भारत के संघी राष्ट्रवाद का दो सबसे कोर प्वाइंट है – पहला नफरत करो और दूसरा गर्व करो. नफरत किससे करो ? जहां मुसलमान हैं वहां मुसलामन से करो./जहां मुसलमान नहीं हैं सरदार हैं, वहां सरदार से कर लो, ईसाईयों से कर लो, पर नफरत करो. क्या कहा, नफरत करने के लिए अगर आसपास पराया धर्म नहीं है ? कोई बात नहीं, अपने भीतर से किसी एक को अलगा के उससे नफरत कर लो.
हरियाणा में हो तो जाटों से नफरत कर लो. जगह विशेष पर दलितों से कर लो. बिहार में यादवों से कर लो, पर नफरत करो. अगर सवर्ण हैं और हमारे झांसे में नहीं हैं तो उन्हें जयचंद बता के उनसे नफरत कर लो. अपने देवता के फेल होने के पीछे वजह अपने देवता में नहीं, उनमें ढूंढो जिनसे नफरत है. अगर नहीं हो तो उनसे नफरत बना दो.
नोटंबदी के वक्त में बैंक कर्मचारियों से नफरत करो और उन्हें निकम्मा और लालची बोल कर नोटबंदी फेल होने का जिम्मेदार बना दो. वे हिंदू हैं पर रेलवे में काम करते हैं और उसे बेचे जाने का विरोध करते हैं तो उन्हें निठल्ला और मु्फ्तखोर बोल के उनसे नफरत कर लो. कभी बॉलीवुड, कभी जेएनयू, कभी जामिया, कभी पढ़ती-लिखती लड़कियां, कभी रोजगार मांगते युवा जब जहां जिससे जरूरत हो, नफरत कर लो.
नफरत के अलावा दूसरा काम क्या करना है – गर्व करना है. किस चीज पर गर्व करना है ? जो है उसी पर गर्व कर लो. हिंदू होेने पर गर्व कर लो. भारतीय होने पर गर्व कर लो. हमारे सैनिक मर रहे हैं, उनके मरने पर गर्व कर लो. कोविड से डॉक्टर भी मर रहे हैं उनके सेवा और बलिदान पर गर्व कर लो. दूर मामा के साला का बेटा बैंक में लग गया, गर्व कर लो. कोई दोस्त जज लग गया, तुम्हें क्या करना है ? गर्व करना है.
तुम्हारे आस पास किसी ने कुछ भी कर लिया, भले ही आप उसके ना तीन में, न तेरह में हैं, पर उसपे गर्व कर लो.
अपनी लगी पड़ी है, छोड़ो ना उसे, नफरत करो और गर्व करो. इलाज के अभाव में मर रहे हो तो गर्व करो कि मोदी जी के काल में मर रहे हो. और क्या सब नहीं करना है ? सवाल नहीं करना है. तर्क नहीं करना है. हिसाब नहीं लेना है. गर्व में इतना चूर रहना है कि ऐन अपने मरने वाली हालत आने तक उसका पता न लगे.
आप जिस समाज में हैं उसमें अभूतपूर्व तबाही आई हुई है. श्मशान, घर, बाहर, नदी, नाले सब लाशों से पटे हैं. आप क्या करेंगे ? सवाल तो करना नहीं है, गर्व करने की हालत भी नहीं है, नफरत भी जोर नहीं मार रही है तो नफरत को एक किक दो और इजराइल पर गर्व कर लो.
पर भगवान से मनाना कि इजराइल के लिए गर्व करने वाली और इस संकट की घड़ी में इस संकट के जन्मदाता और प्रसारक ‘प्रधानमंत्री मोदी जी के साथ हूं’ वाली पोस्ट करते-करते कहीं तुम ना मर जाना.
तेरे बंधु और नफरती और गर्वीले साथी तब भी तुम्हारे मरने का दुख नहीं करेंगे, कहीं और नफरत और गर्व खोजने में ही बिजी रहेंगे.
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मोदी जी को धन्यवाद दीजिए कि उन्होंने इसराइल की तरह मिसाइल दाग कर इन बिल्डिंगों को नहीं तोड़ा. मोदी जी जिन बिल्डिंगों को अपना महल बनवाने के लिए बुलडोजर से तुड़वा रहे हैं, उसकी सूची नीचे है –
- राष्ट्रीय संग्रहालय
- राष्ट्रीय अभिलेखागार
- इंदिरा गांधी कला केंद्र
- जवाहर भवन
- निर्माण भवन
- रक्षा भवन
- शास्त्री भवन
- विज्ञान भवन
- उद्योग भवन
- कृषि भवन
कुछ अनपढ़ बोले हमारी किताबें सबसे अच्छी है, हालांकि उन्होंने कभी नहीं पढ़ी थी कोई किताब, फिर भी वह बताते थे कि हमारी किताबों में लिखा है ईश्वर का सही-सही विवरण. अनपढ़ों का गिरोह यह भी बोला कि जो लोग अलग तरह की किताबें पढ़ते हैं, वो हर तरह हम से अलग हैं. अनपढ़ों ने यह भी शोर मचाया कि क्योंकि हमारी किताबें अच्छी है इसलिए कुर्सी पर बैठ कर हुकूमत करने का हक भी हमारा है और जो हमसे अलग किताब वाले हैं, उन्हें तो मुल्क छोड़कर वहां चले जाना चाहिए, जहां उनकी तरह की किताब पढ़ने वाले लोग रहते हो.
इस तरह अनपढ़ों का राज आया. कुर्सी पर बैठे अनपढ़ का हुक्म हुआ कि दूसरी तरह की किताब वालों को सड़क पर कत्ल करना वाजिब है और उनकी औरतों की बेइज्जती असल में धर्म है. उस मुल्क में जो लोग किताबें पढ़ सकते थे, वे कहते ही रहे कि सभी किताबों में लिखी है एक सी बातें इसलिए किताबों के बहाने मत लड़ो. पर अनपढ़ थे बहुत ज्यादा और हुकूमत पर वही काबिज थे इसलिए उन्होंने पढ़ने-लिखने वालों को कैद करने का हुकुम दिया. और फिर जब आई मौत की आंधी पट गई सड़कें लाशों से, तब कुर्सी पर बैठे अनपढ़ ने कहा लाशों का जिक्र भी बगावत माना जाएगा.
बड़े-बड़े न्यायाधीश और बड़े-बड़े ज्ञानी मिलाने लगे अनपढ़ की हां में हां. अनपढ़ के सिपाही बन्दूकें लेकर घूम रहे थे सड़कों पर ताकि लाशों पर रोने वालों को बगावत के जुर्म में पकड़ सकें. अब सड़कों पर खौफ था, लाशें थी और सिपाही थे. अवाम अपने बच्चों को सीने से लगाकर घरों में सिसक रही थी.
वे डरते थे कि बच्चे जोर से आवाज न करें और कहीं नौजवान ना मान लिये जायें बागी शोर करने पर. जेलें भर चुकी थी पढ़ने लिखने वालों से. जिन किताबों को अच्छा बताया जा रहा था उन किताबों को पढ़ने वाला न बचा था कोई भी और इस तरह कुछ किताबों के नाम पर अनपढ़ों का राज कायम हुआ.
- उमाशंकर सिंह एवं हिमांशु कुमार
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