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पं. बंगाल में नरेन्द्र मोदी के लोकप्रियता की त्रासदी

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पं. बंगाल में नरेन्द्र मोदी के लोकप्रियता की त्रासदी

हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
मोदी जी आर्थिक गुलामी की ओर बढ़ते किसानों, बेरोजगारी से आजिज युवाओं, नौकरी जाने की आशंकाओं से त्रस्त बाबुओं, महंगी होती शिक्षा से हलकान छात्रों के बीच बहुत लोकप्रिय हैं. 2014 में जितने लोकप्रिय थे उससे भी ज्यादा.

नरेंद्र मोदी पश्चिम बंगाल में भी लोकप्रिय हैं. पहले उतने नहीं थे, लेकिन अब हैं। हालांकि, उनकी राजनीतिक लोकप्रियता ने आर्थिक सन्दर्भों में त्रासदियों के आख्यान रचे हैं, लेकिन वे लोकप्रिय हैं. यह विरोधाभास कौतूहल भी जगाता है और जितना ही इसके विश्लेषण में गहरे उतरते हैं, उतनी ही जुगुप्सा भी जगाता है.

जैसा कि उनका अंदाज है, वे बंगाल की चुनावी रैली में उपस्थित भीड़ से नारे लगवा रहे थे. लोग उत्साह से उछल-उछल कर उनका प्रत्युत्तर दे रहे थे. तभी मंच से उन्होंने एक नारा उछाला, ‘बंगाल क्या मांगे…रोजगार.’लोग ठिठक से गए. प्रत्युत्तर में भीड़ की ओर से उत्साह में स्पष्ट कमी दिखी.इक्के-दुक्के लोगों ने जवाब दिया, ‘रोजगार… रोजगार…’. उनके उम्मीदवार मंच से नारा लगाते हैं, ‘जय श्री राम.’ प्रत्युत्तर में भीड़ चिल्लाती है. कुछेक तो नाचने लगते हैं.

उनकी पार्टी की सभाओं में जीवन से जुड़े ठोस मुद्दे गायब हैं. वे जानते हैं कि जीवन की सच्चाइयों से सामना किया तो चुनावी मैदान में हाशिये पर चले जाएंगे. इसलिये, उनके उम्मीदवार ममता बनर्जी को असल मुद्दों पर घेरने से ज्यादा अहमियत उन्हें ‘बेगम…खाला’ आदि शब्दों से संबोधित करने को देते हैं. बगल में बांग्ला देश है, लेकिन ममता की जीत पर पाकिस्तान में पटाखे फूटने का डर दिखाते हैं.

यही है नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता, जिसके तार्किक आधार की तलाश करना व्यर्थ है. इतिहास का भी अपना दौर होता है. अमेरिका ने ट्रंप को पूरे चार वर्षों के लिये अपने सिर पर बैठा लिया, नतीजा भी भोगा. बोलसेनारो ब्राजील में प्रहसनों का नायक बना हुआ है, मोदी जी भारत में राजनीतिक लोकप्रियता के कारकों को नए सिरे से परिभाषित कर रहे हैं.

जिसे चेतनाओं की ‘कंडीशनिंग’ कहते हैं, भारत उसकी प्रयोगस्थली बन चुका है. हमारी पीढ़ी इस राजनीतिक प्रयोगशाला में उस मेढ़क की तरह है जिसे चित्त करके, जिसकी चीड़-फाड़ करके प्रयोग प्रदर्शक छात्रों को जीव विज्ञान की बारीकियां समझाते हैं. तो, जिन्हें भी चेतनाओं की कंडीशनिंग की प्रक्रिया और उसकी बारीकियां समझनी हैं, भारत फिलहाल उनके लिये बेहतर उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है.

नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता उन बेरोजगार युवाओं के सिर चढ़ कर बोलती रही है जिनके रोजगार की संभावनाओं पर मोदी सरकार ने पलीता लगाया है. वे उन गरीब और निम्न मध्यवर्ग के छात्रों के बीच भी बहुत लोकप्रिय हैं, जिनकी ऊंची शिक्षा के सपने को कठिन से कठिनतर बनाया जा रहा है.

जमे-जमाए पब्लिक सेक्टर के खाए-अघाए बाबू लोगों के के भी खासे लाड़ले नेता रहे हैं मोदी जी, जिनके ‘बालाकोट पराक्रम’ पर वे इतने लहालोट हुए कि 2019 में जम कर एकमुश्त वोट उन्हें दे आए. प्रायोजित राष्ट्रवाद के कोलाहल में उनका दिमाग शायद उस वक्त कहीं घास छीलने चला गया था क्योंकि सारे संकेत स्पष्ट थे कि मोदी दोबारा आएंगे तो अधिकतर पब्लिक सेक्टर इकाइयां इतिहास के अध्यायों में सिमट जाएंगी.

आज जब वह मंजर सामने है तो पाकिस्तान को उसकी औकात बताने को व्यग्र बाबू लोग अपनी छातियां पीट रहे हैं. लेकिन, सच तो यह है कि दिन में सड़कों पर मुट्ठियां भींच ‘निजीकरण मुर्दाबाद’ के नारे लगाते लोगों के ड्राइंग रूम में शाम की बातचीत ‘मोदी नहीं तो और कौन’ पर ही खत्म होती है.

किसानों के बीच तो मोदी की लोकप्रियता का आलम क्या रहा है यह यूपी, बिहार, हरियाणा आदि के 2019 के चुनाव परिणाम ही बता रहे हैं. आज वे अपने भविष्य के प्रति आशंकित हो आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन उनकी राजनीतिक दृष्टि अभी भी साफ नहीं है. वे अपने हितों को लेकर सड़कों पर लड़ाई लड़ रहे हैं लेकिन उनकी राजनीतिक प्राथमिकताओं ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा है. कृषि पर कारपोरेट का कसता फंदा किसान समुदाय में आक्रोश के बावजूद कहीं से ढीला पड़ता नहीं लग रहा.

मोदी जी आर्थिक गुलामी की ओर बढ़ते किसानों, बेरोजगारी से आजिज युवाओं, नौकरी जाने की आशंकाओं से त्रस्त बाबुओं, महंगी होती शिक्षा से हलकान छात्रों के बीच बहुत लोकप्रिय हैं. 2014 में जितने लोकप्रिय थे उससे भी ज्यादा.

2014 में वे उम्मीदों की डोर से बंधे लोगों के बीच लोकप्रिय थे, 2019 में यह डोर कहीं लुप्त हो गई और आर्थिक विकास, रोजगार आदि के मुद्दे नेपथ्य में कहीं खो गए. अब मोदी जी थे, उनकी लोकप्रियता थी, उन्माद था, जयकारा लगाते उन्मादित लोगों की भीड़ थी, नए मुद्दे थे, नए विमर्श थे.

अब बंगाल का मैदान है जहां ममता बनर्जी वाकई शेरनी की तरह लड़ रही हैं, लेकिन अपने 10 वर्षों के शासन में उन्होंने जितनी गलतियां की हैं वे अब उनकी दुश्वारियां बन कर सामने हैं. ‘पोरिवर्त्तन’ वे सिर्फ सत्ता शीर्ष पर वे ला पाई, जमीन पर वही संस्कृति हावी रही जो वाम मोर्चा के दीर्घ शासन काल में काई की तरह बंगाल की राजनीतिक-सामाजिक संस्कृति में जम गई थी. पहले जो गुंडे वाम की छाया में विशिष्ट किस्म के रंगदारी टैक्स ‘कटमनी’ की वसूली करते थे, वही तृणमूल की छाया में करने लगे. ममता बनर्जी ने बहुसंख्यक सम्प्रदायवादियों को अपनी बिसात बिछाने का मौका मुहैया कराया.

वाम और कांग्रेस की निरन्तर घटती उपस्थिति ने जो शून्य पैदा किया उसे भरने के लिये भाजपा आई और अमित शाह की रणनीतियों ने उसे पांव जमाने में खासी मदद की ममता विरोधियों के लिये भाजपा का विकल्प ही रह गया। जाहिर है, मोदी की लोकप्रियता को बंगाल में एक राजनीतिक जमीन मिली. वही जमीन, जिसमें कमल की जड़ें जमाने के लिये वाम विरोध के दौर में ममता ने खाद-पानी मुहैया कराया था.

यह बंगाल को सोचना है कि मोदी की जय-जयकार उन्हें क्या दे सकती है, लेकिन, दिक्कत यह है कि राजनीतिक प्राथमिकताएं तय करने में अब तर्क का अधिक महत्व नहीं रहा. उदाहरण के लिये हिन्दी क्षेत्र की राजनीतिक परिणति सामने है.

कहते हैं, बंगाल बाकी देश के आगे सोचता है. लेकिन, इस बार मोदी को अंगीकार करने में पीछे रह गया. इस बार अगर वहां सत्ता तक न भी पहुंच सके, तब भी 3 विधानसभा सीटों वाली भाजपा का बंगाल में मुख्य राजनीतिक ताकत बन जाना मोदी की बड़ी उपलब्धि है.

जब राजनीतिक लोकप्रियता के पीछे व्यावहारिक तर्क काम नहीं करे तो इसका हश्र अक्सर त्रासदियों में ही होता है. तर्कहीन प्राथमिकताओं को अपनाने वालों की सूची में बंगाल को शामिल होने की बधाइयां तो दी ही जानी चाहिये. त्रासदियों का क्या है, उस पर बाद में रो लेंगे.

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