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मुनाफा के सौदागरों का मोदी ब्रांड पिट चुका है

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मुनाफा के सौदागरों का मोदी ब्रांड पिट चुका है

हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
मरने से डर नहीं लगता. जीते जी मर जाने से डर लगता है, मरने के पहले की फजीहतों से डर लगता है, मरने के बाद की दुर्दशा से डर लगता है.

कोरोना संकट ने भारत को वैचारिक चौराहे पर ला खड़ा किया है. मोदी ब्रांड पिट चुका है और इसके साथ ही देश के सामने कई सवाल आ खड़े हुए हैं. ऐसे सवाल, जिनसे इस देश के नागरिकों का जीवन-मरण का संबंध है. पहला और सबसे महत्वपूर्ण सवाल तो यही है कि क्या नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नीति आयोग उन्हीं आर्थिक-सामाजिक नीतियों पर आगे भी काम करता रहेगा जिनके आधार पर बीते वर्षों में वह अपनी कार्य योजनाएं बनाता रहा है ?

उन सपनों की प्रासंगिकताएं कितनी रह गई हैं, जिनमें हमें बताया जाता रहा है कि जल्दी ही, अगले कुछेक वर्षों में हम 5 ट्रिलियन की इकोनॉमी बनने वाले हैं, कि बस जल्दी ही हमारे देश में हर सिर के ऊपर पक्की छत होगी, कि अब गरीबों के इलाज के लिये ‘आयुष्मान योजना’ के रूप में एक रामबाण नुस्खा खोज लिया गया है…और कि जल्दी ही किसानों की आय दोगुनी हो जाने वाली है.

तालियां जोश भरी उम्मीदों पर ही बजती हैं. इस तरह की घोषणाएं करते नरेंद्र मोदी ने बहुत तालियां बटोरी हैं, वैसे ही जैसे अपनी चुनावी सभाओं में वे 2 करोड़ रोजगार प्रतिवर्ष के वादों पर बेहिंसाब तालियां बटोरा करते थे. लेकिन, सच का सामना करने का वक्त आ चुका है. मोदी की गति मोदी जानें, इस देश के लोगों को सोचना होगा कि जिन रास्तों पर नीति आयोग देश को ले जा रहा था, महामारी के इस संकट में उनकी सीमाएं उजागर होने के बाद अब उन नीतियों का क्या होगा ?

 

सार्वजनिक चिकित्सा तंत्र की कमजोर संरचना कोविड संकट में पूरी तरह एक्सपोज हो चुकी है और निजी चिकित्सा तंत्र की अमानवीय लिप्सा भी निर्लज्ज तरीके से उजागर हो चुकी है. अब, इस संदर्भ में नीति आयोग की उन कार्य योजनाओं पर विचार करने का वक्त आ गया है, जिनमें इस देश की चिकित्सा प्रणाली में निजी भागीदारी को अधिक से अधिक बढाने की पैरोकारी की जाती रही है.

क्या नीति आयोग उन्हीं नीतियों पर चलता रहेगा ? और…इतना कुछ गुजरने के बाद भी अगर वह उन्हीं नीतियों की वकालत करता उन्हीं कार्य योजनाओं पर काम करता रहेगा तो क्या आम लोगों को चुप रह जाना चाहिए ? जैसा कि सर्वविदित है, नीति आयोग ऐसी योजनाओं पर काम कर रहा है जिनमें देश के तमाम जिला अस्पतालों में निजी निवेश को बढ़ावा दिया जाएगा.

कोविड संकट से मिले सबक के बाद भी क्या ऐसी योजनाओं पर काम होता रहेगा ? आज की तारीख में जितने भी जिला अस्पताल हैं, अपनी तमाम साधनहीनताओं के बावजूद वे कोरोना मरीजों के लिये बड़ा सहारा बन कर सामने आए हैं. कल्पना करें, उन अस्पतालों में अब तक अगर, जैसा कि नीति आयोग चाहता है, मुनाफा के सौदागरों की घुसपैठ हो चुकी होती तो कैसा मंजर होता ?

योजना आयोग की जगह बड़े ही जोर-शोर से नीति आयोग को लाया गया था लेकिन, अंततः यह कारपोरेट सेक्टर का पैरोकार मात्र बन कर रह गया. स्थापना के इतने वर्षों के बाद इस पर बात होनी चाहिए कि नीति आयोग की क्या उपलब्धियां रही हैं ? बेचने के लिये सार्वजनिक इकाइयों की पहचान करना उसका मुख्य कार्य रहा है. यहां तक कि उसके सीईओ अमिताभ कांत ने तो प्रारम्भिक शिक्षा के ‘कम्प्लीट प्राइवेटाइजेशन’ तक की वकालत की है.

जब कोई बड़ा ब्रांड पिटने लगता है तो उसके साथ ही बड़े-बड़े सपने भी धराशायी होने लगते हैं. मोदी की चमक मद्धिम तो तभी होने लगी थी जब आर्थिक क्षेत्र में एक के बाद एक उनकी तमाम विफलताएं सामने आने लगी थीं. कहां तो दो करोड़ रोजगार प्रतिवर्ष दे रहे थे, कहां बेरोजगारी 45 वर्ष के उच्चतम स्तरों पर पहुंच गई, विकास-विकास की रट लगाते विकास दर ही गोता लगाने लगी.

लेकिन, अपनी आर्थिक विफलताओं को अपने प्रचार-प्रबंधन और छवि निर्माण की सुनियोजित प्रक्रियाओं के द्वारा वे यथासंभव नेपथ्य में धकेलने में सफल होते रहे. नौकरियां खत्म होती रहीं, आर्थिक मंदी से देश घिरता गया लेकिन उनका आईटी सेल और मीडिया का बड़ा हिस्सा उनकी विरुदावली गाता रहा. वे नेता से अधिक ब्रांड बन कर भारतीय राजनीति में छाए थे. इस ब्रांड को कृत्रिम चमक देने की जितनी सुनियोजित कोशिशें होती रहीं वह सब इतिहास का हिस्सा बन चुका है.

बहरहाल, मोदी अभी इतिहास का हिस्सा नहीं हुए हैं. वे बाकायदा इस देश के प्रधानमंत्री हैं अभी और भाजपा के सबसे बड़े नेता भी. लेकिन, कोविड संकट ने उनकी वैचारिक और क्षमतागत सीमाएं उजागर कर दी हैं. वे जल्दी हार मानने वालों में से नहीं है, इसलिये वे और उनके सलाहकार विमर्शों को नए मोड़ देने की हर संभव कोशिश करेंगे, ताकि छिटकते और उदासीन होते जनसमर्थन को फिर से साथ लिया जा सके. लेकिन अब यह इतना आसान नहीं रहा. उनके अहंकार, उनकी कार्यप्रणाली ने इस देश को जितने बड़े संकट में डाल दिया है वह नजरअंदाज करने के लायक नहीं है.

एक बड़े राजनीतिक प्रकाशपुंज का अचानक से मद्धिम पड़ जाना सिर्फ नियति का ही खेल नहीं है, उनकी वैचारिक सीमाओं का भी बड़ा योगदान है इसमें. और, उनकी इन्हीं वैचारिक सीमाओं ने देश को एक वैचारिक चौराहे पर ला खड़ा किया है.

सवाल यह नहीं है कि मोदी की जगह पर कौन, बल्कि सवाल यह है कि मोदी जिन कारपोरेट समर्थक, विचारशून्य सलाहकारों के भरोसे इस देश को मनमानी दिशा में हांके जा रहे थे, उनकी प्रासंगिकता कितनी रह गई है. महामारी के सबक और संकेतों ने स्पष्ट कर दिया है कि जिस राह वे देश को ले जा रहे थे वह भारत के विशिष्ट सन्दर्भों में कतई प्रासंगिक नहीं है.

कोरोना ने भारत को जगाया हो या नहीं, जागने का संदेश तो दे ही दिया है. जगे हुए भारत में नरेंद्र मोदी और उनके कारपोरेट एजेंट टाइप सलाहकारों की प्रासंगिकता कैसे बनी रह सकती है ? हर वह आदमी असुरक्षा बोध से ग्रस्त है जो कल तक जीवन के सपने संजो रहा था. जीवन की क्षणभंगुरता का अहसास इतनी शिद्दत से हो रहा है कि मन में अक्सर वैराग्य उपजने लगता है. मैसेज आते हैं, फोन आते हैं सम्बन्धियों के, दोस्तों के, ‘आप ठीक हैं न ?’ क्या उत्तर दे कोई ? फिलहाल तो ठीक हैं, आगे का नहीं पता.

आस्तिक होना इस मायने में सम्बल देता है कि सब कुछ प्रभु पर छोड़ सकते हैं. लेकिन, प्रभु पर सब कुछ छोड़ना इतना आसान भी नहीं. मन संशय से भर उठता है. मरने से उतना डर नहीं, जितना डर फ़ज़ीहतें झेलते मरने से है, जितना डर मर जाने के बाद अपने मृत शरीर की दुर्दशा की कल्पना से है. दूसरों की गति देख कर मन आशंकाओं से घिर-घिर जाता है.

दोस्तों की नसीहतें मिलती हैं, ‘सोच को पॉजिटिव रखिये’, सरकार का संदेश मिलता है, ‘कोरोना से डरना नहीं, लड़ना है’, अखबार की खबरें कहती हैं, ‘अस्पताल में बेड नहीं, श्मशान में जगह नहीं.’ डॉक्टर थक रहे हैं, कंपाउंडर निढाल हैं, एम्बुलेंस की राह तकते रोगी की सांसें उखड़ रही है, परिजनों की चीत्कार माहौल को मर्माहत कर रही है.

पता नहीं, कैसा वायरस है, कैसी रहस्यमयी क्रूरता है इसकी. 80 वर्ष के दादाजी, 88 वर्ष की नानी जी के कोरोना से जंग जीतने की बातें सुनाई देती हैं, हल्का बुखार, हल्की खांसी से गुजरते हुए पॉजिटव से निगेटिव तक की यात्रा करते लोगों के उदाहरण मिलते हैं. कितनों को तो पता भी नहीं चलता कि कब वे पॉजिटव हुए और फिर खुदबखुद निगेटिव भी हो गए. जबकि जिन्हें जाना है वे स्वस्थ और जवान रहने के बावजूद संक्रमित होते ही मौत की राह पकड़ रहे हैं.

न्यायालय इसे सांस्थानिक नरसंहार कह रहा है, विश्लेषक सिस्टम को कोस रहे हैं, नेताओं को कोस रहे हैं, अस्पताल की अव्यवस्थाओं को कोस रहे हैं, एम्बुलेंस की अनुपलब्धताओं पर सिर धुन रहे हैं. एम्बुलेंस आ भी जाए तो कहां ले जाएगा ? अभी एक परिचर्चा में एक बड़े पत्रकार को कहते सुना, पटना एम्स के डॉक्टर को अपने ही अस्पताल में बेड नसीब नहीं हुआ और वे तड़पते गुजर गए.

140 करोड़ की आबादी पर एक लाख से भी कम आईसीयू, उससे भी कम वेंटिलेटर. ऑक्सीजन का मामला ऐसा कि आज के अखबार में पढ़ा, एक सिलिंडर एक लाख दस हजार रुपये में ब्लैक मार्केट से किसी ने हासिल किया, कीमत से सैकड़ों गुने अधिक में इंजेक्शन.

नैतिक-अनैतिक होने, कानूनी-गैरकानूनी होने के द्वंद्व से पूर्णतः मुक्त…अकूत मुनाफा और निर्मम लूट की लिप्सा में लिपटे-लिथड़े निजी अस्पताल, जिनके गेट पर ही मानवता कहीं धूल में लोटती नजर आती है. अभी पप्पू यादव को चीखते सुन रहा था, ‘मधुबनी गोलीकांड में घायल आदमी को फलां निजी अस्पताल ने 41 लाख रुपये ऐंठ लिये…’.

41 लाख ! बंदूक की गोली से घायल किसी आदमी के इलाज का खर्च, वह भी अधूरा. औकात जवाब दे गई तो निजी अस्पताल की गिरहकटी से पलायन कर पीएमसीएच की सरकारी छाया में त्राण और जीवन की लालसा में पप्पू यादव के कंधे पर चढ़ कर पहुंचा आदमी. एक फेसबुक मित्र ने पन्नी में लिपटे अपने भाई की लाश की फोटो के साथ लिखा, ’18 लाख रुपया और दुत्कार के बाद यही हासिल है.’

खबरें चर्चा में हैं कि गम्भीर हालत में पहुंच चुके मरीजों से प्राइवेट अस्पताल लाखों रुपये प्रतिदिन वसूल रहे हैं. लोग घर, जमीन, गहने बेच कर, जैसे भी हो, रुपये की व्यवस्था कर मुनाफा की उस पाशविक लिप्सा को तुष्ट कर रहे हैं ताकि उनके किसी अपने की सांसों की डोर न टूटे.

हर ओर अराजकता है, हर ओर अनिश्चय है, मुनाफे की शक्तियां बेलगाम हैं, सार्वजनिक कल्याण के लिये स्थापित सरकारी अस्पताल बेदम हैं, मानवता आदर्श की किताबों में सिमट चुकी लगती है. अफसर निरुपाय हैं, नेता की बोलती बंद है. महज 40-50 किलोमीटर की दूरी तय करने के लिये एम्बुलेंस 10 हजार-20 हजार मांग रहे हैं. सरकारी राशि से खरीदी एम्बुलेंस भी…! आखिर वे ‘पीपीपी मॉडल’ पर जो चल रही हैं. पीपीपी यानी पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप. यानी अब के नीति नियामकों की प्रिय प्रणाली.

पैसा पब्लिक का. मुनाफा प्राइवेट का. संरक्षण सरकार का.

काश कि कोई सुबह ऐसी आती कि नींद खुलने के साथ खबरों पर नजर पड़ती, ‘कोरोना संकट को देखते हुए तमाम निजी अस्पतालों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया है, कि उनके शुल्कों की सीमा तय कर दी गई है और उल्लंघन करने वालों को सख्त सजा का ऐलान कर दिया गया है. कि हर निजी अस्पताल मैजिस्ट्रेट की सघन निगरानी में है, कि हर जान कीमती है और उसे बचाने को व्यवस्था कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखेगी.’ लेकिन इस ‘काश’ के भीतर आहों के आर्त्तनाद के सिवा कुछ और नहीं.

‘राष्ट्र…राष्ट्र’ करने वाले राष्ट्रीयकरण शब्द से ही चिढ़ जाते हैं. वे तो राष्ट्र की संपत्तियों को निजी हाथों में बेचने को उतारू हैं, वे तो सरकारी जिला अस्पतालों में भी निजी निवेश की कार्य योजना पर काम कर रहे हैं. जब चहुंओर संक्रमण पसरता जा रहा हो तो कौन बचेगा, कौन घेरे में आ जाएगा, क्या कहे कोई.

डर संक्रमण से उतना नहीं, डर मरने से भी उतना नहीं. डर है उस निर्मम तंत्र से, जहां मनुष्य होना कोई मायने नहीं रखता, जहां मनुष्यता कोई मायने नहीं रखती, जहां गिद्धों का बोलबाला है. सुनते हैं, गिद्ध विलुप्त होते जा रहे हैं. मेरे 14 वर्षीय बेटे ने अब तक कभी किसी गिद्ध को नहीं देखा. लेकिन, अगर उसका पिता संक्रमित हो गया और अगर स्थिति गम्भीर हो गई तो फिर चहुंओर गिद्ध ही गिद्ध.

शायद मेरे बेटे की पीढ़ी उन गिद्धों से संघर्ष करे, असीमित मुनाफे की उनकी लालसाओं पर वैचारिक क्रांति और बदलावों के आक्रमण हों. हमारी पीढ़ी ने तो उनके पंखों में असीमित ऊर्जा और उनके नुकीले चोंच को तेज धार देने का काम ही किया है.

हमारी पीढ़ी को हमारी विचारहीनता ही निगल रही है. हर पराजित बाप उम्मीद करता है कि उसका बेटा उसका खोया संसार वापस लाएगा. उम्मीद करें कि हमारी पीढ़ी ने जो खोया है, हमारे बेटे की पीढ़ी उसे फिर से हासिल करे ताकि बीमार पड़ने पर किसी नागरिक के साथ मनुष्यता की गरिमा के तहत व्यवहार हो, उसका समुचित इलाज हो, उसे लूट लिए जाने का दंश न भोगना पड़े.

बाकी मरने का क्या है. जब बुलावा आए, ‘यह संसार कागज की पुड़िया, बून्द पड़े धुल जाना है.’ मरने से डर नहीं लगता. जीते जी मर जाने से डर लगता है, मरने के पहले की फजीहतों से डर लगता है, मरने के बाद की दुर्दशा से डर लगता है.

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