Home गेस्ट ब्लॉग एंटीबायटिक और प्रोबायटिक दोनों का अनर्गल प्रयोग हमारी स्वास्थ्य के प्रति विवेकान्धता का प्रमाण

एंटीबायटिक और प्रोबायटिक दोनों का अनर्गल प्रयोग हमारी स्वास्थ्य के प्रति विवेकान्धता का प्रमाण

42 second read
0
3
554

एंटीबायटिक और प्रोबायटिक दोनों का अनर्गल प्रयोग हमारी स्वास्थ्य के प्रति विवेकान्धता का प्रमाण

बाज़ार का पूरा प्रयास है कि 1 ) ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों को बीमार साबित किया जाए और 2 ) खेत में उगने वाली हर वस्तु को पोषणहीन बताया जाए.

हम-लोग ऐसे युग के मनुष्य हैं, जो जीवाणु को मारने और उगाने दोनों में मुनाफ़ा देखता है. एंटीबायटिक और प्रोबायटिक दोनों का अनर्गल प्रयोग हमारी स्वास्थ्य के प्रति विवेकान्धता का स्पष्ट प्रमाण है.

विटामिनों के वहम अब बासी हो चले हैं ,इसलिए हमें प्रोबायटिकों के प्रमाण बताये जा रहे हैं. बाज़ार में अनेकानेक उत्पाद जीवित जीवाणु-कल्चरों से पटे हुए हैं : इनमें योगर्ट से लेकर गोलियां-कैप्सूल और ग्रैनोला-बारों से लेकर पशु-भोजन तक शामिल हैं. सभी के लिए प्रोबायटिकों के गुण गाये जा रहे हैं, सभी को जीवाणु-सेवन का महत्त्व समझाया जा रहा है. पर क्या जितनी ऊंचे स्वर में और जितनी बार कम्पनियां प्रोबायटिक-स्तवन हमारे समग्र कर रही हैं, क्या उतने स्वास्थ्य लाभ इनसे मिलते हैं ? और क्या बिना प्रोबायटिक सेवन के हम-मनुष्यों को कोई स्वास्थ्य-हानि हो रही है ? अथवा क्या प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति को प्रोबायटिक लेने ही चाहिए ?

सामान्य तौर पर किसी सामान्य व्यक्ति को कोई भी प्रोबायटिक लेने की कोई आवश्यकता नहीं है. अधिकतर शोधों ने इनका प्रयोग अलाभकारी पाया है और इसलिए यह अनुपयोगी भी है. मोटी बात यह ध्यान देने योग्य है कि अगर आपकी आंतें स्वस्थ हैं, तो आपको कोई प्रोबायटिक लेने की ज़रूरत नहीं. अगर आप आन्त्र-रोगों से भी ग्रस्त हैं, तब भी आपको यह देखना चाहिए कि क्या आपके रोग-विशेष के उपचार में प्रोबायटिक की सचमुच आवश्यकता है ? अगर नहीं , तब आप इन्हें नाहक खाकर अपनी जेब पर बोझ बढ़ा रहे हैं.

कुछ दशक पहले तक (और आज भी) उत्पाद-विक्रेता-कम्पनियों का ज़ोर विटामिनों पर था. एक ऐसा माहौल तैयार किया गया था / है कि भोजन में पोषक तत्त्व हैं ही नहीं. इसलिए आपको खेत के साथ बाज़ार से भी कुछ ख़रीदकर खाना चाहिए. हां ! हां ! हम जानते हैं कि आपको कोई बीमारी नहीं है ! पर विटामिन बीमारों को नहीं स्वस्थ लोगों को भी खाने चाहिए. इसके लिए डॉक्टरों को भी मुनाफ़े का सहभागी बनाया गया. स्वास्थ्य और चिकित्सा के अभिभावकों ने जब विटामिनों के लिए लोगों को दुकानों की ओर प्रेरित किया, तब जनता क्या करती ! फिर तो उसे उस ओर जाना भी था. आज भी अनेकानेक डॉक्टर अपने पर्चों को विटामिनी नुस्खों से सजाया करते हैं. जहां इनकी आवश्यकता है, वहां तो ठीक है; पर वहां भी, जहां इनका दूर-दूर तक कोई औचित्य है ही नहीं !

ऐसा नहीं है उत्साहपूर्ण विटामिन-सेवन के खतरे जाने-पहचाने ही न गये. शोधकर्ताओं के एक समूह ने इनकी सेवन-अति से फेफड़ों-स्तन-प्रोस्टेट जैसे कैंसरों को बढ़ता हुआ पाया. पर लाभीप्सा रखने वाले उल्लसित व्यापारी-स्वरों से इन शोधों को दबा दिया. आज भी वे दबाये हुए हैं और ढेरों लोग इनके प्रभाव में विटामिनों को जब-तब नाहक ही चबाया-निगला करते हैं.

ज्यों-ज्यों मानव-आन्त्र-मायक्रोबायोम की समझ बढ़ी, व्यापारियों को मुनाफ़े के लिए नया क्षेत्र नज़र आने लगा. इंसान की आंत के रास्ते आसानी से अरबपति बना जा सकता है ! लगभग चालीस ट्रिलियन जीवाणु इसमें बसते हैं, ज़्यादातर का आशियाना (छोटी नहीं बल्कि) बड़ी आंत है. ये घेर कर हानिकारक जीवाणुओं की वृद्धि और रोगकारिता का दमन करते हैं; ढेरों रोगों में हमारा इन आन्त्र-सद्जीवाणुओं के कारण बचाव होता है. इनके कारण हमें विटामिन के और बी-12 जैसे विटामिन भी प्राप्त हो जाते हैं.

सवाल यह पूछिए कि सामान्य को और सामान्य कैसे किया जा सकता है ? स्वस्थ को और स्वस्थ करने का भी कोई तरीक़ा है ? ज़ाहिर है कि आप ‘न’ कहेंगे तो इसके लिए बाज़ार ने नयी चाल चली. उसमें सामान्य और स्वस्थ जनों में असामान्यता और रोग ढूंढने शुरू कर दिये. जहां असामान्यता थी ही नहीं, वहां उसे ज़बरदस्ती दिखाया गया. जहां रोग की अनुपस्थिति थी, वहां उसकी उपस्थिति दर्शायी गयी. फिर जैसे पहले इनके लिए विटामिनोच्चार किया जाता था, वैसे ही अब प्रोबायटिकोच्चार किया जाने लगा.

इस प्रोबायटिकोच्चार ने हमसे हमारी प्रश्न करने की क्षमता छीन ली. जिस प्रोबायटिक को हम खा रहे हैं, उसमें मौजूद जीवाणु आंत में जाकर क्या जीवित भी बचेंगे ? बायफिडोबैक्टीरियम और लैक्टोबैसिलस का आमाशय की अम्लीयता से बचकर आंत में पहुंच भी पाएंगे या वहीं मर जाएंगे ? यदि ये पहुंच भी गये तो क्या प्रोबायटिक में इनकी इतनी मात्रा होगी कि ये आंत के मायक्रोबायोम पर सकारात्मक प्रभाव छोड़ सकें ? बकौल एक संक्रामक-रोग-विशेषज्ञ शीरा डोरॉन के ‘प्रोबायटिक का सेवन किसी बाल्टी में एक बूंद-मात्र डालने से अधिक कुछ नहीं है.’

तो क्या प्रोबायटिक-सेवन के कोई भी वैज्ञानिक लाभ नहीं हैं ? यदि हैं तो वे कौन से हैं ? यह सत्य है कि जब किसी संक्रामक रोग को ठीक करने के लिए डॉक्टर आपको एंटीबायटिक देते हैं, तब उसके कारण आन्त्र में मिलियनों-मिलियन जीवाणुओं का नाश होता है. इनमें ज़्यादातर रोगकारी नहीं बल्कि लाभप्रद ही होते हैं. एंटीबायटिक के सेवन से हमारे शत्रु-जीवाणु तो मर गये हैं, पर उसके साथ असंख्य मित्र भी मारे गये हैं. ऐसे स्थिति में डॉक्टर एंटीबायटिक के संग प्रोबायटिक भी दिया करते हैं. इन प्रोबायटिकों में उपस्थित लाभप्रद जीवाणु आन्त्र में हमारी मित्र-जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि करते हैं. इस तरह से एंटीबायटिक-जन्य-विनाश के बाद प्रोबायटि-जन्य-पोषण के कांड आन्त्र-पर्यावरण पुनः स्वस्थ हो जाता है.

अगर एंटीबायटिक के साथ प्रोबायटिक न दिये जाएं, तब वहां हानिकारक जीवाणुओं के पनपने की आशंका बढ़ जाएगी. जिन घरों से हमने अच्छे लोगों को निकाल फेंका है, वहां बुरे लोग कब्ज़ा जमा लेंगे इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि उन घरों में पुनः अच्छे लोग ही बसाये जाएं. एंटीबायटिक के साथ प्रोबायटिक देने का यही कारण है. आंतों के ऐसे अनेक रोग होते हैं, जिनमें हानिकारक अवसरवादी जीवाणुओं की बड़ी भूमिका रहती है, इनको पनपने से रोकने के लिए बार-बार अथवा जब भी एंटीबायटिक का प्रयोग किया जाता है, प्रोबायटिक को साथ में लगा दिया जाता है.

पर अब शोध यह भी बताने लगे हैं कि कदाचित् इंसानी शक्लों की तरह उनकी आँतों के मायक्रोबायोम भी भिन्न होते हैं. ऐसे में सभी को एक ही प्रोबायटिक देकर लाभ पहुंचाने का दवा दरअसल हमारी नादानी है. चिकित्सा को उन्नत तो तब कहा जाना चाहिए, जब वह हर इंसान के आन्त्रीय मायक्रोबायोम को समझे और तदनुसार प्रोबायटिक का चुनाव आवश्यकता पड़ने पर कर सके. सभी स्वस्थ लोगों की आंतों में अलग-अलग लाभप्रद जीवाणुओं की भिन्न-भिन्न संख्या मौजूद है. इसे तरह से बीमारों की आंतों में भी अलग-अलग प्रकार के हानिकारक जीवाणुओं की आबादी में बढ़त हुई है.

आज हमारी चिकित्सा व्यक्तिगत नहीं है, प्रजातिगत है. हम मानव प्रजाति का उपचार करने वाले डॉक्टर हैं, व्यक्ति के स्तर पर इलाज देना अभी हमने शुरू नहीं किया है. स्वास्थ्य और रोग की सीमारेखा को धुंधला किया गया है; व्यक्ति-व्यक्ति के शरीर में विभेद अस्पष्ट बना हुआ है. इसी अस्पष्टता और धुंधलके में व्यापार सर्वाधिक फलता-फूलता है (फल-फूल रहा ही है ! ).

स्वस्थ लोग भी अपने स्वास्थ्य और किसान दोनों पर अविश्वास रखते हुए दनादन प्रोबायटिक खा रहे हैं. बाज़ार का पूरा प्रयास है कि 1 ) ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों को बीमार साबित किया जाए और 2 ) खेत में उगने वाली हर वस्तु को पोषणहीन बताया जाए. जब सब स्वयं को बीमार समझेंगे और खेत पोषण से बांझ मान लिये जाएंगे, तब लोग जाएंगे कहां ? ज़ाहिर है, मॉल में रखे प्रोबायटिक-युक्त योगर्ट-बार-गोलियां-कैप्सूल-कैंडियां-कुकी इसी तरक़ीब से ख़ूब-ख़ूब बिक सकेंगे.

  • स्कन्द शुक्ल

Read Also –

टूटती सांसों को जोड़ने वाली ऑक्सीजन गैस की खोज की दिलचस्प कहानी
ज्वाला देवी या एटरनल फ्लेम ?
स्युडो साईंस या छद्म विज्ञान : फासीवाद का एक महत्वपूर्ण मददगार
डार्विन का विकासवाद सिद्धांत : विज्ञान बनाम धर्म
God is not Great : गॉड इज नॉट ग्रेट
संयुक्त राष्ट्र की 74वीं आम सभा, दुनिया में बढ़ते टकराव पर कितना ध्यान ?
106वीं विज्ञान कांग्रेस बना अवैज्ञानिक विचारों को फैलाने का साधन
राखीगढ़ी : अतीत का वर्तमान को जवाब
दुनिया के 6 ऐसे देश, जहां सौर-मंडल का ये नियम लागू नहीं होता
मोदी ने इसरो को तमाशा बना दिया

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर पर फॉलो करे…]

ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

शातिर हत्यारे

हत्यारे हमारे जीवन में बहुत दूर से नहीं आते हैं हमारे आसपास ही होते हैं आत्महत्या के लिए ज…