पंजाब में कृषि मज़दूरों की आत्महत्याओं के बारे में एक नया आंकड़ा सामने आया है, जिसके मुताबिक पंजाब में कृषि मज़दूर औरतों में आत्महत्याओं की दर किसान औरतों से डेढ़ गुणा अधिक है. पंजाब कृषि यूनिवर्सिटी, लुधियाना के अध्यापकों द्वारा किया गया यह अध्ययन पंजाब में कृषि मज़दूर औरतों की दुर्गति को दिखाता है. आंकड़ों के मुताबिक पीड़ित परिवारों के 12 फ़ीसदी बच्चों का स्कूल छूट जाता है और उनके बच्चों के विवाह, विशेषकर लड़कियों के विवाह, ऐसी आत्महत्याओं की वजह से रुक जाते हैं. राज्य में मरने वाले कृषि मज़दूरों में 12.43 फ़ीसदी औरतें हैं.
यह सर्वेक्षण पंजाब के 6 ज़िलों – लुधियाना, बरनाला, मोगा, मानसा, संगरूर, बंठिडा के 2400 गांवों में किया गया है, जो पंजाब में सन् 2000-18 के अरसे के दौरान हुई आत्महत्याओं का अध्ययन करने के लिए किया गया है. पंजाब में कृषि मज़दूरों का बड़ा हिस्सा तथाकथित निचली जातियों से आता है लेकिन यह सर्वेक्षण बताता है कि इसमें 9 फ़ीसदी मज़दूर औरतें तथाकथित ऊंची जातियों से थीं, जो कि हमें कृषि में उजाड़े का शिकार होकर मज़दूर बन रहे किसानों की कहानी बताता है.
इस सर्वेक्षण के मुताबिक़ 79 फ़ीसदी मामलों में आत्महत्याओं का कारण इन परिवारों पर भारी क़र्ज़ का होना था. 26 फ़ीसदी मामलों में आत्महत्या का कारण अन्य सामाजिक-आर्थिक कारणों को बताया गया है. इन परिवारों की त्रासदी को और बयान करते हुए यह सर्वेक्षण बताता है कि इनमें से तक़रीबन आधे परिवारों में कमाने वाला कोई नहीं बचा. सर्वेक्षण बताता है कि –
हम उस परिवार की हालत का अंदाज़ा लगा सकते हैं जो कि उस वक़्त ही बुनियादी सहूलतों से वंचित था, जब कमाई वाला अकेला सदस्य जीवित था. इसी वजह से उसे अपनी जान लेनी पड़ी. अब वह परिवार ग़रीबी से कैसे निपट रहा होगा ?… क़रीब 44 फ़ीसदी परिवारों के सदस्य अवसाद की हालत में हैं. एक तिहाई परिवारों में किसी ना किसी को गंभीर बीमारी है. यह भी ग़ौरतलब है कि पीड़ित परिवारों के बुज़ुर्ग इस संकट के घोर मनोवैज्ञानिक परिणामों का सामना कर रहे हैं.
यह सर्वेक्षण हमें हमारे दौर की कड़वी हक़ीक़त से रूबरू कराता है. हमारी मौजूदा सामाजिक व्यवस्था पर सवालिया निशान लगाता है और साथ ही साथ हमें नसीहत देता है कि हमारी ज़िंदगी के दु:खों के धागों की बेहद बारीक गांठों को खोलने के लिए हमें भी उतना ही बारीक़ होने की ज़रूरत है. सर्वेक्षण में बताया गया है कि आत्महत्याओं की मुख्य वजह क़र्ज़ है. तो फिर चलिए, देखते हैं कि ये लोग किन हालातों में क़र्ज़ लेते हैं ?
हमारा समाज दो क़िस्म के लोगों में विभाजित है. एक वर्ग उन लोगों का है जिनके पास ज़िंदगी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भूमि या फ़ैक्टरी या इस तरह ही किसी उत्पादन के साधन का मालिकाना है. ये उन साधनों में निवेश करके और उनसे हुई पैदावार से मुनाफ़़ा कमाकर जहां अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतों को पूरा करते हैं, भविष्य के लिए भी अपना पैसा बचत के रूप में रखते हैं, और अधिक पूंजी निवेश करते हैं। इस वर्ग को हम मालिक वर्ग कह सकते हैं.
मालिक वर्गों में भी पैदावार के साधनों में विभिन्नताओं के चलते कई परतें हैं. यानी कइयों के पास उत्पादन के बड़े साधन हैं, जिनसे वे बेहिसाब मुनाफ़़ा कमाते हैं; और उनकी आने वाली नस्लें काम करने के लिए नहीं बल्कि ऐशो-आराम करने के लिए पैदा होती हैं. हम सभी किसी ना किसी रूप में ऐसे लोग को जानते हैं, ये लोग किसी भी देश के इंफ़्रास्ट्रक्चर के मुख्य उद्योगों के मालिक होते हैं.
यानी ये बैंकों, बड़े-बड़े ऊर्जा उद्योगों (कोयला, बिजली, पेट्रोल), कपड़ा उद्योगों आदि या कृषि में सैकड़ों एकड़ भूमि के मालिक होते हैं. इन लोगों की महीनावार आमदनी लाखों-करोड़ों में होती है. ये लोग भी सरकार से क़र्ज़े लेते हैं लेकिन ज़रूरी नहीं कि वे उन क़र्ज़ों को वापिस लौटाएंगे ही. इनके लिए क़र्ज़, एक क़र्ज़ ना होकर सरकारी मदद अधिक होता है. देश के उत्पादन साधनों के प्रमुख मालिक होने के चलते ये लोग ना सिर्फ़ किसी देश की अर्थव्यवस्था बल्कि उसकी राजनीति को भी नियत्रंण करते हैं. देश की सरकार का प्रमुख काम इनके हितों में नीतियों को लागू करना होता है.
इनके विपरीत दूसरी ओर वे लोग हैं जिनके पास जीवन की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कोई साधन नहीं होता है. वे भूमि के किसी टुकड़े या उद्योग के मालिक नहीं होते. अपने हाथों-पैरों और अपने शरीर में मौजूद काम करने की ताक़त के अलावा वे किसी चीज़ के मालिक नहीं होते. इन्हें हम उत्पादन के साधनों से वचिंत वर्ग कह सकते हैं. इन लोगों को अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए मालिक वर्गों के उत्पादन साधनों पर काम करना पड़ता है. इन साधनों का इस्तेमाल करके ये ना सिर्फ़ अपनी दिहाड़ी-मज़दूरी बल्कि मालिक वर्गों का मुनाफ़़ा भी पैदा करते हैं.
आगे बढ़ने से पहले ज़रा इस मुनाफ़़े वाली बात को समझ लें. कल्पना करें कि आप 100 एकड़ भूमि के मालिक हैं. आपके पास 100 एकड़ भूमि के साथ-साथ जुताई-बिजाई के लिए बीज और साधन भी हैं लेकिन ये सब चीज़ें उतनी देर मिट्टी के ढेर के सिवा कुछ नहीं, जब तक इन सबको काम में नहीं लाया जाता है. यानी मशीनों के ज़रिए जुताई-बुआई करके, मोटरों के ज़रिए पानी देकर, स्प्रे करके, खरपतवारों को निकालकर जब एक कच्चा माल पक्की फ़सल में नहीं बदल जाता.
इसका मतलब है कि जब तक ये सारी चीज़ों का इस्तेमाल करके आप कोई ऐसा उत्पादन नहीं करते जो लेन-देन के ज़रिए समाज की कोई ज़रूरत पूरी करता हो. तो कच्चे माल से समाज की ज़रूरत पूरा करने वाली पैदावार की इस प्रक्रिया को ये मज़दूर ही अपने हाथों-पैरों से एक मुनाफ़़े वाली प्रक्रिया बनाते हैं, समाज की सारी दौलत पैदा करते हैं, जिसमें उनकी मज़दूरी का छोटा-सा हिस्सा भी शामिल होता है. उनकी मेहनत का बड़ा हिस्सा उत्पादन के साधनों के मालिक होने के कारण दूसरे लोग ले जाते हैं.
तो इस तरह रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए उन्हें हर रोज़ काम करके उतनी मज़दूरी मिलती है जो उनके लिए न्यूनतम जीवन स्थितियों कायम रख सके. उनकी कमाई सिर्फ़ इतनी होती है कि वे कई बार रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए भी कम रह जाती है, जिसका मतलब है कि इनके पास भविष्य में किसी संकट के लिए कोई बचत नहीं होती. हर रोज़ पेट की आग बुझाने के लिए इन्हें काम करना पड़ता है.
लेकिन बेरोज़गारी की हालत में, परिवार के किसी सदस्य को गंभीर बीमारी हो जाने की हालत में, विवाह जैसे मौक़ों पर और हर रोज़ बढ़ती महंगाई में महंगी होती रोटी और अन्य सहूलतों के लिए इन लोगों को अपनी सांसों की क़ीमत अदा करनी पड़ती है, यानी कुछ वक़्त और ज़िंदा रहने के लिए क़र्ज़ के रूप में अपनी सांसें गिरवी रखनी पड़ती हैं, तो यह है क़र्ज़ों का अर्थशास्त्र.
अपने दु:खों के बोझ को उतार फेंकने के लिए ज़रूरत है कि धरती की सारी दौलत के सृजक अपने दु:खों के वास्तविक कारणों के प्रति सचेत हों और संगठित होकर अपनी ख़ुशियों के लिए लड़ाई लड़ें, जहाँ सरकारें मालिक वर्गों के लाखों-करोड़ों के क़र्ज़ माफ़ करने में एक सेकंड नहीं लगाती, वहीं मज़दूरों के क़र्ज़े उन क़र्ज़ों के आगे सूई की नोक के समान हैं, जिन्हें माफ़ करना सरकार के लिए कोई ज़्यादा मुश्किल बात नहीं.
जहां सरकार अफ़सरशाही को स्वास्थ्य, शिक्षा और पेंशन की सहूलतें देती है, वहीं मज़दूरों के लिए मुफ़्त शिक्षा केंद्रों, मुफ़्त स्वास्थ्य केंद्रों से लेकर रोज़गार की गारंटी और बेरोज़गारी की हालत में भत्ते, वज़ीफ़ों की मांग, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को और मज़बूत और मज़दूरों के लिए और मददगार बनाने की मांग उनका बुनियादी हक़ है. क्योंकि वास्तव में ये ही वे लोग हैं जिनके बिना कोई भी देश अनाज का एक दाना तक पैदा नहीं कर सकता और जो किसी भी देश की बहुसंख्या होते हैं.
अपने हक़ों की चेतना ना होने के कारण, संगठित ना होने के कारण अब तक इन्हें सरकारों की बेरुख़ी ही झेलनी पड़ी है. हमारे मंत्री सिर्फ़ वोटों के लिए इनकी उदास दहलीज़ों पर प्रकट होते हैं. इन्हें पूरी तरह से बड़े भूमि मालिकों और सूक्ष्म वित्त (माइक्रो फ़ाइनांस) संस्थानों के रहमो-कर्म पर छोड़ दिया गया है. सूक्ष्म वित्त संस्थाएं मज़दूरों को लुभावने सपनों के जाल में फंसाकर उनकी कमरतोड़ मेहनत को अपने मुनाफ़़ों के स्रोत बनाते हैं.
पंजाब के कई जन संगठनों ने इन लूटेरों के ख़िलाफ़ ग्रामीण मज़दूर आबादी को लामबंद और संगठित करने की कोशिशें की थी. मज़दूरों के लिए अपने हक़ों का ज्ञान और उनके लिए संगठित होकर लड़ना आज उनके लिए ज़िंदगी और मौत का सवाल बन चुका है.
- बिन्नी
(स्रोत : मुक्ति संग्राम – बुलेटिन 7, मई-जून (संयुक्तांक), 2021 में प्रकाशित)
[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]