Home गेस्ट ब्लॉग फणीश्वरनाथ रेणु की 43वीं पुण्यतिथि पर

फणीश्वरनाथ रेणु की 43वीं पुण्यतिथि पर

15 second read
0
0
904

फणीश्वरनाथ रेणु की 43वीं पुण्यतिथि पर

फणीश्वरनाथ रेणु के लेखन में लोक की, उनके जीवन और संस्कृति की तरह-तरह की रंग-बिरंगी छवियां हैं. वह मानवीय संवेदनाओं के अतुल्य चित्रकार हैं, लेकिन वह केवल मनोजगत के कथाकार नहीं, बल्कि बाह्य जगत की घटनाओं के, त्रासदियों और खुशियों के लेखक हैं, जो मनुष्य के बाहरी-भीतरी दोनों भावलोकों को प्रभावित करती हैं. इस लोक जीवन का एक सांस्कृतिक पक्ष है तो दूसरा और भी महत्वपूर्ण पक्ष सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक है.

रेणुजी का सारा का सारा जीवन और लेखन अन्याय, असमानता, अत्याचार और तानाशाही के विरोध का, लोकतंत्र, आजादी और अधिकारों की बहाली का लेखन है. विद्यार्थी जीवन से ही वे जितने कुशाग्र थे, उतने ही विद्रोही प्रकृति के भी थे. इसी वजह से उन्हें अररिया के अपने प्राथमिक विद्यालय में बेंत की सजा खानी पड़ी और स्कूल-निकाला झेलना पड़ा. आगे चलकर वह 1941 के किसान आंदोलन में शामिल हुए. गांव-गांव घूमकर संघर्ष की चेतना जगाते रहे.

वह 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हुए और महीने भर के भीतर सितंबर, 1942 में गिरफ़्तार कर लिए गए. नेपाली क्रांति में एक योद्धा के रूप में उनकी भूमिका और आपातकाल के दौरान उनकी सक्रियता से हम सब अवगत हैं, जिसके बाद होने वाले आम चुनाव में शामिल होने के लिए उन्होंने अपने जीवन-मरण के सवाल को, अपनी उत्तरजीविता के लिए जरूरी ऑपरेशन को टाल दिया और हॉस्पिटल से बाहर आकर चुनाव प्रचार में तल्लीन हो गए. चुनाव में अपने पक्ष के विजय के बाद ही वे वापस हॉस्पिटल लौटे ऑपरेशन के लिए, लेकिन तब तक शायद बहुत देर हो गई थी .

इन बातों का उन पर बनी फिल्म में भी जिक्र है. राज्यसभा टेलीविजन के लिए बनाई गई राजेश बादल की फिल्म के साथ एक बड़ी मुश्किल यह है कि इसमें बड़ी भावुकता के साथ रेणुजी की जातिगत पृष्ठभूमि को वर्णित किया गया है. यह मानना सर्वथा ग़लत होगा कि फणीश्वरनाथ रेणु अपनी जाति को लेकर या वृहत्तर स्तर पर भारतीय समाज में जाति व्यवस्था को लेकर किसी भी तरीके से मोहाविष्ट थे. वह इसके खिलाफ़ खड़े थे जैसा कि अधिकांश प्रगतिशील विचारकों-लेखकों के साथ रहा है. इसलिए परिवार में जातिगत उपाधि की परंपरा होने के बावजूद उन्होंने अपने नाम में जातिगत उपाधि नहीं लगाई, जबकि फिल्म में उनकी जाति को लेकर, उसके कारकों को लेकर बड़े ही भावुक अंदाज में चर्चा की गई है.

इस एक बात से एक अच्छी फिल्म नष्ट हो गई है और उसका कुल प्रभाव नकारात्मक हो गया है. बहरहाल, यह तो एक किस्म का अवांतर प्रसंग है. उनकी सामाजिक और राजनीतिक सक्रियता के लिहाज़ से देखें तो रेणु जी का व्यक्तित्व गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, राहुल सांकृत्यायन और रामवृश्र बेनीपुरी सरीखा है. दूसरी ओर, अपने कृतित्व में वह प्रेमचंद की परंपरा की अगली कड़ी हैं.

लोकतंत्र के लिए तानाशाही के खिलाफ़ हर लड़ाई में वह सबसे आगे खड़े होते रहे. नेपाल में राजसत्ता की निरंकुशता के खिलाफ लड़ाई में वह बी.पी. कोइराला के साथ थे. भूमिगत रहकर वह पीठ पर रेडियो ट्रांसमीटर लादे मुक्ति-योद्धाओं के साथ कदमताल करते रहते. भारत में तानाशाही के खिलाफ़ लड़ाई में वह जयप्रकाश नारायण के साथ थे. सभाओं में, जुलूसों में सबसे आगे किसानों के साथ सत्याग्रह करते हुए आज़ाद देश में बिहार आंदोलन के समय जेल गए, जहां से वह बीमारी के कारण ही छूटे.

आपातस्थिति ढीली होने पर वह चुनाव अभियान में शामिल हो गए. चुनाव में तानाशाही ताकतों की हार और लोकतंत्रीय शक्तियों की भारी विजय का सुख उन्होंने देखा लेकिन उसके बाद ज्यादा समय तक वह जीवित न रह सके। अगर रेणु 1977 के चुनाव के बाद कुछ समय तक जीवित रहते तो जरूर ही वह साहित्य में वह तस्वीर बनाते जिससे आगे आने वाली पीढ़ियों को पता चलता कि इस देश के करोड़ों निरक्षर, गरीब ग्रामवासियों ने तानाशाही की यातना किस रूप में झेली थी और कैसे उससे लड़ाई की, वह लेखन आने वाली पीढ़ियों का प्रेरणा-पुंज भी बनता.

हमारे सामाजिक और राजनीतिक जीवन में, हमारे आस-पास घट रही छोटी-बड़ी घटनाओं को आधार बनाकर एक किस्म की सर्जनात्मक रिपोर्टिंग का शिल्प उन्होंने विकसित किया, जिसे आगे चलकर रिपोर्ताज कहा गया. हम देखते हैं कि उनका पहला रिपोर्ताज ‘बिदापत नाच’ शीर्षक से कलकत्ते से निकलने वाले हिंदी साप्ताहिक पत्र ‘विश्वमित्र’ के पहली अगस्त, 1941 के अंक में प्रकाशित हुआ. तब संपादक ने इसे ‘रिपोर्ताज’ नहीं कहा, ‘रपट’ भी नहीं कहा, ‘लेख’ कहा.

इसे प्रकाशित करते हुए संपादक ने प्रारंभ में अपनी एक छोटी-सी टिप्पणी लिखी है, जो इस प्रकार है- ‘मैथिल-कोकिल कवि-सम्राट विद्यापति के सरस गीतों को दरभंगा, भागलपुर और पूर्णिया जिले की निम्न श्रेणी की ग्रामीण जनता किस प्रकार भाव-नाट्य का रूप देकर सजीव बनाती और मनोरंजन करती है, इसका बड़ा ही सुंदर वर्णन इस लेख में किया गया है. आर्ट, तकनीक और ड्रामा से अनभिज्ञ जनता उन्हें अपने अनुभव संसार से सिक्त कर सजीव बनाती और मनोरंजन करती है, इसका बड़ा ही सुंदर वर्णन इस लेख में किया गया है. आर्ट, तकनीक और ड्रामा से अनभिज्ञ जनता उन गीतों को कितना उच्च कलात्मक रूप दे सकती है, पाठक इस लेख को पढ़कर स्वयं समझ सकते हैं.’

दरअसल ‘बिदापत नाच’ के कलाकारों को विद्यापति के गीत जुबानी याद थे और वे उनमें समय काल और परिस्थितियों के अनुरूप परिवर्तन कर उनमें हास्य और व्यंग्य का रोचक और भावपूर्ण पुट जोड़ते जाते थे. जिन लोगों ने ‘बिदापत नाच’ पढ़ा है, रेणुजी के लिखे रिपोर्ताज पढ़े हैं, वे जानते है कि यह रपट मात्र था भी नहीं, पर लेख भी नहीं था जैसाकि ‘विश्वमित्र’ के संपादक ने कहा था, इसका रचना-विन्यास इन दोनों से सर्वथा अलग था जो पत्रकारी लेखन को साहित्यिक उत्कर्ष देता है.

पत्रकारिता को साहित्यिक और सर्जनात्मक उत्कर्ष देने वाले इसी तरह के लेखन के लिए हाल के वर्षों में, 2015 में, बेलारूसी पत्रकार और लेखिका स्वेतलाना अलेक्सीविच को साहित्य के नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. यह पुरस्कार उन्हें ‘वार्स अनवूमनली फेस’ नाम की कृति के लिए दिया गया जो द्वितीय विश्व युद्ध में शामिल और उससे पीड़ित स्त्रियों से बातचीत और उनके अनुभवों पर आधारित है.

रेणु को गांव से और वहां के जीवन से गहरा लगाव था. वह चाहते थे कि तमाम असंगतियों-विसंगतियों, राग-द्वेष, गरीबी, जहालत के बावजूद इस लोक-जीवन का विघटन न हो, गांव के लोगों का शहर की ओर पलायन न हो किंतु धीरे-धीरे यह विघटन और पलायन बढ़ता ही गया. रेणु की छठे दशक की कहानियों में भी ऐसी जीवन-स्थितियां आती हैं, पर 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दो टुकड़े हो जाते हैं. फिर उनका आपसी विवाद शुरू होता है, ऐसे में गनपत जैसा पार्टी का साधारण कार्यकर्ता किस तरह आहत होता है और उसकी दुर्दशा कैसी होती है, रेणु ने इसकी मार्मिक अभिव्यक्ति ‘आत्मसाक्षी’ नामक कहानी में की है.

इस कहानी का जर्मन भाषा में अनुवाद डॉ. लोठार लुत्से ने किया था और जर्मनी के लोगों ने इस कहानी को जर्मनी के दो भागों में बंटवारे से आम जनता पर पड़ने वाले प्रभाव के रूप में ग्रहण किया था. एक अंचल विशेष पर लिखी गई कहानी का वैश्विक संवेदना के धरातल पर स्वीकार किया जाना चौंकाने वाली चीज है.

लुत्से ने इस कहानी के बारे में अपनी टिप्पणी में कहा है कि ‘ठीक है, यह ‘तीसरी कसम’ जितनी लोकप्रिय नहीं है, उसकी काव्यात्मकता, उसकी संगीतात्मकता शायद कम हो, फिर भी ‘आत्मसाक्षी’ मुझे बहुत पसंद है और जर्मन अनुवाद मैंने इसी कहानी का प्रकाशित करवाया.’ शायद यह बात अच्छी लगी हो कि लेखक एक मामूली आदमी के पक्ष में है जिसे ईमानदारी और भोलापन की वजह से सजा मिलती है. मेरे विचार में यही रेणु की सबसे बड़ी विशेषता है.

रेणुजी के जीवन और लेखन का लक्ष्य था समतामूलक और संस्कृति चेतस समाज तैयार करना जहां जाति-संप्रदाय के लिए कोई जगह नहीं. उनका सपना साकार करने के लिए हमें हर तरह के भेदभाव मिटाकर समरस और समभाव युक्त समाज बनाना होगा. उनका समग्र लेखन और जीवन हमें इसका रास्ता दिखाता है. जन्म शताब्दी वर्ष के दौरान आज उनकी 43वीं पुण्य तिथि पर और आगे भी सबसे बड़ा सवाल यह बना रहेगा कि क्या हम इसके लिए तैयार हैं ?

  • राकेश रेणु
    (कवि, साहित्यकार, ‘आजकल’ के संपादक)

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

शातिर हत्यारे

हत्यारे हमारे जीवन में बहुत दूर से नहीं आते हैं हमारे आसपास ही होते हैं आत्महत्या के लिए ज…