संत समीर
दुनिया ने पहली महामारी ऐसी देखी है, जिसको महामारी साबित करने के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं, बल्कि प्रचार करने की ज़रूरत पड़ी है. कल्पना कीजिए कि टीवी चैनल और अख़बार न होते तो इस महामारी के बारे में हम-आप कितना जान पाते और कितना डरने की ज़रूरत होती ? क्या तब भी कोरोना पॉजिटिव सुनकर ही अस्पताल की छत से कूदकर लोग आत्महत्या कर लेते ? इसके पहले जितनी भी महामारियां आई हैं, बिना बाहर से सूचना मिले, अपने अड़ोस-पड़ोस की मौतों को देखकर ही उन्हें लोग जान गए थे. सोचिए कि इस तथाकथित महामारी में ज़ोर-ज़बरदस्ती अगर मास्क न लगवाया गया होता, टीवी और अख़बार चीख़-चीख़कर रोज़-रोज़ आंकड़े न बता रहे होते, तो क्या आप अपने मुहल्ले की तसवीर पिछले साल से कुछ अलग देखते ? यह भी ग़ज़ब कि जिन बीमारियों में कोरोना की तुलना में आज भी पांच-दस गुना ज़्यादा लोग हर दिन मर रहे हैं, उन्हें महामारी मानने की ज़रूरत नहीं समझी जाती और न ही उनके आंकड़े रोज़-रोज़ दिखाए जाते हैं.
‘कोरोना फिर तेज़ फैल रहा है. वजह ? देश के लोग लापरवाह हैं,’ चिकित्सा विशेषज्ञ यही कह रहे हैं. अगर विशेषज्ञ कह रहे हैं तो सरकार को भी यही कहना है. जब ठीक से कुछ समझ में न आए तो आसानी से कह दीजिए कि देश की जनता लापरवाह है. जनता तो ख़ैर आज़ादी मिलने के बाद से ही लापरवाह है, बस नेता ज़िम्मेदार हैं.
ख़ैर, चिकित्सा विशेषज्ञों से मेरा सवाल है कि आप लोग ज़रा यह बताइए कि अमिताभ बच्चन, अभिषेक बच्चन, गोविन्दा, आमिर ख़ान, अक्षय कुमार, अमित शाह, शाहनवाज़ हुसैन जैसे लोग ज़िम्मेदार हैं या लापरवाह ? ये लोग लापरवाह हैं तो इन्हें लापरवाही के ख़िलाफ़ जागरूकता अभियान चलाने का ठेका क्यों दे रखा है ? और अगर, ये ज़िम्मेदार लोग हैं, तो कोरोना इनके फेफड़े तक कैसे पहुंचा ? एक छोटा सवाल यह भी है कि वायरस के नए स्ट्रेन की चपेट में अभी तक केवल वे लोग क्यों आए हैं, जो पहले से मास्क लगाने में मुस्तैद रहे थे ? ख़ुद से जुड़ा एक सवाल पूछ रहा हूं कि मेरे जैसे कई लोग कोरोना से अभी तक बचे हुए क्यों हैं, जबकि हम व्यक्तिगत रूप से तमाम कोरोना मरीज़ों से मिलते रहे हैं ? कल दिन में भी मैं दो कोरोना संक्रमित के पास बैठकर आया हूं. मैंने तो मास्क भी सिर्फ़ वहीं लगाया है, जहां पुलिस की ज़ोर-ज़बरदस्ती हो या बिना मास्क पहने प्रवेश की मनाही रही हो.
मैं हर उस जगह जाने को तैयार हूं, जहां सैकड़ों कोरोना संक्रमित मौजूद हों. इसका मतलब नहीं है कि मुझे संंक्रमण नहीं होगा या अब तक नहीं हुआ होगा, बस बात इतनी है कि बहुत बारीक़ी से समझने के बाद यह मुझे बेहद साधारण संंक्रमण समझ में आया है. इसी नाते, इधर साल भर में जब भी खांसी-ज़ुकाम की स्थिति आई तो मैंने टीवी स्क्रीन देख-देखकर डरने की कभी ज़रूरत नहीं समझी और न ही घबराकर इधर-उधर की थोक के भाव दवाएं खाईं. मैंने गान्धी वाला तरीक़ा अपनाया. मेरे आसपास रहने वालों ने मुझ पर भरोसा किया और जिसको भी संंक्रमण के लक्षण दिखे, किसी ने भी अस्पताल की भाग-दौड़ नहीं की. मेरी बताई सावधानियों से अब सब सुरक्षित हैं.
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वायरस का कोई अस्तित्व नहीं है या लोगों को लापरवाह रहना चाहिए. मैं बस इतना कह रहा हूं कि यह वायरस ख़तरनाक नहीं है, इसमें किसी को मार देने का दम नहीं है और न ही इससे बचने के लिए उस तरह की सावधानी बरतने की ज़रूरत है, जिस तरह की सावधानी का प्रचार किया जा रहा है. यह डरावनी सावधानी आसानी नहीं, ख़तरे की निशानी है. तथाकथित चिकित्सा विशेषज्ञों के कहने पर सरकार जिस तरह की सावधानी बरतने का प्रचार कर रही है, उसका रत्ती भर भी फ़ायदा नहीं है, उल्टे नुक़सान ही नुक़सान है और यह हम साल भर से देख ही रहे हैं.
तंजानिया जैसे देश ने इस तरह की सावधानियों का उल्टा किया. न लॉकडाउन, न मास्क, फिर भी सबसे ज़्यादा सुरक्षित रहा. छह करोड़ की आबादी के देश में कोरोना से मरने वालों में बस इक्कीस नाम दर्ज हैं. ‘नाम दर्ज हैं’ इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि कोरोना नाम के वायरस की जांच न की जाती तो वे उन बीमारियों से मरे पाए और बताए जाते, जिनसे वे पहले से ग्रसित थे. बताने की ज़रूरत नहीं है कि तंजानिया के ही राष्ट्रपति थे, जिन्होंने आरटीपीसीआर टेस्ट किट पर सबसे पहले सन्देह जताया और कुत्ता, बन्दर, पपीता, आम, बकरी वग़ैरह के नमूने मनुष्यों के नाम से प्रयोगशाला में भिजवा दिए. दूसरे दिन की मज़ेदार रिपोर्ट में ये सब फल और जानवर कोरोना पॉजिटिव निकले.
तंजानिया ने जांच किटें बेरङ्ग वापस कर दीं तो इस ख़बर को दबाने की कोशश की गई. इस देश ने विश्व स्वास्थ्य संगठन की बात नहीं मानी और सोशल डिस्टेंसिङ्ग, लॉकडाउन वग़ैरह का फ़रमान नहीं जारी किया. मज़ा यह कि यह देश सबसे मज़े में रहा. बहरहाल, धन्धेबाज़ों को यह सब नागवार गुज़रना ही था तो एक दिन हल्की-सी ख़बर आई कि तंजानिया के राष्ट्रपति कहीं ग़ायब हो गए हैं. कोशिश की गई कि उन्हें कोरोना पॉजिटिव बताया जाय, पर बात नहीं बनी. दो हफ़्ते बाद उनकी मौत की ख़बर आई, तो कहा गया कि हृदयाघात से उनकी मौत हो गई. आख़िर दो हफ़्ते वे कहां ग़ायब रहे, रहस्य है. छन-छनकर जो ख़बरें आ रही हैं, उनके हिसाब से बात यह है कि वे फार्मा का खेल बिगाड़ रहे थे, इसलिए उन्हें मार दिया गया. याद कीजिए कि चिली के राष्ट्रपति एलेन्दे ने पांच दशक पहले पेप्सीकोला को कार्बोनेटेड ज़हर घोषित करके अपने देश में घुसने नहीं दिया था, तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने मिलकर तख़्तापलट करवाया और उनकी हत्या करवा दी.
अब आइए, फिर ज़रा ‘सावधान’ होते हैं. इस तथाकथित ‘सावधानी’ का हाल यह है कि जहां यह जितनी तेज़ी और मुस्तैदी से अपनाई गई है, वहीं कोरोना संक्रमण सबसे ज़्यादा दिखाई दिया है. मसलन, दिल्ली और मुम्बई. दिल्ली में रोज़ देखता हूं, अगर आप बिना मास्क दिख जाएं तो ज़ुर्माना देना पड़ेगा. मुम्बई तो फटाफट भांति-भांति के कर्फ़्यू लगाने के पुरुषार्थ में लगी ही हुई है. अब अगर चिकित्सा विशेषज्ञ कहना चाहें कि दिल्ली, मुम्बई वाले सबसे ज़्यादा जाहिल और लापरवाह हैं, तो बात अलग है.
मैं उत्तर प्रदेश के जिस इलाक़े (अम्बेडकर नगर) का रहने वाला हूँ, वहाँ की कई तसवीरें फेसबुक पर लगा चुका हूं. लोगों ने न मास्क पर ध्यान दिया और न हाथों पर हैण्ड सेनेटाइजर छिड़का. एक बाइक पर तीन-तीन सवार होकर चलते रहे, पर कोरोना से एक भी नहीं मरा. संक्रमण फैले तो फैलता रहे. सर्दी-ज़ुकाम-फ्लू हर साल होता है. जहां लोग डरे, वहां मरे. मरे भी वे ही, जिन्होंने जानते हुए भी कि इसकी कोई दवाई अभी तक नहीं बनी है, ढेर सारी अनाप-शनाप दवाइयां खाईं. कुछ वैसे ही हुआ है, जैसे कि मलेरिया के मरीज़ को डेंगू की दवाइयां खिलाई जाएं.
मुझे एक भी कोरोनाग्रस्त व्यक्ति ऐसा नहीं मिला, जिसने एलोपैथी दवाइयां न खाई हों और मर गया हो. यह भी याद रखिए कि दिल्ली और देश के कई हिस्सों की सीरो सर्वे रिपोर्टों के अनुसार दिल्ली की एक करोड़ से ज़्यादा जनसंख्या, तो देश की पैंतीस-चालीस करोड़ जनसंख्या कोरोना पॉजिटिव होकर सर्दी-ज़ुकाम या हल्का-फुल्का बुख़ार झेलकर बिना दवा खाए या घरेलू सावधानियां बरतकर ही मज़े-मज़े में ठीक हो चुकी है.
अब तक अपनाई गई सावधानियों की हक़ीक़त इससे भी समझिए कि दिल्ली के मुख्यमन्त्री कहने लगे हैं कि लॉकडाउन-जैसी चीज़ें सही समाधान नहीं हैं. असल में लॉकडाउन, मास्क, हैण्ड सेनटाइजर, तीनों ही फ़ायदे से ज़्यादा नुक़सानदेह हैं. लॉकडाउन ने देश ठप कर दिया. पूरी दुनिया में लॉकडाउन का ऐसा ग़ज़ब असर रहा कि धन्नासेठों की सम्पत्ति बढ़ती गई और आम जनता की रोज़ी-रोटी छिनती रही. मास्क का हाल यह रहा कि मन को सुकून मिलता रहे कि सुरक्षा कवच हमारे साथ है, वरना प्रदूषण भरी धूल से बचाने के अलावा यह और कोई सुरक्षा नहीं दे सका. मुस्तैद मास्कधारी क़ायदे से संक्रमित होते रहे. लम्बे समय तक नाक पर चढ़ाए रखने वालों की इम्युनिटी कमज़ोर हुई, सो अलग. पढ़े-लिखे समझदारों का हाल यह है कि वे कुछ भी खाने से पहले पानी से हाथ धोने के बजाय हाथ पर हैण्ड सेनेटाइजर मलना ज़्यादा ज़रूरी समझने लगे हैं और एक ऐसी ‘जागरूकतापूर्ण गन्दगी’ को जन्म दे रहे हैं, जिसका नुक़सान अभी उन्हें नहीं मालूम.
विज्ञान के नाम पर कम अन्धविश्वास नहीं हैं. कोरोना में उन्हीं का अनुपालन किया और करवाया जा रहा है. असल में असलियत मालूम न हो तो अतिरिक्त समझदारी वाले उपाय और हो भी क्या सकते हैं ? आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में काफ़ी काम किया गया है, पर कभी-कभी विज्ञान का भूत ऐसा सवार होता है कि हम सचमुच का सहज विज्ञान भी बिना अणु-परमाणु तक की चीर-फाड़ किए समझने को तैयार नहीं होते. वायरस या बैक्टीरिया की संरचना जानने में हम इतने मशगूल हो जाते हैं और इसे ही समाधान का सही सूत्र समझने लगते हैं कि संक्रमण फैलने के प्राकृतिक गुणा-गणित को नहीं समझ पाते. चीज़ों की गहरी समझ बनाने के लिए चीर-फाड़ ज़रूरी हो सकती है, पर इस चक्कर में कई बार हम सोच ही नहीं पाते कि प्रकृति ने अगर जीवन दिया है तो उस जीवन को बनाए और बचाए रखने के लिए सहज उपाय भी दिए हैं.
आधुनिक समझदारी का फ़ितूर ऐसा है कि हम समझने की ज़रूरत ही नहीं समझते कि जब आधुनिक विज्ञान का अस्तित्व नहीं था, तब भी आख़िर दुनिया चलती ही थी और लाखों सालों से जीवन की हरकत कोई ठप तो नहीं थी. मज़ेदार है कि जब आधुनिक चिकित्सा विज्ञान नहीं था तो दो सदी पहले तक बीमारियों की संख्या सौ से कम थी, पर आज की तारीख़ में बीमारियों से जूझने की अनगिनत कवायदों के बाद बीमारियों की संख्या आठ हज़ार से ज़्यादा हो गई है. इसका मतलब यह नहीं कि इस चिकित्सा विज्ञान को हम नकार दें, पर इसमें अगर कोई चूक है तो उसको भी समझने की ज़रूरत है ही.
सेहत का विज्ञान सहज है. मनुष्य-जैसी बौद्धिक क्षमता के बिना भी संसार का हर मनुष्येतर प्राणी इस विज्ञान की सहज समझ रखता है. याद रखना चाहिए कि आदमी के अलावा और किसी को अस्पताल या डॉक्टर की ज़रूरत नहीं पड़ती. हमने जिन जानवरों, पक्षियों को क़ैद कर रखा है, उनकी बात अलग है; हालांकि खूंटे से बंधे जानवर और पिंजरे में क़ैद पक्षी भी कभी-कभार ही सेहत की परेशानी में पड़ते हैं. सेहत की बुनियादी समझ के मामले में महात्मा गान्धी का उदाहरण काम का है. जब 1907 में दक्षिण अफ्रीका में प्लेग महामारी फैली तो गान्धी इससे ज़रा भी नहीं डरे. उन्होंने तुरन्त प्लेग से मर रहे लोगों को बचाने में ख़ुद को झोंक दिया. सरकार से कहा कि प्लेग के मरीज़ उन्हें दिए जाएं, वे उन्हें आसानी से बचा सकते हैं. सरकार ने उन्हें मरीज़ दिए.
गान्धी ने एक गोदाम को आनन-फानन में साफ़ करवाया और अस्पताल-जैसा बना दिया. वहीं बग़ल में एलोपैथी दवाओं पर भी मरीज़ों को रखा गया था. गान्धी ने अपने मरीज़ों का मिट्टी की पट्टी और आहार में कुछ परिवर्तन करके प्राकृतिक चिकित्सा से इलाज शुरू किया. नतीजा हुआ कि गान्धी के मरीज़ उस प्लेग से उबर गए, जिसके बारे में स्पष्ट रूप से मान लिया गया था कि इससे संक्रमित होने के बाद बचना नामुमकिन है. ठीक इसके विपरीत, एलोपैथी तरीक़े से जिन मरीज़ों का इलाज किया जा रहा था, वे सब-के-सब एक-एक कर मौत का शिकार होते गए. यहां तक कि जो नर्स उनकी देखभाल कर रही थी और कभी-कभार गान्धी से बातचीत करने आ जाती थी, वह भी एक दिन संक्रमित होकर काल के गाल में समा गई. कई वर्ष बाद उस नर्स के बेटे ने उस पूरी घटना की मार्मिक कथा लिखी.
आए दिन मरीज़ों से मिलते-बतियाते हुए मेरा अनुभव यह रहा है कि अगर जीवन की बुनियादी समझ हमें हो तो हम ज़्यादा सुरक्षित हैं. किसी टीके की कोई ज़रूरत नहीं है. कोरोना के टीके तो और ज़्यादा अविश्वसनीय हैं. अजब है कि देश की दो सबसे बड़ी टीका-निर्माता कम्पनियां पहले एक-दूसरे से उलझती हैं. एक कम्पनी का मुखिया कहता है कि उसके अलावा बाक़ी कम्पनियों के टीकों को बस पानी-जैसा समझिए, उनका कोई असर नहीं होने वाला. जब बात बबेले तक पहुंचती है तो दोनों समझौता कर लेते हैं और अगले दिन सबके टीके पानी से अमृत बन जाते हैं. पहले बयान आता है कि टीके का असर बस तीन-चार महीने तक रहेगा, लेकिन यह सुनकर लोग टीका लगवाने से बिदक न जाएं, तो फिर कहा जाता है कि टीकों का असर आठ-दस महीने रहेगा.
एक बार कहा जाता है कि सही अन्तराल पर एक टीके की दो ख़ुराक लेनी ज़रूरी है और फिर कहा जाता है कि फलां टीके की एक ही ख़ुराक पर्याप्त है. यह भी मज़ेदार है कि टीका लगवाने के बाद के दिनों के लिए भी मास्क और हैण्ड सेनेटाइजर की सावधानी बरतने को कहा जा रहा है. समझने की कोशिश कीजिए कि टीका सचमुच एण्टीबॉडी बनाएगा या इसे बस हमारी-आपकी जेब से उगाही के लिए बनाया गया है. इतने से भी किसी को फार्मा सेक्टर का जालबट्टा और नाटक न समझ में आए तो क्या कहा जा सकता है ! कम कमाल यह भी नहीं है कि कई साल से दर्जनों टीके बनाने की कवायद चल रही है, पर कामयाबी नहीं मिल पा रही, लेकिन कोरोना का टीका बनने में एक साल भी नहीं लगा. चार-पांच महीने बाद ही ख़बरें आने लगी थी कि टीका बनकर तैयार है.
बहरहाल, डराने वाले कामयाब रहे और लोग क़ायदे से डरे. ‘सेकेण्ड वेब’ की हलचल ने ज़्यादातर लोगों की मानसिकता को टीके की ओर मोड़ दिया है. सर्वे है कि पहले 38 प्रतिशत लोग ही टीका लगवाने को राज़ी थे, पर अब 77 प्रतिशत लोग टीका लगवाना चाहते हैं. मेरे हिसाब से जो लोग डरे हुए हैं, उन्हें टीका लगवा लेना चाहिए. इससे मन में एक भरोसा पैदा होगा कि अब वे सुरक्षित हैं; हालांकि कम्पनियों और डॉक्टरों के बयानों से स्पष्ट हो गया है कि टीके से कोई मदद मिलने वाली नहीं है. जैसे संक्रमण का पहला दौर ख़त्म हुआ, वैसे ही दूसरा भी ख़त्म होगा. हां, कुछ लोगों को टीका लग जाएगा तो बयान आ जाएंगे और मान लिया जाएगा कि टीके ने देश को बचा लिया, वरना जाने कैसा हाहाकार मचता ! श्रेय टीके को दिया जाएगा और कम्पनियों की पीठ ठोंकी जाएगी, बाक़ी तो मुझे पता है कि मैं कैसे बचा हुआ हूं और आपको भी पता है कि अब तक आप कैसे सलामत हैं !
दुनिया ने पहली महामारी ऐसी देखी है, जिसको महामारी साबित करने के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं, बल्कि प्रचार करने की ज़रूरत पड़ी है. कल्पना कीजिए कि टीवी चैनल और अख़बार न होते तो इस महामारी के बारे में हम-आप कितना जान पाते और कितना डरने की ज़रूरत होती ? क्या तब भी कोरोना पॉजिटिव सुनकर ही अस्पताल की छत से कूदकर लोग आत्महत्या कर लेते ? इसके पहले जितनी भी महामारियां आई हैं, बिना बाहर से सूचना मिले, अपने अड़ोस-पड़ोस की मौतों को देखकर ही उन्हें लोग जान गए थे. सोचिए कि इस तथाकथित महामारी में ज़ोर-ज़बरदस्ती अगर मास्क न लगवाया गया होता, टीवी और अख़बार चीख़-चीख़कर रोज़-रोज़ आंकड़े न बता रहे होते, तो क्या आप अपने मुहल्ले की तसवीर पिछले साल से कुछ अलग देखते ? यह भी ग़ज़ब कि जिन बीमारियों में कोरोना की तुलना में आज भी पांच-दस गुना ज़्यादा लोग हर दिन मर रहे हैं, उन्हें महामारी मानने की ज़रूरत नहीं समझी जाती और न ही उनके आंकड़े रोज़-रोज़ दिखाए जाते हैं.
सेकेण्ड वेब से बचने की राह
ख़ैर, किन्तु-परन्तु चलते रहेंगे, पर असली सवाल यह है कि महामारी के इस दूसरे दौर में ख़ुद को बचाए रखने का सही रास्ता क्या है ? मैं भांति-भांति की दवाएं खाने के पक्ष में नहीं हूं. होम्योपैथी हो या निरापद आयुर्वेद, अति करने की ज़रूरत कहीं भी नहीं है. बिना मास्क लगाए तमाम कोरोना रोगियों से अगर मैं मिलता रहा हूं और अब तक सही-सलामत हूं तो जिस उपाय से ऐसा सम्भव हुआ है, वही आपको बताता हूं. बताने को पहले भी बता चुका हूं, पर कुछ चुनिन्दा चीज़ें दोहरा रहा हूं, ताकि मित्रों को याद आ जाए और मन का डर दूर हो.
1. सवेरे नित्यकर्म से निवृत्त होकर सबसे पहले आधा चम्मच हल्दी का चूर्ण गर्म पानी से सेवन करता हूं. इसी के साथ गुनगुने पानी में नमक मिलाकर गरारा करता हूं. इसके बाद एक घण्टे तक योग-प्राणायाम का नियम बना रखा है, पर आजकल देर रात में सोने की स्थिति बन पा रही है तो नियमित नहीं कर पा रहा हूं. आप अवश्य नियमित करें, यह इम्युनिटी बनाए रखने में बहुत बड़ा मददगार साबित होगा. ‘कभी कर लिया, कभी नहीं किया’ वाली स्थिति ठीक नहीं है.
2. स्नान वग़ैरह के बाद नाश्ता करता हूं. यह कोई मौसमी फल या अंकुरित अनाज के साथ एक गिलास छाछ हो सकता है. आजकल मेरा दोपहर का खाना काफ़ी देर से हो पाता है तो नाश्ता थोड़ा भारी करता हूँ. पांच-छह घण्टे तक ऊर्जा दे सकने वाला यह भारी नाश्ता काम का लगे तो आप भी याद रख सकते हैं.
रात में भिगोकर रखे हुए एक मुट्ठी मूंगफली के दानों को एक-दो पके केले के साथ मिक्सी में पीसता हूं और उसमें थोड़ा शहद मिलाकर खाता हूं. याद रखिए, कभी भूलकर भी बिना भिगोई मूंगफली इस्तेमाल नहीं करनी है. मूंगफली का तेल पित्त बढ़ाने का कारण बन सकता है, पर भीग जाने के बाद इसका पित्तवर्धक गुण ग़ायब हो जाता है. आप चाहें तो इस नाश्ते में सीमित मात्रा में काजू, मुनक़्क़े जैसे मेवे भी मिला सकते हैं.
3. दोपहर और शाम को भोजन से पहले सलाद की मात्रा ज़्यादा रखता हूं. आजकल खीरा और टमाटर आसानी से उपलब्ध हैं. कुछ दिनों पहले गाजर, पत्तागोभी, चुकन्दर और टमाटर से काम चलता था. यह आप नियमित करेंगे तो मधुमेह वाले होंगे तो भी कोरोना से बेहतर ढंङ्ग से लड़ पाएंगे. शाम का खाना खाने के बाद ही मैं अदरक, दालचीनी, लौङ्ग और काली मिर्च से बना हुआ पूरा एक बड़ा कप गर्म-गर्म काढ़ा पीता हूं. आप इसमें तुलसी और मुलहठी भी मिला लेंगे, तो यह और बेहतर हो जाएगा. मुझे शाम को ही मौक़ा मिलता है, आप दिन में किसी दूसरे समय एक-दो बार यह काढ़ा ले सकते हैं. याद रखिए, बस दो या तीन बार, बार-बार कई कप नहीं. शाम का खाना जहां तक हो सके, आठ बजे से पहले कर लें, ताकि नींद बेहतर हो. बेहतर नींद इम्युनिटी के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ों में से एक है.
4. दोपहर और शाम के भोजन के बीच कुछ दिनों पहले मैं दो मुसम्मी, सन्तरा या किन्नू लेता था, इन दिनों अङ्गूर या द्राक्ष से भी विटामिन-सी की कमी आप पूरी कर सकते हैं. रोग-प्रतिरोधक क्षमता बनाए रखने के लिए यह अच्छा है. कुछ महंगा सौदा हो सकता है, पर अस्पताल जाकर हज़ारों का चूना लगवाने से बेहतर है. दिन में एक बार नारियल पानी भी ले सकते हैं.
5. इन सबके अलावा जब-तब हफ़्ते-दस दिन के लिए मैं एक चम्मच अदरक के रस में एक चम्मच शहद मिलाकर सवेरे या शाम को लेता रहा हूं, पर इसे ज़्यादा दिनों तक लगातार नहीं लेना है.
6. पन्द्रह दिन में एक बार एक दिन के लिए ठोस आहार पूरी तरह बन्द करके नारियल पानी और मुसम्मी वग़ैरह के रसाहार पर रहने की कोशिश करता हूं. इसे शरीर की हल्की-फुल्की ‘सर्विसिङ्ग’ कह सकते हैं.
बस इतना. आप चाहें तो होम्योपैथी की दवा एनफ्लूएञ्जीनम-30 या 200 तीन दिन तक दिन में तीन बार सवेरे-दोपहर-शाम ले सकते हैं. फ्लू के लक्षणों को नज़दीक आने से यह कुछ हद तक रोकेगी. ज़्यादा दिनों तक लेने की ज़रूरत नहीं. कोरोनाग्रस्त हो गए हों तो एलोपैथी खाने के बजाय एक दिन के लिए नारियल पानी और मुसम्मी या सन्तरे के रस पर रह जाइए. दूसरे दिन सलाद और फल खाइए. तीसरे दिन पहले ढेर सारा सलाद खाकर हल्का खाना खाइए. आप बिना दवा के ठीक हो सकते हैं, अन्यथा घास-भूसे की तरह मेज की दराज़ में रखा हुआ पैरासीटामाल, क्रोसीन, डोला वग़ैरह खाना शुरू करेंगे तो हो सकता है, अन्ततः आपको अस्पताल भागना पड़े और तब क्या होगा, मालूम नहीं !
ज़रूर समझिए कि अगर प्राकृतिक तरीक़े से आप तीन-चार या पांच दिन में ठीक होंगे, तो बुख़ार की एलोपैथी दवाएं खाने के बाद आपकी बीमारी दस-पन्द्रह या बीस दिन लम्बी खिंचेगी. ज़्यादा डरे हुए हों तो मेरे बनाए पुराने वाले पर्चे के हिसाब से होम्योपैथी नुस्ख़े का सहयोग आप ले सकते हैं. याद रखिए, यह वायरस मारक क़तई नहीं है, आपका डर और डर की वजह से हलक़ के नीचे उतारी गई तरह-तरह की किन्हीं और बीमारियों के लिए बनी दवाइयां इसे मारक बनाती हैं. देखते रहिए, वैक्सीन महज़ धन्धे का सबब साबित होगी. ईश्वर करे, सीरम इंस्टीट्यूट के कर्ताधर्ता पूनावाला की बात सही हो और टीके बस पानी-जैसे निकलें, ताकि कुछ सालों बाद इनके कुछ साइड-इफेक्ट न आएं !
वैसे सच्चाई जो दिख रही है, उस हिसाब से टीके पानी-जैसे क़तई नहीं हैं. अलबत्ता, ज़्यादा काम के भी नहीं हैं. जो भी हो, इतना यक़ीन तो रखिए ही कि टीका लगवाने वाले ज़्यादातर लोगों पर कोई तात्कालिक ख़तरा नहीं आएगा, क्योंकि ऐसा होगा तो लोग कम्पनियों ही नहीं, सरकार को भी उखाड़ फेकेंगे, पर एस्ट्रेजेनिका वाले टीके (भारत में कोविशील्ड) से तीन दिन पहले जो सात लोग मरे हैं, उनके लिए संवेदना जताइए.
(नोट – जो आसान उपाय मैंने अपनाया है, उसने बहुतों को बचाया है, आपको भी बचाएगा.)
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