चीन जिस तरह विराट पैमाने का उत्पादन करने में सक्षम हुआ, उस तरह भारत ‘जगतगुरू’ होते हुए भी क्यों नहीं कर सका ?
हमारे देश का शासक वर्ग चीन को सबसे बड़ा दुश्मन घोषित करने के लिये पूरे दम-खम के साथ प्रचार करता रहा है, परन्तु चीन की निर्णायक शक्ति कहां है, शासक वर्ग यह बताने से डरता है. वह चीन की ‘सैनिक शक्ति’ और भारत की ‘सैनिक शक्ति’ का तुलनात्मक अध्ययन देश की जनता के समक्ष प्रस्तुत करता रहता है. क्या चीन की निर्णायक शक्ति उसकी सेना में है ?
बेशक चीन की सेना ताकतवर है, परन्तु सेना के बल पर चीन पूरी दुनिया के बाजार पर नहीं छा गया है. भारत के बाजार में चीन का माल चीन की सेना के बल पर नहीं बिक रहा है. अतः चीन की खासियत क्या है, इसे जानना बहुत जरूरी है.
अन्धराष्ट्रवादी बनकर अपने देश के क्रूर शासक वर्ग से प्रेम और विदेशियों से घृणा करने वाली नीति से जनता का भला नहीं होगा बल्कि विदेशियों में कुछ अच्छाइयां हैं तो उन अच्छाइयों को सीखना पड़ेगा. चीन से क्या सीखा जा सकता है, क्या नहीं सीखा जा सकता, इसका अध्ययन करने के लिए विश्वगुरू का घमण्ड त्यागकर अपनी कमजोरियों तथा विदेशियों की अच्छाइयों को विनम्रतापूर्वक स्वीकार करना पड़ेगा.
जहां क्रांतिकारी शक्तियां जनता की चेतना को आगे बढ़ाने के लिए तर्क-वितर्क, ज्ञान विज्ञान को बढ़ावा देती हैं, वहीं शासक वर्ग क्रांति को रोकने के लिए समाज की चेतना को पीछे ले जाता है. इसीलिए शासक वर्ग आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की निन्दा करता है तथा प्राचीन गप्पबाजियों को सबसे बड़ा ज्ञान बताकर प्राचीनता की दुहाई देता है और आस्था के नाम पर तर्क पर पाबन्दी लगाता है.
शासक वर्ग ने अपने प्रचार माध्यमों से हमारे अन्दर विश्वगुरू होने का घमण्ड भर दिया है. यह घमण्ड हमें सीखने नहीं देता. इस घमण्ड के कारण ही कुछ लोग जातिवाद, वर्ण व्यवस्था, छुआ-छूत, धार्मिक अंधविश्वास आदि से घृणा करने की बजाय उसे जायज ठहराने में लगे हुए हैं. विश्वगुरू होने के घमण्ड के कारण ही हम अपनी कमियों की तरफ नहीं देखते.
कोई व्यक्ति, संस्था या देश जब तक अपनी कमियां को नहीं देखता तब तक उसके आत्मसुधार की सम्भावनायें नहीं बनती. कुछ विश्वगुरुओं को प्राचीन काल की गप्पबाजी पर बड़ा घमण्ड है. उन्हें घमण्ड है कि वैदिक युग में हमारे पास हवाई जहाज था, कम्प्यूटर था, टेलीविजन था, परमाणु बम था, आदमी का सर काटकर उसके धड़ पर हाथी का सिर जोड़ देने की तकनीक थी. इस तरह से और भी अनेकों गप्प हैं जिस पर उन्हें घमण्ड है कि ‘वैदिक ज्ञान आज के ज्ञान से कहीं अधिक जटिल था.’
शासक वर्ग कहता है कि यूरोप वाले हमारे वेदों को चुरा ले गये और उसी के अधार पर वे सारे वैज्ञानिक अविष्कार कर रहे हैं. मगर सच्चाई यह है कि किसी विदेशी को ऐसी किताबें चुराने की जरूरत ही नहीं थी क्योंकि ऐसी गप्प से भरी किताबें दुनिया भर की सभी प्राचीन सभ्यताओं वाले देशों में थी. यूरोप के प्राचीन ग्रंथों में भी ऐसी गप्पबाजियां भरी थी, मगर यूरोप वालों ने ऐसी किताबों को अजायब घर में रख दिया और विकास की उंचाइयों को छुआ.
चीन के भी प्राचीन ग्रंथों में इस तरह की अनेक कहानियां भरी पड़ी हैं. एक कहानी में बताते हैं कि ‘प्राचीन काल में आकाश में 10 सूर्य एक साथ उगते थे, जिससे प्रचण्ड गर्मी निकलती थी. जिससे फसलें सूख जाती थी. सारे जीव-जन्तु परेशान थे. जनता भूखों मरती थी. तत्कालीन राजा के हुक्म पर एक धनुर्धारी ने दस में से नौ सूर्य को अपने बाण से मार गिराया, तब लोग खुशहाल हुए.’
ऐसी गप्प भरी किताबों को चीन ने अजायबघरों में रख दिया, परन्तु हमारे देश में ऐसी किताबों को ज्ञान का भण्डार कहकर उसे पुजवाने की कोशिश जारी है. शासक वर्ग को इन सारे प्राचीन ग्रंथों में लिखी गयी अतिशयोक्तिपूर्ण कहानियों पर बड़ा घमण्ड है और लोगों को भी घमंड करने के लिए बाध्य कर रही है.
ऐसा घमण्ड करने वालों को यह भी नहीं मालूम कि प्रकृति में अब तक जो भी विकास होता रहा है, वह सरलता से जटिलता की ही ओर हुआ है. सरलता पहले, जटिलता बाद में आयी. चाहे जीवों का विकास हो या मानव समाज का, वह सरलता से जटिलता की ही ओर हुआ है. इसी आधार पर हम कह सकते हैं कि अण्डा पहले आया मुर्गी बाद में आयी क्योंकि अण्डे की संरचना सरल है जबकि मुर्गी की संरचना जटिल है.
सवाल उठता है कि मुर्गी नहीं तो अण्डा कैसे ?
दरअसल वस्तुगत परिस्थितियों के अनुकूल होने पर कहीं भी और कभी भी अण्डा बन सकता है. वस्तुगत परिस्थिति की भूमिका को समझने के लिये परखनली शिशु एक प्रचलित मिशाल है – जो परिस्थिति मां के गर्भ में होती है, वही परिस्थिति परखनली में पैदा करके वैज्ञानिकों ने परखनली शिशु बनाकर दिखा दिया है. क्लोनिंग तकनीक इसका अत्याधुनिक उदाहरण है. इससे यह सिद्ध होता है कि अण्डे के लिए मुर्गी का होना जरूरी नहीं बल्कि भौतिक परिस्थितियों का होना जरूरी है.
विकास के क्रम में सरल चीजें पहले, जटिल चीजें बाद में आती हैं, यही प्रकृति का नियम है. परन्तु रामराज्य की रट लगाने वाले इस नियम के खिलाफ हैं. वे गप्पबाजियों को सच्चाई मानकर उस पर घमण्ड कर रहे हैं. वे समाज के विकास के नियमों का अध्ययन नहीं करना चाहते. उन्हें घमण्ड है कि सारा ज्ञान उनके वेदों में भरा पड़ा है, मगर वे घमण्डी लोग अपने बच्चों को वेद नहीं पढ़ाते.
उनसे पूछा जाना चाहिये कि अगर सारा ज्ञान वेदों में ही है तो वे अपने बच्चों को बड़े-बड़े महंगे कान्वेन्ट स्कूलों में भेजकर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा क्यों दिलाते हैं ? अपने बच्चों को आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और जनता के लिये अंधविश्वास पर आधारित प्राचीन गप्पबाजियों से भरे वेद, आखिर क्यों ? वे चीन के मामले में भी यही साजिश कर रहे हैं. खुद तो शापिंग मॉल खोलकर चीन का सस्ता माल खरीदकर महंगे में बेचकर मोटा मुनाफा कमा रहे हैं और शेष जनता को चीन के खिलाफ घृणा की शिक्षा दे रहे हैं, आखिर क्यों ?
आप इस मुगालते में मत रहिए कि टाटा, बिड़ला, अडानी, अम्बानी, डालमिया… समेत हम सभी भारतवासी एक हैं. अमीर और गरीब, शोषक और शोषित इन दो खेमों में पूरी दुनिया बंटी हुई है. हमारा देश भी अमीर और गरीब दो खेमों में बंटा है. आप इस मुगालते में भी मत रहिए कि आने वाले दिनों में अमीरों और गरीबों के बीच भीषण जंग होगी. अमीर और गरीब के बीच जंग तो जारी है.
आप देश के किसी भी कोने में हों मगर आप युद्ध के मैदान में खड़े हैं. इस युद्ध में बम-गोले भले न फूट रहे हों, मगर महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, नशाखोरी, अश्लीलता, अंधविश्वास, सूदखोरी, जमाखोरी, अशिक्षा…. के रूप में आम आदमी के ऊपर हमला हो रहा है. जाति, धर्म, क्षेत्र, रंग, लिंग, नस्ल, भाषा… आदि के नाम पर लड़ाना भी हमले का ही एक तरीका है. इस प्रकार अमीर और गरीब दोनों के बीच संघर्ष भी जारी है.
अतः अंधभक्ति और अंधश्रद्धा का चश्मा उतारकर पूरे मामले को वर्गीय नजरिये से देखना पड़ेगा. अगर वास्तव में चीन ही बड़ा दुश्मन है तो उसका जवाब देना पडे़गा. किसी तरह का जवाब देने से पहले यह समझना जरूरी है कि किसी विचार या चेतना की उड़ान कितनी भी ऊंची हो जाये परन्तु उसका आधार भौतिक ही होता है. अतः अंधराष्ट्रवादियों की तरह झूठे जज्बातों में फंसने की बजाय दोनों देशों की आर्थिक नीतियों का तुलनात्मक अध्ययन जरूरी है.
- रजनीश भारती
(राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा, उ. प्र.)
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