अगर दुनिया गुजरात के भीतर का सच देख लेगी तो दहल जायेगी. वहाँ की असलियत ये है कि दलित वंचिंत अल्पसंख्यक और गरीबों की दुर्दशा दिनों-दिन बिगड़ती ही जा रही है. आम के पेड़ पर लगी मोजरेंं आमों की बंपर फसल की गारंटी नहीं होती ?बस ठीक वैसे ही गुजरात माॅडल का चित्रांकन करने वाले ठग आपके भविष्य की कोई गारंटी नहीं देते. वो लूटेरे आपको लूटने के लिये ही धरती पर अवितरित हुये हैं – संजीव मिसरा
मोदी का ‘गुजरात मॉडल’
रविश कुमार, अन्तर्राष्ट्रीय पत्रकार
गुजरात में अस्पतालों के बाहर गुजरात मॉडल खोज रहे हैं गुजरात के लोग, मिल नहीं रहा. गुजरात मॉडल का प्रोपेगैंडा देश भर ऐसा फैलाया गया कि आज लोग गुजरात से ज़्यादा गुजरात मॉडल के बारे में जानते हैं. विकास का एक दूसरा झूठा नाम ‘गुजरात मॉडल’ भी है. गुजरात के लोग भी गुजरात मॉडल के झांसे में रहे हैं. पिछले साल भी और इस साल भी जब वहां के लोग अस्पतालों के बार दर-दर भटक रहे हैं, तब उन्हें वह गुजरात मॉडल दिखाई नहीं दे रहा. अपनी झुंझलाहट और व्यथा के बीच वे गुजरात मॉडल पर तंज करना नहीं भूलते हैं.
झूठ के इतने लंबे दौर में रहने के बाद आसान नहीं होता है उससे बाहर आना. क्योंकि सिर्फ झूठ ही नहीं है, सांप्रदायिकता के ज़रिए इतने ज़हर भरा गया है कि किसी सामान्य के लिए उससे बाहर आना असंभव होगा. पिछले साल गुजरात के अस्पतालों के बाहर जो हाहाकर मचा था, उसकी खबरें देश को कम पता चली. इस साल भी हाहाकार मचा है. जिस राज्य की जनता ने नरेंद्र मोदी को इतना प्यार किया, उस राज्य की जनता बिलख रही है और प्रधानमंत्री बंगाल में गुजरात मॉडल बेच रहे हैं. वहां के अस्पतालों से एक साल से इसी तरह की खबरें आ रही हैं, मगर लोगों को सुधार के नाम पर हाहाकार और चित्कार मिल रहा है.
GMERS गांधीनगर अस्पताल में 52 साल के अश्विन अमृतलाल कनोजिया भर्ती होने के बाद लापता हो गए. परिवार के लोगों ने अस्पताल में काफी खोजा लेकिन जब नहीं मिले तो पुलिस के पास मामला दर्ज कराया. इसके बाद स्टाफ, पुलिस और परिवार के लोगों ने अस्पताल में खोजना शुरू किया. अंत में अश्विन भाई चौथे तल के बाथरुम में मरे पाए गए।.उनके शव से बदबू आ रही थी. आप कल्पना कीजिए कि अस्पताल के एक बाथरुम में एक लाश रखी है, किसी को पता तक नहीं चलता है. अस्पताल में इतने बाथरुम तो होते नहीं. एक बाथरुम एक घंटे बंद रह जाए तो वहां भीड़ लग जाए.
अहमदाबाद मिरर की एक और ख़बर है. शहर के एक बड़े सरकारी अस्पताल GMERS SOLA MEDICAL COLLEGE AND HOSPITAL में स्टाफ नहीं है. यह अस्पताल छह नर्सों के भरोसे चल रहा है. इसके चार आईसीयू वार्ड में 64 बिस्तर हैं. आधे भर गए हैं. एक नर्स के जिम्मे छह से सात मरीज़ की देखभाल है. किसी मरीज़ को आक्सीज़न सिलेंडर पर रखना है तो किसी का आक्सीज़न सिलेंडर हटा कर वेंटिलेटर पर रखना है, तो किसी को वेंटिलेटर से आईसीयू पर. ज़ाहिर है नर्सों पर काम का दबाव ज़्यादा होगा. यह सारे काम सेकेंड सेकेंड की निगरानी मांगते हैं. ज़रा-सी देरी का मतलब जान का ख़तरा. कायदे से एक मरीज़ पर एक नर्स होना चाहिए लेकिन छह मरीज़ पर एक नर्स है. कोविड के एक साल हो गए. इतना भी इंतज़ाम नहीं हो पाया लेकिन विकास को लेकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह ऐसे दावे करेंगे जैसे चांद धरती पर उतार दिया हो.
भावनगर के अस्पताल का वीडियो आपने देखा ही होगा. कोरोना के मरीज़ फर्श पर पड़े हैं. स्ट्रेचर पर ही इलाज हो रहा है. जो व्हील चेयर पर आया है उसी पर इलाज हो रहा है. यह रिपोर्ट प्राइम टाइम पर भी चली. प्रकाश भाई पटेल के बेटे बता रहे थे कि पिता जी से एक रात पहले फोन पर बात की थी. अगली सुबह फोन किया तो मोबाइल स्विच ऑफ था. फिर अचानक अस्पताल से फोन आया कि पिताजी का देहांत हो चुका है. डोली पटेल ने बताया कि उनकी अशक्त रिश्तेदार को भर्ती किया गया था. जब RTPCR निगेटिव आया तब उनका ट्रांसफर दूसरे वार्ड में कर दिया गया. वहां पीने का पानी तक नहीं मिला. मदद करने के लिए स्टाफ नहीं था. ख़ुद चल नहीं पाती थीं इसलिए गिर गई. हमें भी जाने नहीं दिया. इसे देखने के बाद एक दर्शक ने अपनी प्रतिक्रिया भेजी.
मोदी का गुजरात माॅडल यानी गांव-गांव तक श्मशान का निर्माण
‘ये है गुजरात मॉडल’ व्हाट्सएप के इनबॉक्स में यही दिख रहा था. जब अंदर गया तो दु:खों का अंबार मिला. मैसेज भेजने वाले ने अपने फूफाजी का हाल बताया था. उनके फूफा जी किसी अन्य बीमारी के इलाज के लिए भर्ती हुए थे, को इलाज के दौरान बताया गया कि कोरोन है. मानसिक तनाव झेल नहीं पाए. दिल का दौरा पड़ गया. परिवार के सदस्यों का कहना है कि अस्पताल ने शव नहीं दिया. कहा कि कोरोना के कारण अंतिम संस्कार अस्पताल की तरफ से किया जाएगा. जब फोन आएगा तब श्मशान से अस्थियां ले लीजिएगा. परिवार के लोग अस्थियां विसर्जित कर आए. दो दिन बाद किसी रिश्तेदार ने उसी अस्पताल में उनका शव देख लिया. उनका शव एक बंद कमरे के फर्श पर पड़ा था. जब पोस्टमार्टम हुआ तो पता चला कि कोविड से मौत ही नहीं हुई थी.
गुजरात के अख़बार और चैनल ऐसी ख़बरों से भरे हैं. गुजराती भाषा में काफी कुछ छप रहा है. गुजरात में भी गोदी मीडिया है लेकिन फिर भी वहां के कई पत्रकार जोखिम उठा रहे हैं. आम जनता के साथ जो हो रहा है उसे छाप रहे हैं और दिखा रहे हैं. नेशनल मीडिया में आपको वहां से कम ख़बरें दिखेंगी. कारण आप जानते हैं. अंग्रेज़ी में यह सब कम छपता है. गुजरात से ले दे कर एक ही अखबार है अहमदाबाद मिरर. जिसमें दो चार ख़बरें ही होती हैं तो पूरी सूचना न राज्य के लोगों को मिलती है और न राज्य से बाहर के लोगों को जिन्हें यह खुशफहमी है कि गुजरात की जनता किसी गुजरात मॉडल में जी रही है.
एक साल पहले जब गुजरात के अस्पतालों के भीतर और बाहर चित्कारी ख़बरें छपने लगी थी, तब भी लीपापोती के अलावा कुछ नहीं हुआ. अगर स्थायी बंदोबस्त किया गया होता तो आज यह हालत नहीं होती. जब पता ही है कि वोट धर्म के नाम पर फैले ज़हर के नाम पर पड़ना है तो अस्पताल को ठीक करने की मेहनत कोई क्यों करे ? दिन भर सांप्रदायिक भाषण दो, मैसेज फैलाओ, डिबेट कराओ और लोगों को छोड़ दो अस्पताल के बाहर मरने के लिए.
सूरत में बिजली शवदाह गृह की चिमनी ही पिघल गई है, वहाँ इतने शव जले हैं. सरकार मरने वालों का सही आँकड़ा नहीं दे रही है तो संदेश अख़बार खुद ही पता लगा रहा है. संदेश के रिपोर्टर गिनती गिन रहे हैं कि सिविल अस्पताल से कितने शवों को लेकर वाहन निकले हैं. संवाददाता श्मशान घाट जाकर लाशें गिन रहे हैं. गुजरात हाई कोर्ट ने कहा है कि लोग भगवान भरोसे हैं. भगवान के नाम के भरोसे राजनीति करने वाले मौज में हैं. गुजरात मॉडल का बोगस चेहरा सामने आ चुका है. बीजेपी अपने दफ़्तर में रेमडेसिविर बाँट रही है और अस्पतालों के पास ये दवा नहीं. लोग घंटों लाइन में लगे हैं. मरीज़ मर रहे हैं. बीजेपी के अध्यक्ष दावा करते हैं कि गुजरात के बाहर से दवा ख़रीद कर लाए हैं. दिव्य भास्कर की पड़ताल बताती है कि दवा zydus कंपनी की है, उसके सीरीयल नंबर हैं तो कंपनी बताएँ कि यह दवा गुजरात में ही बेची गई थी या बाहर से लाई गई है.
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अस्पताल और श्मशान में फ़र्क़ मिट गया है. दिल्ली और लखनऊ का फ़र्क़ मिट गया है. अहमदाबाद और मुंबई का फ़र्क मिट गया है. पटना और भोपाल का फ़र्क़ मिट गया है. अस्पतालों के सारे बिस्तर कोविड के मरीज़ों के लिए रिज़र्व कर दिए गए हैं. कोविड के सारे गंभीर मरीज़ों को अस्पताल में बिस्तर नहीं मिल रहा है. कोविड के अलावा दूसरी गंभीर बीमारियों के मरीज़ों को कोई इलाज नहीं मिल पा रहा है. कीमो के मरीज़ों को भी लौटना पड़ा है. अस्पताल के बाहर एंबुलेंस की कतारें हैं. भर्ती होने के लिए मरीज़ घंटों एंबुलेंस में इंतज़ार कर रहे हैं, दम तोड़ दे रहे हैं.
जिन्हें आईसीयू की ज़रूरत है उन्हें जनरल वार्ड भी नहीं मिल रहा है. जिन्हें जनरल वार्ड की ज़रूरत है, उन्हें लौटा दिया जा रहा है. शवों को श्मशान ले जाने के लिए गाड़ियां नहीं मिल रही हैं. सूरत से ख़बर है कि विद्युत शवदाह गृह में इतने शव जले कि उसकी चिमनी पिघल गई. लोहे का प्लेटफार्म गल गया. कई और शहरों से ख़बर है कि श्मशान में लकड़ियां कम पड़ जा रही है. अख़बारों में जगह-जगह से ख़बरें हैं. संवाददाता श्मशान पहुंच कर वहां आने वाले शवों की गिनती कर रहे हैं क्योंकि सरकार के आंकड़ों और श्मशान के आंकड़ों में अंतर है. सूरत के अलावा भोपाल और लखनऊ से भी इसी तरह की खबरें आ रही हैं. अंतिम संस्कार के लिए टोकन बंट रहा है.
एबुंलेंस आने में वक्त लग रहा है. एंबुलेंस के आने में कई घंटे लग रहे हैं. लखनऊ के इतिहासकार और पद्म श्री योगेश प्रवीण के परिजन एंबुलेंस का इंतज़ार करते रह गए. कानून मंत्री ब्रजेश पाठक ने चिकित्सा अधिकारी को फोन किया तब भी एंबुलेंस का इंतज़ाम नहीं हो सका. ब्रजेश पाठक ने पत्र लिखा है कि हम लोगों का इलाज नहीं करा पा रहे हैं. यही हाल सैंपल लेने का है. कोविड के मरीज़ के फोन करने के दो-दो दिन तक सैम्पल लेने कोई नहीं आ रहा है. सैंपल लेने के बाद रिपोर्ट आने में देरी हो रही है.
सरकार के पास एक साल का वक्त था अपनी कमज़ोरियों को दूर करने का. उसे पता था कि कोविड की लहर फिर लौटेगी लेकिन उसे प्रोपेगैंडा में मज़ा आता है. दुनिया में नाम कमाने की बीमारी हो गई है. दुनिया हंस रही है. चार महीने के भीतर हम डाक्टरों और हेल्थ वर्कर को भूल गए. उन्हें न तो समय से सैलरी मिली और न प्रोत्साहन राशि, जिन्हें कोविड योद्धा कहा गया वो बेचारा सिस्टम का मारा-मारा फिरने लगा. न तो कहीं डाक्टरों की बहाली हुई और न नर्स की.
जो दिखाने के लिए पिछले साल कोविड सेंटर बने थे, सब देखते देखते गायब हो गए. आपको याद होगा. साधारण बिस्तरों को लगाकर अस्पताल बताया जाता था, आप मान लेते थे कि अस्पताल बन गया है. उन बिस्तरों में न आक्सीजन की पाइप लाइन है, न किसी और चीज़ की. मगर फोटो खींच गई. नेताजी ने राउंड मार लिया और जनता को बता दिया गया कि अस्पताल बन गया है. क्या आप जानते हैं पिछले साल जुलाई में दिल्ली में सरदार पटेल कोविड सेंटर बना था, दस हज़ार बिस्तरों वाला. एक तो वह अस्पताल नहीं था, क्वारिंटिन सेंटर जैसी जगह को अस्पताल की तरह पेश किया गया. अस्पताल होता तो उतने डाक्टर होते, एंबुलेंस होती, वो सब कहां है ?
जगह-जगह से फोन आ रहे हैं. अस्पताल में भर्ती मरीज़ को ये दवा चाहिए, वो दवा चाहिए. इस बात का कोई प्रचार नहीं है कि संक्रमण के लक्षण आने के पहले दिन से लेकर पांचवे दिन तक क्या करना है ? किस तरह खुद पर निगरानी रखनी है ? कौन सी दवा लेनी है जिससे हालात न बिगड़े ? इतना तो डाक्टर समझ ही गए होंगे कि संक्रमण के लक्षण आने के कितने दिन बाद मरीज़ की हालत तेज़ी से बिगड़ती है, उससे ठीक पहले क्या किया जाना चाहिए ? क्या आपने ऐसा कोई प्रचार देखा है जिससे लोग सतर्क हो जाए ? स्थिति को बिगड़ने से रोका जाए और अस्पतालों पर बोझ न बढ़े.
हमने एक मुल्क के तौर पर अच्छा खासा वक्त गंवा दिया है. स्वास्थ्य व्यवस्था को मज़बूत नहीं किया. जनवरी, फरवरी और मार्च के महीने में टीकाकरण शुरू हो सकता था लेकिन तरह तरह के अभियानों के नाम पर इसे लटका कर रखा गया और निर्यात का इस्तेमाल अपनी छवि चमकाने में किया जाने लगा और जब दूसरी कंपनियों के टीका अनुमति मांग रहे थे तब ध्यान नहीं दिया गया. जब हालात बिगड़ गए तो आपातस्थिति में अनुमति दी गई. अगर पहले दी गई होती तो आज टीके को लेकर दूसरे हालात होते. ख़ैर …
आप ख़ुद भी देख रहे हैं. हर सवाल का जवाब धर्म में खोजा जा रहा है. सवाल जैसे बड़ा होता है धर्म का मसला आ जाता है. धर्म के मुद्दे को प्राथमिकता मिलती है, स्वास्थ्य के मुद्दे को नहीं. आप यही चाहते थे. धर्म की झूठी प्रतिष्ठा का धारण करना चाहते थे. अधर्मी नेताओं को धर्म का नायक बनाना चाहते थे. उन्होंने आपको आपकी हालत पर छोड़ दिया है. गुजरात हाई कोर्ट ने कहा है राज्य में हालात भगवान भरोसे है. अस्पतालों का हाल भगवान भरोसे है. जिसे भगवान बनाते रहे वह चुनाव भरोसे हैं. उसका एक ही पैमाना है – चुनाव जीतो.
आम जनता लाचार है. उसकी संवेदना शून्य हो गई है. उसे समझ नहीं आ रहा है कि उसके साथ क्या हो रहा है. वो बस अपनों को लेकर अस्पताल जा रही है, लाश लेकर श्मशान जा रही है. जनता ने जनता होने का धर्म छोड़ दिया है. सरकार ने सरकार होने का धर्म छोड़ दिया है. मूर्ति बन जाती है. स्टेडियम बन जाता है, अस्पताल नहीं बनता है. आदमी अस्पताल के बाहर मर जाता है.
इस बात का कोई मतलब नहीं है कि गृहमंत्री चुनाव प्रचार में हैं. मास्क तक नहीं लगाते. इस बात का कोई मतलब नहीं है कि प्रधानमंत्री चुनाव प्रचार में हैं मास्क लगाते हैं. एक ही बात का मतलब है कि क्या आप वाकई मानते हैं कि मरीज़ों की जान बचाने का इंतज़ाम सही से किया गया है ? मेरे पास एक जवाब है. आप गोदी मीडिया देखते रहिए, अपने सत्यानाश का ध्वजारोहण देखते जाइये.
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