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राजद्रोह का अपराध : अंगरेज चले गए, औलाद छोड़ गए

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राजद्रोह का अपराध : अंगरेज चले गए, औलाद छोड़ गए

Kanak Tiwariकनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़

भारतीय दंड संहिता के जरिए सरकारों को बहुत गुमान है कि राजद्रोह उनका गोद लिया पुत्र है. वह अंगरेज मां की कोख से जन्मा है. भारतीय दंड संहिता अंगरेज शिशु की धाय मां है. अंगरेज चले गए, औलाद छोड़ गए ! वह सुप्रीम कोर्ट के केदारनाथ सिंह के फैसले के कारण गोदनामा वैध बना हुआ है. यह अंगरेज बच्चा भारत माता के कोखजाए पुत्रों को अपनी दुष्टता के साथ प्रताड़ित करता रहता है.

दुर्भाग्य है इस अपराध को दंड संहिता से बेदखल नहीं किया जा सका. पराधीन भारत की सरकार की समझ, परेशानियां और चिंताएं और सरोकार अलग थे. राजद्रोह का अपराध हुक्काम का मनसबदार था. अब तो लेकिन जनता का संवैधानिक राज है. राष्ट्रपति से लेकर निचले स्तर तक सभी लोकसेवक जनता के ही सेवक हैं. फिर भी मालिक को लोकसेवकों के कोड़े से हंकाला जा रहा है.

राजद्रोह की परिभाषा को संविधान में वर्णित वाक् स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति की आजादी के संदर्भ में विन्यस्त करते केदारनाथ सिंह के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने दंड संहिता के अन्य प्रावधानों के संबंध में सार्थक अवलोकन कर लिया होता तो राजद्रोह के अपराध को कानून की किताब से हटा देने का एक अवसर विचार में आ सकता था. दंड संहिता के अध्याय 6 में शामिल राजद्रोह के साथ साथ कुछ और अपराध भी हमजोली करते हैं. उनके लिए राजद्रोह के मुकाबले कम सजाओं का प्रावधान नहीं है.

मसलन अनुच्छेद 121 के अनुसार जो भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करेगा या युद्ध करने के लिए भड़काएगा वह मृत्यु या आजीवन करावास से दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा. धारा 121-क में लिखा है जो भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करने जैसे अपराधों को लेकर देश के अंदर या बाहर षड्यंत्र करेगा या किसी राज्य सरकार को अपराधिक बल या अपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा आतंकित करने का षडयंत्र करेगा, वह भी आजीवन कारावास से दंडित हो सकेगा. अध्याय 6 में राज्य के विरुद्ध हिंसक अपराधों का ब्यौरा है. उन्हें भी अंगरेजों के समय से कायम रखा गया है.

केन्द्र सरकार के नागरिकता अधिनियम से बवंडर उठ खड़ा हुआ. पुलिस ने गांधी पुण्यतिथि के दिन दिल्ली में आरएसएस मुख्यालय पर प्रदर्शन कर रहे छात्रों और नागरिकों को लाठी और लात, घूंसों से पीटा कुचला. सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का भी पालन पुलिस द्वारा नहीं किया जाता. देश की रक्षा का जिम्मा केन्द्र सरकार का ही है इसलिए केन्द्र सरकार का मजाक भी नहीं उड़ाया जा सकता ?

हिन्दुस्तान मुश्किलों में घिरा है. पुलिस के सामने खुले आम गोपाल नाम के एक व्यक्ति ने पिस्तौल से हवाई फायर किए. एक युवक घायल भी हुआ. जेएनयू और जामिया के छात्र बच्चे नहीं, मतदाता हैं. देश के युवजनों के जेहन में नया देश और नई दुनिया बनाने की अवधारणाएं तिर रही हैं. विधायिका में आधे से अधिक अपराधी घुसे बैठे हों. उनसे विश्वविद्यालयों की बौद्धिक स्वायतता को लेकर जिरह कैसे हो ? मीडिया देशद्रोह और राष्ट्रदोह जैसे झूठे, अजन्मे शब्दों की जुगाली कर रहा है.

देश के विश्वविद्यालय बांबी नहीं हैं जिनमें औघड़ बाबाओं, दकियानूसों, पोंगा पंडितों, गुंडों, मजहबी लाल बुझक्कड़ों के सांप घुस जाएं. संविधान, देश और भविष्य का तकाजा है कि हर सवाल के लिए जनभावना के अनुकूल देश, संसद और सरकार मिल जुलकर सहिष्णुतानामा लिखें. दस दिनों तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय देश की धड़कन बना रहा. कथित तौर पर कुछ नारे गूंजे. ‘कश्मीर की आजादी, भारत की बरबादी‘, ‘पाकिस्तान जिंदाबाद‘, ‘घर घर होगा अफजल‘ वगैरह.

कुछ शब्द मसलन सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, नकली धर्मनिरपेक्षता, वंदेमातरम, हिन्दुत्व, पाकिस्तान जाओ, जयश्रीराम, पुलिस, गोगुंडे, टुकड़े टुकड़े गैंग, योगी आदित्यनाथ, रिपब्लिक टीवी, साध्वी प्रज्ञा, सुधीर चौधरी मिलकर सत्ता सुख की सक्रियता में होते हैं. कार्ल माक्र्स, बाबा साहब अंबेडकर, महात्मा गांधी, दलित, संविधान, ज्योतिबा फुले, रवीश कुमार, रोहित वेमुला, राष्ट्रीय ध्वज, कन्हैयाकुमार, जेएनयू, जामिया मिलिया, शरजील इमाम, शाहीन बाग वगैरह गहरी असहमति में होते रहे हैं.

शरजील को पुलिस ने राजद्रोह सहित अन्य अपराध में गिरफ्तार कर लिया. विपक्ष दक्षिणपंथी हस्तक्षेप के खिलाफ जागरूक विरोध करता रहा है. छात्रों, अध्यापकों और पर्दानशीन महिलाओं तक ने नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ विरोध कायम कर रखा.

राजद्रोह का अपराध वहां भी एक असंगत अपराध है जो हिंसक गतिविधियों से अलग हटकर बोलने, लिखने और किसी भी तरह की अभिव्यक्ति या संकेत तक को आजीवन कारावास देने से डराता है. राजद्रोह पूरी तौर पर असंवैधानिक है. अलग परिस्थितियों में उसे संविधानसम्मत ठहराया गया. राज्य की सुरक्षा आवश्यक है. साथ ही अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर सविधान में दी गई सुरक्षा गारंटियां भी हैं.

केदारनाथ सिंह के प्रकरण में किसी पत्रकार द्वारा अभिव्यक्ति की आजादी का कथित उल्लंघन करने का आरोप नहीं था. एक राजनीतिक व्यक्ति ने भी यदि सरकार के खिलाफ और आपत्तिजनक भाषा में जनआह्वान किया तो वह भी अपने परिणाम में टांयं टांय फिस्स निकला था. सुप्रीम कोर्ट ने इसीलिए यही कहा कि यदि कोई लोक दुर्व्यवस्था हो जाए या कोई लोक दुर्व्यवस्था होने की संभावना बना दे तो उससे राज्य की सुरक्षा को खतरा होने की संभावना बनती है. राज्य की सुरक्षा रहना लोकतंत्र के लिए आवश्यक है.

राज्य की सुरक्षा नामक शब्दांश बेहद व्यापक और संभावनाशील है. सरकार या सरकार तंत्र में बैठे हुक्कामों के खिलाफ कोई विरोध का बिगुल बजाता है तो उससे भर राज्य की सुरक्षा को खतरा हो सकता है. ऐसा भी तो सुप्रीम कोर्ट ने नहीं कहा. इसी नाजुक मोड़ पर गांधी सबके काम आते हैं. अंगरेजी हुकूूमत के दौरान गांधी कानूनों की वैधता को संविधान के अभाव में चुनौती नहीं दे पाते थे. फिर भी उन्होंने कानून का निरूपण किया.

जालिम कानूनों का विरोध करने के लिए गांधी ने जनता को तीन अहिंसक हथियार दिए – असहयेाग, निष्क्रिय प्रतिरोध और सिविल नाफरमानी. अंगरेजी हुकूमत से असहयोग, सिविल नाफरमानी या निष्क्रिय प्रतिरोध दिखाने पर तिलक, गांधी और कांग्रेस के असंख्य नेताओं को बार बार सजाएं दी गईं. इन्हीं नेताओं के वंशज देश में बाद में हुक्काम बने. आजादी के संघर्ष के दौरान जिस विचारधारा ने नागरिक आजादी को सरकारी तंत्र के ऊपर तरजीह दी, आज उनके प्रशासनिक वंशज इतिहास की उलटधारा में देश का भविष्य कैसे ढ़ूढ़ सकते हैं ?

राजद्रोह का अपराध राजदंड है. वह बोलती हुई रियाया की पीठ पर पड़ता है. अंगरेजों के तलुए सहलाने वाली मनोवृत्ति के लोग राजद्रोह को अपना अंगरक्षक मान सकते हैं. राज के खिलाफ द्रोह करना जनता का मूल अधिकार है, लेकिन जनता द्वारा बनाए गए संविधान ने खुद तय कर लिया है कि वह हिंसक नहीं होगा. यह भी कि वह राज्य की मूल अवधारणाओं पर चोट नहीं करेगा क्योंकि जनता ही तो राज्य है, उसके नुमाइंदे नहीं.

तिलक और गांधी को भी नहीं छोड़ा

राजद्रोह के सबसे प्रसिद्ध मुकदमों में एक के बाद एक तीन बार इस अपराध ने लोकमान्य तिलक को अपने नागपाश में बांधने की कोशिश की. 1895 में तिलक का पहला मामला उनके भाषण और भक्तिपूर्ण भजन गायन को शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक की स्मृति संबंधी आयोजन में दर्ज हुआ. तिलक ने सीधे शब्दों में किसी जनविद्रोह को भड़काने की बात बिल्कुल नहीं की थी, फिर भी उनकी राष्ट्रीय नस्ल की अभिव्यक्ति को जस्टिस स्ट्रैची ने राजद्रोह की परिभाषा में बांध दिया. जज का यही कहना हुआ कि सरकार के खिलाफ कोई उत्तेजना नहीं भी फैलाई, लेकिन दुश्मनी की भावना को तो भड़काया.

एक अन्य मामले में भी बंबई हाईकोर्ट ने इसी तरह दूसरे व्यक्ति के लिए सजा का ऐलान किया. इस घटना के बाद 1898 में धारा 124 (क) को लागू करने के मकसद से परिभाषा में संशोधन कर उसमें ‘घृणा’ और ‘अवमानना’ शब्द भी जोड़ दिए गए तथा ‘अप्रीति’ शब्द की विस्तारित परिभाषा में अवज्ञा को भी पादबिन्दु में स्पटीकरण के जरिए शामिल किया गया. परिभाषा में ‘शत्रुता’ और ‘गैरनिष्ठावान’ होना भी शामिल किया गया.

इसी संशोधन के जरिए दंड संहिता में धारा 153 क और 505 को पहली बार शामिल किया गया. इन संशोधनों पर बहस में तिलक के मुकदमे में बचाव पक्ष के तर्कों पर भी विचार किया गया था. इन आततायी प्रावधानों के कारण अंगरेज सरकार ने राष्ट्रवादी अखबारों पर विशेष उत्साह में बंबई प्रदेश में अपना शिकंजा कसना जारी रखा.

तिलक पर दूसरा मुकदमा 1908 में फिर चस्पा किया गया. बंगाल विभाजन के परिणामस्वरूप मुजफ्फरपुर में अंगरेजी सत्ता के खिलाफ बम कांड हुआ. उस कारण ब्रिटिश हुकूमत द्वारा किए जा रहे अत्याचारों की तिलक ने अपने समाचार पत्र ‘केसरी’ के लेखों के जरिए कड़ी आलोचना की. सरकार की दमनकारी हरकतों के कारण प्रतिक्रिया में जनता के साथ हिंसक झड़पें हो रही थी. जज दावर ने तिलक को राजद्रोह का दोषी ठहराया. कहा कोई भी सरकार के खिलाफ बेईमानी या अनैतिक इरादों से लांछन नहीं लगा सकता. फैसले ने अस्वीकृति और मनमुटाव जैसी मानसिक स्थितियों को ही गड्डमगड्ड कर दिया.

यह राजद्रोह के अपराध का ब्रिटिश हथकंडा था कि उसने आज़ादी की लड़ाई के बड़े सिपहसालारों तिलक, गांधी और एनी बेसेन्ट तक को नहीं बख्शा. 1908 में हुए तिलक के अपराधिक प्रकरण में बचाव पक्ष के वकील मोहम्मद अली जिन्ना की जानदार तकरीर भी किसी काम नहीं आई. तिलक को छह वर्ष के लिए कालापानी की सजा दे ही दी गई.

1897 के तिलक प्रकरण में भी ‘शिवाजी ने अफजल खां को मार दिया’ जैसे उल्लेख का निहितार्थ अंगरेज ने लगाया कि इन लेखों और भाषणों के कारण ही प्लेग कमिश्नर रैंड और दूसरे ब्रिटिश ऑफिसर लेफ्टिनेंट एम्हर्स्ट को एक सप्ताह बाद कत्ल कर दिया गया था. तिलक को सजा हुई. एक वर्ष बाद अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के विद्वान मैक्स वेबर के हस्तक्षेप के कारण इस शर्त पर छोड़ा गया कि वे सरकार के विरुद्ध घृणा या नफरत फैलाने जैसा कोई कृत्य नहीं करेंगे. हालांकि तिलक ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ राष्ट्रप्रेम की आग को बुझाने के बदले ज़्यादा तेजी से धधकाए रखा था.

बंगाल विभाजन की विभीषिका के कारण अंगरेज़ों ने ‘न्यूज़पेपर्स (इनसाइटमेंट टू आफेंसेस)’ ऐक्ट पारित किया. उसमें जिला मजिस्ट्रेट को अधिकार दिया गया था कि वे आरोप होने पर राजद्रोहात्मक प्रकाशन करने वाले प्रेस की संपत्ति को ही राजसात कर सकते हैं. एक और अधिनियम ‘दि सेडीशस मीडिया ऐक्ट’ भी पारित किया गया. उसके अनुसार बीस लोगों से अधिक एकत्र होने पर उसे अपराध माना जाता.

1916 में उप महानिरीक्षक पुलिस अपराधिक अन्वेषण विभाग, (सीआईडी) जे. ए. गाॅइडर ने पुणे के जिला मजिस्ट्रेट को आवेदन दिया कि तिलक अपने भाषणों में राजद्रोही भावनाएं भड़का रहे हैं. अधिकारी ने तिलक के तीन भाषणों को प्रस्तुत भी किया. एक भाषण बेलगाम में दिया था और दो अहमदनगर में. तिलक के वकील मोहम्मद अली ज़िन्ना ने राजद्रोह सबंधी कानून की बारीकियों को विन्यस्त करते बहस की कि तिलक ने अपने भाषणों में नौकरशाही पर हमला किया है. उसेे सरकार की आलोचना नहीं कहा जा सकता और उन्हें सजा देने का कोई तुक नहीं है.

गांधी ने राजद्रोह को आईना दिखाया

सबसे मशहूर मामला गांधी का हुआ. 1922 में गांधी एक सम्पादक के रूप में और समाचार पत्र ‘यंग इंडिया’ के मालिक के रूप में शंकरलाल बैंकर पर तीन आपत्तिजनक लेख छापे जाने के कारण राजद्रोह का मामला दोनों के खिलाफ दर्ज हुआ. मामले की सुनवाई में बहुत महत्वपूर्ण राजनेता अदालत में हाजिर रहते थे. पूरे देश में उस मामले को लेकर एक तरह का सरोकार था. जज स्टेगमैन के सामने गांधी ने तर्क किया कि –

वे तो साम्राज्य के पक्के भक्त रहे हैं लेकिन अब वे गैरसमझौताशील और असंतुष्ट बल्कि निष्ठाविहीन असहयोगी नागरिक हो गए हैं. ब्रिटिश कानून की अवज्ञा करना उन्हें नैतिक कर्तव्य लगता है. उन्होंने कहा यह कानून वहशी है. जज चाहें तो उन्हें अधिकतम सजा दे दें.

राजद्रोह का अपराध भारतीय दंड संहिता में राजनीतिक अपराधों का राजकुमार है जो नागरिक आजादी को कुचलना चाहता है. ब्रिटिश हुकूमत के लिए प्रेम या लगाव मशीनी तौर पर पैदा नहीं किया जा सकता और न ही उसे कानून के जरिए विनियमित किया जा सकता है. यदि एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से प्रेम या घृणा हो तो उसे अभिव्यक्त करने की आजादी होनी चाहिए, बशर्ते वह हिंसा नहीं भड़काए.

फिलहाल राजद्रोह के नाम पर ब्रिटिश हुकूूमत से लगाव नहीं होने के आरोप का अनुपालन करना है. यह हमारा सौभाग्य है कि ऐसा आरोप हम पर लगाया गया है. मुझे किसी प्रशासक के खिलाफ दुर्भावना नहीं है और न ही ब्रिटिश सम्राट के लिए. लेकिन इस सरकार से मनमुटाव या अप्रीति रखना मेरे लिए सदगुण है. मौजूदा सरकार ने भारतीयों पर पिछली किसी भी हुकूमत से ज्यादा नुकसान किया है. आज भारत की मर्दानगी कम हो गई है. ऐसा सोचते हुए इस सरकार के लिए प्रेम की भावना रखना पाप होगा. जैसा मैंने सोचा है, ठीक वैसा ही लिखा है.

गांधी ने आगे कहा कि ‘पंजाब के मार्शल लाॅ मुकदमों को उन्होंने पढ़ा है. 95 प्रतिशत सजायाफ्ता दरअसल निर्दोष रहे हैं. भारत में राजनीतिज्ञों पर मुकदमे चलाए जा रहे हैं. उनमें से हर दस में नौ लोग निर्दोष होते हैं. उनका यही अपराध है कि वे अपने देश से मोहब्बत करते हैं.’

जज स्टैंगमैन ने अपने आदेश में माना कि गांधी एक बड़े जननेता हैं. अहिंसा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर शक नहीं किया जा सकता. जज ने कहा कि वे मजबूर हैं कि उन्हें कानून का पालन करते गांधी को राजद्रोह का अपराधी ठहराना पड़ेगा. इस मामले में गांधी को छह वर्ष के कारावास की सजा दी गई थी.

लेकिन अच्छी तरह समझ लीजिए राजद्रोह भारतीय दंड संहिता से तभी हटेगा, जब कम से कम सात जजों की संविधान पीठ सुप्रीम कोर्ट बनाकर केदारनाथ सिंह के फैसले को साफ करे और पलट भी दे.

क्या है केदारनाथ सिंह का मामला ?

पंजाब हाईकोर्ट ने 1951 तथा इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 1959 में राजद्रोह को असंवैधानिक घोषित किया था लेकिन केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में 1962 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने राजद्रोह को संवैधानिक कह दिया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी कानून की एक व्याख्या संविधान के अनुकूल प्रतीत होती है और दूसरी संविधान के खिलाफ. तो न्यायालय पहली व्याख्या के अनुसार कानून को वैध घोषित कर सकते हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने 1960 में दि सुपरिटेंडेंट प्रिज़न फतेहगढ़ विरुद्ध डाॅ. राममनोहर लोहिया प्रकरण में भी पुलिस की यह बात नहीं मानी थी कि किसी कानून को नहीं मानने का जननेता आह्वान भर करे, तो उसे राजद्रोह की परिभाषा में रखा जा सकता है. बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने ‘खालिस्तान जिंदाबाद’ नारा लगाने के कारण आरोपियों को राजद्रोह के अपराध से मुक्त कर दिया था. कानून की ऐसी ही व्याख्या बिलाल अहमद कालू के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई.

सबसे चर्चित मुकदमा केदारनाथ सिंह के 1962 के सुप्रीम कोर्ट का फैसला है, जिसके कारण राजद्रोह का अपराध भारतीय दंड संहिता की आंतों में छुपकर नागरिकों को बेचैन और आशंकित करता, थानेदारों को हौसला देता रहता है. बिहार की फाॅरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य केदारनाथ ने कांग्रेस पर भ्रष्टाचार, कालाबाज़ार और अत्याचार सहित कई आरोप बेहद भड़काऊ भाषा में लगाए थे. पूंजीपतियों, जमींदारों और कांग्रेस नेताओं को उखाड़ फेंकने के लिए जनक्रांति का आह्वान भी किया.

निचली अदालत और हाईकोर्ट से केदारनाथ को राजद्रोह के अपराध में एक साल की सजा दी गई. मामला आखिरकार सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच तक पहुंचा. उसमें कई और लंबित पड़े मुकदमे भी जुड़ गए, ताकि राजद्रोह के अपराध की संवैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा एकबारगी सम्यक परीक्षण किया जा सके. चुनौतियां दी गई थीं कि राजद्रोह का अपराध पूरी तौर पर असंवैधानिक होने से उसे बातिल कर दिया जाए.

केदारनाथ सिंह के प्रकरण ने सरकारों के प्रति नफरत फैलाने और सरकार के खिलाफ हिंसक कृत्यों के लिए भड़काए जाने की दोनों अलग-अलग दिखती मनोवैज्ञानिक स्थितियों की तुलना की. बेंच ने राजद्रोह नामक अपराध की बहुत व्यापक परिभाषाओं में उलझने के बदले कहा कि भड़काऊ मकसदों, उद्देश्योें या इरादों से संभावित लोकशांति, कानून या व्यवस्था के बिगड़ जाने या हिंसा हो जाने की जांच की.

लंबे विचार-विमर्श के बाद राजद्रोह के अपराध को दंड संहिता से निकाल फेंकने की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने इन्कार कर दिया. केदारनाथ सिंह ने तो यहां तक कहा था कि ‘सीआईडी के कुत्ते बरौनी के आसपास निठल्ले घूम रहे हैं. कई कुत्ते-अधिकारी बैठक में शामिल हैं. भारत के लोगों ने अंगरेज़ों को भारत की धरती से निकाल बाहर किया है, लेकिन कांग्रेसी गुंडों को गद्दी सौंप दी. आज ये कांग्रेसी गुंडे लोगों की गलती से गद्दी पर बैठ गए हैं. यदि हम अंगरेज़ों को निकाल बाहर कर सकते हैं, तो कांग्रेसी गुंडों को भी निकाल बाहर करेंगे.’

अन्य कई पहले के फैसलों को भी साथ-साथ पलटते सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चाहे जिस प्रणाली की हो, प्रशासन चलाने के लिए सरकार तो होती है. उसमें उन लोगों को दंड देने की शक्ति भी होनी चाहिए जो अपने आचरण से राज्य की सुरक्षा और स्थायित्व को नष्ट करना चाहते हैं. ऐसी दुर्भावना इसी नीयत से फैलाना चाहते हैं, जिससे सरकार का कामकाज और लोक व्यवस्था बरबाद हो जाए.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही कुछ पुराने मुकदमों पर निर्भर करते कहा कि राजद्रोह की परिभाषा में ‘राज्य के हित में’ नामक शब्दांश की बहुत व्यापक परिधि है. उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती. ऐसे किसी कानून को संवैधानिक संरक्षण मिलना ही होगा. सुप्रीम कोर्ट ने कहा यह अपराध संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत राज्य द्वारा सक्षम प्रतिबंध के रूप में सुरक्षित समझा जा सकता है.

केदारनाथ सिंह से अलग सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने लोहिया के प्रकरण में इसके उलट आदेश दिया था. पिछली पीठ के चार जज इसी दरमियान रिटायर हो चुके थे. जानना दिलचस्प है कि केदारनाथ सिंह के प्रकरण में सुुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने संविधान सभा द्वारा राजद्रोह की छोड़छुट्टी का तथ्य भी उल्लिखित नहीं किया.

इसके और पहले 1951 में सुप्रीम कोर्ट ने रमेश थापर की पत्रिका ‘क्राॅसरोड्स’ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्य पत्र ‘आर्गनाइज़र’ में क्रमशः मद्रास और पंजाब की सरकारों द्वारा प्रतिबंध लगाने के खिलाफ बेहतरीन फैसले दिए थे. उनके कारण नेहरू मंत्रिपरिषद को संविधान में संशोधन करते हुए अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगाने के आधारों को संशोधित करना पड़ा था.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राजद्रोह का अपराध ‘राज्य की सुरक्षा’ ‘लोकव्यवस्था’ की चिंता करता हुआ बनाया गया है इसलिए उसे दंड संहिता से बेदखल नहीं किया जा सकता. यह भी समझना होगा कि कानूनसम्मत सरकार अलग अभिव्यक्ति है. उसको चलाने वाले अधिकारियों को सरकार नहीं माना जा सकता. सरकार कानूनसम्मत राज्य का दिखता हुआ प्रतीक है. सरकार ध्वस्त हो गई तो राज्य का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा.

इस लिहाज़ से राजद्रोह को दंड संहिता की परिभाषा में रखा जाना मुनासिब होगा, बशर्ते ऐसा कृत्य अहिंसक हो. क्रांति वगैरह की गुहार में हिंसा के तत्व की अनदेखी नहीं की जा सकती. सरकार के खिलाफ कितनी ही कड़ी भाषा का इस्तेमाल करते उसके प्रति भक्तिभाव नहीं भी दिखाया जाए, तो उसे राजद्रोह नहीं कहा जा सकता. जनभावना को हिंसा के लिए भड़काने और लोकव्यवस्था को ऐसे कृत्यों द्वारा खतरे में डालने की स्थिति में ही राजद्रोह के अपराध की संभावना मानी जा सकती है.

दरअसल केदारनाथ सिंह के प्रकरण में बहुत बारीक व्याख्या करने के बावजूद मौजूदा परिस्थितियों में अंगरेजों के जमाने के इस आततायी कानून को जस का तस रखे जाने में संविधान को भी असुविधा महसूस होनी चाहिए. रमेश थापर के प्रकरण में मद्रास सरकार ने कम्युनिस्ट पार्टी को ही अवैध घोषित कर उस विचारधारा से जुड़ी पत्रिका ‘क्राॅसरोड्स’ के वितरण पर इसलिए भी प्रतिबंध लगा दिया था कि पत्रिका नेहरू की कड़ी आलोचना करती थी. ‘आर्गनाइज़र’ के खिलाफ दिल्ली के मुख्य आयुक्त ने यह आदेश दिया था कि उन्हें सभी सांप्रदायिक नस्ल की खबरें और खतरे को पाकिस्तान से जुड़े समाचारों को स्क्रूटनी के लिए भेजना होगा.

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