इसे बिडम्बना ही कहा जायेगा कि भारत की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति को दफन कर दिया गया है. बातें केवल इतनी ही नहीं है, यथासंभव भारत की गौरवशाली इतिहास को मिटाने, साक्ष्यों को नष्ट करने और लिखित साहित्यों को जलाकर खत्म करने की एक सचेतन कोशिश एक लंबे समय से की जाती रही है.
भारत के इतिहास मिटाने की यह सचेतन कोशिश इतनी भयानक है कि भारत के सर्वश्रेष्ठ शासक सम्राट अशोक तक की यादों को जनमानस से सदा सदा के लिए मिटा दिया गया. वह तो गनीमत हो अंग्रेजी शासक का, जिसने हजारों शिलालेखों, इमारतों, साहित्यों को उकेड़ कर सम्राट अशोक की विराट छवि, उनकी चिंतन को दुनिया के सामने लाया तो लोगों की आंखें चौंधियाने लगी और ‘विश्व गुरु’ का जाप करने लगी.
यह भी एक बिडम्बना ही है कि जो ताकतें सम्राट अशोक के विचारों, उनकी विराटता को मिटाने की कोशिश में लगी थी, वही ताकतें आज उनका गुणगान करते हुए अपने ब्राह्मणवादी ढांचे में फिट करने की कोशिश करते हुए एक फर्जी ब्राह्मणवादी चरित्र ‘चाणक्य’ का निर्माण कर सम्राट अशोक के महान कार्य का सारा श्रेय लेने की कुटिल षड्यंत्र रचने का भी उत्तरदायी है. इस सन्दर्भ में प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. प्रताप चाटसे लिखते हैं –
चाणक्य ब्राह्मण वर्चस्व को स्थापित करने के लिए निर्मित काल्पनिक पात्र हैं. चाणक्य नामक कोई भी व्यक्ति इतिहास में नहीं हुआ है. ब्राह्मणों का वर्चस्व दिखाने के लिए चाणक्य, कौटिल्य और विष्णुगुप्त नामक काल्पनिक पात्रों का निर्माण ब्राह्मणों ने इतिहास में किया है.
अलेक्जेंडर और मौर्यकालीन विचारक डायोडोरस सिलिकस, प्लुटार्च, जस्टिन, पोम्पियस ट्रोगस, ऐपियन, स्ट्रैबो, प्लिनी जैसे प्रख्यात ग्रिक इतिहासकारों की किताबों में चाणक्य, कौटिल्य या विष्णुगुप्त का नाम कहीं पर भी नहीं मिलता हैं. इन इतिहासकारों ने लिखा है कि चंद्रगुप्त खुद के बलबूते पर विजयी हुआ था. चंद्रगुप्त मौर्य के ग्रिक सलाहकार मैगस्थनीज ने भी अपनी किताब इंडिका में चाणक्य का नाम तक नहीं लिया है. अलेक्जेंडर तक्षशिला महाविद्यालय में दस आचार्यों से मिला था लेकिन उनमें किसी का भी नाम चाणक्य नहीं है.
काल्पनिक पात्र चाणक्य का निर्माण मध्ययुगीन कथा ‘चाणक्य-चंद्रगुप्त कथा’ के रूप में लिखकर ब्राह्मणों ने चंद्रगुप्त मौर्य के जीवन में चाणक्य को घुसाया है. काल्पनिक चाणक्य की मनघडंत बातों का विस्तृत वर्णन इसवी सन आठवीं सदी में लिखे गए ‘मुद्राराक्षस’ नाटक में दिया गया है.
यह नाटक चंद्रगुप्त मौर्य के लगभग एक हजार साल बाद लिखा गया था और उसमें काल्पनिक पात्र चाणक्य का महिमामंडन किया गया है. चंद्रगुप्त मौर्य के वास्तविक शौर्य और बुद्धिकौशल्य को धुमिल करने के लिए काल्पनिक चाणक्य को इस नाटक के जरिए सामने लाया गया है. इससे साबित होता है कि, चाणक्य, कौटिल्य या विष्णुगुप्त एक काल्पनिक पात्र है.
खैर, इससे एक चीज जो स्पष्ट होती है वह है ब्राह्मणवादी यथासंभव अपने विरोधियों को इतिहास से मिटाने के लिए तमाम कोशिशें करता है, अगर वह फिर भी उजागर हो जाता है तब उसका श्रेय लेने के लिए षड्यंत्र रचता है. परन्तु वह कभी भी नवीन वैज्ञानिक आधार बनाकर मानव संसाधन के विकास में कोई योगदान नहीं करता, अपितु कल्पना विहार कर समाज को भ्रमित करता है. सम्राट अशोक के प्रकरण में यही सिद्ध होता है.
यही कारण है कि भारत का कोई लिखित इतिहास नहीं है. अनेकों रचित साहित्य कल्पना की बेतुकी उड़ान के अलावा और कुछ नहीं है. भारत का आज जो कुछ भी इतिहास दुनिया के सामने आया है उसका श्रेय विदेशी यायावरों द्वारा रचित साहित्य है अथवा पुरातत्वविदों द्वारा खोजी या खोदी गई शिलालेख आदि है. ज्यादातर इतिहास तो अंग्रेजी पुरातत्वविदों द्वारा खोजी गई है.
भारत के इतिहास को समझने के लिए पहले भी और न आज ही भारत सरकार ने कभी भारत के पुरातात्विक इतिहास की पर्याप्त खोज की है, उल्टे उसने अनेकों प्रकार से बाधा ही डाली है. वहीं, सामाजिक वर्चस्व हासिल ब्राह्मणवादियों ने ही तो इतिहास को मिटाने का ही प्रयास किया है. परिणामस्वरूप भारत का अलिखित इतिहास धरती के गर्भ में समाती जा रही है, या कालचक्र के प्रभाव में धूमिल होता जा रहा है.
ऐसा ही 8वीं सदी का शिलालेख पर लिखित इतिहास का एक धरोहर बिहार के कैमूर जिला में है, जो बिना किसी संरक्षण के मिटने के कागार पर है. 8वीं सदी के शिलालेख पर लिखे अक्षर सिद्ध मातृका लिपि को कुटिला लिपि भी कहते हैं. यह विकटाक्षर के नाम से भी मशहूर है. जाहिर तौर पर इसके अक्षर लिखने-पढ़ने में कठिन होंगे. 7वीं सदी के उत्तरार्द्ध से 12वीं सदी तक यह लिपि प्रचलित रही.
खबर के साथ अनुसार कैमूर जिला में भी सभ्यता और संस्कृति का एक इतिहास है. उसके कुछ अंश किताबों में दर्ज और कुछ शिलापट्ट पर उकेरे हुए हैं. ऐसा ही एक शिलालेख रामपुर की बड़वा पहाड़ी पर मिला है, जिसे सिद्ध मातृका लिपि का एक दस्तावेज कह सकते हैं लेकिन वर्तमान स्थिति में लिखावट अब धीरे-धीरे मिटने के कगार पर पहुंचने लगी है.
पुरातत्वविदों के मुताबिक 8वीं सदी के दौरान इस लिपि का खूब प्रयोग हुआ था. अंदाजा लगाया जा रहा है कि इस दौरान कैमूर की कुलीन संस्कृति रही होगी. बड़वा पहाड़ी रामपुर प्रखंड के बेलांव से थोड़ी दूर पर उचीनर गांव के समीप अवस्थित है. उस पहाड़ी पर छह सौ फीट ऊपर यह शिलालेख उपेक्षित पड़ा हुआ है, जिससे शिलापट्ट की लिखावट बेहद धुंधली हो चुकी है और मिट जाने के कगार तक पहुंच चुकी. आसपास के ग्रामीण इससे अनहोनी की आशंका जोड़े बैठे हैं और पुरातत्व विभाग खामोश.
पहाड़ी के ऊपर पांच सौ फीट तक तो जाने में कोई खास दिक्कत नहीं, लेकिन उसके आगे सौ फीट का रास्ता दुरुह है. इसी कारण लोग वहां तक पहुंच नहीं पाते. पैर फिसलते ही गहरी खाई में गिरने का अंदेशा रहता है. शायद इसी कारण पुरातत्व विभाग भी जहमत नहीं उठा रहा हो, जबकि यह साधन-संसाधन का दौर है. कई बुजुर्गों ने बताया कि उन्होंने भी अपने बुजुर्गों से इस शिलालेख के बाबत थोड़ा-बहुत सुना है, विशेष जानकारी नहीं है. पर सरकार भी तो इसके बारे में जानने की कोई कोशिश नहीं करती.
सिद्ध मातृका मात्रिका लिपि भारत में आठवीं सदी में प्रचलित थी. पुरातत्वविद डॉ. श्याम सुंदर तिवारी शिलालेख के कुछ शब्द पढ़ पाए हैं. वे बताते हैं कि उस पर सुवन, हन, व्यहृत आदि दर्ज हैं. इसका मतलब है कि ‘किसी व्यक्ति द्वारा किसी को स्वर्ण (सोना) और दूसरी बहुमूल्य चीजें दी गई हैं.’
सिद्ध मातृका लिपि यानी कुटिला लिपि के बारे में इतिहासकार व पुरातत्वविद डॉ. श्याम सुंदर तिवारी कहते कि सिद्ध मातृका लिपि को कुटिला लिपि भी कहते हैं. यह ‘विकटाक्षर’ के नाम से भी मशहूर है. जाहिर तौर पर इसके अक्षर लिखने-पढ़ने में कठिन होंगे. 7वीं सदी के उत्तरार्द्ध से 12वीं सदी तक यह लिपि प्रचलित रही. नेपाल लिपि, देवनागरी लिपि और तिब्बती लिपि के विकास के साथ ही कुटिला लिपि का लोप हो गया.
शिलालेख को पूर्णतया पढ़ने के लिए काफी मशक्कत करनी होगी. अगर इन शिलालेखों को पढ़ लिया जाता है तो निश्चित तौर पर भारत के समृद्ध इतिहास में एक अध्याय जुड़ जायेगा. परन्तु, सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इसी तरह के असंख्य शिलालेख देश के विभिन्न हिस्सों में बिखरे पड़े हैं, जो अब भी भारत सरकार और उसके पुरातात्विक विभागों द्वारा उपेक्षित छोड़ दिये गये हैं, जो ब्राह्मणवादी षड्यंत्र का हिस्सा हो सकता है.
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सत्यसंचीत
February 20, 2024 at 4:55 pm
लिखा तो बुद्ध के लिखा तो बुद्ध के बारे में भी कहीं नहीं है यहां तक की अशोक के किसी भी शिलालेख में चंद्रगुप्त मौर्य और उनके पुत्र बिंदुसार का भी उल्लेख नहीं है तो क्या उनकी उपस्थिति को भी काल्पनिक मान लिया जाए
मेगास्थनीज की पुस्तक इंडिका को लगभग 10 लेखकों ने लिखा है जिसमें से मात्र एक लेखक ने बूटा शब्द का प्रयोग किया है जिसको कुछ लोग बुद्धि बताते हैं इसके अलावा मेगास्थनीज की इंडिका में बुद्ध का भी कहीं पर उल्लेख नहीं है तो क्या बुद्ध को भी काल्पनिक मान लिया जाए अब बात है चाणक्य की, बौद्धो के ग्रंथ महावंश के पांचवे parikshed मे चाणक्य का स्पष्ट उल्लेख है की धनानंद की हत्या कर कर अति क्रोधी ब्राह्मण चाणक्य ने चंद्रगुप्त मौर्य को राजा बनाया था और अगर इतिहास पढनी है तो पढ़ लो मै बहुत अच्छा पढाता हू