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असम मिजोरम सीमा विवाद : संघियों का खंड खंड भारत

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असम मिजोरम सीमा विवाद : संघियों का खंड खंड भारत

70 साल की नाकामी और अखण्ड भारत का ढ़िढ़ोरा पिटते हुए देश की सत्ता पर काबिज संघी ऐजेंट नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश एक ओर जहां बदहाली के मुकाम पर पहुंच गई है, वहीं दुनिया की कौन कहे अब देश के अंदर राज्यों के बीच हिंसक झड़प शुरू शुरू हो गया है, जिसमें राज्य पुलिस की सीधी भागीदारी हो गई है, बल्कि राज्य प्रदत्त शस्त्रों का प्रयोग कर पुलिस की ही हत्या कर दी गई. हम असम-मिजोरम के बीच सीमा विवाद पर जारी हिंसा पर बात कर रहे हैं, जिससे दोनों सीमाओं के बीच आवाजाही तक को बंद कर दिया गया था.

दोनों राज्यों के संयुक्त बयान के बाद भी हिंसा थमने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है. पिछले कई दिनों से जारी नाकाबंदी शनिवार रात से खुल गई थी और विवाद थमता नजर आ रहा था, लेेकिन एक बार फिर से दोनों राज्यों के बीच विवाद की आग धधकने लगी है. इसी कड़ी में रविवार को असम के लैलापुर में मिजोरम जा रहे 9 वाहनों पर स्थानीय लोगों ने हमला कर दिया. कहा जाता है कि इस हमले में पुलिस की मौन सहमति वाली भूमिका थी.

दरअसल सिलचर से पुलिस और सीआरपीएम के घेरे में 9 गाड़ियां मिजोरम के लिए निकली थी. इन ट्रकों में जीवनरक्षक दवाईयां, खाने-पीने की चीजों जैसी कई जरूरी चीजें रखी थीं. कई घंटे की यात्रा के बाद जब इन गाड़ियों का काफिला लैलापुर पहुंचा तो अचानक सैकड़ों लोग एक साथ इन पर धावा बोल दिया. इस घटना में कुछ ड्राईवर भाग गये तो कुछ भीड़ के हत्थे चढ़ गये. इस बीच साथ आई पुलिस कुछ देर बाद यहां पहुंची और भीड़ को हटा कर ट्रकों को वापस सिलचर ले गई. इस हमले में कई लोग घायल हो गए.

पांच पुलिसकर्मियों की मौत और 50 घायल

इससे पहले जब यह मामला सूर्खियों में आया था तब देश के पूर्वोत्तर के दो राज्यों असम और मिजोरम के बीच सीमा विवाद को लेकर हिंसा भड़कने से पांच पुलिसकर्मियों की मौत हो गई थी और 50 से अधिक घायल हो गए थे. घायल होने वालों में एक पुलिस अधीक्षक भी शामिल था. इन दो राज्यों के बीच सीमा विवाद 150 साल पुराना है. इसे लेकर दोनों राज्यों में अक्सर विवाद होता रहा है. लेकिन भारत के इतिहास में ये पहली बार हुआ है कि सीमा विवाद को लेकर इतनी हिंसक स्थिति बनी और दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री तक (जो भाजपाई और भाजपा समर्थित) आपस में ट्विटर पर भिड़ गए. सोशल मीडिया पर भी ये विवाद छाया रहा.

ये पूरा संघर्ष तब शुरू हुआ जब विगत रविवार को दिन के 11.30 बजे कछार ज़िले के वैरंगते ऑटो रिक्शा स्टैंड के पास बने सीआरपीएफ़ पोस्ट में असम के 200 से ज़्यादा पुलिसकर्मी पहुंचे. इन लोगों ने मिज़ोरम पुलिस और स्थानीय लोगों पर बल प्रयोग किया. पुलिस के बल प्रयोग को देखते हुए जब स्थानीय लोग वहां जमा हुए तो उन पर पुलिस ने लाठी चार्ज और टियर गैस का इस्तेमाल किया. जब असम पुलिस ने ग्रेनेड फेंके और फ़ायरिंग की तो मिज़ोरम पुलिस ने शाम चार बजकर 50 मिनट पर फायरिंग की

असम और मिजोरम में चल रहे सीमा विवाद के बीच नॉर्थ-ईस्ट के 16 बीजेपी सांसदाें के एक प्रतिनिधिमंडल पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात कर आरोप लगाया कि असम और मिजोरम में हुए हालिया संघर्ष को लेकर कांग्रेस पार्टी राजनीति कर रही है. वह पूर्वोत्तर को हिंसा के आग में झोंकना चाहती है. जबकि हकीकत यह है कि देश को हिंसा और बदहाली की आग में झोंकने वाला खुद नरेन्द्र मोदी और उसका सिपहसालार अमित शाह है, जो अंग्रेजों का जासूस और देशद्रोही और असामाजिक ताकतों का संगठित संगठन आरएसएस का ऐजेंट है.

संघी ऐजेंटों की निर्लज्जता

उक्त निकम्मा और धूर्त भाजपा सांसद जो किसी भी प्रकार की जिम्मेदारी से पीछा छुड़ाता है, और श्रेय लेने का भूखा नरभेड़िया है, कहता है – विदेशी ताकतें भी इस घटना को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रही हैं और लोगों को उकसाने का काम कर रही हैं, इस पर तत्काल रोक लगाने की जरूरत है. पूर्वोत्तर सीमा विवाद कांग्रेस पार्टी की ही देन है. अगर देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी ने नगा-मिजो समस्या को गंभीरता से लेकर समाधान किया होता तो आज ये स्थिति नहीं होती. कांग्रेस के शासन में अगर शुरुआती दौर में ही चीन पर कड़े कदम उठाए गए होते तो आज अरुणाचल प्रदेश के लोग और शंति के साथ चैन की नींद सो रहे होते.

देखा अपने, क्या गजब का निर्लज्ज वक्तव्य है, इन भाजपाई गुण्डों का. यह भाजपाई बेशर्म तो कई बार भारत की दुर्दशा के लिए सम्राट अशोक तक को जिम्मेदार ठहरा चुका है, फिर नेहरु और गांधी की क्या बिसात ! ये संघी एजेंट इस कदर धूर्त और गरिमाविहीन पशु हैं, जिसकी दुनिया के पैमाने पर कोई मिसाल नहीं मिलती, जिसे न तो शर्म ही आती है और न ही बुद्धि.

असम मिजोरम का काफी पुराना है सीमा विवाद

दोनों राज्यों के बीच सीमा विवाद तो रहा है, लेकिन दोनों राज्यों की पुलिस एक-दूसरे के सामने खड़े होकर गोलियां चलाने लगे, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. इन दोनों राज्यों के बीच सीमा विवाद काफ़ी पुराना है. अलग-अलग जगहों से झड़प की ख़बरें आती रहती है, लेकिन ये इतना बड़ा विवाद हो जाएगा कि फ़ायरिंग में पुलिसकर्मियों की मौत हो जाएगी, इसका अंदाज़ा शायद ही किसी को होगा.

असम-मिज़ोरम के बीच यह विवाद 1875 की एक अधिसूचना से उपजा है, जो लुशाई पहाड़ियों को कछार के मैदानी इलाकों से अलग करता है. मिजोरम पड़ोसी राज्य असम के साथ 164.6 किलोमीटर की सीमा साझा करता है. मिज़ोरम पहले 1972 तक असम का ही हिस्सा था. यह लुशाई हिल्स नाम से असम का एक ज़िला हुआ करता था, जिसका मुख्यालय आइजोल था.

वो हिस्सा जिस पर असम और मिजोरम दोनों दावा करते हैं. हालांकि जब मिजोरम लुशाई हिल्स के नाम से असम का हिस्सा था, तब भी इसकी मिज़ो आबादी और लुशाई हिल्स का क्षेत्र निश्चित था. इसी क्षेत्र को 1875 में ब्रिटिश राज में चिन्हित किया गया था. मिज़ोरम की राज्य सरकार इसी के मुताबिक अपनी सीमा का दावा करती है, जबकि असम सरकार यह नहीं मानती है. असम सरकार 1933 में चिन्हित की गई सीमा के मुताबिक अपना दावा करती है. इन दोनों के माप में काफ़ी अंतर है. विवाद की असली वजह एक-दूसरे को ओवरलैप करती 1318 वर्ग किलोमीटर का हिस्सा है, जिस पर दोनों सरकारें दावा छोड़ने को तैयार नहीं हैं.

हालांकि मिजोरम से जो रिपोर्ट्स आई हैं, उनका कहना है कि 1875 का नोटिफ़िकेशन बंगाल ईस्टर्न फ़्रंटियर रेगुलेशन (बीइएफ़आर) एक्ट, 1873 के तहत आया था, जबकि 1933 में जो नोटिफ़िकेशन आया उस वक़्त मिज़ो समुदाय के लोगों से सलाह मशविरा नहीं किया गया था, इसलिए समुदाय ने इस नोटिफ़िकेशन का विरोध किया था.

सीमा की स्थिति असम के साथ साझी की जाने वाली मिज़ोरम की सीमा पर उसके तीन ज़िले आइजोल, कोलासिब और ममित आते हैं. वहीं, इस सीमा पर असम के कछार, करीमगंज और हैलाकांदी ज़िले भी हैं. पिछले साल अक्टूबर में असम के कछार ज़िले के लैलापुर गांव के लोगों और मिज़ोरम के कोलासिब ज़िले के वैरेंगते के पास स्थानीय लोगों के बीच सीमा विवाद को लेकर हिंसक संघर्ष हुआ था, तब 08 लोग इसमें घायल हुए थे.

असम का दूसरे राज्‍यों से भी है सीमा विवाद

देश की आजादी के बाद असम को एक अलग राज्य के रूप में मान्यता मिली परन्तु, इसके बाद से असम के मूल रूप में परिवर्तन होना शुरू हो गया. सबसे पहले वर्ष 1951 में उत्तरी कामरूप को भूटान को दे दिया गया. वर्ष 1972 में असम की राजधानी शिलॉन्ग को मेघालय की राजधानी घोषित किया गया और गुवाहाटी को असम की राजधानी बनाया गया. इसके बाद मेघालय, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम को अलग किया गया.

नॉर्थ ईस्‍ट में अक्‍सर बॉर्डर पर कई मुद्दों को लेकर तनाव की स्थिति रहती है. असम का मेघालय, नागलैंड, अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम के साथ सीमा विवाद है. मेघालय के अलावा अक्‍सर असम का कभी-कभी नागालैंड से भी विवाद होता रहता है. पिछले वर्ष मिजोरम के साथ बॉर्डर को लेकर तनाव रहा था. मेघालय के साथ दशकों पुराने सीमा विवाद ने पिछले वर्ष जोर पकड़ा था. कोरोना वायरस महामारी की वजह से देश में साल 2020 में लॉकडाउन लगा तो मेघालय की ओर से असम के व्यापारियों की आवाजाही पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए गए. इन पाबंदियों की वजह से आग और भड़क गई.

मेघालय के साथ असम का सीमा विवाद

असम के साथ मेघालय का सीमा विवाद साल 1972 में गठन के साथ ही शुरू हो गया था. मेघालय कम से कम 12 इलाकों पर अपना दावा करता है और ये सभी इलाके असम के कब्‍जे में हैं. जिन जगहों पर मेघालय अपना दावा करता है उनमें अपर ताराबाड़ी, गिजांग रिजर्व फॉरेस्‍ट, हाहिम एरिया, लंगपिह एरिया, बोरडवार एरिया, नोंगवाह-मावतामुर एरिया, पिलींग्‍काता-खानापारा, देशदेमोरिया, खांदुली, उ‍मकिखरयानी-पिसियार, ब्‍लॉक I और ब्‍लॉक II के अलावा रताछेरा पर मेघालय अपना दावा करता है.

दोनों राज्य एक ही नीति का पालन करते हैं. इस नीति के तहत कोई भी राज्य दूसरे राज्य को बताए बिना विवादित इलाकों में डेवलपमेंट प्रोजेक्‍ट शुरू नहीं कर सकते हैं. यह विवाद उस समय शुरू हुआ जब मेघालय ने असम पुनर्गठन अधिनियम, 1971 को चुनौती दी. इस एक्‍ट के तहत असम को जो इलाके दिए गए थे उसे मेघालय ने खासी और जयंतिया पहाड़ियों का हिस्सा होने का दावा किया था. सीमा पर दोनों पक्षों के बीच नियमित रूप से झड़पें हुई हैं. नतीजन दोनों राज्यों में बड़े पैमाने पर स्थानीय लोगों के विस्थापन के साथ ही जान-माल का भी नुकसान हुआ है.

इस विवाद को सुलझाने के लिए सरकारों की तरफ से कई समितियां बनाई गईं. दोनों राज्यों के बीच कई दौर बातचीत भी चली लेकिन कुछ नतीजा नहीं निकल सका. सीमा विवाद की जांच और उसे सुलझाने के लिए सन् 1985 में वाईवी चंद्रचूड़ कमेटी को बनाया गया. मगर उसकी रिपोर्ट भी अटक गई और ठंढे बस्ते में डाल दी गई. मिजोरम और असम के बीच पिछले वर्ष अक्‍टूबर में हुई हिंसा के बाद राज्य में इस विवाद को शीघ्र सुलझाने की मांग उठने लगी.

साल 2022 में मेघालय के गठन को 50 वर्ष पूरे हो जाएंगे और मेघालय ने कहा है कि इसे 50 साल पूरे होने से पहले सुलझा लिया जाए. फिलहाल इस विवाद को सुलझाने के लिए एक बार फिर मुख्‍यमंत्रियों की मीटिंग हुई है. पहले भी इस मुद्दे पर दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों और मुख्य सचिवों के बीच कई बैठकें हो चुकी हैं. लेकिन विवाद जस का तस है.

प्राचीन ग्रंथों और इतिहास में इस भूभाग का उल्लेख

देश के पूर्वोत्तर राज्य असम का सर्वप्रथम उल्लेख प्राचीन हिंदू पुराणों में प्राग्ज्योतिषपुर अथवा कामरूप के नाम से मिलता है. शिव महापुराण में सती दहन की कथा का वर्णन है. इस कथा के अनुसार सती की मृत्यु के बाद जब शिव सती के शव को लेकर भटक रहे थे तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को कई टुकड़ों में विभक्त कर दिया था, इन्हीं में से एक अंग तत्कालीन प्राग्ज्योतिषपुर की नीलाचल पहाड़ियों में गिरा जिसे आज कामाख्या कहा जाता है.

इस घटना के बाद भगवान शिव तपस्या में लीन हो गए. उनकी तपस्या भंग करने के लिए कामदेव ने उन पर अपने पुष्पबाणों का संधान किया, फलस्वरूप शिव की तपस्या भंग हो गई और उन्होंने कामदेव को भस्म करने के लिए अपना तीसरा नेत्र खोल दिया. जिस स्थान पर यह घटना हुई, उसे कामरूप कहा गया.

हरियाली से आच्छादित पहाड़ियों और ब्रह्मपुत्र की सहायक नदियों से घिरा कामरूप किसी समय आदिवासियों का प्रमुख निवासस्थान था. गुप्त वंश के महान शासक समुद्रगुप्त के समय यह गुप्त साम्राज्य का हिस्सा था. माना जाता है कि 1228 ईस्वी में यहां पर अहोम जाति के लोग आए तथा उन्होंने अगले छह सौ वर्षों तक राज्य की सत्ता में अपना एकाधिकार बनाए रखा. हालांकि बीच-बीच में चीन तथा अन्य क्षेत्रों से भी यहां पर लोग आते रहें और यही की सभ्यता में घुलते रहें.

अंग्रेजी शासनकाल में पूर्वोत्तर भारत

19वीं सदी में जब पूरा भारत देश अंग्रेजों के अधीन जा रहा था, उसी समय वर्ष 1832 में कछार तथा 1835 में जैंतिया हिल्स पर भी अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया. वर्ष 1874 में ब्रिटिश सरकार ने इस पूरे क्षेत्र को नया राज्य मानते हुए शिलांग को इसकी राजधानी घोषित किया. उस समय पहली बार इस क्षेत्र को भारत के एक राज्य के रूप में देखा गया.

9 अप्रैल 1946 को मिजो कॉमन पीपल्स यूनियन का गठन किया गया था. इस संगठन का काम मिजो लोगों के हितों की रक्षा करना था. बाद में इस संगठन को मिजो यूनियन भी कहा जाने लगा. आजादी के बाद एक अन्य पार्टी यूनाइटेड मिजो फ्रीडम का गठन किया गया जो लुशाई हिल्स को बर्मा में मिलाना चाहती थी परन्तु ऐसा नहीं हो सका. उन्हें स्वतंत्र भारत के एक पूर्ण राज्य असम का ही अभिन्न अंग माना गया.

मिजोरम 1972 तक असम का ही एक हिस्सा था. वर्ष 1972 में इसे एक यूनियन टेरिटरी घोषित किया गया, जिसे वर्ष 1987 में एक पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया गया. इसके बाद से मिजोरम और असम के मध्य कई बार विवाद हो चुके हैं.

पूर्वोत्तर राज्यों के साथ भारत का भेदभाव

देश की आजादी के सात दशक बाद भी पूर्वोत्तर के ज्यादातर राज्य खुद को इसका हिस्सा नहीं मान सके हैं. खासकर मणिपुर में तो अलगाव की भावना सबसे ज्यादा है. मणिपुर में बहुत से लोग मानते हैं कि राज्य का भारत में जबरन विलय हुआ था. इसी वजह से राज्य के उग्रवादी संगठनों ने एक बार फिर 15 अगस्त के बायकाट और बंद की अपील की. इससे पहले पूर्वोत्तर के आधा दर्जन अन्य ऐसे संगठन भी यही अपील कर चुके थे. स्वाधीनता दिवस के बायकाट का यह सिलसिला भी देश की आजादी जितना ही पुराना है.

आजादी के बाद अलगाव की इस भावना ने ही इलाके के तमाम राज्यों में विद्रोही संगठनों को फलने-फूलने में मदद पहुंचाई है. वह चाहे असम का यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आफ असम (उल्फा) हो, नागालैंड का नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड (एनएससीएन) हो या फिर दूसरे दर्जनों संगठन, आम लोगों की इस भावना के दोहन के जरिए ही वे अपनी दुकान चलाते रहे हैं. छोटे-से पर्वतीय राज्य मणिपुर में तो यह भावना सबसे प्रबल है. ऐसे में यह कोई हैरत की बात नहीं है कि पूर्वोत्तर के तमाम राज्यों के मुकाबले सबसे ज्यादा विद्रोही संगठन इसी राज्य में सक्रिय हैं.

यह तमाम संगठन हर साल स्वाधीनता दिवस के बायकाट की अपील करते रहे हैं. केंद्र और राज्य सरकार के साथ समझौते या शांति प्रक्रिया शुरू होने के बाद उल्फा और बोडो संगठनों ने तो अब अपने पांव पीछे खींच लिए हैं, लेकिन बाकी तमाम संगठन अब भी इसी राह पर चल रहे हैं.

द कोऑर्डिनेशन कमिटी एंड एलायंस फॉर सोशल यूनिटी कांग्लीपाक के बैनर तले राज्य के कई विद्रोही संगठन शामिल हैं. इस कमिटी कहा था, ‘भारत की आजादी का मणिपुर से कोई लेना-देना नहीं है. हर क्षेत्र में पिछड़े होने की वजह से मणिपुर अब तक विकास की दौड़ में शामिल नहीं हो सका है. भारत से आजादी नहीं मिलने तक राज्य का विकास संभव नहीं है.’ कमिटी का दावा है कि 15 अक्तूबर, 1949 को जबरन विलय के बाद से ही मणिपुर भारत का उपनिवेश रहा है. ऐसे में राज्य के लोगों के लिए स्वाधीनता दिवस का कोई मतलब नहीं है.

इससे पहले असम, मणिपुर, मेघालय और त्रिपुरा के छह संगठनों ने भी स्वाधीनता दिवस समारोहों के बायकाट का अपील किया था. इनका कहना है कि इलाके के राज्यों को तो देश का हिस्सा कहा जाता है. लेकिन यहां के लोगों के साथ बड़े पैमाने पर भेदभाव और जातीय हिंसा होती है.

इतिहास में मणिपुर

देश की आजादी के करीब दो साल बाद मणिपुर के महाराजा बोधचंद्र सिंह और केंद्र सरकार के प्रतिनिधि वी. पी. मेनन ने विलय के समझौते पर 21 सितंबर, 1949 को हस्ताक्षर किए थे. 19वीं सदी की शुरुआत तक मणिपुर की संप्रभुता बनी रही. उसके बाद वर्ष 1819 से 1825 तक बर्मा के लोगों ने इस राज्य पर कब्जा रखा था. फिर कई राजाओं ने यहां शासन चलाया.

वर्ष 1891 में अंग्रेजों ने मणिपुरी सेना को पराजित कर इस राज्य पर कब्जा कर लिया. देश की आजादी तक यहां अग्रेजों का कब्जा बना रहा. देश आजाद होने के बाद महाराजा बोधचंद्र ने यहां राजकाज संभाला. लेकिन दो साल बाद ही उनको मजबूरन भारत में विलय के समझौते पर हस्ताक्षर करना पड़ा.

सेना से सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कर्नल एच. भुवन ने मणिपुर के भारतीय संघ में विलय पर अपनी पुस्तक मर्जर आफ मणिपुर में लिखा है कि 18 से 21 सितंबर 1949 यानी पूरे चार दिनों तक शिलांग में चली लंबी व थकाऊ बातचीत के बाद महाराजा बोधचंद्र सिंह को जबरन समझौते पर हस्ताक्षर करना पड़ा. सुरक्षा के नाम पर सेना की जाट रेजिमेंट ने महाराज को उनके शिलांग स्थित रेडलैंड्स पैलेस में कैद कर लिया था.

मणिपुर की संप्रभुता की वकालत करने वाले लोगों की दावा है कि दबाव या मजबूरी में कोई भी समझौता गैर-कानूनी और कानून की निगाह में अवैध होता है. ऐसे में कैद की स्थिति में जबरन हस्ताक्षर कराने की वजह से मणिपुर के विलय का समझौता भी गैर-कानूनी है.

लेफ्टिनेंट कर्नल भुवन ने लिखा है कि महाराजा बार-बार दलील देते रहे कि इस समझौते पर हस्ताक्षर करने से पहले वह मणिपुर लौट कर अपने लोगों और संवैधानिक ढंग से चुनी गई सरकार के साथ इसके प्रावधानों पर विचार-विमर्श करना चाहते हैं. उसके बाद शीघ्र शिलांग लौट कर इस पर हस्ताक्षर करेंगे. लेकिन केंद्र सरकार बार-बार इस पर हस्ताक्षर पर जोर दे रही थी. आखिर महाराजा ने 21 सितंबर को उस पर हस्ताक्षर कर दिया. उस समझौते को 15 अक्तूबर, 1949 से लागू होना था. भारत और मणिपुर के राजा के बीच हुए समझौते के तहत यह राज्य भारतीय संघ के अंतर्गत आया और यहां भारत के प्रतिनिधि के तौर पर  मुख्य आयुक्त की नियुक्ति करते हुए प्रतिनिधि सभा खत्म कर दी गई.

फाली एस नरीमन ने अपनी पुस्तक ‘द स्टेट ऑफ नेशन’ में लिखा है कि मणिपुर को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की बजाय एक दीवानी राज्य बना दिया गया. इस वजह से राज्य में उक्त विलय के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का सिलसिला शुरू हो गया. विरोध प्रदर्शन लंबा खिंचने के बाद वर्ष 1956 में मणिपुर को केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा दिया गया.

राज्य के प्रमुख अखबार इम्फाल फ्री प्रेस के पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप फांजोबाम कहते हैं, ‘केंद्रशासित प्रदेश के दर्जे से भी गतिरोध बना रहा. उसके बाद वर्ष 1963 में 30 सदस्यों वाली क्षेत्रीय परिषद की व्यवस्था की गई. लेकिन उसकी कमान मुख्य आयुक्त के हाथों में ही रही. उसी साल असम को पूर्ण राज्य का दर्जा मिल रहा था. ऐसे में मणिपुर में विरोध और तेज हुआ. आखिरकार मणिपुर को वर्ष 1972 में मेघालय और त्रिपुरा के साथ ही पूर्ण राज्य का दर्जा मिला.’

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि देश में मणिपुर राज्य के विलय के बावजूद केंद्र सरकारों का रवैया सौतेला ही रहा. इसी वजह से विद्रोही संगठनों को पनपने का मौका मिला. ये संगठन अब भी इस राज्य को स्थानीय भाषा में ‘कांग्लीपाक’ ही कहते हैं. पूर्वोत्तर की राजनीति पर करीबी निगाह रखने वाले एल कुंजम सिंह कहते हैं, ‘तमाम उग्रवादी संगठन राज्य के लोगों की भावनाओं के दोहन के जरिए लगातार इस मुद्दे को भड़काते रहे हैं. केंद्र में आने वाली तमाम सरकारें भी इसके लिए कम दोषी नहीं हैं. असम राइफल्स औऱ केंद्रीय बलों के कथित अत्याचारों और मानवाधिकारों के हनन के आरोपों ने लोगों की नाराजगी में आग में घी डालने का काम किया है.’

पर्यवेक्षकों का कहना है कि फिलहाल राज्य में भले बीजेपी की सरकार हो, विकास के नाम पर अब तक ऐसा कुछ नहीं किया गया है जिससे लोगों के मन में गहरे बसी अलगाव की भावना को दूर करने में सहायता मिल सके. ऐसे में पूर्वोत्तर के लोग फिलहाल खुद को अलग-थलग ही महसूस करते रहेंगे.

शेष भारत असलियत में जम्मू कश्मीर की ही भांति पूर्वोत्तर के लोगों के साथ भी अछूत की तरह बर्ताव करती है, बल्कि पूर्वोत्तर के लोगों के साथ तो नस्लीय भेदभाव तक किया जाता है. इन नस्लीय भेदभाव को भाजपा और संघ के नफरती कुनबे हवा देते रहता है, कई बार तो उनपर शारीरिक हमले तक किये जाते हैं.

नफरतों के घोड़े पर सवार संघी

कहा जाता है कि ‘हिन्दू’ शब्द का अर्थ काला, काफिर, लुच्चा, वहशी, दगाबाज, बदमाश और चोर आदि है. यह कितना सच है यह तो साहित्यविद ही जानें, पर भारत के राजनीतिक इतिहास में इस शब्द का अर्थ बिल्कुल सटीक बैठता है. और जब हिन्दू शब्द का अर्थ ही ऐसा हो तो उसके आधार पर निर्मित हिन्दुत्व और उसको उद्देश्य बनाकर बनाया गया संगठन शब्द कैसा होगा, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जो पहले अंग्रेजों द्वारा देश के क्रांतिकारियों की जासूसी करने के लिए स्थापित किये गये गद्दारों के गिरोह का विस्तार है, ने खुद को स्थापित करने के लिए हिन्दुत्व का चोला ओढ़ लिया और अपने नाम और उद्देश्य के अनुसार ही देश में ‘गद्दारों, लुच्चा, वहशी, दगाबाज, बदमाश और चोरों’ का गिरोह खड़ा कर देश की सत्ता पर काबिज है, और अब देश-समाज को टुकड़ों में बांट रहा है.

कहना नहीं होगा कि इन संघी गद्दारों के गिरोह ने ही भारत को दो हिस्सों में बांटने की साजिशन वकालत की थी, ताकि वह हिन्दू और हिन्दूत्व के नाम पर एक देश का निर्माण कर सके जिसका नाम होगा ‘हिन्दुस्थान. अर्थात,  गद्दारों, लुच्चों, वहशी, दगाबाजों, बदमाशों और चोरों का देश. परन्तु, अंग्रेजों ने सत्ता की बागडोर अपेक्षाकृत प्रगतिशील तबकों के हाथ में सौंपकर चले गये, जिसकी पीड़ा इन संघी गिरोहों को आज तक है.

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ROHIT SHARMA

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