एक इन्डस्ट्रीयलिस्ट थे, खानदानी बिजनेसमैन. हिंदुस्तान का बड़ा घराना. जेआरडी टाटा को जीवन में पहले से ही बहुत मिला था, मगर इससे कुछ नया करने के जोश में कोई कमी नहीं आई थी. साहब ने 1932 में दो पायलट, चार इंजीनियर और कुछ लोगों को मिलाकर एक कम्पनी बनाई और हवाई डाक का ठेका लिया. ये भारत की पहली एयरलाइन थी. अगले दस सालों में ये कम्पनी सवारी भी ढोने लगी, विदेश में भी.
एविएशन दुनिया का नया सेक्टर था. आजादी के वक्त छोटी-बड़ी कोई 9 कम्पनी थी इस क्षेत्र में. 1954 में नेहरू ने इसे नेशनलाइज कर दिया. सबको मिलाकर दो कम्पनी बनी. घरेलू सेवा के लिए इंडियन एयरलाइन्स और विदेश के लिए एयर इंडिया.
विदेश में एयरलाइंस के संचालन का अनुभव टाटा को था. बाइज्जत, नेहरू ने जेआरडी टाटा को एयर इंडिया चेयरमैन पद के लिए आमंत्रित किया. टाटा आये और एयर इंडिया दुनिया के आकाश पर छा गयी. हिंदुस्तान का पहला और अकेला इंटरनेशनल ब्रांड.
परफेक्शनिस्ट टाटा एक-एक बात पर निगाह रखते. विमानों में सफर करते, खाने पीने, जहाज के इंटीरियर, कर्मचारियों के व्यवहार … हर चीज में वे परफेक्शन लाते. मुनाफा बंटता, सरकार भी खुश, टाटा भी और पब्लिक भी. सरकारी कंपनी होने के बावजूद टाटा ही एयर इंडिया के जार थे. शास्त्री और इंदिरा ने भी इस इज्जत को बनाये रखा.
1977 में आई जनता सरकार. मोरारजी प्रधानमंत्री हुए. शुद्ध शाकाहारी, कड़े अनुशासन और हाई थिंकिंग के संस्कृतिवादी जीव. एक बार एयर इंडिया से कहीं गए, दारू के लिए पूछ लिया गया. मने हद्द है कि नई ?
मोरारजी ने टाटा को बुलाया, बोले – ‘ये दारू बन्द कर भाई. दारू से लीवर खराब हो जाता है. हमरी संस्कृति के खिलाफ है. टाटा ने नेहरू, शास्त्री, इंदिरा के काल में स्वतंत्रता से कम्पनी चलाई थी. सरकार को मुनाफा दे रहे थे. फिर काहे झुकते. मना कर दिया, कहा – ‘ऐसे एयरलाइन नहीं चलती.’
प्रधानमंत्री साहब 56 इंची थे, ठांय से टाटा को हटा दिया. दारू बन्द की, लिवर बचा लिया. अगले बरस एयर इंडिया ने इतिहास में पहली बार घाटा दर्ज किया. शुद्ध शाकाहारी एयरलाइन में इंटरनेशनल पैसिंजर बैठना ही नहीं चाहते थे. 80 में इंदिरा लौटी, टाटा भी वापस आये. डैमेज कन्ट्रोल की कोशिश हुई, मगर एयरइंडिया टॉप से खिसक चुका था.
बाजार फिर भी बना रहा. फिर आया लिब्रेलाइजेशन का दौर. 1994 में खुले आकाश की नीति बनी. वो नरसिंहराव का आखिरी साल था. नई एविएशन कम्पनियां आयी. 2004 आते-आते फायदे के सारे बड़े रास्ते प्राइवेट कंपनियों को देकर इंडिया शाइन कर दिया. एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइन्स, बीएसएनएल वीरगति को प्राप्त हुए.
मनमोहन सरकार में प्रफुल्ल पटेल आये. एक सिरियस कोशिश हुई. दोनों कम्पनी मर्ज कर दी. संयुक्त घाटा कोई पांच सौ करोड़ था. जहाज पुराने थे, फ्लीट बेहतर करने के लिए नए जहाज खरीदे गए तो कर्जा और चढ़ गया. नए जहाज उड़ाते कहां ? पिछली सरकार में रुट हाथ से निकल चुके थे, उसे वापस ले न सके, लिहाजा उतनी कमाई हुई नहीं. आने वाले बरसों में किंगफिशर और जेट जैसे ब्रांड भी बाजार का दबाव न झेल सकी तो एयर इंडिया का ‘लीवर’ तो पहले से ही खराब था. अब कोई भंगार के भाव नहीं ले रहा.
एयर इंडिया की कहानी से यह शिक्षा मिलती है कि प्रधानमंत्री को अपनी नाक हर जगह नहीं घुसेरनी चाहिए. मगर हमारे नेताओं ने ये शिक्षा नहीं ग्रहण की. ग्रहण ये किया कि सरकारी कम्पनी घाटे में आये तो कोई खरीदेगा नहीं इसलिए मुनाफे में है, तभी बेच दो. वैसे भी अपन के रहते, आज नहीं तो कल, घाटे में आयेगी ही.
बाकायदा ‘बाप दादों की प्रॉपर्टी बेच खाओ मंत्रालय’ बना है. इसका फैंसी नाम ‘डिसइन्वेस्टमेंट मिनिस्ट्री’ है. कहना न होगा कि ये मिनिस्ट्री सबसे पहले अटल जी ने बनाई थी. इस मंत्रालय का काम एयर इंडिया के किस्से सुनाना और पब्लिक को इमोशनल करके, मुनाफे वाले दूसरे उद्योग को बेचना है. नेहरू की अय्याशी के क़िस्सों से तंग आकर आप भी नेहरू की विरासतें बेचने के लिए सहमत हैं.
हालात ये है कि एयर इंडिया को बेच देना ही सरकार की बड़ी सफलता होगी. बिका हुआ एक महाराज, एविएशन की गद्दी पर बिठाया गया है. उसकी सफलता यही होगी कि महाराजा को बेच दें. सवाल यही है कि जमीर की तरह नेशनल कैरियर का अच्छा सौदा निकाल सकेंगे या नहीं. सिविल एविएशन का बहादुरशाह जफर बन सकेंगे या नहीं ?
खैर, तो कहना ये था कि दारू बिल्कुल मत पीना, दारू पीने से लीवर खराब हो जाता है और ज्यादा संस्कृति से दिमाग. सरकार का अभी वही हाल है.
- मनीष
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