जर्मनी में,
जब फासिस्ट मजबूत हो रहे थे..
और यहां तक कि
मजदूर भी बड़ी तादाद में,
उनके साथ जा रहे थे..
हमने सोचा…
हमारे संघर्ष का तरीका गलत था..
और हमारी पूरी बर्लिन में,
लाल बर्लिन में नाजी इतराते फिरते थे..
चार-पांच की टुकड़ी में,
हमारे साथियों की हत्या करते हुए..
पर मृतकों में उनके लोग भी थे,
और हमारे भी, इसलिए हमने कहा..
पार्टी में साथियों से कहा…
वे हमारे लोगों की जब हत्या कर रहे हैं,
क्या हम इंतजार करते रहेंगे..?
हमारे साथ मिलकर संघर्ष करो..
इस फासिस्ट विरोधी मोरचे में,
हमें यही जवाब मिला…
हम तो आपके साथ मिलकर लड़ते,
पर हमारे नेता कहते हैं…
इनके आतंक का जवाब लाल आतंक नहीं है..
हर दिन हमने कहा…
हमारे अखबार हमें सावधान करते हैं,
आतंकवाद की व्यक्तिगत कार्रवाइयों से..
पर साथ-साथ यह भी कहते हैं..
मोरचा बनाकर ही हम जीत सकते हैं..
कामरेड,
अपने दिमाग में यह बैठा लो..
यह छोटा दुश्मन,
जिसे साल दर साल काम में लाया गया है..
संघर्ष से तुम्हें बिलकुल अलग कर देने में,
जल्दी ही उदरस्थ कर लेगा नाजियों को..
फैक्टरियों और खैरातों की लाइन में,
हमने देखा है मजदूरों को..
जो लड़ने के लिए तैयार हैं,
बर्लिन के पूर्वी जिले में..
सोशल डेमोक्रेट जो,
अपने को लाल मोरचा कहते हैं..
जो फासिस्ट विरोधी आंदोलन का बैज लगाते हैं..
लड़ने के लिए तैयार रहते हैं..
और चायखाने की रातें,
बदले में गुंजार रहती हैं..
और तब कोई नाजी गलियों में,
चलने की हिम्मत नहीं कर सकता..!
क्योंकि गलियां हमारी हैं..!
भले ही घर उनके हों..!
- बेर्टोल्ट ब्रेष्ट
(अंग्रेजी से अनुवादः रामकृष्ण पाण्डेय
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