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अयोध्या भूमि घोटाला

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अयोध्या भूमि घोटाला

पं. किशन गोलछा जैनपं. किशन गोलछा जैन, ज्योतिष, वास्तु और तंत्र-मंत्र-यन्त्र विशेषज्ञ

आखिरकार सिद्ध हुआ कि आयोध्या विवाद मंदिर मस्जिद का नहीं बल्कि जमीन पर कब्ज़ा करने का था. सब कुछ प्रायोजित था तभी तो कोर्ट का फैसला आने से पहले ही भूमि होना और कागज री-न्यू होना बताया जा रहा है. और जैसे ही मोदी सत्ता में आया, इसे क्रियान्वित करना शुरू कर दिया गया.

बाबरी मस्जिद – राम मंदिर विवाद का फैसला आज राजनैतिक दबाव में आस्था के नाम पर लिखा गया, जबकि असल मामला सिर्फ भूमि विवाद का था. मस्जिद कैसे बनी मुद्दा ये नहीं था, बल्कि मुद्दा ये था कि एक ऐतिहासिक मस्जिद को तोड़कर वहां पूरे प्रीप्लान के साथ जबरन कब्ज़ा करने की कोशिश 1992 में अंजाम दी गयी थी. इसमें सैकड़ों नहीं हज़ारों लोग पूरे भारत में मारे गये थे.

असल में गुबंद के नीचे मूर्ति 23 दिसंबर, 1949 में रखी गयी थी और तब से ही राम जन्म स्थान की मान्यता को बल दिया गया. हकीकतन 1885 से पहले कोई भी हिन्दू वहां पूजा नहीं करते थे और मस्जिद के बाहरी अहाते में रामचबूतरा और सीता रसोई थी, जबकि मस्जिद में उस समय नमाज पढ़ी जाती थी. इलाहबाद कोर्ट ने भी अपने फैसले में स्पष्ट लिखा था कि ये साबित नहीं होता है कि विवादित ढांचा बाबर से सबंधित था या मंदिर तोड़कर मस्जिद का निर्माण हुआ. अर्थात मस्जिद बनाने के लिये किसी मंदिर को नहीं तोडा गया. मस्जिद का निर्माण जरूर मंदिर के भग्नावशेषों के ऊपर हुआ है.

ये सही है कि 1885 में जब सबसे पहले विवाद हुआ उसके बहुत पहले से सीता रसोई और रामचुबतरा वहां बना था, पर वहां कोई मूर्ति नहीं थी. और ये बेहद यूनिक है कि किसी मुस्लिम धार्मिक स्थल के अंदर कोई हिन्दू धर्म का धार्मिक स्थल भी था, जबकि मुस्लिम धार्मिक स्थल में नमाज भी पढ़ी जाती थी और हिन्दुओं के आस्था का प्रतीक भी वहां था. मगर दोनों में आपस में कोई भी रंजिश या भेदभाव नहीं था और बड़े ही सौहार्दपूर्ण तरिके से दोनों धर्म के लोग आपस में रहते थे.

दोनों ही धर्म के लोग उस क्षेत्र में इबादत करते थे. मगर पिछले 133 सालों में आज तक कोई भी ये प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाया कि वे उस विवादित हिस्से के मालिक थे. अतः दोनों ही उस जमीन के हिस्से के साझीदार है और चूंकि दोनों पक्ष अपने दावे का सबूत नहीं पेश कर सके इसलिये दोनों को उस हिस्से का मालिक माना जाता है.

उक्त फैसला इलाहबाद हाईकोर्ट ने 2010 में सुनाया था, अब जो सुप्रीम कोर्ट ने कुछ मुख्य बिंदु चिन्हित किये हैं, वे हैं –

  • विवादित जमीन रेवेन्यू रिकॉर्ड में सरकारी जमीन के तौर पर चिह्नित थी.
  • राम जन्मभूमि स्थान न्यायिक व्यक्ति नहीं है जबकि भगवान राम न्यायिक व्यक्ति हो सकते हैं.
  • ढहाया गया ढांचा ही भगवान राम का जन्मस्थान है यह हिंदुओं की आस्था है, हालांकि मालिकाना हक को धर्म और आस्था के आधार पर स्थापित नहीं किया जा सकता.
  • रिकॉर्ड में दर्ज साक्ष्य बताते हैं कि विवादित जमीन का बाहरी हिस्सा हिंदुओं के अधीन था लेकिन उस समय मस्जिद मुस्लिमों के अधीन थी और उसमें नमाज भी होती थी. और इससे उस समय किसी भी हिन्दू धर्मगुरु को कोई ऐतराज नहीं था.
  • 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विवादित जमीन को 3 हिस्सों में बांटने के लिये कहा था. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि अयोध्या का 2.77 एकड़ का क्षेत्र तीन हिस्सों में समान बांट दिया जाये लेकिन अब दावेदार ज्यादा है और हमें लगता है कि इसके सिर्फ दो दावेदार हो सकते हैं. अतः शिया वक्फ और निर्मोही अखाड़ा इत्यादि का दावा ख़ारिज किया जाता है.
  • हिन्दुओं का दावा सिर्फ विश्वास पर आधारित है, उसका कोई सटीक सबूत वे पेश नहीं कर पाये है और मस्जिद में नमाज बंद हो जाने से वहां हिन्दुओं का दावा साबित नहीं होता. अगर हम अपने घर से दो साल के लिये किसी को किराये पर रखकर या किसी को चाबी देकर कहीं चले जाये तो भी घर हमारा ही रहता है, किसी और का नहीं हो सकता. गवाहों द्वारा दिये गये बयां अविश्वसनीय है क्योंकि गर्भगृह में 1949 पहले से कोई मूर्ति नहीं थी, सिर्फ चित्र लगा था जबकि बाबरी मस्जिद का जिक्र तीन तीन शिलालेखों में है.
  • राम चरित मानस और वाल्मीकि रामायण में किसी भी जगह रामजन्मभूमि का जिक्र नहीं है. अतः धार्मिक हिसाब से भी पूरी जमीन को जन्मस्थान नहीं माना जा सकता.

रंजन गोगोई ने फैसला पढ़ते हुए ये भी कहा कि पुरात्व विभाग ने मंदिर होने के सबूत पेश किये मगर पुरातत्व विभाग यह नहीं बता पाया कि मंदिर गिराकर मस्जिद बनाई गई थी. कोर्ट के लिये थिओलॉजी में जाना उचित नहीं है क्योंकि मंदिर हिन्दू ही था ये भी वे साबित नहीं कर पाये. (हिन्दुओं के अलावा भी अन्य कई धर्मों में मंदिर होते हैं).

इन सब बिन्दुओं के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘विवादित ढांचे की जमीन हिंदुओं को दी जायेगी (इसी के कारण मुझे लगता है कि ये फैसला सरकारी दबाव में राजनैतिक फायदे के लिये किया गया फैसला है) और हम सबूतों के आधार पर फैसला करते हैं कि मुसलमानों को मस्जिद के लिये दूसरी जगह मिलेगी. केंद्र सरकार तीन महीने में मंदिर सबंधी योजना तैयार करेगी तथा योजना में बोर्ड ऑफ ट्रस्टी का गठन किया जायेगा. फिलहाल अधिग्रहीत जगह का कब्जा रिसीवर के पास रहेगा. केंद्र या राज्य सरकार अयोध्या में ही सुन्नी वक्फ बोर्ड को मस्जिद के लिये सूटेबल और प्रॉमिनेंट जगह में 5 एकड़ ज़मीन दे.

बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सभी शहरों को हाई अलर्ट पर रखा गया है और पुलिस हर जगह मार्च कर रही है ताकि कोई हिंसक घटना या दंगा न हो. सुप्रीम कोर्ट ने भी स्पष्ट तौर पर कहा है कि मंदिर या मस्जिद सबंधी किसी भी तरह का विवादित लेख या भाषण अथवा किसी भी तरह की भड़काऊ टिप्पणी संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखी जायेगी. अतः आप किसी भी प्रकार की विवादस्पद पोस्ट या कमेंट से बचे क्योंकि फैसला चाहे कुछ भी हुआ है.

संविधान के अनुसार दोनों पक्षों को जमीन आवंटित होनी है और हम सब को मानवता की भलाई के लिये शांति रखनी है. साथ ही ये भी ध्यान रखना है कि विवादित मामला सिर्फ जमीनी हक़ का था, आस्था का नहीं इसलिये इसे किसी भी तरह का धार्मिक रंग तो देना ही नहीं है. (इस विवाद को सटीकता से समझने के लिये फैजान मुस्तफा ने यू-ट्यूब पर सिलसिलेवार कई वीडियो अपलोड किये हैं, जिसमें शुरू से लेकर आखिर तक का सारा मुद्दा मौजूद है.)

मानवता के दरवाजे पर इतिहास और समय की एक दस्तक : राममंदिर या बाबरी मस्जिद का असली सच

ऊपर आसमान में जिसे स्वर्ग या जन्नत कहा जाता है, उसमे एक अदालत सी लगी हुई है. जज की कुर्सियों में दो जज संयुक्तरूप से विराजमान है, जिसमें एक पर हिन्दुओं के राम और दूसरी पर मुसलमानों के अल्लाह है. ये दोनों सबसे बड़े जजों की संयुक्त बेंच वाली अदालत में राम मंदिर या बाबरी मस्जिद की पेशी चल रही है और बाबर सम्मान से सर झुकाये अदालत में खड़ा था क्योंकि बाबर चाहे कितना ही नराधम रहा हो मगर वो अदालत की गरिमा हमेशा बनाये रखता था और सही न्याय का पक्षधर भी था.

अभी अभी अदालत ने ए. फ्यूहरर को हाज़िर करने का आदेश जारी किया था. (जो ए. फ्यूहरर को नहीं जानते हैं उन्हें बता देता हूं कि ए. फ्यूहरर वो जर्मन इंडोलॉजिस्ट है, जिसने आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया में काम किया और भारत में कई मिथ फैलाये. वे न सिर्फ ऐतिहासिक तथ्यों के साथ मनमानी छेड़छाड़ की थी बल्कि पुरातात्विक सबूत भी मिटाये. और भारत ही नहीं नेपाल में भी एक मिथ को झूठे तौर पर साबित किया कि बुद्ध नेपाल के लुम्बिनी में पैदा हुए थे. इस ए. फ्यूहरर की कहानी बड़ी लम्बी-चौड़ी है, सो इसके बारे में फिर कभी. अभी इसके विषय में लिखने लगा तो मूल विषय से भटक जाऊंगा.)

जैसे ही आदेश हुआ और पेशकार ने आवाज़ लगायी, यमराज भागकर गये और नरक से ए. फ्यूहरर को पकड़कर अदालत में ले आये. (ऊपर की अदालत में सभी काम तुरंत ही होते हैं. वहां यहां की अदालतों की तरह तारीखें नहीं दी जाती बल्कि जिस मुकदमें की सुनवाई हो संबंधित तथ्य, सबूत, गवाह इत्यादि सभी तुरंत ही पेश होते हैं इसीलिये तो कहावत है कि ऊपर वाले के यहां देर है मगर अंधेर नहीं है.)

फ्यूहरर गुस्से से तमतमा रहा था क्योंकि एक तो उसे एक गुलाम देश के दो मुख्य धर्मों के कथित खुदाओं ने उसे इस तरह तुरंत पकड़कर अपनी अदालत में हाजिरी लगवायी थी और दूसरा नर्क में उसकी वे भी नहीं सुनते थे जो वहां गुलाम भारत के समय में उसके तलुवे चाटते थे. उसे यह अपमानजनक लगता था. (हां, नर्क में वे तमाम लोग भी मौजूद थे जो गुलाम या आज़ाद भारत के समय में राममंदिर या बाबरी मस्जिद अथवा हिन्दू-मुस्लिम राजनीति करते रहे थे अथवा यहां विशेष धर्मों के ठेकेदार बने हुए थे लेकिन मरकर अब नर्क पहुंच चुके थे.)

लेकिन जैसे ही वो अदालत के अंदर पहुंचा, वो एकदम शांत हो गया क्योंकि वहां बाबर भी अदालत के सम्मान में सिर झुकाये खड़ा था. बाबर को इस तरह देखते ही उसे अपनी औकात का चल गया. (बाबर चाहे जैसे रहा होगा मगर अदालत की तौहीन करना उसके खून में नहींं था. इसीलिये वह एकदम अदब से खड़ा हुआ था.)

इधर जैसे ही यमराज ने उसे कटघरे में खड़ा किया, दोनों जजों ने एक साथ पूछा – तुम बाबर से कब मिले ? ‘जs जीs जी, म मs म ss मैं … मीलॉर्ड … मैं करीब सन 1910 के आस-पास मिला था,’ फ्यूहरर ने डरते हुए जवाब दिया.

फिर से प्रश्न हुआ – कहां ?

फ्यूहरर – मीलॉर्ड ! काबुल में इनकी कब्र पर. (जबकि भारत की अदालतों में ये सबूत दिया गया है कि फ्यूहरर और बाबर एक-दूसरे से रूबरू मिले थे.)

प्रश्न – तुमने बाबरी मस्जिद का वह शिलालेख पढ़ा था, जो अब पढ़ा नहीं जा सकता ?

फ्यूहरर – जs जी हां, मीलॉर्ड !

प्रश्न – क्या लिखा था उसमें ?

फ्यूहरर – यही कि आज भारत में जिसे बाबरी मस्जिद माना और कहा जाता है, असल में वो हिजरी 930 में (अर्थात 17 सितम्बर सन 1523 में) इब्राहीम लोदी ने उस मस्जिद की नींव रखवायी थी और वो 10 सितम्बर, 1524 में बनकर तैयार हुई थी.

प्रश्न – लेकिन आज तक किसी ने इब्राहीम लोदी पर मंदिर तोड़कर इस मस्जिद की नींव रखने की तोहमत क्यों नहीं लगाई ?

फ्यूहरर – हुजूर ! इब्राहीम लोदी पर मन्दिर तोड़कर मस्जिद बनाने का इल्जाम इसलिये किसी ने नहीं लगाया क्योंकि पहली बात तो वहां मन्दिर था ही नहीं और दूसरी बात कि इब्राहीम लोदी की दादी हिन्दू थी. इसलिये वो तो हिन्दुओं का हमवतनीक था.

फ्यूहरर की बात पूरी भी नहीं हुई कि बाबर ने दोनों सबसे बड़े जजों की तरफ देखते हुए आर्तनाद किया – इंसाफ हुजूर इंसाफ. अगर इब्राहिम लोदी हिन्दुओं का हमवतनिक था तो मैं क्या विदेशी था ? मेरी रगों में भी तो हिन्दू खून ही था.

बाबर का आर्तनाद सुनकर राम बोल पड़े – लेकिन तुम तो अफगानों का पीछा करते हुए घाघरा नदी तक तो गये ही थे न. वही घाघरा नदी जिसे अब सरयू भी कहा जाता है और उसी सरयू के किनारे पर तो अयोध्या है, जहां पर मीरबाकी नाम का तुम्हारा सूबेदार भी था.

बाबर बोला – हुजूर ! पहली बात तो वो अयोध्या नहीं साकेत नगर था, ये तो आप स्वयं अच्छे से जानते ही हैं. दूसरा आपसे ये भी छुपा हुआ नहीं है कि ये जो सूबेदार मनसबदार वगैरह चाकर होते हैं, वे कितने चापलूस होते हैं. वर्ना आप खुद सोचिये कि आज रामायण के नाम पर आपके कितने कितने झूठे प्रकरण जबरन बना दिये गये हैं जो आपने कभी अंजाम ही नहीं दिये थे. और हुजूर आज भी भारत में देख लीजिये. आज के वे आधुनिक हो चुके चापलूस मनसबदार आज भी नाम बदलने का कार्य कितनी आसानी से कर रहे हैं और जिस आदमी का उस चीज़ से ताल्लुक तक नहीं उसमें भी उसका नाम चस्पा कर रहे हैं हुजूर. इसी तरह मीरबाकी ने भी इब्राहिम लोधी की मस्जिद पर मेरा नाम चस्पा किया था हुजूर. आप खुद सोच लीजिये हुजूर ! अगर नाम चस्पा होने से तत्संबधी वस्तु को उसकी तामीर मान ली जाये तो क्या मुगलसराय को दीनदयाल उपाध्याय ने तामीर करवायी थी ?

राम कुछ और बोलते उससे पहले ही अल्लाह बोल पड़े – तो फिर तुम्हारी डायरी बाबरनामा के साढ़े पांच महीनों (3 अप्रैल, 1528 से 17 सितंबर 1528 तक) का विवरण क्यों नहीं हैं ?

बाबर – उसके बारे में मैं क्या कह सकता हूं हुजूर ! मैंने तो उसमें वो सब लिखा था जो मैंने किया.

अल्लाह – इसीलिये तो तुम्हें बताना पड़ेगा, क्योंकि 2 अप्रैल को तुम अवध में (अयोध्या के ऊपरी जंगलों में शिकार खेल रहे थे) उसके बाद तुम्हारे बाबरनामे के मुताबिक 18 सितंबर 1528 को आगरा में दरबार लगाये बैठे थे. इस बीच तुम कहां थे ? क्योंकि अंग्रेज गजेटियर लेखक एच. आर. नेविल ने यह साफ़-साफ़ लिखा है कि सन 1528 की गर्मियों में अप्रैल और अगस्त के बीच तुम अयोध्या पहुंचे और वहां तुम एक हफ्ते तक रुके. उसी दरम्यान तुमने प्राचीन राम मंदिर को तोड़ने का आदेश दिया और वहां हिन्दुओं का क़त्ल करवा कर मस्जिद तामीर करवायी, जिसे बाद में बाबरी मस्जिद का नाम दिया गया !

बाबर – यह सरासर ग़लत है हुजूर ! मैं कब्र में लेटा-लेटा इन सदियों में गढ़े गये सभी मिथकों को चुपचाप देखता रहा हूं. और हुजूर सच मानिये तो सन 1849 तक या कहिये 1850 तक तो सब ठीक-ठाक चला लेकिन उसके बाद सल्तनते ब्रतानिया की नीतियां बदलनी शुरू हो गयी और 1857 के बाद तो हुजूर बिल्कुल बदल गयी. क्योंकि 1857 की क्रांति में हिन्दू-मुस्लिम एकता की पराकाष्ठा देखने के बाद अंग्रेजों को भारत में अपनी सत्ता कायम रहती नहीं लगी इसलिये उन्होंने कई ऐसे धार्मिक झूठ और मिथक गढ़े जिससे दोनों कौमों में आपसी शत्रुता हो गयी. और ऐसे मिथक गढ़ने के लिये ब्रितानी हुकूमत ने अंग्रेज लेखकों से भारत के इतिहास और पुरातात्विक सबूतों के साथ भी छेड़छाड़ करवायी थी.

ये कहते हुए बाबर ने जब फ़्यूहरर को देखा तो फ़्यूहरर अल्लाह की तरफ देखते हुए बोला – मीलॉर्ड, बाबर ठीक कह रहे हैं.

1857 की क्रांति के बाद ब्रतानिया हुकूमत को अपनी पॉलिसीज पूरी तरह बदलनी पड़ी और तब यह तय किया गया कि इन हिन्दू-मुस्लिमों को अलग-अलग रखा जाये ताकि फिर से इस तरह बड़ा जनसमूह बगावत न कर सके. और न सिर्फ अलग रखा जाये बल्कि धार्मिक सांप्रदायिकता को बढ़ावा देकर दोनों को एक दूसरे के खिलाफ भड़काते और लड़वाते रहना चाहिये ताकि कोई बगावत करने के बारे में सोच ही नहीं पाये. अंग्रेज ये अच्छे से जानते थे कि भारत के ये हिन्दू-मुस्लिम चाहे कितने ही सेकुलर और एक हो मगर अपने अपने धर्मों के प्रति अत्याधिक कट्टर है और यही इनकी कमजोरी है. और इसी कमजोरी का फायदा उन्होंने उठाया, जिसका असर आजतक भारत में कायम है हुजूर.

इसीलिये मैंने बाबरी मस्जिद पर लगा इब्राहीम लोदी का जो शिलालेख पढ़ा था, उसे जानबूझ कर मिटवाया गया. लेकिन मैंने जो उसका अनुवाद किया था, वह आर्कियोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया की फाइलों में पड़ा रह गया. उसे नष्ट करने का ख्याल किसी को नहीं आया. इसीलिये तो हुजूर ये भेद खुल गया कि वो मस्जिद बाबर ने नहीं इब्राहिम लोदी ने बनवायी थी.

ऐसे ही हुजूर ‘बाबरनामा’ के वो पन्ने गायब किये गये जो इस बात का सबूत देते थे कि बाबर अवध में तो जरुर गया पर कभी साकेतनगर यानि अयोध्या नहीं गया. और उसके बाद ब्रतानिया हुकूमत ने और ख़ास तौर से एच. आर. नेविल ने जो फैजाबाद गजेटियर तैयार किया, उसमें शैतानी के साथ जानबूझकर ये दर्ज किया गया कि बाबर अयोध्या में एक हफ्ते ठहरा और बाबर ने ही प्राचीन राम मंदिर को तुड़वाकर और हिन्दुओं का क़त्ल करवाकर उनके खून से गारे बनवाकर मस्जिद बनाने का आदेश दिया था !

बोलते-बोलते फ्यूहरर हांफने लगा. इतना तो वह अपनी पूरी जिन्दा लाइफ में नहीं बोला था जितना उसे अब बोलना पड रहा था इसीलिये वो बहुत थक गया था. उसे प्यास लगी थी लेकिन चूंकि उसने जिन्दा लाइफ में ऐसा पाप किया था जिसकी बदौलत आज भी इंसानियत शर्मसार है और इसी कारण उसे नर्क भेजा गया था, इसलिये इसे पानी तो मिलना ही नहीं था. उसके कारण जिस इंसानियत का खून आज भी बह रहा है, उसे उसी खून का एक गिलास भरकर दिया गया.

इधर जज राम ने बाबर से अपना अगला सवाल किया – बाबर ! अगर तुम्हारे बाबरनामा के कुछ पन्ने गायब कर दिये गये थे तो तुमने इस बारे में अल्लाहताला को सूचित क्यों नहीं किया ? भारत के सुप्रीम कोर्ट को तो बता ही सकते थे कि तुम कभी अयोध्या गये ही नहीं थे. और अभी तक तुमने यह भी स्पष्ट नहीं किया कि तुम 3 अप्रैल, 1528 से लेकर 17 सितंबर 1528 तक कहां रहे ?
तुम अवध-साकेत (अयोध्या) के जंगलों में शिकार खेलते हुए साढ़े पांच महीनों के लिये कहां गायब हो गये थे ?
यह बहुत ही अहम् सवाल है और सारे फसाद की जड़ भी है.

बाबर – जी यह सही है कि मैं अवध के जंगलों में 2 अप्रैल, 1528 तक शिकार खेल रहा था लेकिन तब ये साकेतनगर (अयोध्या) कोई इतना मशहूर शहर भी नहीं था कि मैं वहां जाता और न ही मेरा कोई दुश्मन वहां था कि मैं उसे मिटाने वहां जाता.

राम – लेकिन तुम बात छुपाते क्यों हो ? सही बात इस अदालत में हमारे सामने तो बता ही सकते हो ?

बाबर – हुजूर, आपसे कोई क्या असलियत छुपायेगा. आप तो अन्तर्यामी हैं. सब सच को स्वयं ही जानते हैं. मैं जानता हूं कि आप उन पन्नों की बाबत बार-बार क्यों पूछ रहे है ?
मैं जानता हूं आप उस झूठ के बारे में पूछ रहे हैं जो मेरे बारे में फैलाया गया है कि मस्जिद बनाते समय बाबर ने पौने दो लाख हिन्दुओं को मरवाकर उनके खून से गारा बनवाया और उसी गारे से मस्जिद का निर्माण किया गया. आप तो सब सच जानते है फिर भी आप मुझसे क्यों पूछते है हुजूर ?

आप तो जानते ही है अदीबे आलिया कि 1857 की क्रांति के बाद जब अंग्रेजों ने अपनी नीति बदली तो उन्होंने मेरे वतन को मज़हब के नाम पर तकसीम करना शुरू कर दिया था. आप तो जानते ही हैं कि मेरा वतन और मुल्क तो हिन्दुस्तान ही था. और मैं तो आगरा की जमीन में जमींदोज हो गया था परन्तु तास्सुमी लोग मेरी कब्र खोदकर मुझे काबुल उठा ले गये. खैर, आपका जो सवाल है अदीबे आलिया, उसका जवाब ये है कि एच.आर. नेविल ने जानबूझकर 1857 के बाद बेईमानी की और मेरे लिखे बाबरनामा में ‘औध’ (अवध) का ज़िक्र है लेकिन नेविल ने बेईमानी से उसे ‘अयोध्या’ लिखा जबकि अवध को आज भी उसी ‘औध’ के नाम से पुकारा जाता हैं.

आप फ्यूहरर से भी गवाही ले लीजिये कि अंग्रेजों के जिस चहेते अफसर कनिंघम को हिन्दुस्तान की तवारीख और पुरानी इमारतों की देखभाल करने का काम सुपुर्द किया गया था उसने बड़ी चालाकी से लखनऊ गजेटियर में यह दर्ज किया था कि बाबरी मस्जिद की तामीर के दौरान हिन्दुओं ने तामीर होती मस्जिद पर हमला किया था और उस जंग में मुसलमानों ने एक लाख चौहत्तर हजार हिन्दुओं को हलाक़ किया था. उन्हीं हिन्दुओं के खून से मस्जिद के लिए गारा बनाया गया था और इसीलिये उसे भारत की सुप्रीम कोर्ट में पेश ही नहीं किया गया और कह दिया गया कि वो बाबरनामा के पन्नों की तरह गुम हो चुका है.

जबकि खुद अंग्रेज अफसर नेविल ने फैजाबाद गजेटियर में लिखा है कि सन 1869 में फैजाबाद-साकेत (अयोध्या) की कुल आबादी 9,949 थी और सन 1881 में उसी की आबादी 11,683 थी, यानि 12 बरसों में करीब 2000 की बढ़त हुई थी. अदीबे आलिया ! अब आप खुद ही सोचिये कि मेरे वक़्त यानि सन 1528 में उस इलाके की आबादी क्या रही होगी ? और इतनी कम आबादी वाले क्षेत्र में तब 1,74,000 हिन्दू कैसे मारे जा सकते थे ?

इसलिये हुजूर ये बात साफ़ होनी चाहिये कि अंग्रेजों ने मेरे मुल्क के साथ क्या खेल खेला था और सवाल बाबरनामे के पन्नों को लेकर नहीं बल्कि इस बात पर होना चाहिये कि वो जगह जो घाघरा नदी के किनारे बसी हुई है वो साकेत था तो अयोध्या कैसे हो गयी ?

सवाल ये भी होना चाहिये कि जब मस्जिद का निर्माण बाबर ने करवाया ही नहीं इब्राहिम लोदी ने करवाया था तो भारत सरकार इस सच पर पर्दा क्यों डालकर वहां राममंदिर का निर्माण करवाने को उद्धृत हुई है ?

और ये सवाल भी भारत सरकार से पूछा जाना चाहिये कि आपके पास अंग्रेजों के सारे लिखित कागज सबूतों के रूप में मौजूद है तो उस मिथक का निवारण ये बताकर क्यों नहीं किया गया कि उस जगह तो क्या उसके आसपास की आबादी भी मिलाकर इतने हिन्दू तब वहां नहीं रहते थे, जितने बाबर द्वारा मारने का झूठ फैलाया गया है.

सवाल तो बहुतेरे है हुजूर,  मगर अभी इतना ही.  बाबरी मस्जिद v/s राम मंदिर केस के बखिये आगे भी उधेड़े जाएंगे और बाबरनामे के गुम हुए पन्नों की बात फिर किसी सिक़्वल पोस्ट में बतायी जायेगी.

कम से कम अब तो भक्तो को मान ही लेना चाहिये कि उस जगह का कोई भी ताल्लुक राम से है ही नहीं और ये कब्ज़ा करके मंदिर बनाया जा रहा है और मस्जिद की आत्माये परेशान न करे इसलिये राम को हरी ड्रेस और हरी चादर (ध्वजा के रूप में) चढाई जा रही है !

देख लो भक्तो ! कहीं ऐसा न हो कि मूर्ति स्थापना के समय भी राम की आत्मा की जगह किसी मुस्लिम पीर की आत्मा का आह्वान कर उसकी ही प्राण प्रतिष्ठा कर दे ? और तुम किसी मुल्ले को राम के रूप में पूजते रहो और अपना धर्म भ्रष्ट करते रहो !

मैं मोदीजी से भी कहना चाहता हूं कि – यार मोदीजी कोई काम तो हिन्दू धर्म के हिसाब से कर लो. आखिरकार आप हिन्दू हृदय सम्राट घोषित किये जा चुके हो लेकिन उसके बाद भी आप वर्षावास में मंदिर का शिलान्यास कर रहे हो ! जबकि वर्षावास में हिन्दू मान्यता के हिसाब से देव शयन करते हैं और देवशयनी के बाद से देवउठनी तक सभी शुभ और मांगलिक कार्य वर्जित माने जाते हैं. ऊपर से भादवा (जो लोक मान्यता में सूखा महीना होता है) और भादवा में तो सभी छोटे से छोटे मांगलिक कार्य तक निषेध किये जाते है, यहां तक कि भादवा महीने में तो कोई किराये के घर में भी शिफ्ट नहीं करता जबकि आप तो राम मंदिर की नींव में चांदी की ईंट लगा रहे हो !

चलो यहां तक भी ठीक था लेकिन राम ने हमेशा पीली धोती के साथ गुलाबी चादर वाले कपडे पहने थे (ऐसा हिन्दू धर्म के ग्रंथों में उल्लेख है) लेकिन आप तो उन्हें हरे कपडे पहना रहे हो, वो भी इन दुष्ट मुल्लों वाला हरा कलर. ऊपर से राम मंदिर में हरी ध्वजा रुपी चादर और चढ़ा रहे हो, क्यों ?

आखिर आप साबित क्या करना चाहते हो ? कहीं ये तो नहीं कि ये जो हिन्दू मान्यताओं में पोथे शास्त्र लिखे हुए ही वे सब काल्पनिक है ?

कहीं ऐसा न हो कि आपने इतना प्रोपेगेंडा फैलाकर जो ये आडम्बर किया है वो फिर किसी विवाद में फंस जाये ?
और यकीं मानिये ऐसा हुआ तो न सिर्फ आपका नाम इसी राममंदिर की नींव की मिटटी में मिल जायेगा बल्कि आने वाले समय में भक्तों की सात पीढ़ियां भी आपको न सिर्फ गालियां देगी बल्कि आपके फोटो को भी चप्पलों से मारेगी.

जिस तरह से मोदी के नेतृत्व में इन हिंदुत्ववादी लोगों ने एक जैन मंदिर के अवशेषों पर बनी मस्जिद पर कब्ज़ा कर राम मंदिर बनाने का शिलान्यास किया है, वैसे ही पहले भी ऐसे हजारों स्थानों पर कब्ज़ा कर चुके हैं जिनमें सबसे ज्यादा जैन मंदिर ही शामिल है. चाहे फिर वो साउथ का तिरुमला के पहाड़ का मंदिर हो या उत्तराखंड का बद्रीनाथ, चाहे वो गुजरात का गिरनार हो या महाराष्ट्र का महालक्ष्मी मंदिर.

ऐसे सैकड़ों-हज़ारों जैन मंदिरों पर कब्ज़ा कर ये हिन्दुत्वववादी हमेशा अपने वैदिक मंदिरों के रूप में परिवर्तित करते रहे हैं. जबकि तत्कालीन शिलान्यास पर सुप्रीम कोर्ट को संज्ञान लेते हुए शिलान्यास और मंदिर निर्माण के संबंध में स्टे जारी करना चाहिये था क्योंकि खुद सुप्रीम कोर्ट ने ही अपना फैसला सुनाते हुए कहा था कि – मस्जिद के नीचे जो अवशेष मिले है वो नॉन इस्लामिक है.

अर्थात, सुप्रीम कोर्ट ने परोक्ष रूप से ये भी माना कि ये जगह हिन्दू धर्म की तो कत्तई नहीं थी क्योंकि ऐसा होता तो अपने फैसले में नॉन- इस्लामिक की जगह राम मंदिर या हिन्दू धर्म का स्थान लिखती लेकिन नॉन इस्लामिक का अर्थ ये है कि मस्जिद किसी अन्य धर्म के अवशेषों पर जरूर खड़ी की गयी थी मगर वो हिन्दू धर्म नहीं था.

हालांकि अभी भी मंदिर निर्माण के लिये खुदाई का कार्य चालू है और उसमे प्राचीन अवशेष भी मिल रहे हैं, जिनका निरपेक्ष आंकलन होना चाहिये ताकि सत्य क्या है वो सब के सामने आये.

अगर मस्जिद हिन्दू धर्म के अवशेषों पर नहीं बनी थी तो फिर किस धर्म के अवशेषों पर भी ?

इस प्रश्न का स्पष्टीकरण भी सुप्रीम कोर्ट को अपने फैसले में लिखना चाहिये था लेकिन नहीं लिखा क्योंकि एक तो गोगोई साहब रिटायरमेंट के बाद राज्यपाल बनने का ख्वाब पाले हुए थे और दूसरा उन्हें ब्लैकमेल करके उनका बुढ़ापा ख़राब करने के लिये यौन शोषण का केस भी हाई-लाइट करवा दिया गया था और इसीलिये झूठी गवाहियों के आधार पर फैसला भी करवा लिया गया. मगर तब भी अपने दायित्व का निर्वाह तो गोगोई साहब ने अपने लिखित फैसले में ‘नॉन-इस्लामिक’ शब्द लिखकर कर ही दिया ताकि जब भी ये मामला दुबारा कभी खुले इस शब्द की सही समीक्षा हो और हिन्दुत्ववादियों को मुंह की खानी पड़े.

सोच रहा हूं कि अदालत ने तो सिर्फ जमीन विवाद का फैसला सुनाया था और मुस्लिमों को राजी करने के लिये 5 एकड़ जमीन दिलवा दी, मगर जिस तरह ये हिंदुत्ववादी सरेआम हज़ारों कत्लों (बाबरी कांड के समय) को जिस तरह से सेलिब्रेट कर रहे थे, उससे तो लगता है एक दिन महात्मा गांधी की जगह उनके हत्यारे गोडसे को भी ऐसे ही सेलिब्रेट करेंगे.

इस फैसले से सिर्फ एक पॉइंट तय हुआ था और वो था मुस्लिम या मस्जिद संबंधी पॉइंट लेकिन इसके बाकी के पॉइंट जो अभी तक स्पष्ट नहीं है, उन्हें क्यों छोड़ दिया गया ? क्योंकि जैनी तो पहले से ही सोये हैं और जो नहीं सोये हैं वे हिंदुत्व के रंग में खोये हैं. बस मेरे जैसे कुछ लोग हैं जो जाग रहे है और इसलिये ये अलख भी जगाने की कोशिश कर रहे है कि वो जगह राम मंदिर की नहीं बल्कि जैन मंदिर की थी !

सबसे पहले की खुदाई में अवशेष जैन मंदिर के ही बताये गये थे और उस समय अख़बार में भी खबर छपी थी. बाद में जब मंदिर मस्जिद का विवाद हिन्दुत्ववादियों ने उत्पन्न किया तब बौद्धों ने भी बहती गंगा में हाथ धोने के लिये उस पर दावा ठोक दिया.

(हिन्दुत्ववादियों ने तो सिर्फ मंदिरों और मूर्तियों पर कब्ज़ा किया था लेकिन इन बौद्धों ने तो न सिर्फ मूर्तियों और मंदिरों को बल्कि पूरा का पूरा जैन साहित्य ही हैक कर लिया है (कभी समय मिले तो इनके पिटक पढ़कर देखिये और साथ में जैनागम साथ में रखिये, आपको सारा खेल समझ आ जायेगा).

उपरोक्त तीनो ही पॉइंट गौण करके अदालत ने नान- इस्लामिक कहते हुए सिर्फ मुस्लिमों को दूसरी जगह देने संबंधी फैसला सुना दिया, क्यों ? क्या बाकी के तीनों पॉइंट स्पष्ट नहीं होने चाहिये कि असल में ये अवशेष किस धर्म से संबंधित थे ?

ऐसे में इसमें फिर कभी ऐसा विवाद फंसा और फिर कभी इसका विवाद अदालत में पहुंचा जिसमें जैन और हिंदुत्ववादी आमने-सामने हो और अदालत पुरानी सभी फाइलें खोलकर इसकी निरपेक्ष जांच करे और उसमें ये खुलासा हो कि वास्तव में ये जगह जैन धर्म के मंदिर की थी और जो अवशेष मिले वो जैन धर्म के थे तो क्या इन पॉइंट्स को छोड़कर फैसला देने वाले जजों और झूठी गवाही देने वाले उन इतिहासकारों और पुरातत्विद्यों को सजा दी जायेगी जिन्होंने हिन्दुत्ववादियों के कहने से हिन्दू धर्म के झूठे अवशेष निकाले, ऐतिहासिक व्याख्या की और एकतरफ़ा फैसला सुनाया ?

जैन धर्म से बौद्ध धर्म और ब्राह्मणो (हिन्दुत्ववादियों) का द्वन्द बहुत पुराना है (उसमें भी ब्राह्मणों का द्वन्द लगभग 3000 साल पुराना है और तब से ही वे जैन धर्म और उसकी स्मृतियों को मिटाने का प्रयास कर रहे हैं और ऐसे ही प्रयासों में वे जैन धर्म के मंदिरों और स्थानों पर कब्ज़ा करके उनकी मूर्तियों को ध्वस्त करना या रूप परिवर्तन कर देना भी शामिल है.

1992 में तत्कालीन महामहिम डॉ शंकर दयाल शर्मा ने सुप्रीम कोर्ट से लिखित में पूछा था कि बाबरी मस्जिद विवाद का मूल बिंदु क्या है ? क्या उस जगह वास्तव में कभी राम मंदिर था ?

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस सवाल का जवाब देने से ये कहकर इंकार कर दिया था कि मामला अभी अदालत में विचाराधीन है और प्रेजिडेंट ऑफ़ इंडिया ने जिस संदर्भ में ये प्रश्न किया है वो इस केस से ताल्लुक नहीं रखता (जिस केस में ये प्रश्न पूछा गया था वो इस्माइल फारूकी केस के नाम से जाना जाता है).

बाद में गोगोई महाशय ने भी नवंबर 2019 के निर्णय लिखवाते समय फैसले में ‘नॉन इस्लामिक’ शब्द (बोल्ड अक्षरों में हाई लाइट करके) लिखवा दिया था जिससे ये तो समझा ही जा सकता है कि कालांतर में जब किसी निरपेक्ष सरकार द्वारा ये मामला फिर से खोला जायेगा अथवा किसी याचिका की सुनवाई मंजूर होने पर फिर से अदालत सारे मामले की छानबीन करेगी तो फिर से इसकी समीक्षा होगी और राम मंदिर अदालती आदेश से गिराया जायेगा. और बीजेपी फिर से विपक्ष में बैठकर राममंदिर के मुद्दे पर वोट बटोरेगी शायद इसीलिये मोदीजी ने बिना मुहूर्त के शिलान्यास किया है क्योंकि पता है विवाद तो पड़ना ही है.

आश्चर्यचकित मत होइए. अंग्रेजों से लेकर अब तक इसके विषय में अनेकबार फाइनल फैसले हो चुके हैं और उन फ़ाइनल फैसलों के बावजूद अनेक बार फिर से ये मामला अदालत में कानूनी पेंचो में फंसा है और पुराना फैसला निरस्त हुआ है, जबकि अंग्रेजों के समय में तो ज्यूरी अदालत होती थी और किसी भी कानून में इतने खिड़की दरवाज़े भी नही होते थे. तब ये हाल था तो अब तो कानून बनाने से पहले ही उसे हवादार रखने के लिये बड़े-बड़े खिड़की दरवाज़े रखे जाते हैं तो आगे क्या होगा इसका अंदाज तो आप स्वतः ही लगा लीजिये).

किसी झूठी आस्था के नाम पर एक ऐतिहासिक निर्माण को मिटा देना मैं बिल्कुल उचित नहीं समझता, चाहे फिर वे अवशेष जैन मंदिर के ही क्यों न निकले क्योंकि जो हो चुका सो हो चुका लेकिन अब हम न तो तानाशाही राजकाल में है और न ही पुरातन सदी में. आज हम 21वीं सदी के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक पैरोकार देश है और जो निर्माण 500 वर्ष प्राचीन मस्जिद के रूप में है, उससे हमें 500 वर्ष पहले की तत्कालीन परिस्थितियों, शिल्प कलाओं और ऐतिहासिक वृतियों से परिचित होते हैं (इस तरह करके हम उन सब चीज़ों को फिर नहीं पा सकते जो उस काल में उससे पूर्व के निर्माण को तोड़कर मस्जिद बनाते समय हमने खो दी थी और अब ऐसा करके हम 500 साल की एक धरोहर और खो देंगे).

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ROHIT SHARMA

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