Home गेस्ट ब्लॉग मल के प्रति घृणा और बाजार का अवसर

मल के प्रति घृणा और बाजार का अवसर

37 second read
0
0
510

मल के प्रति घृणा और बाजार का अवसर

वस्तुनिष्ठ घृणा में कदाचित् हम मनुष्य सबसे ऊपर मल को स्थान देते हैं. शायद ही कोई ऐसी वस्तु हो जो हमारी नाक-भौं में ऐसा संकुचन लाती हो.

मल हमारे ही शरीर में बनता है इसलिए यह घृणा और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है. देहनिर्मित वस्तुओं के प्रति ममता का भाव स्वाभाविक जान पड़ता है लेकिन सभी निर्मितियां न सुन्दर होती हैं और न उपयोगी, अपितु उनका संचय कष्टकारी हो जाता है. इसलिए उत्सर्जी पदार्थों को शरीर में समेट कर रखा नहीं जा सकता, उन्हें त्यागना ही नियति बन जाती है. पर जो कुछ भी त्याज्य है, वह घृणित तो नहीं ? तब फिर मल के प्रति मनुष्य के मन में ऐसी घृणा का आभिर्भाव किसलिए ? और क्या मल के प्रति घृणा मानवों के अलावा अन्य जीव-जन्तु भी प्रदर्शित करते हैं ?

मल के प्रति मनुष्य में मनोमालिन्य है. यह भाव आदिम है. माइक्रोबायलॉजी का विकास तो पिछले कुछ सौ वर्षों का ही है. इंस्टिंक्ट से लोग जानते थे कि मल में ऐसा कुछ है, जो रोगकारी है. जो रोगजनक है, वह त्याज्य है. जो त्याज्य है, उससे घृणा करने पर त्याग-भाव पुष्ट हो जाता है.

आज हम भलीभांति जानते हैं कि अनेक कीटाणु स्पर्श से फैलते हैं लेकिन मनोभावों की जो विरासत मनुष्य को प्राप्त हुई, उसने इस घृणित रोगकारी अशुद्धि से ही दूर रहने को नहीं कहा, उनसे भी दूरी बनाने को कहा, जो इनके सम्पर्क में रहते और काम करते हैं. बकौल सायकोलॉजिस्ट स्टीवेन पिंकर अन्तःप्रेरणा से मनुष्य यह समझता रहा था कि मल से घृणा क्यों करनी चाहिए ? स्पर्श का महत्त्व भी इस घृणा से जुड़ा रहा. कोई आश्चर्य नहीं कि मल के सम्पर्क में जो रहता और काम करता हो, यह घृणा उसके प्रति भी की जाने लगी.

मल-घृणा से युक्त हम अकेले नहीं. घृणा की अनुभूति और प्रदर्शन जान पाना यों तो पशुओं में सरल नहीं है, पर ढ़ेरों जीव-जन्तु मल-युक्त स्थानों से हटते-कटते-दूर जाते जान पड़ते रहे हैं. गायें वहां नहीं चरतीं जहां घास मल-युक्त रहा करती है. उन्हीं की तरह भेड़ें और घोड़े भी कहीं भी घास नहीं खाते, वे साफ़-सुथरी घास ही चुनते हैं. यही काम रेन्डियर और प्रायमेट भी करते हैं; वे मल से यथासम्भव दूरी प्रदर्शित करते हैं.

इस तरह के व्यवहार से ये जानवर उन कीटाणुओं से भी सुरक्षा पा लेते हैं, जो मल में मौजूद रहते हैं पर जंगली चूहों की अनेक प्रजातियां ऐसा नहीं करती. चूहे उन्हीं बिलों में बसेरा बनाते हैं, जिनमें मल की उपस्थिति रहा करती है बल्कि ये अपने बिलों के लिए स्थानों का चुनाव करते समय मल और भोजन दोनों की उपस्थिति पर ध्यान देते हैं. पर जब इन्हीं चूहों को प्रयोगशालाओं में पाला जाने लगता है, तब ये मल-युक्त स्थानों से दूर रहने लगते हैं, ऐसा क्यों ?

इस अजब व्यवहार को समझने के लिए विशेषज्ञ पालतू बनाम जंगली पशुओं के अन्तर को प्रस्तुत करते हैं. पालतू पशु के लिए ख़तरा शिकारी जीव से कम, मल (और उसमें मौजूद कीटाणुओं) से अधिक है. इन्हीं पालतू पशुओं में मनुष्य का नाम भी जोड़ा जा सकता है, जो बड़े शिकारी जीवों की हिंसा से बच कर जीवन जीने के अभ्यस्त हैं, वे अब मल से बचने में अपना ध्यान लगा रहे हैं.

किन्तु जंगल में रहने वाले पशुओं के लिए मल का कहीं उपस्थित होना यह भी बताता है कि यह स्थान सुरक्षित है और यहां तुम्हारी प्रजाति के और भी जीव रहते आये हैं. जंगल में मल-हीनता एक ऐसी निर्जनता है, जहां रुकना या बसेरा बनाना खतरनाक हो सकता है. इन जंगली जीवों के लिए शिकारी हिंस्र पशुओं से बचना प्राथमिकता है, मल से दूरी रखना गौण. कीटाणुओं से बड़ा ख़तरा इन्हें शिकारियों से नज़र आता है और यह ठीक भी है.

मल से दूरी बनाना और उससे घृणा करना – इन बातों में कदाचित् जैविक सम्भ्रान्ति-बोध है. हम मनुष्य और हमारे पालतू मल से दूर रहना चुन सकते हैं क्योंकि हमारी प्राथमिकता हिंस्र जानवरों से बचना अब नहीं रहा. हम अब मल के सहारे निर्जनता-सजनता को नहीं बूझते. हम जहां रहते हैं, जंगल वहां से बहुत दूर जा चुके हैं. हमें उन कीटाणुओं से डर है, जो हममें ही रहकर हमें ही रोगग्रस्त कर सकते हैं. हमारी अन्तःप्रेरणा ने हमारा सबसे बड़ा शत्रु सबसे हिंस्र को नहीं, सबसे क्षुद्र को निर्धारित कर दिया है.

शिशुओं के मल में अनेक रोगों के सुराग मिले तो बाज़ार को उसमें अवसर दिख जाना स्वाभाविक था. हज़ारों-लाखों साल के विकासक्रम में मानव-शरीर तरह-तरह से बदला है. देह की संरचना और क्रिया में अनेक सूक्ष्म और स्थूल परिवर्तन हुए हैं. इन्हीं में से एक परिवर्तन की कहानी एक जीवाणु से सम्बन्धित है, जो शिशुओं के मल में पाया जाता है.

आंत में वास करने वाला यह बायफिडोबैक्टीरियम इन्फैन्टिस आधुनिक शहरी शिशुओं के मल में घटता जा रहा है. अमेरिका जैसे विकसित देशों के दस में से नौ शिशुओं के मल से यह नदारद है. अपेक्षाकृत ग़रीब अफ़्रीकी और एशियाई देशों के शिशुओं में मल में अभी भी इसकी उपस्थिति मिला करती है. पर यहां भी अमेरिकी जीवनशैली और रंग-ढंग अपनाने के कारण इस जीवाणु की आन्त्रीय संख्या में तेज़ी से कमी आ रही है.

बायफिडोबैक्टीरियम इन्फैन्टिस आंतों में रहने वाला भला जीवाणु है, जिसके कारण हमारी ढेरों रोगों से रक्षा होती है. शिशु जब मां का दूध पीता है, तब यह जीवाणु उस दूध में मौजूद शर्कराओं को अम्लों में तोड़ देता है. इस तरह से आंत के भीतर एक अम्लीय पर्यावरण बनने लगता है, जो अन्य हानिकारक जीवाणुओं के लिए लाभप्रद नहीं रहता. नतीजन इन हानिकारक जीवाणुओं को पनपने और रोग पैदा करने में समस्या आती है. जिन शिशुओं की आंतों में बायफिडोबैक्टीरियम की उपस्थिति रहा करती है, उन्हें आगे जाकर एलर्जी-रोग, दमा और टाइप-1 डायबिटीज़ जैसे रोग कम हुआ करते हैं.

बीते कुछ दशकों से हमारे जीवन में आधुनिक चिकित्सा ने अनेक बदलाव किये हैं. इनमें तीन का सम्बन्ध शिशुओं की आंतों में घटती बायफिडोबैक्टीरियम इन्फैन्टिस की आबादी से है. पहला बदलाव सीज़ेरियन सेक्शन सर्जरी का आवश्यकता से अधिक प्रयोग है. ढेरों मामलों में इसे अनावश्यक ढंग से किया जाता है और अनेक गर्भवती इसके लिए पहले ही स्त्री-रोग-विशेषज्ञ से अनुरोध भी कर देती हैं.

दूसरा बदलाव एंटीबायटिकों का अनावश्यक इस्तेमाल है. डॉक्टर इन्हें ज़रूरत से ज़्यादा लिखते हैं, लोग-बाग़ मेडिकल-स्टोरों से स्वयं ख़रीद कर खाते हैं. (यद्यपि अमेरिका जैसे देश में स्वयं-खरीद कर खाना सम्भव नहीं हो सकता है.) तीसरा महत्त्वपूर्ण बदलाव स्तनपान के स्थान पर फ़ॉर्मूला-दूध का शिशुओं को पिलाना है.

जब शिशु का जन्म सामान्य प्रक्रिया से होता है, तब वह स्त्री-योनि-मार्ग से होता हुआ बाहर आता है. इस प्रक्रिया में अपनी माता के अनेक लाभप्रद जीवाणु उसे विरासत में प्राप्त हो जाते हैं. किन्तु सीज़ेरियन सेक्शन में यह लाभ शिशु को नहीं मिल पाता. इसी तरह से स्तनपान से भी लाभप्रद जीवाणुओं को पनपने और अपनी गतिविधियों को करने में मदद मिलती है, जबकि एंटीबायटिकों का बार-बार अनावश्यक सेवन इन जीवाणुओं को अनावश्यक ढंग से नष्ट कर देता है.

अनावश्यक सीज़ेरियन-सेक्शन घटाये जाएं. स्तनपान के स्थान पर बाज़ार का फ़ॉर्मूला यथासम्भव न प्रयोग में लाया जाए और एंटीबायटिक केवल ज़रूरत पड़ने पर ही खायी जाएं – जैसे निर्देशों-सुझावों का अंगीकरण विवेक पर निर्भर करता है और विवेक किसी क्लासरूम में पढ़ाया-सिखाया जा नहीं सकता. ये निर्णय बहुधा ग्रे-ज़ोन में किये जाते हैं और ग्रे-ज़ोन में व्यक्ति विवेक की कम और सुविधा-लाभ-शीघ्रता की अधिक सुनता है. नतीजन बाज़ार को एक और अवसर मिलता है और वह बायफिडोबैक्टीरियम इन्फैन्टिस को प्रोबायोटिक बनाकर कस्टमरों के सामने उतार देता है.

सीज़ेरियन घटाने पर बात न हो, फ़ॉर्मूला-सेवन न कम किया जाए और न एंटीबायटिक-प्रयोग घटाया जाए. रोकथाम की बात करने से मुनाफ़ा मारा जाता है इसलिए एक नये उत्पाद को लांच करके सुअवसर का दोहन किया जाए. सन 2017 से ऐसे उत्पाद बाज़ारों में आ चुके हैं और लोग उन्हें धड़ल्ले से ख़रीद कर शिशुओं को पिला भी रहे हैं. इन उत्पादों का लक्ष्य जितना अमेरिकी शिशु हैं, उससे अधिक बड़ा बाज़ार इन्हें बनाने वाले एशियाई और अफ़्रीकी शिशुओं में देखते हैं. सीज़ेरियन-फ़ॉर्मूला-एंटीबायटिक पर विवेकसम्मति जितनी कम रहेगी, उतना बाज़ार अपने सुअवसर पाकर उत्पाद परोस देगा.

सम्भव है कि आगे विज्ञान स्त्री-योनिमार्ग के रास्ते हुए शिशु-जन्म और स्तनपान की सहभागिता का शिशुओं (और फिर बच्चों-कुमारों-युवाओं-प्रौढ़ों-वृद्धों) के स्वास्थ्य में योगदान में बेहतरीन ढंग से सिद्ध कर दे (कर भी रहा है). सीज़ेरियन-सेक्शन-फ़ॉर्मूला-एंटीबायटिक की अति से किस तरह से शिशुओं का स्वास्थ्य-निर्माण किया जा रहा है, यह भी दिख ही रहा है. तात्कालिक लाभों के लिए दीर्घकालिक प्राप्तियों की बलि दे दी जा रही है.

पुनश्च : जीवाणुओं को हम व्यक्तियों की तरह समझते हैं और व्यक्तियों को भी हम केवल काली-सफ़ेद बायनरी में बांट कर देखते हैं. किसी इंसान को या तो देवता बना डालते हैं अथवा राक्षस. इस तरह की स्पष्टता ढेरों आवश्यक जानकारियों को धता बता कर प्राप्त की जाती है. जीवन में अधिकांश इंसान धूसर परिभाषाएं लिये होते हैं – न कोई पूर्ण शुभ्र होता है और न कोई पूर्ण श्याम. इसी तरह से कोई जीवाणु किसी परिस्थिति में अच्छा-या-बुरा, लाभप्रद-या-हानिकारक हुआ करता है. यह भी सम्भव है कि वह एक ही समय पर लाभ और हानि (अलग-अलग ढंग से) दोनों पहुंचा रहा हो.)

  • स्कंद शुक्ल

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर पर फॉलो करे…]

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

शातिर हत्यारे

हत्यारे हमारे जीवन में बहुत दूर से नहीं आते हैं हमारे आसपास ही होते हैं आत्महत्या के लिए ज…