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‘आपदा में अवसर’ सबसे कुपरिभाषित शब्द

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'आपदा में अवसर' सबसे कुपरिभाषित शब्द

हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

‘आपदा में अवसर’ पिछले साल से चर्चा में रहे इन शब्दों को कुपरिभाषित करने वालों में सबसे आगे हमारे प्रधानमंत्री रहे और उनके बाद दूसरा स्थान हासिल करने के लिये तमाम मुख्यमंत्रियों में होड़ लगी रही, नतीजा सामने है कि कोरोना महामारी की दूसरी लहर, जिसकी आशंका विशेषज्ञ पहले से जता रहे थे, जब आई तो हमारा सिस्टम फिर चारों खाने चित्त नजर आ रहा है.

आपदा में अवसर को अगर सही में परिभाषित करना था तो पहली जरूरत थी युद्ध स्तर पर देश की चिकित्सा प्रणाली को दुरुस्त करने की, जो बीते वर्ष कोरोना संकट के दौरान बुरी तरह एक्सपोज हो चुकी थी लेकिन, सख्त लॉकडाउन के ऐसे दौर में, जब लोग विरोध में सड़कों पर नहीं उतर सकते थे, संगठित नहीं हो सकते थे, जन सम्पर्क के लिये यात्राएं करने में कठिनाइयां थीं, सरकारी कंपनियों के निजीकरण संबंधी फैसले ताबड़तोड़ लिये जाते रहे. नीति आयोग से जुड़े उर्वर मस्तिष्क अस्पतालों की दशा सुधारने के बजाय उन सरकारी क्षेत्रों की पहचान में लगे रहे जिन्हें निजी हाथों में सौंप कर सरकार अरबों डॉलर हासिल कर ले.

सीधा-सा मतलब है कि कोरोना की पहली लहर और उससे मची अफरातफरी से किसी सत्ताधारी ने कोई सबक नहीं लिया. बीते एक साल में हेल्थ सिस्टम को कम से कम इस लायक तो बनाया जा ही सकता था कि आज हजारों लोगों की उखड़ती सांसों को ऑक्सीजन का सपोर्ट मिलने में दिक्कत नहीं रहती, प्राणरक्षक इंजेक्शन की इतनी कमी नहीं होती, अस्पतालों में डॉक्टरों और सपोर्ट स्टाफ की इतनी कमी नहीं रहती.

बीबीसी की नवीनतम रिपोर्ट देखें तो बिहार के ‘सुशासन’ पर रोना आता है जहां पिछले वर्ष की आपदा से कोई सीख नहीं ली गई और हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर में अपेक्षाओं के अनुरूप सुधार होने के कोई लक्षण आज नहीं दिख रहे. हालात पिछले साल से भी बदतर हैं. रिपोर्ट बताती है कि बिहार में 69 प्रतिशत डॉक्टरों और 92 प्रतिशत नर्सों की कमी है. संक्रमण की बढ़ती रफ्तार के सामने अस्पतालों में बेड की उपलब्धता की बातें तो भूल ही जाइये. लोग एम्बुलेंस में ही पड़े-पड़े मर जा रहे हैं. एम्बुलेंस में मरना भी सबको नसीब नहीं, एम्बुलेंस की अनुपलब्धता से घरों में ही मर रहे हैं. चिकित्सकीय मानकों की ऐसी की तैसी करते हुए कोविड जांच रिपोर्ट मिलने में ही सात-आठ दिन लग जा रहे हैं, तब तक संक्रमितों की स्थिति बेकाबू हो जाती है.

बिहार की रुग्ण चिकित्सा प्रणाली आज फिर एक्सपोज हो चुकी है और तमाम सवाल खड़े हो रहे हैं कि विशेषज्ञों की चेतावनियों के मद्देनजर सरकार ने बीते एक साल में इसे सुधारने के क्या उपाय किये ? जाहिर है, कोरोना की इस दूसरी लहर के सामने सुशासन फिर बेपर्दा है. उत्तर प्रदेश में रसूख वाले नेताओं, पत्रकारों, अधिकारियों आदि के बीच एक जुमला आजकल खूब प्रचलित हो रहा है कि अगर अपने रसूख की पहचान करनी है तो एक कोविड संक्रमित को किसी अस्पताल में बेड दिलवा कर देख लें, ऑक्सीजन का एक सिलिंडर या प्राणरक्षक इंजेक्शन उपलब्ध करवा कर देख लें.

वैसे, खबरों में देखा कि यूपी सरकार लखनऊ के श्मशान में टीन की ऊंची दीवार लगवा रही है ताकि एक साथ जलती चिताओं के वीडियो पत्रकार न ले सकें. कई शहरों में दलाल सक्रिय हैं जो पैसे लेकर किसी निष्प्राण देह के जल्दी दाह-संस्कार का दावा करते हैं, वरना बेमौत मरे लोगों के परिजन उनकी लाश को जलवाने के लिये जगह के इंतजार में घण्टों खड़े रहने को विवश हैं. दिल्ली से मुंबई, केरल से बंगाल तक नाचती मौत के सामने हमारा हेल्थ सिस्टम एक बार फिर से कितना नाकारा साबित हो चुका है, इसे लेकर दर्जनों रिपोर्ट रोज आ रहे हैं लेकिन न हम कुछ सीखने-समझने को तैयार हैं, न हमारी सरकारें.

जाहिर है, जैसे हम हैं, वैसे ही नेताओं को हमने चुना है और वैसी ही सरकारें उन्होंने बनाई हैं. इतने बड़े संकट के सामने न बीते एक साल से सरकार कोई ऐसा विजन नहीं दिखा सकी जो मानवता के कल्याण के काम आता. बीते एक साल में कोरोना की रफ्तार कभी तीव्र हुई, कभी ठिठकी, फिर तेज हुई. लोग मरते रहे, विशेषज्ञ चेतावनियां जारी करते रहे और हमारे नेता ‘आपदा में अवसर’ को कुपरिभाषित करते रहे. उन्होंने इसे किन्हीं दूसरे लक्ष्यों को हासिल करने के ‘अवसर’ के रूप में लिया.

बीते वर्ष विश्व स्तर पर यह चर्चा चली थी कि कोरोना संकट नेताओं और सरकारों की परीक्षा भी ले रहा है कि वे अपने-अपने देशों में, राज्यों में किस तरह इससे निपटते हैं. हमारे देश में बिना किसी तैयारी या चेतावनी के लगाए गए सख्त लॉकडाउन ने और फिर ताली-थाली प्रकरण आदि ने बताया कि हमारा नेतृत्व इससे कैसे निपट रहा है. आज महामारी की इस दूसरी लहर में अगर किसी देश में प्रतिदिन महज 25-30 की संख्या में संक्रमण के मामले सामने आ रहे हैं और कहीं लाख की संख्या पार हो रही है तो इसमें नेतृत्व की भूमिका के बड़े मायने हैं. अपने देश में तो अब रोजाना दो लाख से भी अधिक मामले सामने आ रहे हैं.

मौत पर किसी का वश नहीं, लेकिन मरने वालों के परिजन अगर इस पर विलाप करें कि उनका कोई अपना ऑक्सीजन या इंजेक्शन की कमी से मर गया, एम्बुलेंस और उपचार की कमी से मर गया तो यह सिस्टम की विफलता है.

नई सदी में सबसे अधिक प्रचलित शब्दों की अगर फेहरिस्त बनाई जाए तो ‘आपदा में अवसर’ इनमें सबसे आगे होगा. इसे लेकर सरकार ने न जाने कितने सपने दिखाए, पक्ष-विपक्ष में न जाने कितने आरोप-प्रत्यारोप के दौर चले, लोगों ने न जाने कितने चुटकुले बनाए. ‘आपदा में अवसर’ हमारे सिस्टम और हमारी सरकार ने जिस तरह इन शब्दों का कुपाठ प्रस्तुत किया, कोरोना महामारी के इतिहास के साथ यह भी दर्ज किया जाएगा.

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कुशाभाऊ ठाकरे भारतीय जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी के अग्रणी विचारक थे. वे पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे. पार्टी और उसके विचारों के प्रसार में उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया. भाजपा के पितृ पुरुषों में उनका नाम बहुत आदर के साथ लिया जाता है. आज अगर भाजपा देश में इतना विस्तार पा सकी है और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में प्रचंड बहुमत के साथ सरकार चला रही है तो इसमें उनके जैसे लोगों की बड़ी भूमिका रही है.

कल सुना कि कुशाभाऊ के दो सगे भतीजे कोरोना संक्रमित होकर उचित इलाज के अभाव में अकाल कवलित हो गए. इंदौर के एक अस्पताल में उनके एक भतीजे की दर्दनाक मौत ऑक्सीजन सिलेंडर के अभाव में हो गई जबकि दूसरे की मौत इंजेक्शन के अभाव में हुई. इंदौर मध्य प्रदेश में है जहां कुशाभाऊ के चेले कहे जाते रहे शिवराज सिंह चौहान का राज है. देश में तो मोदी के नेतृत्व में भाजपा की एकछत्रता है ही फिर भी, भाजपा के पितृपुरुष के परिवारीजन सही इलाज के बिना तड़प-तड़प कर मर गए.

पता नहीं, बैकुंठ में बैठे कुशाभाऊ ठाकरे क्या सोच रहे होंगे इस पर ? उन्होंने अपने जीवन और चिंतन का बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा राम मंदिर आंदोलन में लगाया था. क्या उनके मन में आ रहा होगा कि जितनी ऊर्जा मन्दिर के लिये लगाई, अगर उतनी ऊर्जा देश और राज्य के अस्पतालों की दशा सुधारने के लिये लगाते तो आज उनके भतीजे अकाल मौत न मरते…? स्वर्गीय ठाकरे का संगठन चिंतन की जिस दिशा में आगे बढ़ता रहा उसके अपने तर्क हो सकते हैं. संस्कृति की उनकी अपनी परिभाषा थी, जिसके खिलाफ कोई हो सकता है लेकिन इस पथ पर चलते हुए उस संगठन के मनीषियों ने जितने संघर्ष और त्याग किये, उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती.

वे सत्ता में आए, बार-बार आए, लेकिन उन्होंने इस तथ्य को नजर अंदाज किया कि मनुष्य का जीवन जिन सवालों से जूझता है वे एकायामी नहीं हैं. वाया सामन्जस्यवादी वाजपेयी, मोदी तक की भाजपा की यात्रा राजनीतिक सफलताओं के नए-नए आख्यान रचती रही. केंद्र पर कब्जे के बाद एक-एक कर कई महत्वपूर्ण राज्य उसकी चुनावी सफलताओं की परिधि में आते रहे, लेकिन, सांस्कृतिक सवालों पर कोलाहल का माहौल खड़ा कर और अपने विशिष्ट किस्म के राष्ट्रवाद की अतिरंजना में उन्माद पैदा कर अपनी सत्ता को उन्होंने मजबूती तो दी, किन्तु मनुष्यता से जुड़े सवालों को पीछे धकेल दिया.

जब कोई नेता ‘बिजनेस-बिजनेस’ की ही रट अधिक लगाए तो यह पहला संकेत है कि वह कारपोरेट के हितों की खातिर अपनी राजनीतिक शक्ति का इस्तेमाल करने में कोई कसर बाकी नहीं रखने वाला. मोदी जी ने तो ‘खून में ही व्यापार’ होने की बात कर देश को स्पष्ट संदेश दे दिया था कि मनुष्य उनके चिंतन की परिधि में हाशिये पर है. बिजनेस और मनुष्यता का सामंजस्य बिठाना बेहद कठिन है, इसके लिये सजग और कठोर नियामक तंत्र चाहिये, जो भारत जैसे भेड़ बहुल देश में आसान नहीं है.

नतीजा, मोदी जी ने अस्पतालों की दशा सुधारने में अपनी ऊर्जा लगाने के बजाय ‘आयुष्मान योजना’ के नाम से 50 करोड़ अति निर्धन लोगों के लिये बीमा पॉलिसी जारी करने की घोषणा कर दी. बाकी 90 करोड़ लोगों के लिये उन्होंने सोचा कि वे पेट काट कर भी खुद की हेल्थ बीमा पॉलिसी खरीद ही लेंगे.

मतलब, इसे ही कहते हैं ‘बिजनेस.’ प्राइवेट अस्पतालों को ग्राहक मिलेंगे, बीमा कंपनियों को झोली भर-भर कर ग्राहक मिलेंगे. सबका बिजनेस दौड़ेगा लेकिन, हेल्थ बीमा कार्ड अपनी जेब में लिए एम्बुलेंस में ही मर जाने को विवश लोग अब हमारे देश को समझा रहे हैं कि प्राथमिक जरूरत तो अस्पतालों के निर्माण की है, उनकी क्षमता सुधारने की है, डॉक्टरों और सपोर्ट स्टाफ की नियुक्ति की है.

भाजपा और उसके मातृ संगठन के अपने सांस्कृतिक चिंतन होंगे, उनकी अपनी विशिष्ट दिशा होगी, लेकिन, जब भी और जहां भी वे सत्ता में आए, उन्होंने सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य के सवालों पर कभी कोई अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया. कोई राजनीतिक दल इतने एकांगी तरीके से कैसे सोच सकता है, कैसे राज कर सकता है ?

गुजरात मॉडल आज गुजरात मे ही भू लुंठित है. उस मॉडल के प्रतीक बड़े-बड़े मॉल आज अंधेरे में खोए हैं, बिजनेस घरानों के मुख्यालयों के चमकते शिखर कुम्हलाए हुए हैं और कोरोना संक्रमित गुजराती भाई आज किसी अस्पताल में एक बेड हासिल करने के लिये तड़प रहे हैं, बेड पर भर्त्ती लोग ऑक्सीजन और इंजेक्शन के लिये तड़प रहे हैं. महामारी ने बता दिया कि गुजरात मॉडल और कुछ नहीं, कारपोरेट लफ्फाजी के चमकते कंगूरों के नीचे पसर चुके अंधेरों का ही नाम है. उसी तरह, जिस तरह नरेंद्र मोदी अपनी काबिलियत से अधिक कारपोरेट के सुनियोजित और सुशृंखलित प्रचार की उपज हैं.

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने राजनीतिक सफलताओं के जिस शिखर का स्पर्श किया, वह प्रशंसा योग्य है, लेकिन, इसी के साथ भाजपा ने अपने राजनीतिक चिंतन की सीमाएं भी स्पष्ट कर दी हैं. वे आपको कश्मीर में प्लॉट खरीदने का अवसर मुहैया करवा सकते हैं, किसी मंदिर का भव्य निर्माण कर उसका क्रेडिट लिये देश भर में घूम-घूम कर राजनीतिक फसल काट सकते हैं, लेकिन, विशाल निर्धन आबादी की चिकित्सा के लिये अस्पतालों की श्रृंखलाएं स्थापित कर कोई अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत नहीं कर सकते. न ही सार्वजनिक शिक्षा के लिए कोई क्रांतिकारी कार्यक्रम ला सकते हैं.

कारपोरेट प्रेरित सत्ताधीशों के बांझ चिंतन से इस देश के तीन चौथाई निर्धन आबादी के लिये कोई क्रांतिकारी कार्यक्रम जन्म ले भी कैसे सकता है. ‘राष्ट्रभक्ति ले हृदय में, हो खड़ा यदि देश सारा…’ के प्रेरक गान से शुरू होकर ‘गैंगस्टर कैपिटलिज्म’ के शिकंजे में राष्ट्र को जकड़े जाते देखना बहुत दारुण अनुभव है.

पता नहीं, इस चिंतन धारा के पितृ पुरुषों के मन पर क्या गुजरती होगी जब वे स्वर्ग से इस धरा धाम पर देखते होंगे कि जिस पथ को उन्होंने अपनी तपस्या से सींचा उस पर चलते हुए उनकी राजनीतिक धारा के साथ कैपिटलिज्म पहले क्रोनी कैपिटलिज्म बना, फिर गैंगस्टर कैपिटलिज्म का रूप धर कर पूरे राष्ट्र को आक्रांत कर रहा है.

जीवन के मौलिक सवाल जब सामने आ कर घेरते हैं तो सारा उन्माद हवा हो जाता है. आज देश की वही स्थिति है. आज बिहार और यूपी के लोगों को अहसास हो रहा है कि अखबारों में डॉक्टर और नर्सों की कमी की खबरें पढ़ कर अनदेखा कर देने का कितना खौफनाक हश्र हो सकता है. बीबीसी की हालिया रिपोर्ट बताती है कि बिहार में 69 प्रतिशत डॉक्टरों की और 92 प्रतिशत नर्सों की कमी है, अन्य सपोर्ट स्टाफ की भी कमी इसी अनुपात में है. यूपी में भी कमोबेश ऐसे ही हालात होंगे.

एम्बुलेंस की कमी से घर पर मरते लोग, बेड की कमी से एम्बुलेंस में मरते लोग, ऑक्सीजन और इंजेक्शन की कमी से बेड पर मरते लोग बता रहे हैं कि बीते कई दशकों से राजनीतिक और आर्थिक चिंतन की जिस धारा में देश बहता जा रहा है, उस पर गम्भीरता से विचार-पुनर्विचार करने की जरूरत है. राजनीतिक दलों को आज के मर्मान्तक दौर से सबक लेना होगा. उनसे भी पहले मतदाताओं को सबक लेना होगा.

कोरोना संकट ने हमें स्पष्ट संदेश दिया है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की दशा सुधारने का कोई विकल्प नहीं है. अंध निजीकरण की ओर देश को ले जा रहा नेता या तो वैचारिक भ्रम का शिकार है या उसकी वैचारिकता किन्हीं अदृश्य शक्तियों के हितों की बंधक है !

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