में सभी जिलों में बीजेपी के कार्यालय बन जायेंगे.

मैंने उस समय भी इस पर एक लेख लिखा था जब बीजेपी धड़ाधड़ हर जिले में जमीने खरीद रही थी लेकिन तब इस पर ज्यादा फोकस इसलिये नहीं हुआ क्योंकि लोग नोटबंदी की लाइनों में लगे थे. मगर आज तो खाली और बेल्ले बैठे हैं. आज की बातों पर जरूर गौर कर लेना. यथा – बीजेपी की केंद्र सरकार बनने के बाद 900 जिलों में बीजेपी कार्यालय के लिये जमीन आवंटित की गयी या खरीदी गयी. क्या ये जांच का विषय नहीं है ?

इसकी जाँच कौन करेगा कि ये आवंटित भूमि खरीदने के लिये बीजेपी को किस-किस ने चंदा दिया ? कांग्रेस ने कभी इस पर संसद में सवाल क्यों नहीं उठाये ? मोदी को हर छोटे छोटे मामले में घेरने वाले राहुल गांधी इतनी बड़ी बात पर चुप्पी क्यों साधे बैठे हैं ?

सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस जिसे साक्षात् गांधी का भी आशीर्वाद प्राप्त था और गुलाम भारत से आज़ाद भारत तक के एक खास पीरियड में सर्वेसर्वा पार्टी थी और जिसने लगभग 60 साल से कुछ कम समय तक राज किया, वो भी आज तक 900 कार्यालयों के लिये जमीन नहीं खरीद पायी तो बीजेपी ने सिर्फ 7 साल में देश के हर राज्य के हर एक जिले में मुख्य मंच पर इतनी बड़ी बड़ी और महंगी जमीने कैसे खरीद ली ?

उससे भी महत्वपूर्ण प्रश्न ये भी है कि बीजेपी ने न सिर्फ जमीनें खरीदी बल्कि उस पर रात दिन काम करवाकर हाईटेक कार्यालय भी बनवा लिये, आखिर कैसे ?

घोटालेबाज़ कांग्रेस का राष्ट्रीय स्तर का मुख्य कार्यालय भी अभी भी वही पुराना अकबर रोड वाला है जो सरकारी तौर पर आवंटित बंगले में है, जबकि बीजेपी का राष्ट्रीयस्तर का अपना 7 स्टार रेटिंग वाला निजी हाईटेक मुख्य कार्यालय मात्र 7 सालों में बन चुका है जो पूरे देश में एक मात्र सभी डिजिटल सुविधाओं के साथ बना पहला निजी कार्यालय है. (भारत सरकार के पास भी किसी ऐसे कार्यालय की सुविधा अभी तक नहीं है. रॉ और आईबी जैसी प्रमुख संस्थाओं में भी ऐसी सुविधा नहीं है जैसी बीजेपी के मुख्य कार्यालय में है.) जबकि बीजेपी और भक्त हमेशा उनके जीजा रोबर्ट वाड्रा पर इल्जाम लगाते है कि वो भूमिचोर है और अपने ससुरालियों की राजनितिक पहुंच का फायदा उठाकर भूमि का क्रय-विक्रय करता है !

राबर्ट वाड्रा भूमिचोर है या नहीं ये तो आज तक स्पष्ट नहीं हुआ लेकिन ये जरूर स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि बीजेपी ने सरासर अपनी सत्ता का फायदा उठाकर स्वयं की पार्टी को फायदा पहुंचाया है. चलो मान लेते हैं कि कांग्रेस पार्टी दुनिया की सबसे ज्यादा भ्रष्ट और घोटालेबाज पार्टी थी, जिसने अपनी सत्ता के समय में पूरा देश लूट लिया होगा और कालाधन स्विस बेंकों में जमा कर दिया होगा लेकिन कोई ये तो बताये कि पिछले 7 सालों से हरिश्चंद्र का अवतार कहे जाने वाले ईमानदार मोदी ने आज तक कोई ठोस कार्यवाही क्यों नहीं की ?

सिर्फ बीजेपी के खिलाफ लिखने पर ही पत्रकारों के घर और दफ्तर तक में ईडी महोदय खुद पहुंच जाते हैं तो कांग्रेस जैसी भ्रष्ट पार्टी और उनके आलाकमान के लोग अब तक छुट्टे क्यों घूम रहे हैं ? न सिर्फ घूम रहे हैं बल्कि मोदी सरकार खुद उन्हें सरकारी सुरक्षा भी प्रदान कर रही है, क्यों ?

7 साल काफी लम्बी अवधि होती है लेकिन कालाधन लाने की बात करने वाले मोदी तो स्विस बेंकों के खातेदारों का नाम तक उजागर नहीं कर सके, उल्टा स्विस बैंकों के आंकड़ों से ये पता चला कि मोदीकाल में स्विस बैंकों में भारतीयों का जमा धन बेहिसाब रूप से कई गुणा बढ़ गया है. इसका जवाब है किसी के पास ? पंतञ्जलि वाला काणिया रामदेव तो इनके सानिध्य में कालाधन-कालाधन करके दुनिया का सबसे ज्यादा कालाधन रखने वाला और फ्रॉड करने वाला अमीर व्यापारी बन गया और बेचारा रोबर्ट वाड्रा फ़ोकट में बदनाम हो गया !

चलो कालेधन की बात छोडो, कांग्रेस पर महाघोटालों का आरोप लगाने वाले मोदी एक भी घोटाले में आजतक कांग्रेस का हाथ तक साबित नहीं कर पाया. करने की बात भी जाने दो उसके खिलाफ एक एफआईआर तक दर्ज न हुई. सिर्फ चुनावी भाषणों में इल्जाम लगाने से तो कांग्रेस गुनहगार साबित नहीं होने वाली और तो और कांग्रेस उस कोलब्लॉक जैसे महाघोटाले में भी कोर्ट में निर्दोष साबित हो गयी, जिसे सत्ता में आने से पहले मोदी ने दिन रात चुनावी भाषणों में गरिया-गरिया कर घोटालेबाज़ कहा था जबकि खुद की सत्ता और सभी संवैधानिक पदों पर अपने आदमी फिट करने के बाद भी बीजेपी के नेता खुद उसमें फंस गये.

(उस कोलब्लॉक के अलावा मोदीकाल में जो कोलब्लॉक नीलामी हुई है, उसमें तो साफ-साफ दिखाई दे रहा है कि मोदी ने कुछ खास लोगों को फायदा पहुंचाया है और ये उस कथित घोटाले से भी बहुत बड़ा कोलब्लॉक घोटाला है लेकिन कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दल चुप्पी साधे बैठे हैं.)

भारत में जितने जिले नहीं उससे ज्यादा तो मोदीकाल में भाजपा के कार्यालय बन चुके हैं और आप कहते हैं कि मोदी हरिश्चंद्र का अवतार है ! ईमानदार है ! जबकि मेरी नजर में दुनिया के सबसे बड़े चोर पर्टिनेन्ट मार्कोस (इसका नाम गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज है) से भी बड़ा चोर मोदी है. और अगर गिनीज बुक से भी बड़ी कोई बुक हो तो सबसे पहला नाम उसमें मोदी का लिखा जायेगा !

आपको शायद याद न हो लेकिन जब मोदी सत्ताधीश बना था तब भी मैंने लिखा था कि ईमानदार चोर से ज्यादा भ्रष्ट ज्यादा ठीक होता है अर्थात भ्रष्ट सिर्फ उतना ही लेता है जिससे सामने वाले को तकलीफ न हो जबकि ईमानदार चोर जब भी चोरी करेगा पूरा माल साफ़ कर देगा. आज वही हो रहा है पूरा देश लूटा और बेचा जा रहा है और सब कुछ खुली आंखों से देखने के बाद भी पूरा देश चुप है. और देशवासियों की ये चुप्पी आप पर आने वाले समय में बहुत भारी पड़ेगी.

  • पं. किशन गोलछा जैन एवं अन्य

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