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मार्क्सवाद की मूल समस्याएं – प्लेखानोव

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मार्क्सवाद की मूल समस्याएं – प्लेखानोव

जी.वी. प्लेखानोवजी.वी. प्लेखानोव, 11.12.1856 – 30.05 1918

प्रस्तावना

‘मार्क्सवाद की मूल समस्याएं’ नामक पुस्तक जी. प्लेखानोव ने सन् 1908 में प्रकाशित की थी। उनकी दूसरी पुस्तकों इतिहास के भौतिकवादी दृष्टिकोण के विकास के प्रश्न के बारे में ‘भौतिकवाद के इतिहास पर लेख’ और अन्य लेखों के साथ मार्क्सवाद की मूल समस्याएं नामक पुस्तक भी ‘मार्क्सवादी दर्शन का सर्वोच्च विश्लेषण’* पेश करती है। समय के हिसाब से, मार्क्सवाद के दार्शनिक तथा ऐतिहासिक पहलू की व्यवस्थित व्याख्या करते हुए यह प्लेखानोव की अंतिम बड़ी पुस्तक थी। यह पुस्तक कार्ल मार्क्स की 25वीं वर्षी के अवसर पर आयोजित विचार गोष्ठी के लिए लिखी गई थी परंतु प्लेखानोव ने अपनी पुस्तक को उक्त अवसर पर प्रकाशित किए जाने से इनकार कर दिया क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि उनकी पुस्तक पौ. युश्केविच और दूसरे संशोधनवादियों की पुस्तकों के साथ प्रकाशित हो जिनके विचारों को वह, उचित तौर पर, मार्क्सवाद के विपरीत मानते थे।

जार्जी वैलेंतीनोविच प्लेखानोव वैज्ञानिक समाजवाद के प्रवर्तकों, कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स के विलक्षण शिष्य और अनुगामी थे। उन्होंने मार्क्सवादी क्रांतिकारी विचारधारा के प्रसार और उसके विश्लेषण के लिए लंबे वर्षों तक कठिन परिश्रम किया था तथा रूस और अन्य देशों में मार्क्सवाद के प्रमुख प्रचारक और समाजवादी आंदोलन के अधिकृत प्रवक्ता के रूप में मान्यता प्राप्त की थी।

रूस में पहले मार्क्सवादी होने की हैसियत से प्लेखानोव ने दर्शनशास्त्र, साहित्य, कला, अनीश्वरवाद तथा सामाजिक सिद्धांतों और सामाजिक विचारधारा के इतिहास आदि विषयों पर अनेक विख्यात पुस्तकें लिखी थीं। 1883 और 1903 के बीच के 20 वर्षों में (जब तक वह मैनशेविकों में शामिल नहीं हुए थे) उन्होंने ‘बहुत सी शानदार किताबें लिखी हैं जिनमें अवसरवादियों, मैशिस्टों और नारोदनिकों के खिलाफ लिखी गई पुस्तकें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।**

1903 के बाद प्लेखानोव दक्षिणपक्ष की ओर झुक गए, मेनशेविकों के राजनीतिक समर्थक हो गए तथा रूसी मार्का अवसरवाद के सिद्धांतकार बन गए।

* वी.आई. लेनिन संस्करण, खंड 21, ‘कार्ल मार्क्स’

** वी.आई. लेनिन, ग्रंथावली, रूसी संस्करण, खंड 21, दुस्साहसवाद के बारे में.

उनकी राजनीतिक ग़लती का कारण यह था कि वह साम्राज्यवाद के नए युग के मूल को समझने तथा राजनीतिक विकास की नई परिस्थितियों में मार्क्सवाद को सृजनात्मक ढंग से लागू करने में असफल रहे। दूसरा कारण यह भी था कि वह काफी लंबे अर्से देश से बाहर रहे थे। परिणामस्वरूप रूस के क्रांतिकारी आंदोलन से अलग-थलग हो गए थे। इसका नतीजा यह निकला कि उन्होंने पश्चिमी देशों की सोशल डेमोक्रेसी के क्रांतिकारी संघर्षों का केवल सकारात्मक अनुभव ही ग्रहण नहीं किया बल्कि द्वितीय इंटरनेशनल के नेताओं (जिनके साथ उनके काफी नजदीको संबंध हो गए थे) की बुराइयों को भी ग्रहण कर लिया। इन सब कारणों ने प्लेखानोव की अस्थिरता को बढ़ावा दिया। यही सब कारण उनको गलतियों तथा सर्वहारा क्रांति के चरित्र और उसकी प्रेरक शक्तियों, मजदूर वर्ग तथा किसानों के बीच एकता, सर्वहारा वर्ग का नेतृत्व, राजसत्ता आदि आदि प्रश्नों पर मार्क्सवाद से उनके दूर हटने के स्त्रोत भी बन गए। इन्हीं कारणों को बिना पर उन्होंने महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति के महत्व को नहीं समझा। उनका खयाल था कि पिछड़े हुए रूस में समाजवाद के लिए आवश्यक सांस्कृतिक ‘स्तर’ का अभाव था तथा सर्वहारा वर्ग किसानों के सहयोग पर भरोसा नहीं कर सकता था। लेकिन इतिहास के घटनाचक्र ने उनके विचारों को ग़लत साबित कर दिया।

प्लेखानोव ने यद्यपि मजदूर वर्ग की राजनीति और कार्यनीति संबंधी बुनियादी सवालों पर मैनशेविक नीति स्वीकार कर ली थी परंतु दर्शनशास्त्र और समाजशास्त्र के क्षेत्र में पूंजीवादी अध्यात्मवादी विचारों के खिलाफ तथा मार्क्सवाद के दार्शनिक मूल तत्वों के पक्ष में उन्होंने मजबूती से संघर्ष किया। रूस में 1905 की क्रांति की असफलता के बाद विशेष रूप से 1908 और 1912 के बीच के वर्षों में विज्ञान और दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में मार्क्सवाद द्वारा पूंजीवादी विचारधारा, मैशिज्म, और मार्क्सवाद को विकृत किए जाने के खिलाफ चलाए जाने वाले संघर्ष में नई तेजी और उग्रता पैदा हो गई थी। मार्क्सवाद विरोधी मार्क्सवादी दर्शन वैज्ञानिक समाजवाद और मार्क्सवाद के आर्थिक सिद्धांतों में संशोधन करने तथा उनकी ‘हत्या’ करने पर उतारू हो गए थे। अध्यात्मवादी तथा विकृत भौतिकवादी तोड़-मरोड़ों द्वारा मार्क्सवाद में संशोधन करने की इन कोशिशों के बारे में लेनिन ने लिखा था और प्लेखानोव ने भी इन पर ध्यान दिया था। दूसरी इंटरनेशनल के नेताओं में प्लेखानोव ही एकमात्र ऐसे नेता थे जिन्होंने मार्क्सवादी दर्शन की रक्षा की और इसके लिए विशेष रूप से मार्क्सवाद की मूल लड़ाकू भौतिकवाद, उन्नीसवीं सदी का काल्पनिक समाजवाद तथा दर्शनशास्त्र पर अन्य और ग्रंथ लिखे। अपने इन ग्रंथों में उन्होंने मैशिज्म, मैश के रूसी अनुयायियों तथा अन्य अध्यात्मवादियों की आलोचना की; उन्होंने मार्क्सवाद को विकृत रूप देने वाले शुलियातिकोव जैसे लोगों का पर्दाफाश किया; उन्होंने वेखी ग्रूप और ‘धार्मिक खोजियों’ की ओर से रूसी दार्शनिक विचारधारा की भौतिकवादी और स्वतंत्रतापेक्षी परंपराओं पर जो हमले किए जा रहे थे उनसे उन परंपराओं की रक्षा की तथा साहित्य और कला के क्षेत्र में भौतिकवाद को आगे बढ़ाया। इस पूरे जमाने में, सिद्धांत के क्षेत्र में, प्लेखानोव द्वारा किए जाने वाले कामों के बारे में लेनिन की राय बहुत ही अच्छी थी।

मार्क्सवाद की मूल समस्याएं नामक ग्रंथ इस प्रस्तावना पर आधारित है कि मार्क्सवाद एक समग्र विश्वदर्शन है जो अखंड और अविभाज्य है। पूरे ग्रंथ में लगातार इसी प्रस्तावना को कायम रखा गया है और बड़ी आन-बान से उसका समर्थन किया गया है। अनेक पूंजीवादी विचार शास्त्रियों ने मार्क्सवाद को ‘पूर्ण’ करने का प्रयास किया है, इस प्रयास में कभी तो उन्होंने कांट के दर्शन, कभी माश के दर्शन और कभी किसी अन्य प्रतिक्रियावादी दर्शन का सहारा लिया है। ऐसे सभी प्रयासों के बारे में जबर्दस्त व्यंग्य करते हुए प्लेखानोव ने लिखा था कि मार्क्स को टामस अक्वीनास द्वारा भी पूर्ण बनाया जा सकता है और किसी समय कैथोलिक संसार किसी ‘विचारक’ को जन्म देकर ‘सिद्धांत के क्षेत्र में इस महान कृत्य’ को अंजाम दे सकता है। ऐसा लिखते समय प्लेखानोव की नजर भविष्य को देख रही थी क्योंकि आज के रूढ़िवादी नए टामसवादी मार्क्स को टामस अक्वीनास के प्रतिक्रियावादी दर्शन से ‘मिलाने’ और ‘पूर्ण करने’ के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं, वह इस बात का प्रयास कर रहे हैं कि दोनों दर्शनों में समान तत्वों को तलाश कर लिया जाए तथा मार्क्सवाद को रहस्यवादी धार्मिक सिद्धांतों के सांचे में ढाल लिया जाए।

प्लेखानोव ने दर्शन के क्षेत्र में मार्क्सवाद के उदय से तुरंत पूर्व के दर्शनशास्त्री लुडविग फायरबाख की रचनाओं की ओर मुड़ते हुए यह दिखाया कि दर्शन की बुनियादी समस्या का जो भौतिकवादी हल फायरबाख़ ने पेश किया था, उसे मार्क्स और एंगेल्स ने स्वीकार किया था और बाद में वही ‘उनके दर्शन की आधारशिला बना था। फ़ायरबाख की तरह मार्क्स और एंगेल्स ने भी चेतना तथा अस्तित्व और कर्ता तथा कर्म के बीच एकता (समानता) नहीं) को स्वीकार किया था। समानता का मार्क्सवादी सिद्धांत भी फ़ायरवाख के सिद्धांतों की तरह भौतिकवादी है।

प्लेखानीव ने लिखा कि मार्क्स और एंगेल्स सचेतन भौतिकवादी थे, इस तरह उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि अध्यात्मवाद के मेल-मिलाप से मार्क्सवाद को पूर्ण करने की आवश्यकता के पक्ष में दिए जाने वाले सभी ‘तर्क’ बेबुनियाद हैं। प्लेखानोव ने विशेष रूप से यह प्रयास किया कि मार्क्स और एंगेल्स के भौतिकवादी विचारों का संबंध फायरबाख स्पिनोजा और पहले के दूसरे भौतिकवादी विचारकों से जोड़ा जाए। जब उन्होंने मार्क्स के भौतिकवाद को स्पिनीजावाद का एक रूप बताया या मार्क्स और एंगेल्स के भौतिकवाद को फ़ायरबाख के भौतिकवाद के समान ठहराया (इस पुस्तक के पृष्ठ 12-13 और 19 से 28 देखिए) तो वह बिलकुल ही सही बात नहीं कह रहे थे, हालांकि उनके इस तरह के वर्णन को यह समझना भी ठीक नहीं होगा कि वह मार्क्स के भौतिकवाद को स्पिनोजा या फ़ायरबाख के दर्शन के समान ठहरा रहे थे। मार्क्सवाद की मूल समस्याएं ग्रंथ में फ़ायरबाख़ पर थीसिस नामक मार्क्स के लेख के विश्लेषण को काफी स्थान दिया गया है। इस विश्लेषण को इस्तेमाल कर के प्लेखानोव ने फायरबाख के वैचारिक भौतिकवाद के सीमित होने की तर्कसंगत मार्क्सवादी आलोचना की है। प्लेखानोव का उद्देश्य यह रहा है कि मार्क्स के उन विचारो का पता लगाएं जो फ़ायरबाख के विश्व दर्शन से बिलकुल भिन्न हैं। इसी दृष्टिकोण से इस पुस्तक में मार्क्स और फ़ायरबाख़ के विचारों की तुलना की गई है। प्लेखानोव ने दिखाय है कि मार्क्स ने फायरबाख़ द्वारा प्रतिपादित कर्ता और कर्म के बीच पारस्परिक क्रियाशीलता के सिद्धांत में एक नया तत्व जोड़ा है; मार्क्स के अनुसार कर्ता केवल प्रकृति के बारे में कल्पना ही नहीं करता रहता बल्कि वह सजीव और क्रियाशील भी होता है। परंतु, इसके बावजूद मार्क्स के समानता सिद्धांत का विश्लेषण करने में प्लेखानोव ने गंभीर ग़लती की है। मार्क्स के समानता सिद्धांत की विशेषता यह है कि वह समानता की प्रक्रिया को अमल में, उत्पादन जनता की ठोस सामाजिक ऐतिहासिक क्रियाशीलता के साथ जोड़कर देखते हैं, मार्क्सवाद तथा फायरबाख़वादी ज्ञान के सिद्धांतों में भिन्नता और बुनियादी फ़र्क़ इसी सवाल पर पाया जाता है परंतु प्लेखानोव केवल इतना कहते हैं कि मार्क्स ने फ़ायरबाख के सिद्धांत में शानदार सुधार किया है, वह इस बात पर जोर नहीं देते कि मार्क्स ने ही ज्ञान के सिद्धांत में, सामाजिक व्यक्ति के क्रांतिकारी और आलोचनात्मक क्रियाकलाप और उसके सामाजिक-ऐतिहासिक अमल की द्वंद्वात्मक समझ को उसके स्रोत और आधार के रूप में प्रविष्ट किया।

प्लेखानोव ने फायरबाख़ के दर्शन में इस महत्वपूर्ण कमज़ोरी को देखा कि वह द्वंद्ववाद को नहीं देखते तथा इतिहास के बारे में उनकी समझ अध्यात्मवादी है। प्लेखानोव मार्क्स और एंगेल्स द्वारा संसार की समानता के सही तरीके को विकसित किए जाने को उनकी महत्वपूर्ण सफलता मानते हैं।’ मार्क्स’ ने हीगेल के अध्यात्मवादी द्वंद्ववाद को, ‘भौतिकवादी बुनियादों पर लाकर खड़ा कर दिया’ मार्क्स तथा हीगेल के द्वंद्ववाद में यही बुनियादी फर्क है। प्लेखानोव ने मार्क्सवादी द्वंद्ववाद के विकास के सिद्धांत तथा विभिन्न मंजिलों में शनैः शनै: ‘विकास के वाहियात सिद्धांत’ (जो प्रकृति और इतिहास में होने वाले क्रांतिकारी परिवर्तनों और झटके और छलांग के साथ होने वाले रूपांतरण को स्वीकार नहीं करता) के फ़र्क को भी दिखाया है। उन्होंने हरसेन के शब्दों का उद्धरण दिया है कि द्वंद्ववाद ही ‘क्रांति का वास्तविक बीज गणित है…। जहां एक ओर होगेल ने अमली जीवन को ज्वलंत समस्याओं के बारे में इस बीजगणित को लागू नहीं किया, वहीं दूसरी ओर इसके विपरीत, मार्क्स के भौतिकवादी दर्शन में, यह क्रांतिकारी बीजगणित अपने द्वंद्वात्मक तरीके को पूरी शक्ति के साथ बराबर काम करता रहता है। प्लेखानोव ने मार्क्स के अनेक विख्यात बयानों का हवाला देकर सैद्धांतिक और व्यावहारिक संघर्ष में अत्यंत विश्वसनीय अस्त्र के रूप में, द्वंदात्मक भौतिकवाद के महत्व पर जोर दिया है। प्लेखानोव ने लिखा है, ‘हमारे पास सामाजिक विकास का वास्तविक तथा विशुद्ध बीजगणित है जो उत्पादन के पुराने तरीकों या मार्क्स के शब्दों में पुराने सामाजिक ढांचे को ध्वस्त करके उसके स्थान पर उत्पादन के नए तरीकों और नए सामाजिक ढांचे का निर्माण करेगा।

इस पुस्तक के अगले खंडों में प्लेखानोव ने इतिहास को भौतिकवादी समझ के अत्यंत महत्वपूर्ण पहलुओं को पाठकों के सामने पेश किया है, सर्वप्रथम तो उन्होंने सामाजिक जीवन के विकास के कारणों को दिखाया है, जिन्हें वह उत्पादक शक्तियों के विकास तथा उन्ही के द्वारा उत्पादन संबंधों में होने वाले परिवर्तनों में देखते हैं। इसी के साथ की इस बात में भी दिलचस्पी है कि सामाजिक विकास में भौगोलिक पर्यावरण क्या भूमिका अदा करता है क्योंकि वह समझते हैं कि पर्यावरण समाज के जीवन की शर्त है। उन्होंने सामाजिक प्रक्रिया पर प्राकृतिक स्थितियों के पड़ने वाले प्रभाव का लेखा-जोखा निहायत उचित ढंग से लिया है। इस विषय में उन्होंने कहा है कि जलवायु का प्रभाव अप्रत्यक्ष रूप से पड़ता है। उन्होंने विस्तार से यह दिखाया है कि ‘सामाजिक प्राणी पर पड़ने वाले भौगोलिक पर्यावरण प्रभाव की मात्रा बदलती रहती है, जो ऐतिहासिक विकास के हर नए कदम तथा प्रकृति पर मनुष्य के बढ़ते हुए अधिकार के साथ परिवर्तित होती रहती है। इसके साथ ही प्लेखानोव का झुकाव भौगोलिक पर्यावरण के महत्व को बढ़ाकर आंकने में दिखाई देता है क्योंकि वह समझते हैं कि ‘भौगोलिक पर्यावरण की विशेषताएं उत्पादक शक्तियों के विकास को निश्चित करती हैं…।’ इस समझ के आधार पर ही उन्होंने इस प्रस्तावना को कम करके आंका है कि उत्पादक शक्तियों के पास विकास के अपने अलग स्रोत हैं जो इतिहास के विकास के साथ जुड़े हुए हैं। इसलिए इन स्रोतों को केवल पर्यावरण की अवस्थाओं में ही देखना गलत है।

मार्क्सवाद शिक्षा देता है कि समाज के इतिहास को समझने के लिए केवल अर्थशास्त्र का ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है। इसके लिए विचारधारा और सामाजिक चेतना का अध्ययन भी करना चाहिए। पाठक के सामने इस प्रस्तावना को स्पष्ट करने के लिए प्लेखानोव ने मानव समाज, सामाजिक अस्तित्व एवं सामाजिक चेतना का एक ब्यौरा पेश किया है जो पंचसूत्री फार्मूले के रूप में दिया गया है।

इस फार्मूले में सामाजिक विकास के सभी स्वरूपों’ को स्पष्ट स्थान दिया गया है, विशेष रूप से यह कहा गया है कि सामाजिक चेतना सामाजिक अस्तित्व पर निर्भर है। इसके बावजूद, इस फार्मूले की कमजोरी यह है कि यह बहुत ही सरसरी है तथा इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस फ़ार्मूले में सामाजिक-राजनीतिक ढांचे एवं विचारधारा के बीच पाए जाने वाले स्वाभाविक संबंधों को पूरी तरह उजागर नहीं किया गया है।

प्लेखानोव ने बर्नस्टीन और दूसरे संशोधनवादियों के इस आरोप का फैसलाकुन तौर पर खंडन किया है कि मार्क्सवाद ‘एकांगी’ और ‘आर्थिक’ भौतिकवाद की और झुका हुआ है। उनका यह देन अत्यंत मूल्यवान है। उन्होंने इतिहास की भौतिकवादी समझ को किसी भी तरह विकृत करने, विचारों के इतिहास को आर्थिक प्रभाव के प्रत्यक्ष परिणाम के रूप में समझाने के हर रुझान के खिलाफ़ प्रहार किया है। उन्होंने विस्तार से यह दिखाया है कि मार्क्स और एंगेल्स बाह्य आकार तथा सामाजिक जीवन के राजनीतिक तथा वैचारिक पहलुओं की भूमिका एवं आधार पर पड़ने वाले उनके प्रभाव की उपेक्षा कदापि नहीं करते थे। मार्क्स का कथन है कि किसी भी सामाजिक क्रिया को समाज के आर्थिक विकास से समझा जा सकता है, लेकिन केवल अंतिम विश्लेषण में, अर्थात दरम्यान में कई बाहा आकार रूपी दूसरे पहलुओं का प्रभाव भी पड़ता है।

इस पुस्तक में प्लेखानोव ने सामाजिक ऐतिहासिक प्रक्रिया में जनता की सक्रिय भूमिका तथा स्वतंत्रता और आवश्यकता के बारे में मार्क्स के सिद्धांत को बिगाड़ने और उसे विकृत करने के सभी प्रयासों के ख़िलाफ़ मजबूती से उसकी रक्षा की है, यही बात पुस्तक में सर्वप्रमुख है। प्लेखानोव ने दिखाया है कि इतिहास का निर्माण आवश्यकतावश मनुष्यों ने ही किया है इसलिए वस्तुगत आवश्यकता तथा मनुष्य की आकांक्षा को परस्पर विरोधी तत्वों के रूप में देखना ग़लत है।

‘एक बार यदि आवश्यकता को छोड़ दिया जाए तो उसके परिणामों तथा सामाजिक विकास के लाज़मी नतीजे के रूप में पैदा होने वाली मानवीय आकांक्षाएं भी छूट जाती हैं।’ मानवीय आकांक्षाएं आवश्यकता को अलग नहीं करतीं बल्कि आवश्यकता द्वारा ही निश्चित होती हैं। मानवीय क्रियाशीलता तथा सामाजिक प्राणी में लक्ष्यों का उदय आर्थिक विकास की आवश्यक मंजिल द्वारा निर्धारित होता है, इस प्रक्रिया में मनुष्य द्वारा डाले जाने वाला प्रभाव सक्रिय भूमिका अदा करता है।

प्लेखानोव की पुस्तक मार्क्सवाद की मूल समस्याएं केवल ऐतिहासिक महत्व की ही नहीं है बल्कि वर्तमान काल में भी उसका बड़ा ही सजीव महत्व है। आज भी मार्क्स और एंगेल्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का ‘खंडन’ करने तथा ‘आर्थिक’ भौतिकवाद की भावना से ऐतिहासिक भौतिकवाद को झुठलाने के प्रयास किए जा रहे हैं एवं सामाजिक प्रगति के अध्यात्मवादी नजरियों का प्रचार किया जा रहा है। हालांकि यह पुस्तक 50 वर्ष पूर्व लिखी गई थी, मगर इसके बावजूद, आज भी वर्तमान पूंजीवादी समाजशास्त्रियों तथा मार्क्सवादी दर्शन के वर्तमान संशोधनवादियों का पर्दाफ़ाश करने में यह बड़ी सहायता कर रही है।

मी. फोमिला

मार्क्सवाद की मूल समस्याएं

मार्क्सवाद एक समग्र विश्वदर्शन है। संक्षेप में मार्क्सवाद समकालीन भौतिकवाद है। मार्क्सवाद उस विश्वदर्शन के विकास की सर्वोच्च अवस्था है जिसकी नींव प्राचीन यूनान के डेमोक्रेट्स और उनके पूर्ववर्ती आयोनियन विचारकों’ ने डाली थी। पदार्थ और जीव की “अखंड एकता सिद्ध करने वाला दर्शन, हायलोजोइज्म’ साधारण भौतिकवाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। आधुनिक भौतिकवाद के विकास का मुख्य श्रेय निस्संदेह कार्ल मार्क्स और उनके मित्र फ्रेडरिक एंगेल्स को है। इस विश्वदर्शन के ऐतिहासिक और आर्थिक पहलू, मूल रूप से पूर्णतया मार्क्स और एंगेल्स की देन हैं। इसे हम यों कह सकते हैं कि ऐतिहासिक भौतिकवाद और उससे घनिष्ठ रूप से संबद्ध कार्यप्रणाली और राजनीतिक अर्थशास्त्र की श्रेणियां तथा समाज (विशेष रूप से पूंजीवादी समाज) के आर्थिक विकास संबंधी विचार हमें मार्क्स और एंगेल्स से ही प्राप्त हुए हैं। इन क्षेत्रों में उनके पूर्ववर्तियों ने जो भी काम किया था, वह केवल सामग्री एकत्र करने का प्रारंभिक काम ही था। उन लोगों ने बहुधा प्रचुर मात्रा में मूल्यवान सामग्री एकत्र को थी किंतु वह सामग्री क्रमबद्ध नहीं थी और न उसको एकत्र करने में कोई विशेष बुनियादी दृष्टिकोण ही अपनाया गया था। इसलिए उस सामग्री का न तो ठीक तरह से मूल्यांकन हो सका, न इस्तेमाल ही।

यूरोप और अमरीका में मार्क्स और एंगेल्स के अनुयायियों ने इन क्षेत्रों में जो भी काम किया है उसे कुछ विशिष्ट समस्याओं का कमोबेश सफल विवेचन मात्र ही कहा जा सकता है। यह सही है कि यह विवेचन भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसलिए, न सिर्फ दार्शनिक सिद्धांतों की गहरी समझदारी से दूर’ आम जनता बल्कि अपने को मार्क्स और एंगेल्स के विश्वासपात्र अनुयायी मानने वाले रूस और अन्य संपूर्ण सभ्य संसार के लोगों के बीच भी ‘मार्क्सवाद’ का प्रयोग बहुधा वर्तमान भौतिकवादी विश्वदर्शन के इन्हीं दो पहलुओं को इंगित करने के लिए किया जाता है। ऐसे मामलों में इन दो पहलुओं को ‘दार्शनिक भौतिकवाद’ से स्वतंत्र और कभी-कभी प्रतिकूल समझा जाता है।* अगर इन दो पहलुओं को उनके सैद्धांतिक आधार

* (1910 के जर्मन संस्करण से संबद्ध टिप्पणी) मेरे मित्र विक्टर एडलर ने एंगेल्स के दाहसंस्कार के दिन एक लेख प्रकाशित किया था. उन्होंने अपने लेख में बिलकुल सही लिखा था कि मार्क्स और एंगेल्स के अनुसार समाजवाद न सिर्फ एक आर्थिक सिद्धांत है, बल्कि एक विश्वदर्शन भी है नीचे में इतालियन संस्करण से उद्धरण दे रहा हूं: फ्रेडरिक एंगेल्स, राजनीतिक अर्थशास्त्र राजनीतिको का प्रारंभिक रूप और अनुच्छेद में फिलिपोतुराती, बित्तोरियो एडलर और काल काउत्स्की द्वारा लिखित जीवन चरित, पहला इतालवी संस्करण, लेखक की पहली पुण्य तिथि पर प्रकाशित→

में निहित संबद्ध विचारों के सामान्य संदर्भ से अलग कर दें तो वे शून्य में लटकते रहेंगे। इन दो पहलुओं को तोड़कर अलग करने वाले स्वभावतः यों ही बिना सोचे-समझे और बहुधा अपने समय के पूंजीपति वर्ग के सिद्धांतकारों के दार्शनिक दृष्टिकोण से प्रभावित होकर कांट, माश, अवेनारियस या ऑस्ट्वाल्ड और अभी जोसेफ डीत्सजेन के साथ जोड़कर मार्क्सवाद को पुष्ट करना चाहते हैं। यह सच है कि जोसेफ डीत्सजेन के दार्शनिक विचार पूंजीवादी प्रभावों से मुक्त और काफी दूर तक मार्क्स और एंगेल्स के विचारों से संबद्ध हैं। मार्क्स और एंगेल्स के विचार अतुलनीय रूप से क्रमबद्ध और समृद्ध हैं, इसलिए डीत्सजेन के विचार उनके पूरक नहीं हो सकते। हां, डीत्सजेन की शिक्षाओं द्वारा मार्क्स और एंगेल्स के विचारों का प्रचार किया जा सकता है। अब तक ‘मार्क्स के पूरक’ के रूप में टामस अक्वीनास का नाम नहीं लिया गया है। हाल में पोप द्वारा आधुनिकतावादियों के विरुद्ध दिए गए फतवे के बावजूद यह संभव है कि कैथोलिक जगत किसी ऐसे विचारक को जन्म दे जो सिद्धांत के क्षेत्र में यह करिश्मा कर दिखाए

एक

कुछ लोगों का विचार है कि मार्क्सवाद को किसी न किसी अन्य दार्शनिक विचार द्वारा पूर्ण किया जाए। उनके अनुसार इसकी आवश्यकता इसलिए प्रतीत होती है कि मार्क्स और एंगेल्स ने अपने दार्शनिक विचारों को किसी एक जगह पर प्रतिपादित नहीं किया है। यह तर्क बड़ा ही लचर है। अगर हम थोड़ी देर के लिए मान भी लें कि उन्होंने अपने विचारों को किसी एक जगह प्रतिपादित नहीं किया है, तो भी इसके लिए कोई आधार नहीं है कि उनके विचारों के बदले किसी ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे विचारक के पूर्णतया विरोधी विचारों को रखा जाए। यह याद रखने की जरूरत है कि मार्क्स और एंगेल्स के दार्शनिक विचारों को सही रूप में रखने के लिए हमारे पास पर्याप्त लिखित सामग्री मौजूद है। *

→ अगस्त 1885) पृ. 12-17, मिलान, 1895 ‘मार्क्स और एंगेल्स की समाजवाद संबंधी समझदारी’ का चाहे जितना भी अच्छा विश्लेषण एडलर ने किया हो, उनका इस ‘व्यापक सिद्धांत’ के भौतिकवादी आधार के बदले कांटवादी आधार रखना बड़ा विचित्र लगता है. लोग उस व्यापक दर्शन से क्या समझेंगे, जिसका दार्शनिक आधार उसकी संपूर्ण संरचना से किसी प्रकार संबद्ध नहीं है ? एंगेल्स ने लिखा, ‘ मार्क्स और मैं ही एकमात्र व्यक्ति थे जिन्होंने चेतन द्वंद्ववाद को जर्मन आदर्शवादी दर्शन से मुक्त किया और उसका प्रयोग प्रकृति और इतिहास की भौतिकवादी समझदारी हासिल करने के लिए किया.’ (देखें ड्यूहरिग मत खंडन के तीसरे संस्करण की भूमिका, पृ. सं. 14)’ इस तरह वैज्ञानिक समाजवाद के प्राकृतिक विज्ञानों के क्षेत्र में भी जागरूक भौतिकवादी थे.

• डब्ल्यू बेरयहो को पुस्तक Marx als Philosoph, बर्न और लाइपज़िग 1894, की विषयवस्तु मार्क्स और एंगेल्स का दर्शन है इससे घटिया किसी दूसरी पस्तक की कल्पना तक नहीं की जा सकती.

ये विचार अपने अंतिम रूप में एंगेल्स की किताब ड्यूहरिंग मतखंडन (जिसके कई रूसी अनुवाद मौजूद हैं) के पहले भाग में वाक्युद्ध की शैली में पूर्णरूपेण अच्छी तरह प्रतिपादित किए गए थे। इसी लेखक की एक और बेजोड़ पुस्तिका है लुडविग फायरबाख और क्लासिकल जर्मन दर्शन का अंत (जिसका स्वयं मैंने रूसी अनुवाद किया है और प्रस्तावना एवं टिप्पणियां जोड़ी हैं। इस पुस्तिका का प्रकाशन लुवोविच’ ने किया है।) इसमें मार्क्सवादी दर्शन के आधारभूत विचारों को अच्छी तरह समझाया गया है। दि डेवलपमेंट ऑफ कैपिटलिज्म (जर्मन भाषा में अनूदित और ऐतिहासिक भौतिकवाद के नाम से न्यू जाईट संख्या 1 और 2, 1892-93 में प्रकाशित) नाम की पुस्तिका के अंग्रेजी अनुवाद की भूमिका में अनीश्वरवाद से संबद्ध ऐसे ही विचार संक्षेप में बड़े ही स्पष्ट रूप में एंगेल्स ने रखे थे। जहां तक मार्क्स का सवाल है, मैं कहना चाहूंगा कैपिटल के प्रथम भाग की भूमिका में उनके द्वारा हीगेल के द्वंद्वात्मक आत्मपूर्णतावाद के साथ द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का तुलनात्मक वर्णन तथा उसी खंड में उनके अन्य कई कथन उनकी शिक्षाओं के दार्शनिक पहलुओं को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इस सिलसिले में मार्क्स की पुस्तक दर्शन की दरिद्रता (जिसका अनुवाद रूसी भाषा में हो चुका है) के कुछ पृष्ठ अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। आखिर में, मार्क्स और एंगेल्स के दार्शनिक विचारों के विकास की प्रक्रिया उनके प्रारंभिक लेखों में काफी स्पष्ट हो जाती है। उन लेखों का पुनर्प्रकाशन फ्रांज मेहरिंग ने कार्ल मार्क्स की साहित्यिक विरासत” (स्टुटगार्ट, 1902 ई.) के नाम से किया है। फायरबाख़ के अपने शोध-निबंध प्रकृति के जनवादी और एपी क्यूरियन दर्शन के बीच अंतर” में और फ्रांज मेहरिंग द्वारा पुनर्प्रकाशित उपर्युक्त पुस्तक के खंड 1 में शामिल उनके कई लेखों में मार्क्स हीगेलवादी विचारधारा के रूप में दिखाई देते हैं। इसी भाग में जर्मन-फ्रांसीसी वार्षिकियां” से जो लेख उद्धृत किए गए हैं, उनमें मार्क्स अपने सहयोगी एंगेल्स की तरह फायरबाख़वादी मानवतावाद*

• (1910 के जर्मन संस्करण में टिप्पणी) मार्क्स के दार्शनिक विचारों के विकास को समझने के लिए 20 अक्तूबर, 1843 को फायरबाख़ के नाम लिखा गया उनका पत्र अत्यंत महत्वपूर्ण है. शैलिंग का विरोध करने फायरबाख को निमंत्रण देते हुए मार्क्स ने लिखा: ‘चूंकि आप शेलिंग के एकदम प्रतिकूल हैं इसलिए आप उसका विरोध करने के लिए बिलकुल उपयुक्त व्यक्ति हैं. हमें विरोधियों की प्रत्येक अच्छाई को मानना चाहिए, शेलिंग के तरुण विचार जिनको मूर्त रूप देने के लिए उसके पास कल्पना के सिवा कोई क्षमता, घमंड को छोड़ कोई शक्ति, अफीम के सिवा कोई नशीली चोज और औरतों की तरह तुरंत बात मान लेने के सिवा और कुछ नहीं था. रोलिंग का यह ईमानदारीपूर्ण तरुण विचार कल्पनातीत स्वप्न मात्र ही रह गया, यही आपके लिए सत्य, वास्तविकता, और एक गंभीर एवं साहसिक उद्देश्य बन गया है. इसीलिए शैलिंग आपका संभावित विद्रूप है. जैसे ही वास्तविकता का पता लगता है विद्रूप का कुहरे की तरह विलीन हो जाना अवश्यंभावी है, इसीलिए मैं आपको शैलिंग का अवश्यंभावी और स्वाभाविक विरोधी समझता हूं. प्रकृति और इतिहास दोनों का तकाजा है कि आप उसका विरोध करें. उसके विरुद्ध आपका संघर्ष स्वयं दर्शन का काल्पनिक दर्शन के विरुद्ध संघर्ष है। के . गुन विरासत के सवाल पर पत्रचार में लुडविग फायरबाख। बैंड, एस. 361, लिपजिग और हेडेलबर्ग, 1874(14) ऐसा लगता है कि मार्क्स ने सेलिंग के तरुण विचार को भौतिकवादी ऐक्यवाद के अर्थ में समझा था. फायरबा के उत्तर से स्पष्ट है कि वे मार्क्स के →

के पक्के समर्थक के रूप में सामने आते हैं। 1845 ई. में प्रकाशित पुस्तक पवित्र परिवार या आलोचनात्मक समीक्षा की आलोचना (जो मेहरिंग द्वारा प्रकाशित पुस्तक के दूसरे खंड में छपी है) में मार्क्स और एंगेल्स ने फ़ायरबा के दर्शन विकास के लिए कई महत्वपूर्ण प्रयत्न किए हैं। 1845 के वसंत में मार्क्स द्वारा फायरबाख़ पर लिखे गए ग्यारह आलेखों से उनकी प्रगति की दिशा का ज्ञान होता है। एंगेल्स ने उन आलेखों को लुडविग फ़ायरबाख़ नाम की उपर्युक्त पुस्तिका के परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित किया। संक्षेप में कह सकते हैं कि इस विषय पर सामग्री का कोई अभाव नहीं है सिर्फ उसके उचित उपयोग की क्षमता की आवश्यकता है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि उसको समझने के लिए समुचित प्रशिक्षण की आवश्यकता है। आजकल के पाठकों को ऐसा प्रशिक्षण प्राप्त नहीं है कि उसे समझ सकें, नतीजा यह है कि वे उपलब्ध सामग्री का इस्तेमाल करना नहीं जानते।

ऐसा कई कारणों से है। एक प्रमुख कारण तो यह है कि आजकल के लोगों को हीगेल के दर्शन का बहुत कम ज्ञान है। हीगेल के दर्शन का ज्ञान प्राप्त किए बिना मार्क्स की प्रणाली के संबंध में कुछ भी जानना बड़ा ही कठिन है। दूसरा कारण यह है कि लोग भौतिकवाद के इतिहास के संबंध में बहुत कम जानते हैं। इन कमियों के कारण आजकल के पाठक फ़ायरबाख़ के सिद्धांत को स्पष्ट रूप से नहीं जान पाते। दर्शन के क्षेत्र में फ़ायरबाख मार्क्स के पूर्ववर्ती थे और उन्होंने काफ़ी हद तक वह दार्शनिक आधार तैयार किया था जिसे मार्क्स और एंगेल्स का विश्व दर्शन कहा जा सकता है।

आजकल फ़ायरबाख़ के ‘मानवतावाद’ को आम तौर पर अस्पष्ट और अनिश्चित बयान किया जाता है। एफ.ए. लांगे ने ‘आम जनता’ और पढ़े-लिखे लोगों के बीच भौतिकवाद के सारतत्व और इतिहास के बारे में सरासर झूठे विचार फैलाए हैं। वह फ़ायरबाख ‘मानवतावाद’ को भौतिकवादी सिद्धांत के रूप में मानने से इनकार करता है। फ़ायरबाख पर लिखने वाले बाद के सभी लोगों ने, चाहे वे रूस के हों या और कहीं के, लांगे के उदाहरण का अनुकरण किया है। फ़ायरबाख़ के मानवतावाद को ‘वर्णसंकर’ भौतिकवाद कहने वाला पी. ए. बर्लिन स्पष्ट रूप से लांगे से प्रभावित लगता है क्योंकि उसने फ़ायरबाख़ के मानवतावाद को ऐसा चित्रित किया है जैसे कि वह कोई ‘अशुद्ध’ भौतिकवाद हो। मैं स्वीकार करता हूं कि इस प्रश्न से संबंधित एफ. मेहरिंग के विचारों को साफ़ तौर पर नहीं समझ सका हूं, यद्यपि मैं उन्हें जर्मनी के सोशल डेमोक्रेटों में दर्शन का सबसे बड़ा, अपने ढंग का अकेला,

→ विचार से सहमत नहीं थे. उन्होंने अपनी प्रारंभिक पुस्तकों में लिखा कि शेलिंग तो सिर्फ़ चिंतन के विचारवाद को कल्पना के विचारवाद के रूप में बदल देता है; वास्तविक प्रतीत होने के लिए नाममात्र की वास्तविकता भर देता है, निश्चित वास्तविकता के स्थान पर अनिश्चित निरपेक्ष सत्ता को रख देता है और आदर्शवाद पर अद्वैतवाद” का रंग चढ़ा देता है. वही पृ. सं. 402)

• उनकी दिलचस्प किताब’ जर्मनी ऑन दि इव ऑफ दि रिवोल्यूशन ऑफ 1948, सेंट पीटर्सबर्ग, पू. सं. 228 29 देखिए

ज्ञाता मानता हूं। मैं स्पष्ट तौर पर जानता हूं कि फ़ायरबाख़ को मार्क्स और एंगेल्स एक भौतिकवादी के रूप में मानते थे। यह सच है कि एंगेल्स ने फ़ायरबाख़ की असंगतियों की ओर इशारा किया, लेकिन उन्हें फ़ायरबाख़ के दर्शन के मूल सिद्धांतों को विशुद्ध भौतिकवादी कहने में कोई हिचक नहीं हुई। जो कोई भी फ़ायरबाख़ के मूल सिद्धांतों का अध्ययन करने का कष्ट गवारा करेगा वह इसी निष्कर्ष पर पहुंचेगा। *

दो

मुझे यह अच्छी तरह मालूम है कि मेरे इस कथन से मेरे बहुत से पाठकों को आश्चर्य होगा। किंतु मैं इससे भयभीत नहीं हूं। प्राचीन विचारक का यह कहना एकदम सही था कि आश्चर्य ही दर्शन का जनक है। मेरे पाठक केवल आश्चर्यचकित ही न रहें बल्कि आगे बढ़ें इसलिए मैं उनसे निवेदन करूंगा कि वे अपने आपसे पूछें कि जब फ़ायरबाख़ ने अपने दार्शनिक पाठ्यक्रम की संक्षिप्त, किंतु सजीव रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए लिखा कि ‘मेरी विचार प्रक्रिया में ईश्वर का पहला, बुद्धि का दूसरा और मनुष्य का तीसरा एवं अंतिम स्थान था तो इस बात से उनका क्या अभिप्राय था? मेरा दावा है कि इस प्रश्न का पूर्ण उत्तर स्वयं फायरबाख़ के निम्नलिखित अर्थपूर्ण शब्दों में मिलता है, ‘भौतिकवाद और अध्यात्मवाद के पारस्परिक विवाद में… मानव मस्तिष्क ही मुख्य विषय है… एक बार यह जान लेने पर कि मस्तिष्क किस प्रकार के पदार्थ से बना है, हम जल्द ही अन्य पदार्थों- सामान्य रूप में पदार्थ के संबंध में स्पष्ट रूप से जान जाएंगे। अन्यत्र उन्होंने लिखा है कि उनके ‘मानव विज्ञान अर्थात ‘मानवतावाद’ का अर्थ सिर्फ यह है कि मनुष्य अपनी ही भावना, निजी चित्त को ईश्वर मानता है। आगे उन्होंने लिखा है कि देकार्ते उनके ‘मानव विज्ञान’ संबंधी विचारों से विरक्त नहीं था। इस सबका अर्थ क्या है ? इसका अर्थ है कि फ़ायरबाख ने अपने

• (1910 के जर्मन संस्करण की टिप्पणी) एंगेल्स ने लिखा था: ‘फायरबाख हीगेलवाद से (किंतु रूढ़िवादी हीगेलवाद से नहीं) भौतिकवाद पर पहुंचे हैं. इस विकास क्रम के एक निश्चित दौर में यह आवश्यक हो गया कि वे अपने पूर्ववर्ती की आदर्शवादी पद्धति से पूर्णतया संबंध विच्छेद कर लें… आखिरकार अबाध्य शक्ति फायरबास्त्र को यह मानने के लिए बाध्य कर देती है कि संपूर्ण विचार के पूर्वलौकिक अस्तित्व संबंधी होंगेलवादी विचार और विश्व की सृष्टि के ‘पूर्वतार्किक’ श्रेणियों का अस्तित्व इस बेतुके अवशेष के अलावा और कुछ नहीं है कि इस लोक से परे किसी सृष्टिकर्ता का अस्तित्व मौजूद है. वे यह मान लेते हैं कि हम जिस भौतिकवादी इंद्रियगम्य संसार में रहते हैं वही एकमात्र वास्तविकता है और हमारी चेतना और विचार कितने भी इंद्रियातीत क्यों न हों, एक भौतिक, शारीरिक इंद्रिय-मस्तिष्क को ‘उपज’ हैं. पदार्थ मस्तिष्क की उपज नहीं है वरन इसके विपरीत मस्तिष्क पदार्थ की सर्वोच्च सृष्टिमात्र है. यही वास्तव में विशुद्ध भौतिकवाद है.’ लुडविग फायरबार एसः 17-18, स्टुटगार्ट, 1907.”

**अध्यात्मवाद और भौतिकवाद के बारे में वर्क, X, 129 […] **[वर्क, IV. 249

***वही

दार्शनिक तर्क में दूसरों से भिन्नता और अलगाव पैदा करने के लिए ‘मनुष्य’ के प्रश्न को चुना। ऐसा करके वे अपने लक्ष्य की पूर्ति करना चाहते थे। उनका लक्ष्य पदार्थ और ‘चिन’ के साथ उसके संबंध को सही रूप में रखना था। इसलिए यहां पर हमें सिर्फ एक विचार पद्धति मिलती है। उस विचार पद्धति का महत्व काल और स्थान की स्थितियों अर्थात उस युग के विचारकों एवं शिक्षित जर्मन नागरिकों के सोचने के तरीक़ों से निश्चित होता था। वह विश्वदर्शन के किसी विशेष दृष्टिकोण द्वारा निर्धारित नहीं होता था। **

‘मानव मस्तिष्क’ संबंधी फायरबाख के उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि जब उन्होंने यह सब लिखा उस समय’ मस्तिष्क किस पदार्थ से बना है। इस समस्या को वह स्वयं’ विशुद्ध’ भौतिकवादी रूप में हल कर चुके थे। उनके इस हल को मार्क्स और एंगेल्स ने स्वीकार कर लिया। यह उनके दर्शन का आधार बना। इसे स्पष्ट रूप से एंगेल्स की कृतियों लुडविग फायरबाख और ड्यूहरिंग मतखंडन (जिनसे यहां कई बार उद्धरण दिए जा चुके हैं) में देखा जा सकता है। इसलिए इस हल का गहरा अध्ययन करना चाहिए। अपने इस अध्ययन के दौरान हम मार्क्सवाद के दार्शनिक पहलू का भी अध्ययन करेंगे।

1842 में प्रकाशित एक लेख Vorlaufige Thesen zur Reform der Philosophie ने मार्क्स पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला। इस लेख में फ़ायरबाख़ ने कहा था: ‘विचार और

*फायरबाख ने स्वयं ही बड़े अच्छे ढंग से कहा है कि किसी भी दर्शन की बुनियादें दार्शनिक विचार को पूर्व-स्थिति द्वारा निश्चित की जाती है. (वर्क 11 123)

** (1910 के जर्मन संस्करण की टिप्पणी) एफ. लांगे ने लिखा है: एक सच्चा भौतिकवादी सदा बाह्य प्रकृति को उसके संपूर्ण रूप में देखता है और मनुष्य को पदार्थ को बाहरी गतिशीलता के महासागर में एक मामूली लहर के रूप में देखता है. भौतिकवादों के लिए मानव प्रकृति सामान्य क्रिया विज्ञान का एक विशिष्ट उदाहरण है जिस प्रकार चिंतन जीवन की भौतिक प्रक्रियाओं की श्रृंखला में एक विशेष उदाहरण है.’ भौतिकवाद का इतिहास, जिल्द-2, पृ. 74 लाइपतिग 1902) थियोडोर डेजामाँ भी अपनी पुस्तक साम्यवाद को आच्छ (पेरिस 1843), मानव प्रकृति (मानवीय शरीर-रचना) से प्रारंभ करते हैं और वे निस्संदेह 15वाँ शब्द के फ्रांसीसी भौतिकवादी विचारों को मानते हैं. प्रसंगवश लांगे डेजामी का कोई उल्लेख नहीं करते जबकि मार्क्स उनको फ्रेंच कम्युनिस्टों में गिनते हैं. उनका कम्युनिज्म कैबेट से अधिक वैज्ञानिक था. ‘ओवेन की छात्र ही अत्यंत वैज्ञानिक फ्रेंच कम्युनिस्टों-डेजामी, गे, और अन्य लोगों ने भौतिकवाद की शिक्षा को क मानवतावाद की शिक्षा और कम्युनिज्म के तर्कसंगत आधार के रूप में विकसित किया. कार्ल माफ्तों की साहित्यिक विरासत फ्रेडरिक एंगेल्स और फदिनांद लासाल बैंड-2, एस. 240 उस समय मार्क्स और उपर्युक्त पुस्तक (The Holy Family) लिख रहे थे। वे उस समय तक फायरबा के दर्शन के अपने मूल्यां सैद्धांतिक क्षेत्र में फ़ायरबाख़ ने भौतिकवाद का प्रतिनिधित्व किया है, फ्रांसीसी और ब्रिटिश समाजवाद और कम्युनिष्प, व्यावहारिक क्षेत्र में, भौतिकवाद का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अब मानवतावाद के साथ जुड़े गल है। आम तौर पर मार्क्स ने भौतिकवाद को कम्युनिष्म और समाजवाद का आवश्यक सैद्धांतिक आधार माना। दूसरी ओर एंगेल्स के अनुसार फायरबाख ने सदा के लिए अध्यात्मवाद” और भौतिकवाद की तुलना को कर दिया (वही पू. 232 और 196). ” जैसा कि हम देख चुके हैं उन्होंने भी बाद में, फायरबाख के दर्शन के आदर्शवाद से भौतिकवाद में विकसित होने की बात पर ध्यान नहीं दिया.

पदार्थ का वास्तविक संबंध इस प्रकार रखा जा सकता है: पदार्थ कर्ता अर्थात मूल वस्तु है और विचार उसका विधेय है। विचार का नियंत्रण पदार्थ की परिस्थितियों से होता है, पदार्थ स्वनिर्धारित है…उसका आधार उसमें ही निहित है।*

विचार और पदार्थ के पारस्परिक संबंध से संबद्ध इस विचार को मार्क्स और एंगेल्स ने इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या का आधार बनाया। यह विचार फ़ायरबाख़ द्वारा ही गेल के आदर्शवाद की आलोचना का सबसे महत्वपूर्ण परिणाम था। इस आलोचना के मुख्य निष्कर्षों को थोड़े शब्दों में रखा जा सकता है।

फ़ायरबाख़ के विचार में हीगेल के दर्शन ने अस्तित्व (पदार्थ) और चिंतन (विचार) के अंतर्विरोध (जो कांट के दर्शन में स्पष्ट परिलक्षित होता है) को समाप्त कर दिया था। यह सत्य है कि इसने (हीगेलवादी दर्शन ने) अंतर्विरोध को समाप्त कर दिया, परंतु इसका अस्तित्व दो तत्वों में से एक अर्थात चिंतन (विचार) में बना ही रहा। हीगेल के दृष्टिकोण से विचार ही पदार्थ है। ‘चिंतन (विचार) मूल वस्तु है और अस्तित्व (पदार्थ) उसका विधेय है। ** स्पष्ट है कि हीगेल और यों कहें कि आम तौर पर अध्यात्मवाद ने इस अंतर्विरोध का समाधान अपने आंतरिक (Component) में से एक अर्थात अस्तित्व, पदार्थ, प्रकृति को हटाकर किया। यह ध्यान रहे कि एक संबद्ध तत्व को हटाने का अर्थ अंतर्विरोध को खत्म करना नहीं है। ‘ हीगेल का यह सिद्धांत कि ‘वास्तविकता विचार द्वारा सिद्ध है, उस धार्मिक सिद्धांत का कि प्रकृति का सृजन ईश्वर द्वारा और यथार्थ (reality) और पदार्थ का सृजन एक अमूर्त, अभौतिक अस्तित्व द्वारा हुआ- विवेकपूर्ण शब्दों में रूपांतर मात्र है। *** यह सिर्फ हीगेल के संपूर्ण अध्यात्मवाद के लिए ही सही नहीं है। कांट के (transcendental) अध्यात्मवाद के अनुसार बाह्य संसार द्वारा तर्क-बुद्धि का नियंत्रण होने के बदले तर्क-बुद्धि द्वारा बाह्य-संसार का नियमन होता है। यह विचार उस धर्मशास्त्रीय विचार के अनुरूप है। जिसके अनुसार ईश्वरीय बुद्धि उन नियमों का सृजन करती है, जिनके द्वारा विश्व का नियंत्रण होता है।**** अध्यात्मवाद पदार्थ तथा विचार की एकता को न तो स्थापित करता है, न कर सकता है। इसके विपरीत वह एकता को तोड़ता है। अध्यात्मवादी दर्शन का अलगाव बिंदु’ अहम’ (मौलिक दार्शनिक सिद्धांत के रूप में) पूर्णतः असत्य है। एक सच्चे दर्शन का प्रारंभ-बिंदु’ अहम’ नहीं वरन’ अहं ‘ एवं ‘त्वं’– ‘मैं’ और ‘तुम’— होना चाहिए। केवल इसी बिंदु से प्रारंभ कर हम विचार और अस्तित्व के संबंध को पूरे तौर पर जान सकते हैं। मैं अपने लिए ‘मैं’ – ‘अहं’ हूं और साथ ही किसी दूसरे व्यक्ति के लिए तुम–’त्वं’ हूं। मैं एक साथ ही विचार और वस्तु दोनों हूं। इसके आगे यहां यह बता देना आवश्यक है कि ‘मैं’ वह निराकार

* ग्रंथावली, खंड 2, पृ. 263.

**वही, 261.

***वही, पृ. 262:

**** वही, 11, 295.

‘अहम’ अथवा ‘अमूर्त’ चीज नहीं हूं, जिसको लेकर अध्यात्मवादी दर्शन चलता है। अस्तित्व है, मेरा शरीर मेरे सार-तत्व का एक भाग है, इतना ही नहीं और भी, पूर्णरूपेण विचार करने पर मेरा शरीर मेरा वास्तविक ‘स्व’ है, मेरा अस्तित्व सच्चा है। जो सोचता है वह निराकार वस्तु नहीं है वरन वास्तविक पदार्थ अर्थात शरीर है। इस तरह अध्यात्मवादियों के विचार के विपरीत वास्तविक भौतिक पदार्थ ही मूल तत्व है और विचार उसका विधेय। यहाँ हमें चिंतन और अस्तित्व के अंतर्विरोध का एकमात्र समाधान प्राप्त होता है। अध्यात्मवाद ने इस अंतर्विरोध को हल करने का निरर्थक प्रयास किया है। अंतर्विरोध वाले किसी तत्व को नहीं हटाया जाता. बल्कि दोनों को बनाए रखा जाता है जिससे उनकी वास्तविक एकता स्पष्ट होती है। जो मेरे लिए मनोगत रूप से विशुद्ध आध्यात्मिक, अभौतिक, इंद्रियातीत कार्य है, वह स्वयं अपने में वस्तुगत रूप से एक भौतिक इंद्रियगम्य कार्य है।*’

यह ध्यान देने की बात है कि ऐसा कहते समय, फायरबाख स्पिनोजा के बहुत ही समीप आ जाते हैं। फायरबाख स्पिनोजा के दर्शन को पर्याप्त सहानुभूति की नजर से देखते थे। यह उस समय की बात है जब उन्होंने बड़ी कठिनाई से अध्यात्मवाद से नाता तोड़ना शुरू ही किया था, अर्थात जिस समय वे अपनी पुस्तक ‘आधुनिक दर्शन का इतिहास’ लिख रहे थे। 1843 में अपनी पुस्तक Grundsatze में उन्होंने बहुत ही होशियारी से लिखा कि सर्वब्रह्मवाद एक धर्मशास्त्रीय भौतिकवाद है। वह धर्मशास्त्र का निषेध करते हुए भी धर्मशास्त्रीय आधार पर खड़ा है। भौतिकवाद और धर्मशास्त्र की यह उलझन स्पिनोजा को असंगति से उत्पन्न हुई थी। किंतु इस असंगति के बावजूद स्पिनोज़ा’ अपने समय की सीमाओं को देखते हुए वर्तमान युग के भौतिकवादी विचारों का गंभीरतापूर्ण प्रतिपादन करने में समर्थ था। इसीलिए फ़ायरबाख़ ने स्पिनोजा को आधुनिक स्वतंत्र विचारकों तथा भौतिकवादियों का अग्रज बताया था।***’ 1847 ई. में फ़ायरबाख़ ने प्रश्न किया कि ‘स्पिनोजा जब तार्किक या अधिभौतिक रूप में पदार्थ की और धर्मशास्त्रीय ढंग से ईश्वर की बात करता है तो उसका तात्पर्य क्या है?’ इस प्रश्न का निश्चित उत्तर फायरबाख़ ने ही यह कहकर दिया कि प्रकृति के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। फायरवाख के अनुसार स्पिनोजा के दर्शन का मुख्य दोष यह है कि ‘इस दर्शन में प्रकृति का बोधगम्य धर्मशास्त्रविरोधी सार-तत्व एक निराकर अधिभौतिक रूप ग्रहण कर लेता है। स्पिनोजा ने ईश्वर और प्रकृति के द्वैतवाद पर ध्यान नहीं दिया क्योंकि वह प्राकृतिक घटनाओं को ईश्वर का कार्य समझता है चूंकि उसकी दृष्टि में

• ग्रंथावली खंड 2. पृ. 350.

**(1910 के जर्मन संस्करण को उसका निम्नलिखित उल्लेखनीय कार्य लिख चुके थे ‘अंग्रेज और फ्रांसीसी भौतिकवाद और तथाकथित इंद्रिय सुखवाद (अनुमान को न माननेवाला यथार्थवाद) और स्पिनोजा के दर्शनभाव के बीच व्याहारिक कोष्ट से विरोध होते हुए भी उनकी अंतिम आधारशीला स्पिनोजा द्वारा एक अध्यात्मवादी के रूप में कहे गए पदार्थ सम्बन्धी इस प्रसिद्ध कथन पर है कि ‘पदार्थ ईश्वर का निषेध है; (K Grun, 1. Fucrbach, 1.S. 324-25)

*** ग्रंथावली खंड 2. पृ. 29

प्राकृतिक घटनाएं ईश्वर के कार्य हैं, उसके लिए ईश्वर प्रकृति से भिन्न एक अन्य प्रकार की ऐसी वस्तु बन जाता है, जिस पर प्रकृति आधारित है। उसके अनुसार ईश्वर मूल वस्तु है और प्रकृति उसका विधेय। बावजूद इसके कि यह सिद्धांत सुदृढ़ है, दर्शन को स्पिनोज़ा के इस सिद्धांत के दोष से मुक्त होना चाहिए, क्योंकि इसने (दर्शन) अब अपने को धर्मशास्त्रीय परंपरा से मुक्त कर लिया है। फ़ायरबाख़ ने नारा दिया ‘इस अंतर्विरोध को दूर करो।’ Not Deussive Natura but aut Deus aut Natura ही सत्य की पहचान है। *

इस तरह फ़ायरबाख़ के मानवतावाद ने सिद्ध किया कि वह उस स्पिनोजाबाद के समान है, जिसने धर्मशास्त्र संबंधी अनावश्यक चीज़ों का परित्याग कर दिया है। जब मार्क्स और एंगेल्स ने अध्यात्मवाद से संबंध तोड़ा तो फ़ायरबाख़ द्वारा धर्मशास्त्र के कूड़े से मुक्त इसी स्पिनोजावाद को ग्रहण किया।

स्पिनोजावाद को धर्मशास्त्र के कूड़े से मुक्त करने का अर्थ था स्पिनोजा के दर्शन के सच्चे भौतिकवादी पहलू को व्यक्त करना। इस तरह मार्क्स और एंगेल्स का स्पिनोजावाद भौतिकवाद का आधुनिक रूप है।**

इतना ही नहीं। विचार अस्तित्व का कारण नहीं वरन उसका परिणाम है या यों कहें कि वह उसका आवश्यक गुण है। फायरबाख ने कहा- परिमाण और गुणवत्ता- मैं उस कर्ता की भांति नहीं बल्कि एक विचारक- वस्तु को भांति एक वास्तविक भौतिक पदार्थ की तरह- अनुभव करता हूं और सोचता हूं।’हमारे लिए पदार्थ केवल वही वस्तु नहीं है जिसकी हमें अनुभूति होती है, बल्कि वह हमारी अनुभूति का आधार, उसकी अनिवार्य शर्त भी है। वाह्य संसार, वस्तुगत जगत का अस्तित्व केवल मेरे बाहर ही नहीं वरन मेरे भीतर, मेरी अपनी त्वचा के भीतर भी है।*** मनुष्य केवल प्रकृति का एक भाग, पदार्थ का एक अंश है, इसलिए उसके विचार तथा उसके अस्तित्व के बीच कोई अंतर्विरोध नहीं हो सकता। अंतरिक्ष और काल का अस्तित्व केवल विचार के स्वरूपों के रूप में वर्तमान नहीं है। वे भी अस्तित्व के स्वरूप हैं। वे मेरे चिंतन के स्वरूप हैं। वे ऐसे इसलिए हैं कि मैं स्वयं एक जीव हूं जो काल और अंतरिक्ष में निवास करता है और इसलिए कि मैं एक जीव के रूप में जानता और

• ग्रंथावली, भाग 2, पृ. 350.

**(1910 के जर्मन संस्करण को टिप्पणी) अपनी पुस्तक पवित्र परिवार (मृत्योपरांत प्रकाशित रचना का खंड-2) में मार्क्स ने लिखा है: ‘हांगेल के दर्शन का इतिहास स्पिनोसा को सारभूत वस्तु के रूप में च भौतिकवाद का प्रतिनिधित्व करता है. (S. 240),

*** (1910 के जर्मन संस्करण की टिप्पणी) ‘हम बाह्य संसार को कैसे जानते हैं? हमें अन्तर्विश्व का ज्ञान कैसे प्राप्त होता है ? दूसरों को इस कार्य के लिए जो साधन प्राप्त हैं उनके अतिरिक्त हमें और कोई साधन प्राप्त नहीं है, क्या मैं अपने बारे में बिना ज्ञानेन्द्रियों की सहायता के कुछ जानता हूँ ? क्या मैं वर्तमान रह सकता हूँ अगर मैं अपने आपसे स्वतंत्र रूप से न रहूं ? मैं कैसे जानता हूं कि मैं वर्तमान हूँ ? मैं कैसे जानता हूं कि में अपनी संवेदना के सहारे जिंदा हूँ जब तक में अपनी ज्ञानेन्द्रियों के सहारे इसे अनुभव न करू?

अनुभव करता हूं। आम तौर पर कहा जा सकता है कि अस्तित्व के नियम ही विचार के नियम हैं।’

फायरबाख ने इस विषय को इसी तरह पेश किया था।* एंगेल्स ने ड्यूरिंग का खंडन करते हुए यही बात भिन्न शब्दों में कही थी।** अब यह स्पष्ट हो गया है कि मार्क्स और एंगेल्स के दर्शन के निर्माण में फ़ायरबाख़ के दर्शन का कितना बड़ा हाथ है।

अगर मार्क्स ने अपने भौतिकवादी दृष्टिकोण का प्रतिपादन हीगेल के औचित्य-दर्शन (Philosophy of Right) की आलोचना से प्रारंभ किया और इसमें सक्षम हुए तो इसलिए कि फ़ायरबाख़ इसके पूर्व ही हीगेल के काल्पनिक दर्शन की आलोचना कर चुके थे।31

अपने आलेखों में फ़ायरबाख़ की आलोचना के दौरान भी मार्क्स ने बहुधा फ़ायरबाख़ के विचारों का विकास किया तथा उसकी व्याख्या की। ज्ञानवाद” के क्षेत्र से एक उदाहरण लें। फ़ायरबाख़ के मतानुसार मनुष्य वस्तु के संबंध में विचार करने से पहले उसके प्रभाव को स्वयं अपने ऊपर अनुभव करता है, उसका चिंतन करता है तथा उसे महसूस करता है।

मार्क्स ने फ़ायरबाख़ की इन बातों को ध्यान में रखकर ही लिखा ‘फायरबाख़ के भौतिकवाद समेत सभी प्रकार के भौतिकवाद का मुख्य दोष यह रहा है कि उसने वास्तविकता को, वाह्य तथा इंद्रियगम्य संसार को वास्तविक मानवीय कार्य के रूप में नहीं, एक व्यावहारिक प्रयोग के रूप में नहीं, मनोगत वास्तविकता के रूप में नहीं वरन विचार-वस्तु की भांति अथवा चिंतन के स्वरूप की भांति समझा है। आगे चलकर मार्क्स यह भी कहते हैं कि भौतिकवाद के इसी दोष को दृष्टि में रखकर हम समझ सकते हैं कि ईसाई धर्म का सार नामक अपनी पुस्तक में फ़ायरबाख़ क्यों केवल सैद्धांतिक कार्य को ही वास्तविक मानवीय क्रिया मानते हैं? दूसरे शब्दों में इसका अर्थ है कि फ़ायरबाख के अनुसार हमारे अहं को किसी वस्तु का ज्ञान उस वस्तु पर अपने कार्य के द्वारा प्राप्त होता है।***

मार्क्स ने यह कहकर अपनी आपत्ति जाहिर की, ‘हमारे अहंकार को ज्ञान उस वस्तु के ऊपर अपने कार्य के दौरान होता है’– मार्क्स का विचार पूर्णतः सही है। फॉस्ट कह चुके

• ग्रंथावली, खंड 2, पृ. 334, और खंड 10, पृ. 186-87.

** ( 1910 के जर्मन संस्करण की टिप्पणी) में पाठकों का ध्यान एंगेल्स द्वारा ड्यूहरिंग मत खंडन’ में व्यक्त किए गए विचार की ओर आकर्षित करूंगा. एंगेल्स के अनुसार वाह्य संसार के नियम और मनुष्य की दैहिक और आध्यात्मिक आत्मा को शासित करने वाले नियम होते हैं, ‘इन दो प्रकार के नियमों को हम विचार में अलग कर सकते हैं वास्तविक जगत में नहीं।’ (पृ. 157) यह है अस्तित्व और चिंतन, वस्तु और मन को एकता का सिद्धांत. देशकाल के विषय में उपर्युक्त पुस्तक के पहले खंड का पांचवां अध्याय देखें इस अध्याय में स्पष्ट है कि फायरवाल की तरह ही एंगेल्स के लिए दिशाकाल न सिर्फ चिंतन के बल्कि अस्तित्व के भी रूप है. (पृ 41-42)

*** विचार के पहले अस्तित्व होता है, गुणवत्ता के बारे में सोचने से पहले ही आप उसे महसूस लेते है। ग्रंथावली खंड 2 पृष्ठ 253.

थे कि ‘ Am Anfang war die Tat’ आरंभ में कार्य व्यवहार था। निस्संदेह हम फायरबाख के समर्थन में यह बतला सकते हैं कि वस्तुओं के ऊपर अपने कार्य की प्रक्रिया में हम उनके गुणों का ज्ञान उसी अनुपात में करते हैं, जिस अनुपात में हमारे ऊपर उनकी प्रतिक्रिया होती है। दोनों ही स्थितियों में विचार के पूर्व अनुभूति आती है, दोनों ही हालात में हम प्रारंभ में वस्तुओं के गुणों का ज्ञान प्राप्त करते हैं और उसके पश्चात ही उनके विषय में विचार करते हैं। मार्क्स ने कभी भी इस बात को अस्वीकार नहीं किया। मार्क्स की दृष्टि में विवाद का प्रश्न यह नहीं था कि विचार के पूर्व अनुभूति का स्थान है, जिसको कोई इनकार नहीं कर सकता, बल्कि विवाद का विषय यह था कि क्या मनुष्य मुख्यतः अनुभूति के कारण ही, जिसका अनुभव उसे वाह्य संसार पर अपने कार्य (व्यवहार) के दौरान होता है, विचार करना आरंभ करता है ? उसे अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। चूंकि इस संघर्ष के दौरान उसे बाह्य संसार पर कार्य करना पड़ता है, इसलिए मार्क्स ने ज्ञान के सिद्धांत को मानव सभ्यता के इतिहास संबंधी अपनी भौतिकवादी विचारधारा से जोड़ा। इस विचारक (जिसके द्वारा फ़ायरबाख़ के खिलाफ लिखे गए विचारों की चर्चा हम अभी कर रहे हैं) ने अपनी पुस्तक ‘कैपिटल’ के प्रथम खंड में निरर्थक ही नहीं लिखा कि ‘वाह्य संसार का काम करने और उसे परिवर्तित करने के सिलसिले में मनुष्य अपने स्वभाव में भी परिवर्तन करता है।’ इस कथन का पूर्ण अर्थ मार्क्स के ज्ञान संबंधी सिद्धांत के प्रकाश में ही स्पष्ट होता है। आगे हमें यह देखने को मिलेगा कि सांस्कृतिक विकास के इतिहास और यहां तक कि भाषाविज्ञान द्वारा भी इस सिद्धांत की कितनी पुष्टि होती है। किंतु यह तो हमें मानना ही पड़ेगा कि मार्क्स का ज्ञान संबंधी सिद्धांत सीधे तौर पर फ़ायरबाख़ के सिद्धांत से निकला है। दूसरे शब्दों में अगर आप चाहें तो कह सकते हैं कि सही अर्थ में मार्क्स ने फ़ायरबाख़ के सिद्धांत को हो बुद्धिमत्तापूर्वक शुद्ध या परिष्कृत करके गंभीरतर अर्थ प्रदान किया। इस सिलसिले में मैं यह भी कह देना चाहूंगा कि बुद्धिमत्तापूर्वक शुद्धीकरण उस ‘युग की भावना’ का परिणाम था। वस्तु और विचार की पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया पर मुख्यतः विचार को सक्रिय भूमिका की दृष्टि से विचार करने का रुझान तत्कालीन समाज की मानसिक अवस्था को प्रतिबिंबित करता था। इसी संदर्भ में मार्क्स और एंगेल्स का विश्वदर्शन विकसित हो रहा था।* 1848 की क्रांति अत्यंत निकट आ रही थी।

• (1910 के जर्मन संस्करण की टिप्पणी) फायरबाख ने अपने दर्शन के बारे में लिखा, ‘मेरे दर्शन की व्याख्या कलम द्वारा पूर्ण रूपेण नहीं हो सकती, कागज पर इसके लिए जगह नहीं है. इस कथन का उनके लिए सिर्फ ौद्धांतिक महत्व उन्होंने लिखा, ‘चूंकि इसके (उनके दर्शन) लिए सत्य वह नहीं है, जिसके सम्बन्ध में विचार किया गया है, बल्कि वह है जिसके संबंध में सोचा नहीं गया है यद्यपि देखा, सुना और अनुभव किया गया है “गृन को पुस्तक ।। में मृत्युपरांत सुक्तियां।। . S. 306)
तीन

मन और वस्तु, चिंतन और अस्तित्व को एकता के जिस सिद्धांत को फ़ायरबाख के साथ मार्क्स और एंगेल्स ने अपनाया, वह सत्रहवों और अठारहवीं शताब्दी के प्रमुख भौतिकवादियों का भी सिद्धांत था।

मैंने अन्यत्र यह बतलाया है कि ला मैत्री और दिदेरो अपने-अपने रास्ते से विश्व संबंधी एक ऐसे दर्शन पर पहुंचे थे, जिसे ‘स्पिनोजाबाद’ का एक रूप कह सकते हैं। या ऐसा कह सकते हैं कि उनका स्पिनोजाबाद विकृत करने वाले धर्मशास्त्री कूड़े से मुक्त थे। यह आसानी से दिखलाया जा सकता है कि मन और वस्तु को एकता की दृष्टि से हॉब्स और स्पिनोजा के विचारों में काफ़ी समानता है। लेकिन ऐसा करने में हम काफ़ी दूर चले जाएंगे। साथ ही इस बात का हमारी विषयवस्तु से कोई संबंध भी नहीं है। शायद हमारे पाठक यह जानना पसंद करेंगे कि चिंतन और अस्तित्व के पारस्परिक संबंधों का अध्ययन करने वाला प्रत्येक प्रकृतिवादी अवश्यंभावी रूप से फायरबाख द्वारा पारिभाषित एकता के सिद्धांत को ग्रहण कर लेता है।*

हक्सले ने यह लिखा कि, ‘निश्चय ही विषय संबंधी तथ्यों से परिचित कोई भी व्यक्ति आजकल इस बात में संदेह नहीं करता कि मनोविज्ञान की जड़ें स्नायविक प्रणाली के रचना विज्ञान में हैं, जिन्हें चित्त-वृत्तियां कहते हैं वे मस्तिष्क के कार्य हैं।** यहां हक्सले वही बात कर रहा था जो फ़ायरबाख़ ने कही थी। अंतर सिर्फ यही था कि उसकी परिकल्पनाएं कम सोच-विचार के बाद बनी थी इसलिए उसके विचारों (जिन्हें अभी उद्धृत किया गया है) का झुकाव ह्यूम के दार्शनिक संशयवाद की ओर था।***

इसी प्रकार हेकेल (Haeckel) के ‘ऐक्यवाद’ ने दुनिया में इतना अधिक तहलका मचा रखा है कि वह मन और वस्तु को एकता स्थापित करने वाले एक शुद्ध भौतिकवादी सिद्धांत के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। हेकेल का यह सिद्धांत मूलतः फायरबाख के सिद्धांत के बहुत ही समीप है। हेकेल को भौतिकवाद का बहुत कम ज्ञान है। यही कारण है कि वह ‘भौतिकवाद’ के ‘एकांगीपन’ पर आक्रमण करना चाहता है। अच्छा होता अगर उसने ज्ञान संबंधी भौतिकवादी सिद्धांत का अध्ययन उस रूप में किया होता जिस रूप में फ़ायरबाख और मार्क्स ने उसे पेश किया है। ऐसा करने पर वह बहुत सी भूलों और ‘एकांगी’ विचारों से बच गया होता और लोगों को उसके दर्शन की आलोचना करने का मौका भी न मिलता।

ऑगस्ट फोरेल (August Forel) ने अपने कहे लेखों में (उदाहरणार्थ Gehirn und seele शीर्षक निबंध में जो 26 सितंबर 1894 को वियना में हुए जर्मन प्रकृतिवादियों और

* मेरा लेख देखे ‘बर्नस्टीन और भौतिकवाद’, ‘हमारे आलोचकों की आलोचना’ शीर्षक परिसंवाद में

** ह्यूम, उनका जीवन और दर्शन, पृ. 80.

***वहीं, पू. 82.

चिकित्सकों के छठे अधिवेशन में पढ़ा गया था) एक ऐसा दृष्टिकोण उपस्थित किया है जो आधुनिक भौतिकवाद (फायरबाख़ तथा मार्क्स और एंगेल्स के भौतिकवाद) के काफ़ी नजदीक है।* कहीं-कहीं तो हम ऐसा देखते हैं कि फ़ोरेल ने न केवल फ़ायरबाख़ से स्पष्टतः मिलते-जुलते विचार ही व्यक्त किए हैं, वरन अपने तर्कों को भी उन्हीं की तरह पेश किया है। फोरेल के अनुसार हर रोज हमारे सामने इस बात के नए प्रमाण आ रहे हैं कि मनोविज्ञान और मस्तिष्क का संरचना विज्ञान ‘एक ही चीज़ को देखने के दो दृष्टिकोण हैं। पाठक यह नहीं भूले होंगे कि पिछले किसी पृष्ठ पर मैंने फ़ायरबाख़ के इसी आशय के एक कथन को उद्धृत किया है। इस विचार को मैं फ़ायरबाख़ के एक और कथन द्वारा पूर्ण कर सकता हूं : ‘स्वयं अपने लिए मैं मनोवैज्ञानिक वस्तु हूं परंतु किसी दूसरे के लिए मैं शरीरविज्ञान की वस्तु हूं। ** फोरेल के कहने का सार यह है कि चेतना ‘प्रमस्तिष्कीय क्रिया का आंतरिक प्रतिबिंब’ है।*** यह भौतिकवादी विचार है।

हर प्रकार के आदर्शवादी तथा कांटवादी भौतिकवादियों का उत्तर देते हुए वे कहते हैं कि हमें प्राकृतिक घटना के मानसिक पहलू (जिसकी बातें फोरेल और फ़ायरबाख़ ने की हैं) के परे कोई प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं। शेलिंग ने पहले ही अपनी आपत्ति सुंदर ढंग से पेश की थी। उसने कहा था कि इस तरह ‘चित्त सदा एक टापू की तरह रहेगा, जहां पदार्थ के सागर से छलांग लगाए बिना पहुंचा नहीं जा सकता।’ फोरेल इस बात को भली भांति जानता है। वह इसे पूर्णतया सिद्ध कर देता है कि जब तक हम इस ‘टापू’ की सीमा को पार नहीं करेंगे तब तक विज्ञान हमारे लिए असंभव बना रहेगा। उसने लिखा है-‘यदि ऐसा न हुआ तो कोई भी मनोवादी मनोविज्ञान से कभी आगे नहीं जा सकेगा और वह वाह्य संसार के अस्तित्व में जिसमें अन्य मानव प्राणियों का अस्तित्व भी शामिल है, संदेह करने के लिए बाध्य हो जाएगा।**** किंतु इस प्रकार के संदेह निरर्थक हैं।***** साम्यानुमान, प्राकृतिक-वैज्ञानिक आगमन और अपनी पांचों ज्ञानेंद्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान की तुलना से प्राप्त

* उनकी पुस्तक Lome etle Systeme nerveus, Hygiene et Pathologie, पेरिस, 1906 ई.

** ग्रंथावली, भाग 2, पृ. 348-49.

*** चीटियों आदि की मानसिक क्षमताएं, म्युनिख, 1901, पृ. 7.

**** वही पृष्ठ 7-8.

***** 1910 के जर्मन संस्करण की टिप्पणी) निर्वासन से लौटने पर चेनौशेवश्की ने एक लेख’ मानवीय ज्ञान का चरित्र प्रकाशित किया जिसमें उन्होंने बड़े ही विनोदपूर्ण ढंग से सिद्ध कर दिया कि वाह्य संसार के विषय में संदेह करने वाले व्यक्ति को अपने अस्तित्व के बारे में भी शंका करनी चाहिए, चेनशेवश्की सदा फायरबाख के पक्के अनुयायी रहे.” उनके लेख के मूल विचार को फ़ायरबा के निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है, ‘मैं वस्तुओं और अपने सृष्टिकर्ता से भिन्न नहीं है क्योंकि मैं अपने को उनसे अलग करता हूं क्योंकि उनसे शारीरिक, आंगिक और वास्तविकता की दृष्टि से मैं भिन्न हूं. चेतना के पूर्व अस्तित्व अवश्यंभावी रूप से आता है. मस्तिष्क के सामने चेतनापूर्ण अस्तित्व (चेतन जीव) का ही चित्र आता है… चेतन का मतलब ‘चेतन अस्तित्व से है.’ (Nachgel assene Aphorismen in Grun’s book. II.S (306)

निष्कर्ष संसार के अस्तित्व के साथ ही हमारे और अन्य प्राणियों के अस्तित्व और उनके मनोविज्ञान के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं। स्पष्ट है कि अगर हम अपने मस्तिष्क की क्रिया से अलग होकर विचार करने की कोशिश करेंगे तो तुलनात्मक मनोविज्ञान, पशुओं का मनोविज्ञान और अंततः हमारा स्वयं का मनोविज्ञान हमारी समझ से बाहर और अंतर्विरोध से पूर्ण मालूम होगा। असल बात यह है कि यह सब ‘ऊर्जा के संचय’ के नियम के विरुद्ध मालूम होगा।*

फायरबाख़ उन अंतर्विरोधों का उल्लेख करके ही संतुष्ट नहीं हो जाते, जिनमें भौतिकवादी दृष्टिकोण का विरोध करने वाले लोग अवश्यंभावी रूप से फंसे हुए हैं बल्कि वह यह भी बतलाते हैं कि आदर्शवादी किस मार्ग से अपने ‘द्वीप’ तक पहुंचते हैं। उनका कथन है: ‘मैं’ अपने लिए ‘मैं’ हूं और दूसरों के लिए ‘तुम’ किंतु मैं केवल एक ही इंद्रियगम्य (अर्थात भौतिक) पदार्थ के रूप में ही इस प्रकार हूं। अमूर्त या निराकार तर्क इस अस्तित्व (वस्तु स्वयं) को सारवस्तु, अणु, अह्म और ईश्वर के रूप में पृथक कर देता है। यही कारण है कि उनकी दृष्टि में वस्तु के बीच की श्रृंखला इतनी अनियमित प्रतीत होती है। विशुद्ध विचार अनुभूतिहीन (इंद्रियज्ञान-रहित) विचार श्रृंखला-हीन विचार है।’** इस अत्यंत महत्वपूर्ण कथन का संबंध उस विचार प्रक्रिया के विश्लेषण से है जिसने हीगेलवादी तर्क को अस्तित्व-विज्ञान संबंधी एक सिद्धांत के रूप में जन्म दिया। ***

यदि फायरबा को आधुनिक जाति शास्त्र द्वारा उपलब्ध ज्ञान प्राप्त होता तो उन्होंने यह भी कहा होता कि दार्शनिक आदर्शवाद का जन्म ऐतिहासिक दृष्टि से आदिम जातियों के सर्वात्मवाद” से हुआ। टेलर**** ने इसकी ओर निर्देश किया है और दर्शन के कुछ इतिहासकारों ने इसे महत्व प्रदान करना शुरू कर दिया है, यद्यपि अभी तक वे लोग इस कथन को संस्कृति के इतिहास तथा सैद्धांतिक दृष्टि से महत्व की वस्तु के रूप में देखने के बदले एक आश्चर्यजनक विचार मानते हैं।*****

फ़ायरबाख के ये विचार और तर्क मार्क्स एवं एंगेल्स को न सिर्फ अच्छी तरह मालूम थे और उन्होंने इन पर अच्छी तरह विचार किया था, वरन इनसे उन्हें अपने जीवन-दर्शन को प्रतिपादित करने में काफ़ी सहायता भी मिली। अगर आगे चलकर एंगेल्स ने फायरबाख के परवर्ती जर्मन दर्शन के प्रति घृणा प्रदर्शित की तो इसका कारण यही था कि उनके मतानुसार इन दार्शनिकों ने केवल उन दार्शनिक त्रुटियों पर ही जोर दिया जिनका खंडन फ़ायरबाख़ कर

* Die psychischen Fahigke iten, same page.

** ग्रंथावली खंड2.322. मैं फ़ायरबा के इन शब्दों की ओरश्री बोग्दानोव का ध्यान आकर्षित करता हूँ, तुलना के लिए पृ. 263 भी देखें.

*** ग्रंथावली खंड 2. पू. 263

****आदिम सभ्यता के बारे में (मूल फ्रांसीसी में) पेरिस 1876 खंड 2 पृ. 143 और 321-22 Grect.

***** 1910 के टर्मन संस्करण की टिप्पणी देखें Theodore Gomperz, Lespenseurs de la tard par Aug., Reymond, Laussane. 1905, tome II. pp. 414-15.

चुके थे। असलियत भी यही थी। भौतिकवाद के आधुनिक आलोचकों में से किसी ने भी ऐसा कोई तर्क पेश नहीं किया है जिसका खंडन फायरबाख़ या उनके पूर्ववर्ती फ्रेंच भौतिकवादी न कर चुके हों।* किंतु मार्क्स के आलोचकों-एडवर्ड बर्नस्टीन, कोनराड, श्मिट, बेनेडिट्टो क्रोस आदि के विचार से दूसरों की सम्मतियों को जमा करके तैयार किया गया परवर्ती जर्मन दर्शन का निम्न कोटि का शोरबा ही एक नवीन खाद्य प्रतीत होता था। उनका पोषण इसी पर हुआ था। उन्होंने जब यह पाया कि एंगेल्स उस और निगाह भी नहीं फिरते तो उन्होंने यह कल्पना कर ली कि एंगेल्स उन तर्कों के विश्लेषण से ‘कन्नी काटना चाहते हैं। वास्तविकता यह थी कि एंगेल्स ने पहले ही उनका विश्लेषण करके उन्हें मूल्यहीन घोषित कर दिया था। यह एक पुरानी कहानी है जिसे बार-बार दुहराया जाता है। चूहे अपना यह विचार कभी नहीं बदल सकते कि बिल्ली शेर से अधिक बलशाली होती है।

जब हम यह मानते हैं कि फ़ायरबाख तथा फोरेल के विचारों में अत्यधिक सादृश्य तथा आशिक अभिन्नता है तो हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि अगर फ़ोरेल को प्रकृति विज्ञान की अपेक्षाकृत अधिक जानकारी थी तो दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में फायरवाख अग्रणी थे। यही कारण है कि फ़ोरेल जिस प्रकार की गलतियां करता है वैसी गलतियां फायरवाख की रचनाओं में नहीं मिलती। फोरेल अपने सिद्धांत को अभिन्नता का मनोवैज्ञानिक शरीर विज्ञान संबंधी सिद्धांत कहता है।** इसके विरुद्ध कोई आपत्ति नहीं की जा सकती, क्योंकि सभी शब्द लोक-प्रचलित हैं। चूंकि अभिन्नता का सिद्धांत पहले एक बिलकुल विचारवादी दर्शन का आधार था इसलिए अच्छा यह होता कि फॉरेल सीधे, साहसपूर्वक स्पष्ट रूप से अपने सिद्धांत को एक भौतिकवादी नाम प्रदान करता। लगता है कि भौतिकवाद के विरुद्ध उसके मन में कुछ पूर्वग्रह थे, जिसके कारण उसने एक दूसरा नाम चुना। यहां यह बात ध्यान में रखने की है कि फॉरेल ने जिस अर्थ में अभिन्नता शब्द का प्रयोग किया है उसकी कोई भी समानता अभिन्नता के विचारवादी अर्थ से नहीं है।

‘मार्क्स के आलोचकों’ को इसका भी पता नहीं है। मेरे विरुद्ध वाक युद्ध में कोनराड श्मिट ने भौतिकवादियों के ऊपर अभिन्नता के विचारवादी सिद्धांत को थोपा है। वास्तविकता यह है कि भौतिकवाद विचार और पदार्थ की एकता को तो मानता है उनकी अभिन्नता को नहीं। इसे स्वयं फायरबाख ने स्पष्ट रूप से दिखाया था।

फायरबाख के अनुसार विचार तथा पदार्थ, चिंतन एवं अस्तित्व का कोई अर्थ तभी हो

* (1910 के जर्मन संस्करण की टिप्पणी) फायरबाय ने उन विचारकों को ‘करने वाला कहा ज एक घिसे-पिटे दर्शन को पुनर्जीवित करना चाहते थे, ऐसे लोग आज बहुत बड़ी संख्या में हैं और उन्होंने जर्मनी में और कुछ हद तक फ्रांस में काफी साहित्य लिखा है में भी इस प्रकार के साहित्य की रहे हैं.

** उनका लेख “वैज्ञानिक अभिधारणा के रूप में मानसिक मनोवैज्ञानिक पहचान का सिद्धांत” फ्रेसत्कृफ्त, रोजेनथाल नामक परिसंवाद, लाइपजिग 1906 अस्टर टेल. पू. 119-32 में देखें

सकता है, जब मनुष्य को उस एकता का आधार माना जाए। इस कथन से मानवतावाद’ का स्वर प्रतिध्वनित होता है। फ़ायरबाख़ के विद्यार्थियों में से अधिकांश ने इस बात पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की ज़रूरत नहीं समझी कि मनुष्य कैसे उपर्युक्त विरोधी तत्वों के आधार के रूप में कार्य करता है। यहां फ़ायरबाख़ का तात्पर्य यह है कि ‘केवल उसी हालत में जहां विचार स्वयं अपना विषय ही नहीं होता, बल्कि एक वास्तविक वस्तु (भौतिक) का विधेय होता है, यह अस्तित्व से पृथक नहीं होता।* सवाल यह उठता है कि कहां और किन दार्शनिक प्रणालियों में यह माना गया है कि विचार ‘स्वयं एक विषय-वस्तु ‘ है, अर्थात विचार करने वाले व्यक्ति के शारीरिक अस्तित्व से स्वतंत्र कोई वस्तु है ? उत्तर स्पष्ट है : ऐसी प्रणालियां विचारवादी दर्शन की हैं। विचारवादी दार्शनिक विचार को मनुष्य से स्वतंत्र एक स्व-नियंत्रित वस्तु के रूप में, एक ‘स्वयं विषय-वस्तु’ में परिणत करके आगे चलते हैं और फिर कहते हैं कि विचार में हो (चूंकि इसका अस्तित्व पदार्थ से स्वतंत्र है) विचार और पदार्थ के अंतर्विरोध का समाधान निहित है।** वास्तव में इस स्थान पर अंतर्विरोध का हल हो जाता है, किंतु यह सारतत्व क्या है? यह विचार है और विचारवादियों के मतानुसार विचार का अस्तित्व बिलकुल स्वतंत्र है। अंतर्विरोध का यह समाधान बिलकुल औपचारिक है। जैसा कि मैं पहले बतला चुका हूं, यह हल अंतर्विरोध में निहित तत्वों में से एक का निराकरण कर किया जाता है। अस्तित्व अर्थात पदार्थ (जो विचार से स्वतंत्र है) का निराकरण किया जाता है। पदार्थ को विचार के एक सामान्य गुण के रूप में रखा गया है, और जब हम यह कहते हैं कि कोई वस्तु वर्तमान है और विचारवादी है तो हमारा तात्पर्य केवल यही होता है कि हमारे विचार में उसका अस्तित्व है। पदार्थ के संबंध में शेलिंग का विचार ऐसा हो था। उसकी दृष्टि में विचार वह परम तत्व है जिससे वास्तविक संसार अर्थात प्रकृति तथा ‘अंतिम’ आत्मा का जन्म हुआ है, किंतु यह कैसे ? वास्तविक संसार के अस्तित्व का क्या अर्थ है एक विचारवादी के लिए इसका अर्थ केवल यही है कि विचार में उसका अस्तित्व है। शेलिंग की दृष्टि में विश्व पूर्ण आत्मा का आत्मचिंतन मात्र है /होगेल ने भी यही दृष्टिकोण अपनाया है। किंतु फ़ायरबाख विचार और पदार्थ के अंतर्विरोध के ऐसे औपचारिक समाधान से संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने यह दिखलाया कि मनुष्य से स्वतंत्र (अर्थात वास्तविक भौतिक मानव से स्वतंत्र) न तो कोई विचार है और न हो ही सकता है। विचार मस्तिष्क की एक क्रिया है तथा मस्तिष्क जहां तक उसका मानव मस्तिष्क तथा मानव शरीर से संबंध है, केवल विचार करने (चिंतन) का एक यंत्र है। ***

* ग्रंथावली, खंड 2, पृ. 340,

** (1910 के जर्मन संस्करण की टिप्पणी) अर्नेस्ट माकू और उनके अनुयायी ठीक इसी तरह कार्य करते हैं. सर्वप्रथम ये संवेदना को स्वतंत्र सारतत्व के रूप में, जो संवेदनशील अंग के ऊपर निर्भर नहीं है, बदलते है, इसे तत्व कहते हैं. उनका कहना है कि यही सारतत्व अस्तित्व और चिंतन, मन और वस्तु के हल करेगा. स्पष्ट है कि माकू को मार्क्स के निकट मानने वाले कितने गलत हैं.

*** ग्रंथावली, खंड 2. पृ. 362-363.

इस तरह हम देखते हैं कि मनुष्य विचार तथा अस्तित्व की एकता का आधार है इस दृष्टि से मनुष्य विचार-शक्ति प्राप्त एक भौतिक पदार्थ के अलावा और कुछ नहीं है। अगर वह इस प्रकार का पदार्थ है तो यह स्पष्ट है कि उसके अंदर के अंतर्विरोध में निहित किसी भी तत्व को दबाने की कोई आवश्यकता नहीं है- न अस्तित्व को, न विचार को, न पदार्थ को, न मन, न वस्तु को, न वस्तु-रूप को। उसके भीतर वे उसी तरह साथ हैं जिस प्रकार विचार-वस्तु में। फ़ायरबाख़ ने कहा, ‘मैं हूं और मैं विचार कर्ता हूं…केवल एक विचार वस्तु की भांति।’

अस्तित्व का अर्थ ‘विचार में अस्तित्व’ नहीं है। इस विषय में फ़ायरबाख़ का दर्शन जोसेफ डीट्जेन के दर्शन की अपेक्षा अधिक स्पष्ट है। फ़ायरबाख़ ने कहा कि यह प्रमाण कि कोई वस्तु वर्तमान है इस बात का भी प्रमाण है कि वह केवल विचार में ही वर्तमान नहीं है।* ‘यह कहना बिलकुल सही है। स्पष्ट रूप से इसका अर्थ यह है कि विचार और अस्तित्व की एकता उनकी अभिन्नता से न है और न हो सकती है।

भौतिकवाद को विचारवाद से अलग करने वाला यह एक महत्वपूर्ण पहलू है।

चार

जब लोग यह कहते हैं कि किसी कालविशेष के दौरान मार्क्स और एंगेल्स फायरबाख के अनुयायी थे तो इसका बहुधा यह अर्थ लगाया जाता है कि उस कालविशेष की समाप्ति के साथ ही मार्क्स और एंगेल्स के विश्व दर्शन में काफ़ी परिवर्तन आ गया और उनका विश्वदर्शन फ़ायरबाख़ के विश्वदर्शन से बिलकुल भिन्न हो गया। कार्ल-डीह्र इस चीज को इसी तरह देखता है। उसका विचार है कि मार्क्स पर फ़ायरबाख़ के प्रभाव को आम तौर पर बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जाता है। ऐसा सोचना बहुत बड़ी गलती है। उस समय भी जब मार्क्स और एंगेल्स फ़ायरबाख़ के अनुयायी नहीं रह गए थे, वे उनके बहुत से दार्शनिक विचारों को मानते थे। इसका सबसे बड़ा सुबूत फ़ायरबाख़ की आलोचना करते हुए मार्क्स द्वारा लिखे गए आलेख हैं।” इन आलेखों में फ़ायरबाख़ के बुनियादी विचारों का खंडन नहीं किया गया है बल्कि उनको शुद्ध किया गया है। सबसे बड़ी बात यह है कि उन आलेखों में व्यक्त विचारों द्वारा मनुष्य की परिस्थितियों और विशेषकर उन परिस्थितियों में उसकी अपनी क्रिया का विश्लेषण फ़ायरबाख़ की अपेक्षा अधिक सुसंगत ढंग से करने पर जोर दिया गया है। विचार अस्तित्व को नहीं निर्धारित करता है, बल्कि अस्तित्व विचार को निर्धारित करता है। फायरबाख़ के संपूर्ण दर्शन का यही मूलतत्व है। मार्क्स और एंगेल्स ने इसी मूलतत्व को इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या का आधार बनाया। मार्क्स और एंगेल्स का भौतिकवाद फ़ायरबाख के

*ग्रंथावली, खंड 10 पृ 187

*शासन कला का शब्दकोश V. S. 708

सिद्धांत से कहीं अधिक विकसित है। यही सही है कि मार्क्स और एंगेल्स के भौतिकवादी विचारों का विकास फायरबाख के दर्शन के आंतरिक तत्वों द्वारा निर्दिष्ट दिशा में ही हुआ है। इसीलिए ये विचार-खासकर उनके दार्शनिक पहलू- उन लोगों के लिए स्पष्ट नहीं होंगे, जो यह जानने की कोशिश न करेंगे कि फायरबाख़ के दर्शन का कौन सा हिस्सा वैज्ञानिक समाजवाद के संस्थापकों के विश्वदर्शन में निहित है। यदि आपका परिचय किसी ऐसे व्यक्ति से हो जो ऐतिहासिक भौतिकवाद को एक ‘नवीन दार्शनिक आधार’ प्रदान करने का प्रयत्न कर रहा है, तो आप निश्चित रूप से विश्वास रखें कि इस विषय का उसका ज्ञान अत्यंत अधूरा है चाहे दूसरे विषयों की उसकी जानकारी कितनी हैं ज़्यादा क्यों न हो।

अब हम विषय पर आएं। फ़ायरबाख़ के ऊपर लिखे गए अपने तीसरे आलेख में मार्क्स ने उस कठिनतम प्रश्न को उठाया है जिसे उन्हें, एक सामाजिक प्राणी के रूप में मनुष्य के ऐतिहासिक कार्य के क्षेत्र में हल करना था। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि उन समस्याओं पर उन्होंने विचार किया है जिन्हें वे फ़ायरबाख़ के विचार एवं वस्तु की एकता संबंधी सही सिद्धांत की सहायता से हल करने वाले थे। इस आलेख में लिखा है कि ‘वह भौतिकवादी सिद्धांत जिसके अनुसार मनुष्य परिस्थितियों तथा शिक्षा की उपज है…, इस तथ्य को दृष्टिगत नहीं रखता है कि परिस्थितियों में मनुष्य परिवर्तन करता है और शिक्षक को भी स्वयं शिक्षित होने की आवश्यकता है।479 इस समस्या के समाधान से इतिहास के भौतिकवादी दृष्टिकोण का ‘रहस्य’ प्रकट हो जाता है। फायरबाख़ इस प्रश्न को सुलझाने में असमर्थ रहे। इतिहास के क्षेत्र में वे अठारहवीं शताब्दी के फ्रेंच भौतिकवादियों के समान विचारवादी बने रहे।* फ्रेंच भौतिकवादियों के साथ उनकी और कई दृष्टियों से समानता थी। समाजविज्ञान के विद्यार्थियों और विशेषकर पुनर्जागरणकालीन फ्रेंच इतिहासकारों ने जो सैद्धांतिक सामग्री एकत्र की थी उससे मार्क्स और एंगेल्स ने एक नया सिद्धांत बनाया। यहां भी फ़ायरबाख़ के दर्शन से उन्हें मूल्यवान दिशा-निर्देशन मिला। स्मरण रहे कि फ़ायरबाख़ ने कहा था कि ‘कला, धर्म, दर्शन तथा विज्ञान विशुद्ध मानवीय तत्व की अभिव्यक्ति हैं।** इससे स्पष्ट है कि हमें इन सब विचारधाराओं की व्याख्या” मानवीय तत्व’ के आधार पर प्राप्त हो सकती है। दूसरे शब्दों में, उनका विकास ‘मानवीय तत्व’ द्वारा निर्देशित होता है। किंतु, ‘मानवीय तत्व’ हैं क्या ? फ़ायरबाख़ के अनुसार ‘मानवीय तत्व केवल समाज में ही मनुष्य के साथ मनुष्य

• (1910 के जर्मन संस्करण की टिप्पणी) इससे स्पष्ट है कि भौतिकवाद के विषय में लिखते समय फायरबाख ने गंभीरता से काम क्यों लिया ? उदाहरण के लिए, ‘जब मैं इस बिंदु से पीछे की ओर जाता हूँ तब मैं भौतिकवादियों के साथ पूर्णरूपेण सहमत होता हूँ, जब मैं आगे की ओर जाता हूं तो मैं उनसे असहमत होता हूं.’ के. गुन की पुस्तक, II, पृ. 308 में मृत्योपरांत सूक्तियां. इस कथन का अर्थ निम्नलिखित शब्दों से स्पष्ट होगा, ‘मैं भी विचार तत्व’ को मानता हूं, किंतु सिर्फ मानव जाति, राजनीति, नैतिक मूल्यों और दर्शन के क्षेत्र में. गुन, II, पृ. 307. किंतु राजनीति और नैतिक मूल्यों के क्षेत्र में विचार तत्व कहां से आ गया ? इस का उत्तर ‘विचार तत्व’ को हमारी मान्यता देने से नहीं निकलता.

** ग्रंथावली, खंड 2, पृ. 343.

को एकता में पाया जाता है।’* ‘यह बहुत अस्पष्ट है और यहां हम एक सीमारेखा पाते हैं जिसे फायरबाख पार नहीं कर सके।’** किंतु इस सीमारेखा के पार ही इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या का क्षेत्र प्रारंभ होता है। इस क्षेत्र के अन्वेषक थे मार्क्स और एंगेल्स। यह व्याख्या उन कारणों की ओर संकेत करती है, जो इतिहास के क्रम में ‘समुदाय, मनुष्य के साथ मनुष्य को एकता’ का स्वरूप निर्धारित करते हैं अर्थात मनुष्यों के पारस्परिक संबंध को निश्चित करते हैं। यह सीमारेखा मार्क्स को न सिर्फ फायरबाख़ से अलग करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि दोनों विचारक एक-दूसरे के कितने निकट थे।

फ़ायरबाख़ पर लिखा गया छठा आलेख बतलाता है कि मानवीय तत्व सामाजिक संबंधों का योग है। यह परिभाषा फ़ायरबाख़ की परिभाषा से कहीं अधिक स्पष्ट है, किंतु यहां भी (अधिक स्पष्ट रूप में) हम पाते हैं कि संसार के संबंध में मार्क्सवादी दृष्टिकोण का फ़ायरबाख़ के दर्शन से कितना नजदीक का संबंध है।

जब मार्क्स ने यह आलेख लिखा तब उन्हें सिर्फ यही नहीं मालूम था कि किस दिशा में समस्या का हल ढूंढ़ना चाहिए, बल्कि उन्हें हल भी मालूम था। हीगेल के दर्शन (Philosophy of Right) में वे बतला चुके थे कि समाज में मनुष्यों के संबंधों, ‘कानूनी तथा राज्य के स्वरूपों की व्याख्या स्वयं उनके ही आधार पर नहीं की जा सकती और न ही मानव-मन के तथाकथित विकास के आधार पर की जा सकती है। उनकी जड़ें जीवन की भौतिक परिस्थितियों में हैं। अठारहवीं सदी के अंग्रेज और फ्रेंच लेखकों का अनुकरण करते हुए उनके योग को हीगेल ने ‘सभ्य समाज’ का नाम दिया। सभ्य समाज के अवयवों की व्याख्या आर्थिक ढांचे के आधार पर ही हो सकती है। “”””

अब सिर्फ’ अर्थव्यवस्था’ के उद्भव और विकास की व्याख्या बाक़ी रह गई थी जिससे

ग्रंथावली, खंड 2, पृ. 344.

(1910 के जर्मन संस्करण की टिप्पणी) संयोगवश फ़ायरबाख़ भी सोचते हैं कि ‘मानव’ की सृष्टि इतिहास द्वारा होती है. इसलिए वे कहते हैं-मैं इतिहास द्वारा शिक्षित, सामान्योकृत, समष्टि, वंश (genus), विश्व इतिहास की भावना से एकीकृत कर्ता (Subject) हूँ. मेरे विचारों का प्रारंभ और आधार प्रत्यक्षतः मेरो विशिष्ट ‘आत्मपरकता’ (Subjectivity) में नहीं है, बल्कि वे विचार विश्व इतिहास के परिणाम हैं, उनका प्रारंभ और आधार विश्व इतिहास में है (के. ग्रुन, [1 पृ. 309). इस तरह हम फ़ायरबास में इतिहास की भौतिकवादी समझ के कुछ बोज पाते हैं. इस क्षेत्र में वे हीगेल से आगे नहीं जाते (मेरा लेख ‘होगेल के साठवें मृत्यु दिवस के लिए देखें न्यू जाईट, 18904) बल्कि पीछे रह जाते हैं. होंगेल के साथ वे विश्व इतिहास के भौगोलिक आधार पर जोर देते हैं. वे कहते हैं: ‘मानव इतिहास का रास्ता निश्चित है क्योंकि मनुष्य प्रकृति के मार्ग (धाराओं द्वारा अनुसरण किए जाने वाले मार्ग) का अनुसरण करता है. जहां भी उपयुक्त स्थान होता है आदमी जाता है, मनुष्य किसी प्रांत विशेष में बसते हैं और वहां की स्थितियों से प्रभावित होते हैं. भारत का मतलब हिंदू से है, वह क्या है, वह क्या बना गया है, यह सब पूर्वी भारत के जल, धूप, हवा शु पक्षी के प्रभाव का परिणाम है. मनुष्य प्रकृति के बिना कैसे प्रकट हुआ ? जो मनुष्य हर प्रकार की प्राकृतिक स्थिति में रह सकते हैं, वे प्रकृति से अवतरित हुए हैं। प्रकृति पराकाष्ठाओं को नहीं सहती. मृत्योपरांत सूक्तियां,

के ग्रुन, II, पृ. 330.

उन समस्याओं का पूर्ण हल मालूम हो जाए, जिनको सुलझाने के लिए सदियों से भौतिकवाद प्रयत्नशील था। यह तर्कसंगत बात है कि जब मैं उस महान समस्या के पूर्ण हल की बात करता हूँ तो

मेरा मतलब उसके सामान्य या बीजगणितीय हल से है जिसे सदियों तक भौतिकवाद नहीं पा सका था। जब मैं पूर्ण हल की बात करता हूं तब मेरा मतलब समाज विकास के अंकगणित से नहीं वरन उसके बीजगणित से है। मेरा अभिप्राय विभिन्न घटनाओं के कारणों की विवेचना से नहीं बल्कि उस मार्ग की विवेचना से है जिसका अनुसरण हमें इन कारणों को खोजने के लिए करना चाहिए । इसका अर्थ है कि इतिहास-संबंधी भौतिकवादी दृष्टिकोण का महत्व मुख्य रूप से प्रणाली संबंधी है। एंगेल्स ने अच्छी तरह समझकर लिखा कि ‘हम अध्ययन के रूप में अपरिष्कृत निष्कर्षों पर पहुंचने के लिए अधिक इच्छुक नहीं हैं। उन निष्कर्षों का कोई मूल्य नहीं होता जिन्हें उस विकास से पृथक कर देखा जाए जिसके वे परिणाम होते हैं। किंतु इसी बात को मार्क्स के अधिकांश आलोचक (ईश्वर उन्हें माफ करे) समझने में असमर्थ हैं। इससे भी बुरी बात यह है कि उनके कुछ अनुयायी भी इस बात को नहीं समझ पाते। माइकेलेंजेलो में एक स्वयं अपने विषय में कहा था ‘मेरा उपदेश ज्ञानी होने का दावा करने वाले अनेक अज्ञानियों को जन्म देगा।’ दुर्भाग्यवश यह भविष्यवाणी पूरी हो गई है। आजकल मार्क्स का ज्ञान ऐसे अनेक अज्ञानियों को जन्म दे रहा है, जो ज्ञानी होने का दावा करते हैं। स्पष्ट रूप से इसमें मार्क्स का कोई क़सूर नहीं है, बल्कि क़सूर उन लोगों का है जो उनके नाम पर मूर्खता की बातें करते हैं। ऐसी मूर्खताओं से बचने के लिए हमें भौतिकवाद की प्रणाली के महत्व को समझना आवश्यक है।

पांच

एक सह पद्धति का विकास करके मार्क्स और एंगेल्स ने भौतिकवाद की बहुत बड़ी सेवा को। फ़ायरबाख़ ने हीगेल के दर्शन में निहित काल्पनिक तत्व के विरुद्ध संघर्ष में अपनी सारी शक्ति लगा दी, किंतु वे उसके द्वंद्वात्मक तत्वको नहीं समझ सके और न उसका सफल प्रयोग ही कर सके। उन्होंने कहा कि ‘सच्चे द्वंद्ववाद का मतलब किसी भी तरह अकेले विचारक के स्वागत भाषण से नहीं, बल्कि अहम और त्वम के पारस्परिक वार्तालाप से है।”””” लेकिन पहली बात तो यह है कि हीगेल को कृतियों में द्वंद्ववाद का अर्थ ‘अकेले विचारक के स्वागत भाषण से नहीं था फायरबास का उपर्युक्त कथन दर्शन के प्रारंभ-बिंद को परिभाषा तो करता है किंतु उसकी पद्धति पर प्रकाश नहीं डालता। इस कमी को माक्र्क्स और एंगेल्स ने पूरा किया। उन्होंने समझा कि होंगेल के कल्पनावादी दर्शन की आलोचना करते।

1. 477

2. पू. नं. 345 वर्क, 11,345)

समय उनके द्वंद्ववाद की उपेक्षा करना गलत होगा। कुछ आलोचकों के अनुसार विचारवाद से संबंध तोड़ने के तुरंत बाद के वर्षों में मार्क्स भी द्वंद्ववाद से उदासीन हो गए थे। यद्यपि ऊपर से देखने पर यह कथन सही प्रतीत हो सकता है, किंतु बात इसके विपरीत है। इसका प्रतिवाद पहले दिए गए इस तथ्य से हो जाता है कि ‘ड्यूत्श फ्रैंजोसिश जारबुकर’ में एंगेल्स ने इस पद्धति को नवीन विचार प्रणाली के मूलतत्व के रूप में मान लिया था। *

बहरहाल ‘दर्शन की दरिद्रता’ नामक पुस्तक के दूसरे खंड से यह स्पष्ट हो जाता है कि पृधों के साथ वाकयुद्ध के दौरान मार्क्स द्वंद्वात्मक पद्धति से भली भांति परिचित थे और उन्हें मालूम था कि उसका उचित उपयोग कैसे किया जाए। इस वाकयुद्ध में मार्क्स की विजय एक ऐसे व्यक्ति की जीत थी जो द्वंद्वात्मक विचार प्रणाली को अपनाना जानता था और पराजित होने वाला ऐसा व्यक्ति था जो कभी भी द्वंद्ववाद के मूलतत्व को नहीं समझ सका था, लेकिन फिर भी पूंजीवादी समाज के अध्ययन विश्लेषण के लिए लागू कर रहा था। ‘दर्शन की दरिद्रता’ नामक पुस्तक के द्वितीय खंड से ही यह भी स्पष्ट है कि द्वंद्ववाद को, जो हीगेल के दर्शन में विशुद्ध विचारवादी रूप में था और जो प्रूधों के हाथों में (जहां तक उसने ग्रहण किया था) विचारवादी ही बना रहा, मार्क्स ने एक भौतिकवादी आधार पर रख दिया। **

बाद में भौतिकवादी द्वंद्ववाद का जिक्र करते हुए मार्क्स ने लिखा कि ‘हीगेल की दृष्टि में मानव मस्तिष्क की जीवन-प्रक्रिया या चिंतन-प्रक्रिया (जिसे वे ‘तत्व-विचार’ का नाम देकर स्वतंत्र वस्तु के रूप में बदल देते हैं) वास्तविकता का निर्माण करने वाली है और उनकी दृष्टि में वास्तविकता विचार का केवल वाह्य-स्वरूप है। इसके विपरीत मेरे दृष्टिकोण में तत्व-विचार मानव-मस्तिष्क के अंदर स्थानांतरित एवं रूपांतरित किए गए पदार्थ के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं।” उपर्युक्त कथन का अर्थ है, फ़ायरबाख़ के साथ मार्क्स की पूर्ण सहमति। सर्वप्रथम हीगेल के ‘तत्व विचार’ के विषय में फ़ायरबाख़ की सम्मति पर और उसके बाद विचार तथा अस्तित्व के पारस्परिक संबंध के विषय में फायरबा के दर्शन के बुनियादी सिद्धांतों को सही मानने वाला व्यक्ति (जिसके अनुसार विचार अस्तित्व को

•एंगेल्स सिर्फ अपने व्यक्तिगत विचारों के बारे में ही नहीं बल्कि उन सब लोगों के दृष्टिकोणों के विषय में लिख रहे थे जो उनसे सहमत थे, उन्होंने लिखा था ‘हमें’ चाहिए…’ इसमें संदेह नहीं कि मार्क्स उन लोगों में थे जो उनके विचारों से सहमत थे.

“देखें कार्ल मार्क्स, दि पॉवटी ऑफ फिलॉसफी, मास्को, पू. 116-215 (1910 के जर्मन संस्करण का परिशिष्ट). यह उल्लेखनीय बात है कि फायरबाख में भी होगेलवादी द्वंदवाद की आलोचना भौतिकवादी दृष्टिकोण से को उन्होंने पूछा, ‘यह किस तरह का द्वंद्ववाद है जो स्वाभाविक उद्भव और विकास का निषेध करता है ? इसको ‘अवश्यंभाविता के साथ बातें कैसे बनती हैं ? मनोविज्ञान और सामान्यतः दर्शन का वस्तुगत दृष्टिकोण कहाँ है ? मनोविज्ञान और दर्शन वाह्य प्रकृति से निश्चित, मौलिक और ठोस वस्तुगत दृष्टिकोण लेकर भलते हैं. निरपेक्ष सत्य और आत्मा को संतुष्टि के उद्देश्य को लेकर चलने वाला दर्शन प्रकृति से पूर्णतया दूर होता है और निरपेक्ष आत्मिकता में बिना किसी फ़िश्तेवादी अन्- अहम या कांटवादी अपने आप में वस्तु की भावना से नियंत्रित होता है’ के. पुन, 1,399)

निर्धारित नहीं करता बल्कि अस्तित्व विचार को निर्धारित करता है) हीगेल के दर्शन को उचित रूप से संस्थापित कर सकता था, जिससे हीगेल का द्वंद्ववाद अपने सिर के बजाए पैरों पर खड़ा हो सके।

बहुतेरे लोग द्वंद्ववाद को विकास के सिद्धांत से अलग नहीं कर पाते। वास्तव में द्वंद्ववाद विकास का एक सिद्धांत है किंतु द्वंद्ववाद विकास के विकृत सिद्धांत से (जिसके अनुसार न तो प्रकृति में और न इतिहास में ही छलांगों के साथ परिवर्तन होता है बल्कि संसार में सभी परिवर्तन क्रमिक रूप से होते हैं) भिन्न है। हीगेल पहले ही बता चुके थे कि इस अर्थ में विकास का सिद्धांत असंगतिपूर्ण एवं हास्यास्पद है। उन्होंने अपनी पुस्तक तर्कशास्त्र का विज्ञान के पहले खंड में लिखा है कि ‘जब लोग किसी चीज़ के उदय होने या लुप्त होने की प्रक्रिया को समझना चाहते हैं तो आम तौर पर वे कल्पना करते हैं कि उदय या लुप्त होने की क्रिया के क्रमिक चरित्र की अवधारणा के द्वारा ही वे पूरी समझदारी हासिल कर सकते हैं। अस्तित्व में होने वाले परिवर्तन केवल एक मात्रा के दूसरी मात्रा के रूप में बदलने से ही नहीं, वरन परिमाणात्मक परिवर्तनों से गुणात्मक परिवर्तन से भी होते हैं। इस प्रकार ऐसा परिवर्तन होता है जो एक वस्तु को दूसरी वस्तु से स्थानांतरित कर देता है और इस प्रकार क्रमिक विकास का तारतम्य टूट जाता है।* हर बार जब तारतम्य टूटता है तब परिवर्तन बड़ी तेजी के साथ (छलांगों के साथ) होता है। हीगेल अनेक उदाहरणों के ज़रिए यह बतलाते हैं कि इतिहास और प्रकृति दोनों क्षेत्रों में इसी तरह बड़ी तेजी के साथ (आकस्मिक परिवर्तन होते हैं और विकास के विकृत सिद्धांत की हास्यास्पद तार्किक त्रुटियों को उभार कर रखते हैं। उनके अनुसार ‘क्रमिकता के सिद्धांत के मूल में यह विचार है कि उदय होने वाली वस्तु या घटना पहले से वर्तमान है और अपनी लघुता के कारण अदृश्य रहती है। इसी प्रकार जब लोग किसी वस्तु या घटना के क्रमिक विनाश की बात करते हैं तो वे कल्पना करते हैं कि लुप्त होने की यह क्रिया एक पूर्ण रूप से घटित सत्य है तथा पहले वाली वस्तु या घटना का स्थान लेने वाली नई वस्तु या घटना पहले से ही वर्तमान है’) किंतु इनमें से कोई भी बात (अर्थात एक का उदय होना और दूसरे का लुप्त होना) उस समय तक दृष्टि में नहीं आती है। इस प्रकार यह वस्तुओं या घटनाओं के उदय या लुप्त होने की प्रक्रिया का भान नहीं होने देता… किसी वस्तु या घटना के उदय या लुप्त होने को क्रमिक परिवर्तन का परिणाम बताने का अर्थ है एक ही बात को व्यर्थ में दूसरे शब्दों में दुहराना, क्योंकि इसका अर्थ है कि हम किसी भी वस्तु या घटना को, जो वास्तव में उदय या लुप्त होने वाली है, उदय या लुप्त हुई समझते हैं। **

मार्क्स और एंगेल्स ने विकास की प्रक्रिया में छलांगों की अनिवार्यता के संबंध में हीगेल

*तर्कशास्त्र का विज्ञान, इंस्टर बांड, न्यूरेनबर्ग, पृ. 313-14.

** छलांगों के संबंध में मेरी पुस्तिका “मिस्टर टिखोमिरोबस ग्रिफ’, सेंट पीट्सबर्ग, एम. माल्योखस पब्लिसिंग हाउस. पू. 6-14 देखें”

के इस विचार को हार्दिक रूप से स्वीकार किया। ड्यूरिंग के साथ अपने वाकयुद्ध में एंगेल्स ने इस विचार को विस्तारपूर्वक विकसित किया और इसी स्थल पर उसे अपने पैरों पर खड़ा किया अर्थात एंगेल्स ने इस विचार को एक भौतिकवादी आधार प्रदान किया।

इस प्रकार उन्होंने दिखलाया कि ऊर्जा का एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तन एकाएक ही हो सकता है।* आधुनिक रसायन विज्ञान द्वारा परिमाण के गुण में परिवर्तित होने के सिद्धांत की पुष्टि हुई। सामान्यतया उनका विचार यह था कि अस्तित्व के द्वंद्वात्मक गुण द्वारा द्वंद्वात्मक विचार के नियमों की पुष्टि होती है। यहां भी अस्तित्व विचार को निर्धारित करता है।

मैं यहां द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का अधिक विस्तारपूर्वक वर्णन न करके (प्रारंभिक गणित तथा प्रारंभिक तर्कशास्त्र के साथ उसके संबंध में पाठकों को लुडविग फ़ायरचाख पर लेख ” के अपने अनुवाद की प्रस्तावना देखने की सलाह दूंगा)। मैं पाठकों को सिर्फ़ यह याद दिलाना चाहूंगा कि विगत दो दशकों के दौरान वह विकासवादी सिद्धांत जिसके अनुसार विकास केवल क्रमिक सुधारों का परिणाम है, जीवविज्ञान के क्षेत्र में (जहां उसकी प्रधानता थी) अपना महत्व खोने लगा है। इस संबंध में आरमंड गौटिये (Armand Gautier) और ह्यूगो डी राइज ने युगांतरकारी काम किए हैं। यह कह देना हो काफ़ी होगा कि डी राइज के जाति परिवर्तन के सिद्धांत (Theory of Mutations) के अनुसार जातियों का जन्म आकस्मिक परिवर्तनों द्वारा हुआ है. ( देखिए डी राइज का ग्रंथ परिवर्तन के सिद्धांत दो खंडों में, लाईपजिग 1901-1903 ई., उसकी रिपोर्ट कला के विकास में परिवर्तन के काल में कला और उसके विभिन्न रूप और परिवर्तन के माध्यम से उनके विकास लाइपजिग 1901 ई. तथा कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में दिए गए उसके भाषणों का जर्मन अनुवाद, बर्लिन, 1906 )56।

इस प्रसिद्ध प्रकृतिशास्त्री की राय में जातियों को उत्पत्ति से संबंधित डार्विन के सिद्धांत की कमजोरी यह है कि उसके अनुसार जातियों की उत्पत्ति की व्याख्या क्रमिक परिवर्तनों के आधार पर ही की जा सकती है।** डी राइज़ का यह कथन भी अत्यधिक गंभीर एवं रोचक है कि क्रमिक परिवर्तन के सिद्धांत ने, जिसकी जातियों की उत्पत्ति के सिद्धांत में प्रधानता रही है, इस प्रश्न से संबंधित विषयों के प्रयोगात्मक अध्ययन पर हानिकर प्रभाव डाला है।***

मैं कहना चाहूंगा कि आधुनिक जीवविज्ञान के क्षेत्र और विशेषकर नवलैमार्कवादियों

* Bei der Allmahlichkeit bleibt der Übergang von einer Bewegungsform zur anderen immer ein Sprung, eine entscheidende Wendung. So der Übergang von der Mechanik der Mechanik der Massen. Zu Mechanik der Molekule die Bewegungen umfassend, die der in der eigentlich sogenannten Physik untersuchen, etc., Anti-Duhring, S. 57.

** परिवर्तन के सिद्धांत. 7.8.

*** कला और उसके विभिन्न रूप 42 ।.

में जीवित पदार्थ (animism of matter) के तथाकथित सिद्धांत का तेजी के साथ प्रचार हुआ है। इस सिद्धांत के अनुसार सामान्यतया पदार्थ में और ख़ासकर संगठित पदार्थ में के संवेदना अथवा अनुभूति को शक्ति किसी न किसी अंश में वर्तमान रहती है। यह सिद्धांत जिसे कुछ लोग भौतिकवाद का बिलकुल विरोधी समझते हैं (उदाहरणार्थ देखिए आर. एच . फ्रांस लिखित Der heutige Stand der Dar winschen Fragen, लाइपजिग, 1907 ई.), अगर ठीक-ठीक समझा जाए तो असल में वस्तु और मन के अस्तित्व एवं चिंतन को एकता संबंधी फ़ायरबाख़ के भौतिकवादी सिद्धांत का आधुनिक जीवविज्ञान की भाषा में रूपांतर मात्र है।* निश्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि अगर मार्क्स और एंगेल्स को इस सिद्धांत के बारे में मालूम होता तो उन्होंने प्राकृतिक विज्ञान की शाखा में ज़रूर गहरी दिलचस्पी दिखाई होती, यद्यपि इस सिद्धांत की व्याख्या अब तक पर्याप्त रूप में नहीं हो सकी है।

हर्जेन का यह कहना सही था कि हीगेल के दर्शन (जिसे अनेक लोग मुख्य रूप से रूढ़िवादी समझते थे) में क्रांति का वास्तविक बीजगणित मौजूद है (यानी उससे क्रांति के मार्ग का विश्लेषण किया जा सकता है।**) किंतु हीगेल ने इस बीजगणित का प्रयोग जीवन की ज्वलंत व्यावहारिक समस्याओं के विश्लेषण के लिए बिलकुल नहीं किया। काल्पनिक तत्व की प्रधानता ने इस महान शतप्रतिशत विचारवादी के दर्शन में अवश्यंभावी रूप से रूढ़िवादी रुझान भर दिया। मार्क्स के भौतिकवादी दर्शन की बात तो दूसरी है। वहां क्रांति का बीजगणित अपनी द्वंद्वात्मक प्रणाली की समस्त अजेय शक्तियों के सहित प्रदर्शित होता है। मार्क्स ने लिखा है, ‘अपने रहस्यवादी रूप में द्वंद्ववाद जर्मनी में प्रचलित हो गया, क्योंकि वह तत्कालीन समाज व्यवस्था को गौरवान्वित करके (बढ़िया बनाकर) दिखलाता हुआ लगता था। अपने बौद्धिक रूप में वह पूंजीपतियों तथा उनके सैद्धांतिक प्रवक्ताओं की दृष्टि में एक निंदनीय एवं घृणित वस्तु है क्योंकि वर्तमान समाज व्यवस्था के संबंध में स्वीकारात्मक ज्ञान प्रदान करने के साथ-साथ इस समाज व्यवस्था के प्रतिषेध की समझ भी पैदा करता है और हमें बतलाता है कि वर्तमान समाज व्यवस्था अवश्यंभावी रूप से टूटेगी। उसको दृष्टि में द्वंद्ववाद घृणा की वस्तु है क्योंकि वह मानता है कि ऐतिहासिक रूप से विकसित हर समाज व्यवस्था परिवर्तनशील, गतिमान और अस्थायी है और चूंकि वह किसी वस्तु की सत्ता स्वीकार नहीं करता इसलिए स्वभावतः आलोचनात्मक एवं क्रांतिकारी है।

यदि हम द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर रूसी साहित्य के दृष्टिकोण से विचार करें तो हम कह सकते हैं कि द्वंद्वबाद ने ही पहले पहल एक ऐसी प्रणाली को जन्म दिया जो सब वर्तमान वस्तुओं के अस्तित्व के बुद्धिसंगत कारणों को जानने की समस्या को हल करने में समर्थ

* स्पिनोजा को कौन कहे, हम याद रखें कि अठारहवीं शताब्दी के अनेक फ्रांसीसी भौतिकवादियों का जीवनमय पदार्थ के सिद्धांत को ग्रहण करने की ओर था.

** देखिए एंगेल्स लिखित लुडविग शायर बाख. पू. 1-5, (1910 के जर्मन संस्करण को टिप्पणी).”

हैं। इस प्रश्न को लेकर हमारे प्रतिभाशील विचारक बेलिस्की को बहुत माथापच्ची करनी पड़ी। रूसी जीवन के अध्ययन में मार्क्स की द्वंद्वात्मक प्रणाली को लागू करने पर ही हम जान पाए हैं कि रूसी जीवन में कितनी वास्तविकता और कितनी दिखावट है।

छह

जब हम भौतिकवादी दृष्टिकोण से इतिहास की व्याख्या करना प्रारंभ करते हैं तो सबसे पहली दिक्कत के रूप में यह प्रश्न हमारे सामने आता है कि सामाजिक संबंधों के विकास के वास्तविक कारण क्या हैं। हम जान चुके हैं कि ‘सभ्य समाज की संरचना’ उसके आर्थिक ढांचे द्वारा निश्चित होती है। किंतु स्वयं आर्थिक ढांचा किस चीज से निश्चित होता है ?

मार्क्स का उत्तर यों है: ‘सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया में मनुष्यों के बीच अपरिहार्य और उनकी इच्छा से स्वतंत्र निश्चित संबंध स्थापित होते हैं। ये उत्पादन के संबंध होते हैं। जो भौतिक उत्पादक शक्तियों के विकास के निश्चित चरण के अनुकूल होते हैं। इन उत्पादन संबंधों के समूह को ही समाज का आर्थिक ढांचा कहते हैं। समाज का आर्थिक ढांचा ही वह वास्तविक आधार है जिस पर समाज का कानूनी और राजनीतिक ऊपरी ढांचा खड़ा होता है।**

.मार्क्स के उपर्युक्त उत्तर से प्रश्न का स्वरूप ही बदल जाता है। अर्थव्यवस्था के विकास के संबंध में जानने के लिए समाज की उत्पादक शक्तियों के विकास के लिए उत्तरदायी कारणों को जानना आवश्यक है। प्रश्न को इस रूप में हल करने के लिए सर्वप्रथम भौगोलिक परिस्थितियों को भी दृष्टिगत रखना होगा।

अपने ग्रंथ ‘ इतिहास का दर्शन’ में हीगेल ने विश्व इतिहास के भौगोलिक आधार की महत्वपूर्ण भूमिका के संबंध में लिखा है किंतु चूंकि उनकी दृष्टि में विकास का प्रधान कारण विचार तत्व है और चूंकि उन्होंने सरसरी तौर पर और अनिच्छापूर्वक गौण महत्व के विषय की तरह घटनाओं की भौतिकवादी व्याख्या का उल्लेख किया है इसलिए भौगोलिक परिस्थिति के महत्व संबंधी उनके इस सही विचार से कोई फल निकलना असंभव है। भौतिकवादी मार्क्स ने ही इस सिद्धांत से इन निष्कर्षों को पूर्ण रूप से निकाला है। ***

भौगोलिक वातावरण की विशेषताओं पर केवल उन प्राकृतिक वस्तुओं का ही स्वरूप निर्भर नहीं होता, जिनसे मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, बल्कि उन वस्तुओं को क़िस्म भी निर्भर होती है, जिन्हें स्वयं मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए

* देखिए ‘बीस वर्ष’ नामक संग्रह में मेरा लेख ‘बेलिंस्की तथा बौद्धिक वास्तविकता.”

** देखिए मार्क्स की पुस्तक राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना की भूमिका.”

*** (देखिए 1910 के जर्मन संस्करण की टिप्पणी) जैसा कि मैं पहले कह चुका है. इस विषय में फायर से आगे नहीं गए.

उत्पन्न करता है। जहां धातुएं नहीं थीं वहां की आदिम जातियां बिना बाहरी सहायता के युग की उस सीमा को नहीं लांघ सकी जिसे हम प्रस्तर युग कहते हैं। इसी प्रकार आदि के मधुओं तथा शिकारियों को पशुपालन तथा कृषि की अवस्था में उपयुक्त भौगोलिक परिस्थितियां, उपयुक्त पशु और पौधे अनिवार्य रूप से आवश्यक थे। लेविस हेनरी मार्ग ने दिखलाया है कि ‘नवीन संसार’ तथा ‘प्राचीन संसार’ के सामाजिक विकास के आपस अंतर को नवीन संसार में पालन-योग्य पशुओं के अभाव तथा नवीन संसार और प्राचीन संसार की वनस्पतियों के अंतर द्वारा समझाया जा सकता है।* उत्तरी अमरीका के आदिम निवासियों (रेड स्किन्स) के बारे में बेट्ज ने लिखा है, ‘उनके पास मवेशी नहीं हैं। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि वे विकास की अत्यंत निम्न अवस्था में बने हुए हैं।** श्विनफ़र्थ (Schweinfurth) के अनुसार जब अफ्रीका के किसी प्रदेश में जनसंख्या बहुत ज्यादा हो जाती है उसका एक भाग बाहर चला जाता है और आगे चलकर भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार अपना रहन-सहन बदल देता है। ‘जो जातियां अब तक कृषि में लगी रही हैं वे शिकार में लग जाती हैं तथा जो जातियां पशुपालन द्वारा जीविकोपार्जन करती रही हैं वे खेती में लग जाती हैं।*** श्विनफ़र्थ के अनुसार उस क्षेत्र के निवासी जहां मध्य अफ्रीका के बड़े भाग की भांति लोहे की प्रचुरता है, स्वभावतः धातु को गलाने तथा लोहे के शस्त्र और औजार बनाने का काम करने लगते हैं।****

बात यही नहीं समाप्त होती। विकास की निम्नतम अवस्थाओं में ही जातियां पारस्परिक संबंध कायम करती हैं और आपस में अपने कुछ उत्पादनों का विनिमय करती हैं। फलस्वरूप उनके भौगोलिक वातावरण की सीमा का फैलाव होता है और प्रत्येक जाति की उत्पादक शक्तियों के विकास को प्रभावित करता है तथा विकास की गति को तेज़ करता है। स्पष्ट है कि यह संबंध जिस सुगमता से स्थापित तथा विकसित होता है वह भी भौगोलिक वातावरण की विशेषताओं पर निर्भर करता है। हीगेल ने कहा था कि सागर और नदियां मनुष्यों को एक-दूसरे के निकट लाती हैं किंतु पर्वत उन्हें पृथक रखते हैं। उत्पादन की शक्तियों का काफी विकास हो जाने पर ही समुद्र मनुष्यों को एक-दूसरे के नजदीक लाते हैं। विकास की निम्न अवस्था में, रैट्जेल ने ठीक ही कहा है कि समुद्र विभिन्न जातियों के परस्पर सम्मिलन में बाधक होता है।***** कुछ भी हो यह निश्चित है कि भौगोलिक वातावरण की विशेषताएं जितनी ही अधिक परिवर्तनशील होती हैं उतनी ही अधिक वे उत्पादन की शक्तियों में सहायक

* प्रागैतिहासिक समाज स्टुटगार्ट 1891, पृ. 10-11.

** उत्तरी अमरीका के रेड इंडियन लाइपसिंग 1865, पृ. 91.

*** अफ्रीका के हृदय प्रदेश में पेरिस, 1875, पहला खंड, पृ. 199.

**** वहीँ ग्रंथ भाग 2, पृ. 94 – कृषि पर जलवायु के प्रभाव के संबंध में रेटजेल का अंत और जीवन 1902 भाग 2, पृ. 540-541 भी देखिए

***** नृतत्व भूगोल स्टुटगार्ट, 1882, पृ. 92.

होती हैं। मार्क्स ने लिखा है, ‘भूमि की सिर्फ़ उर्वरता ही नहीं बल्कि भूमि की भिन्नता, उसके प्राकृतिक उत्पादन की विभिन्न क़िस्में, मौसमों का परिवर्तन श्रम के सामाजिक विभाजन के प्राकृतिक आधार हैं जो मनुष्य की प्राकृतिक परिस्थितियों में परिवर्तन करके उसको अपनी निजी आवश्यकताओं, क्षमताओं, श्रम के साधनों तथा श्रम की प्रणालियों को बढ़ाने में सहायता प्रदान करते हैं।* ‘क़रीब-करीब मार्क्स के जैसे ही शब्दों में रेट्जेल ने कहा,”सबसे महत्वपूर्ण बात यह नहीं है कि आहार प्राप्त करने में अधिक सुविधा होती है बल्कि यह है कि मनुष्य की कतिपय रुचियां, स्वभाव और अंततोगत्वा कुछ आवश्यकताएं जाग्रत हो जाती हैं।**

इस प्रकार भौगोलिक वातावरण की विशेषताओं पर उत्पादन शक्तियों का विकास निर्भर होता है। उत्पादक शक्तियों के विकास के कारण ही आर्थिक शक्तियां और अन्य सामाजिक संबंध विकसित होते हैं। मार्क्स ने इस विषय को निम्नलिखित शब्दों में समझाया है: ‘उत्पादकों के ये पारस्परिक सामाजिक संबंध और जिन स्थितियों के अंतर्गत ये अपनी क्रियाओं का विनिमय करते हैं तथा संपूर्ण उत्पादन प्रक्रिया में भाग लेते हैं, स्वाभाविक तौर पर उत्पादन के साधनों के स्वरूप बदलने के साथ बदलते रहते हैं। एक नए अस्त्र आग्नेयास्त्र के आविष्कार ने सेना के पूरे आंतरिक संगठन को बदल दिया, उन संबंधों में परिवर्तन कर दिया जिनके अंतर्गत व्यक्ति किसी सेना का निर्माण करते हैं। मतलब कि वे संबंध बदल गए जिनके आधार पर किसी सेना का पूरा संगठन होता है। इस आविष्कार ने विभिन्न सेनाओं के आपसी संबंधों में भी परिवर्तन कर दिया। ***63

इस व्यवस्था को और स्पष्ट करने के लिए मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा। पूर्वी अफ्रीका के मसाईलोग युद्ध में न तो कैदियों को पकड़ते हैं और न उन्हें आश्रय प्रदान करते हैं; क्योंकि जैसा कि रैट्जेल बतलाते हैं, वे पशुपालक हैं और दासों के श्रम को काम में लाने की कोई तकनीकी संभावना नहीं है। किंतु पड़ोसी वकांबा (wakamba) जाति के लोग कृषक हैं। वे दासों के श्रम से लाभ उठाना जानते हैं इसलिए वे बंदियों को मारते नहीं बल्कि उन्हें गुलाम बना लेते हैं। इस प्रकार दासप्रथा का एक संस्था के रूप में प्रकट होना इस बात का पूर्व परिचायक है कि सामाजिक शक्तियां विकास की ऐसी अवस्था में पहुंच गई हैं जहां दासों के श्रम का उपयोग या शोषण संभव है।**** किंतु दासप्रथा उत्पादन का एक संबंध है

* पूंजी, खंड. पृ. 524-26/M

** हेतु विज्ञान, खंड (मूल जर्मन) लाइपत्तिग, 1887, पृ. 56

*** नेपोलियन प्रथम ने कहा : हथियारों को प्रकृति से ही सेनाओं के संघटन का स्वरूप तय होता है, उसी से सैनिक अभियान के क्षेत्र तय होते हैं: सेना का अभियान पथ तय होता है. युद्ध की मोर्चाबंदी तय होती है. शहरों की सुरक्षा व्यवस्था दुरुस्त होती है. युद्ध की प्राचीन प्रणाली और आधुनिक प्रणाली के बीच फर्क हथियारों की प्रकृति है. पेरिस, 1836, पृ. 87-88.

**** हेतु विज्ञान, खंड 1, पृ. 83, इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि कभी-कभी समाज विकास की प्रारंभिक अवस्थाओं में पराजित शत्रुओं को दास बनाने का अभिप्राय उन लोगों को विजेताओं के सामाजिक संगठन में जिसमें उन्हें विजेताओं के समान ही अधिकार प्राप्त होते हैं शामिल करने के अतिरिक्त और→

जो एक ऐसे समाज में वर्ग-विभाजन का द्योतक है जो अब तक लिंग एवं आयु विभेदों को छोड़कर किसी अन्य प्रकार के विभेद से परिचित नहीं था। दासप्रथा विकास होने पर उसकी छाप समाज की संपूर्ण अर्थव्यवस्था पर पड़ जाती है और फिर दास-प्रथा का प्रभाव अन्य समस्त सामाजिक संबंधों खासकर समाज के राजनीतिक ढांचे पर पड़ता है। प्राचीनकालीन राज्य राजनीतिक ढांचे की दृष्टि से कितने भी भिन्न क्यों न रहे हो, उनकी एक सामान्य विशेषता यह थी कि उनमें से प्रत्येक एक ऐसा राजनीतिक संगठन था जिसका उद्देश्य केवल स्वतंत्र व्यक्तियों के हितों की अभिव्यक्ति और रक्षा था।

सात

अब तक हमें मालूम हो चुका है कि उत्पादक शक्तियों का विकास (जो अंततोगत्वा सामाजिक संबंधों के विकास को निर्धारित करता है) स्वयं मुख्य रूप से भौगोलिक परिस्थिति विशेषताओं पर निर्भर होता है। किंतु प्रादुर्भाव होते ही विशेष सामाजिक संबंध स्वयं से उत्पादन की शक्तियों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालने लगते हैं। इस प्रकार जो वस्तु पहले कार्य में थी वही अब कारण बन जाती है। उत्पादक शक्तियों के विकास और सामाजिक प्रणाली के बीच क्रिया-प्रतिक्रिया होती रहती है जो अलग-अलग युगों में अलग-अलग रूप धारण कर लेती है।

हमें यह याद रखना चाहिए कि उत्पादक शक्तियों के विकास की अवस्था समाज के आंतरिक संबंधों को ही निर्धारित नहीं करती बल्कि समाज के बाह्य संबंध भी उस पर निर्धारित होते हैं। उत्पादक शक्तियों के विकास की अवस्था के अनुरूप ही शस्त्रों, सैन्य कला और अंत में अंतर्राष्ट्रीय कानून (अथवा और भी निश्चित शब्दों में, अंतर्सामाजिक या अंतर्जातीय क़ानून) का एक निश्चित स्वरूप पाया जाता है। शिकार करने वाली जातियां बड़े राजनीतिक संगठनों का निर्माण करने की स्थिति में नहीं होतीं क्योंकि उत्पादक शक्तियों के विकास की निम्न अवस्था में होने के कारण आदिम शिकारी आहार की खोज में अपने लिए पृथक करने को बाध्य होते हैं। अतएव वे छोटे सामाजिक समूहों के रूप में इधर-उधर फैल जाते हैं। किंतु ये सामाजिक समूह जितने ही अधिक बिखरे होते हैं उतनी ही अधिक इस बात की संभावना होती है कि ऐसे मामलों के निपटारे के लिए रक्तमय संघर्ष हों जिनका निर्णय एक सभ्य समाज में एक मजिस्ट्रेट द्वारा आसानी के साथ किया जा सकता है। आयर के अनुसार यद्यपि कुछ कामों के लिए विभिन्न आस्ट्रेलियाई क़बीले एक विशेष स्थान पर मिलते हैं किंतु उनके ये संपर्क स्थायी नहीं होते। भोजन की कमी अथवा शिकार पर वापस जाने

→ अधिक कुछ नहीं होता है. ऐसी दशा में बंदी के अतिरिक्त श्रम से कोई लाभ नहीं प्राप्त हो सकता केवल सहयोग के द्वारा ही पारस्परिक लाभ होता है. दासप्रथा का वह स्वरूप भी उत्पादन की विशेष क् के अस्तित्व तथा उत्पादन के एक विशेष संगठन का पूर्व-परिचायक है.

को आवश्यकता से अलग होने को बाध्य होने के पूर्व ही ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों के बीच झगड़े प्रारंभ हो जाते हैं जो थोड़े ही समय में घनघोर युद्ध का रूप धारण कर लेते हैं।*

सब जानते हैं कि इस प्रकार के संघर्षों का जन्म अन्य कारणों से भी हो सकता है किंतु ध्यान देने की बात है कि अधिकांश पर्यटक उनके पीछे आर्थिक कारणों का हाथ बतलाते हैं। जब स्टैनले ने विषुवत रेखा प्रदेशीय अफ्रीका के कुछ निवासियों से यह प्रश्न किया कि वे पड़ोसी कबीलों से युद्ध क्यों करते हैं ? तो उसे उत्तर मिला- ‘हमारे नौजवान जंगल में शिकार करने जाते हैं और अगर उन पर हमारे पड़ोसी अचानक हमला कर देते हैं तब हम उनके पास लड़ने के लिए जाते हैं और लड़ाई उस समय तक चलती है जब तक दोनों दलों में से कोई एक धक अथवा पराजित नहीं हो जाता।** घर्टन ने भी बहुत कुछ इसी तरह की बात कही है, ‘अफ्रीका के सभी युद्ध… दो में से किसी एक उद्देश्य (मवेशी छीन से जाने या अपहरण) के लिए होते हैं।*** ‘रेट्सेल का विश्वास है कि न्यूजीलैंड के मूल निवासियों के बीच युद्ध का प्रमुख कारण रहा है, नर-मांस खाने की इच्छा।**** न्यूजीलैंड के मूल निवासियों के बीच नरभक्षण को तीव्र प्रवृत्ति का कारण पशुओं की कमी कही जा सकती है।

सब जानते हैं कि युद्ध का परिणाम कहां तक प्रतिद्वंद्वियों की रणसजा पर निर्भर करता है। किंतु उनको रणसजा उत्पादक शक्तियों के विकास की अवस्था, अर्थव्यवस्था और अर्थव्यवस्था के आधार पर पनपे सामाजिक संबंधों पर निर्भर होती है।***** यह कहने

* ई.जे. आयर ऑस्ट्रेलिया के आदिवासियों के रीति-रिवाज, लंदन, 1847,पृ. 243)

** एच. स्टैनले अंधकारमय अफ्रीका 1993, खंड 2.92.

*** आर. बर्टन, मध्य अफ्रीका के झील वाले इलाके, लंदन 1860, खंड 2, पृ. 368.

****हेतु विज्ञान, खंड-1, पृ-93.

*****”एंगेल्स ने इस बात को अपने ग्रंथ ड्यूहरिंग मत खंडन के उन अध्यायों में बड़ी अच्छी तरह समझाया है जिनमें ‘शक्ति के सिद्धांत’ का विश्लेषण किया गया है. पेरिस के उच्चतर सैनिक विद्यालय के प्रोफेसर लेफ्टिनेंट कर्नल रूसेट द्वारा लिखित तथा 1901 ई. में पेरिस से प्रकाशित Les maitres de la goerre पुस्तक भी देखने लायक है. जनरल बोनाल के विचारों का प्रतिपादन करते हुए इस पुस्तक के लेखक ने कहा, ‘किसी युग विशेष की सामाजिक स्थितियों का उस राष्ट्र के सैनिक संगठन पर हो नहीं बल्कि उसके सैनिकों को योग्यता रुचियों तथा चरित्र पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है. साधारण कोटि के जनरल बिना किसी प्रकार के सवाल जवाब के ही अपने समय की प्रचलित कार्य प्रणाली को ग्रहण कर लेते हैं, परिचित उपायों का प्रयोग करते हैं और अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थितियों के अनुसार सफल या असफल होते हैं. महान सैन्य संचालक स्वीकृत प्रणालियों तथा कार्य शैलियों में अपनी प्रतिभा के अनुसार सुधार करते हैं. लेकिन ऐसा यह करते किस तरह हैं ? यही बात तो सबसे दिलस्प है, ऐसा जान पड़ता है कि एक ईश्वरीय बुद्धि के निर्देशन में वे अपने साधनों और प्रक्रिया को सामाजिक विकास के समानांतर नियमों के अनुरूप बदलते रहते हैं. समाज के क्रमिक विकास द्वारा उनको अपनी कला पर जो निणयात्मक प्रभाव पड़ता है या जो प्रतिक्रिया होती है उसको अपने जमाने में केवल यही समझते हैं. इसका अर्थ है कि यदि हम ‘समाज विकास’ तथा→

से ही कि अमुक लोगों या जातियों पर किन्हीं अन्य लोगों या जातियों ने विजय प्राप्त कर ली इस बात का कारण स्पष्ट नहीं होता कि विजय के सामाजिक परिणाम ठीक इसी प्रकार के क्यों हैं। रोमनों द्वारा गॉल प्रदेश की विजय के सामाजिक परिणाम जर्मनों द्वारा उस देश की विजय के परिणामों से भिन्न थे। नॉर्मनों द्वारा इंगलैंड की विजय के सामाजिक परिणाम तातारों द्वारा रूस विजय के परिणामों से अत्यंत भिन्न थे। इन सब उदाहरणों में जो अंतर है उसका अंतिम रूप से विश्लेषण करने पर मालूम होगा कि यह अंतर विजित समाज की आर्थिक पद्धति तथा विजेता समाज की आर्थिक प्रणाली के अंतर के कारण था। किसी क़बीले या राष्ट्र की उत्पादक शक्तियां जितनी ही विकसित होती हैं उसको अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष को कारगर रूप से चलाने के लिए अपने को सुसज्जित करने का उतना ही अच्छा अवसर प्राप्त रहता है।

फिर भी इस नियम के अनेक अपवाद हैं जिन पर अब विचार करना चाहिए। जब उत्पादक शक्तियां कम विकसित होती हैं उस समय विभिन्न कबीलों के हथियारों में, उनके आर्थिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं (जैसे भ्रमणशील पशुपालकों के क़बीले तथा एक स्थान पर बसे कृषक-क़बीले) में होने पर भी उतना अधिक अंतर नहीं होता जितना आर्थिक विकास की उच्चतर अवस्थाओं में हो जाता है। यही नहीं, आर्थिक विकास की प्रगति किसी राष्ट्र के चरित्र को प्रभावित कर सकती है जिससे उसकी लड़ाकू मनोवृत्ति कम हो जाए, जिससे वह आर्थिक रूप से पिछड़े हुए किंतु युद्ध के अभ्यस्त शत्रु के विरुद्ध लड़ने में अपने को असमर्थ महसूस करे। इसीलिए हमें बहुधा यह देखने में आता है कि शांतिप्रिय कृषक कबीले लड़ाकू कबीलों द्वारा पराजित हो जाते हैं। रेट्जेल के अनुसार सबसे अधिक ठोस.. राजकीय संगठनों का निर्माण ‘अर्द्ध सभ्य जातियों द्वारा होता है क्योंकि उनमें दो तत्व, कृषि और पशुपालन संबंधी, विजय द्वारा एक हो जाते हैं।* इस प्रकार का सामान्य निष्कर्ष जितना भी सही क्यों न हो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसे अवसरों पर (जिसका चीन एक उपयुक्त उदाहरण है) वे विजेता जो आर्थिक रूप से पिछड़े हुए होते हैं, धीरे-धीरे उन लोगों से प्रभावित होते हैं जिनको वे पराजित कर चुके हैं किंतु जो आर्थिक रूप से उनसे उन्नत हैं।

भौगोलिक परिस्थितियों का असर केवल आदिम जातियों पर ही नहीं बल्कि तथाकथित ‘सभ्य जातियों पर भी पड़ता है। मार्क्स ने लिखा है, ‘प्राकृतिक शक्ति को सामाजिक नियंत्रण में रखने, उसे आर्थिक रूप से लाभप्रद बनाने, एक बड़े परिमाण में उसका उपयोग करने अथवा उस पर अधिकार प्राप्त करने और इन कामों को मनुष्य के हाथों से करने को

→ समाज के आर्थिक विकास के संबंध को खोज निकालें तो हम युद्ध की अत्यधिक अप्रत्याशित और प्रत्यक्ष अबोधगम्य सफलता की भी भौतिकवादी व्याख्या कर सकते हैं. स्वयं रूसेट भी इसी प्रकार की व्याख्या के निकट पहुंचा है. जनरल बोनाल के अप्रकाशित लेखों पर आधारित वर्तमान युद्धकला के इतिहास संबंधी उसके लेख एंगेल्स को पूर्वोल्लिखित व्याख्या में दी गई बातों से बहुत मिलते-जुलते हैं, कभी-कभी इन दोनों दृष्ट की सादृश्यता समानता की हद तक पहुंच जाती है.

*हेतु विज्ञान, पृ. 19.

आवश्यकता उद्योगों के इतिहास में बड़ी निर्णायक भूमिका अदा करती रही है। उदाहरणस्वरूप मिल, लंबाड, हालैंड इत्यादि के सिंचाई कार्यों को या भारत, ईरान आदि देशों की कृत्रिम नहरों को (जिनसे सिंचाई के जरिए भूमि के लिए केवल आवश्यक पानी ही नहीं प्राप्त होता बल्कि पहाड़ियों से छांटकर जाने वाली मिट्टी के रूप में खनिज खाद भी मिल जाती है।) देखें। स्पेन और सिसली में अरबों के शासनकाल में उद्योगों की उन्नति का गुप्त रहस्य वहां की सिंचाई के साधनों में ही निहित था।

प्राकृतिक परिस्थितियों का मानवजाति के ऐतिहासिक विकास पर प्रभाव पड़ता है, इस सिद्धांत का तात्पर्य आम तौर पर सामाजिक मनुष्य पर पड़ने वाले जलवायु के प्रत्यक्ष प्रभाव की स्वीकृति मात्र ही समझा जाता है। यह मान लिया गया है कि एक प्रकार की ‘जलवायु के प्रभाव से कोई जाति स्वतंत्रता प्रेमी हो जाती है तो दूसरी जलवायु में किसी अन्य जाति का रुझान, कमोबेश, निरंकुश राजा के शासन को धैर्यपूर्वक सहने की ओर हो जाता है और एक तीसरे प्रकार की जलवायु में रहने वाली जाति अंधविश्वास की शिकार हो जाती है और पुरोहितों वगैरह के ऊपर निर्भर हो जाती है। उदाहरण के तौर पर बकूल (Buckle) के विचार भी इसी प्रकार के थे। मार्क्स के अनुसार मनुष्य पर भौगोलिक वातावरण का प्रभाव उत्पादन के संबंधों के माध्यम से पड़ता है। उत्पादन के संबंधों का उदय किसी निश्चित क्षेत्र में उत्पादन की निश्चित शक्तियों के आधार पर होता है जिनके विकास की पहली शर्त इसी परिस्थिति की विशेषताएं होती हैं। आधुनिक गतिविज्ञान का रुझान अधिकाधिक इसी ओर है। फलस्वरूप सभ्यता के इतिहास में ‘जाति का महत्व कम होता जा रहा है। रैट्जेल के अनुसार ‘कतिपय सांस्कृतिक उपलब्धियों का जाति से कोई संबंध नहीं है। ****

• मार्क्स, पूंजी (पू. 524-26y*

** देखिए उसकी पुस्तक इंगलैंड की सभ्यता का इतिहास, खंड , लाइपजिग, 1865, पृ. 36-37. बक्ल के अनुसार प्रकृति के साधारण रूप (जो उसके अनुसार किसी जाति के चरित्र विशेष को निर्धारित करने वाले चार तत्वों में से एक हैं) का मनुष्य की कल्पना शक्ति पर विशेष प्रभाव पड़ता है और एक अत्यधिक विकसित कल्पना-शक्ति से अंधविश्वास उत्पन्न होता है जो ज्ञान के विकास में बाधक होता है. पेरू में भूकंपों को अधिकता का प्रभाव वहां के निवासियों की कल्पना शक्ति और उनके राजनीतिक शासन पर पड़ा है. यदि स्पेन तथा इटली के निवासी अंधविश्वासी हैं तो यह भी भूकंपों एवं ज्वालामुखी पर्वतों के विस्फोट का परिणाम है. सभ्यता के विकास की प्रारंभिक अवस्थाओं में ऐसा प्रत्यक्ष मनोवैज्ञानिक प्रभाव विशेष रूप से शक्तिशाली होता है. आधुनिक विज्ञान ने आर्थिक विकास के समान स्तर पर रहने वाली आदिम जातियों के धार्मिक विश्वासों में अद्भुत समानता दिखाई है. बकूल के विचार मुख्य रूप से सत्रहवीं शताब्दी के लेखकों से लिए गए हैं और कई हिपोक्रेट्स के जमाने के हैं ( देखिए हिपोक्रेट्स लिखित ग्रंथ वायु, जल तथा स्थानों के संबंध में), फ्रांसिस आदम द्वारा अनूदित और उसके ग्रंथ संग्रह में सिडेनहम सोसायटी ई. में प्रकाशित खंड 1. पू. 205-221. 1 लंदन से 1849

*** हेतु विज्ञान, खंड, पृ. 10 जान स्टुआर्ट मिल ने ‘हमारे ज़माने के एक महान विचारक के विचार को दुहराते हुए कहा, ‘ मानवीय मस्तिष्क पर सामाजिक और नैतिक प्रभावों के असर पर विचार करने से बचने के कई विकृत रास्ते हैं उनमें से सबसे अधिक विकृत है व्यवहार और चरित्र की विविधताओं को निहित प्राकृतिक कारणों का परिणाम मानना.’ राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धांत, खंड 1, पृ. 390.

किंतु ज्यों ही सभ्यता का एक स्तर स्थापित हो जाता है, उस सभ्यता का ‘जाति’ के शारीरिक और मानसिक गुणों पर प्रभाव पड़ता है। *

सामाजिक मनुष्य पर भौगोलिक वातावरण का प्रभाव एक परिवर्तनशील तत्व है। भौगोलिक वातावरण की विशेषताओं द्वारा निर्धारित उत्पादक शक्तियों के विकास से प्रकृति के ऊपर मनुष्य का अधिकार बढ़ जाता है इस प्रकार मनुष्य एवं भौगोलिक वातावरण के बीच एक नवीन संबंध पैदा हो जाता है। आज अपने द्वीप की भौगोलिक परिस्थिति को अंग्रेज जाति जिस ढंग से प्रभावित करती है वह सीज़र के ज़माने में इस द्वीप में रहने वाले क़बीलों की प्रतिक्रियाओं से बिलकुल भिन्न है। इससे यह आपत्ति बिलकुल खत्म हो जाती है कि भौगोलिक वातावरण में कोई भी परिवर्तन हुए बिना ही किसी देश के निवासियों के चरित्र को बड़ी हद तक बदला जा सकता है।

आठ

किसी विशेष आर्थिक प्रणाली द्वारा उत्पन्न क़ानूनी और राजनीतिक संबंधों** का सामाजिक मनुष्य के संपूर्ण मानसिक दृष्टिकोण पर निर्णायक प्रभाव पड़ता है। मार्क्स के अनुसार, ‘संपत्ति के विभिन्न स्वरूपों, अस्तित्व की सामाजिक स्थितियों के आधार पर अत्यंत भिन्न प्रकार की अनुभूतियों, विभ्रमों, विचार-प्रणालियों तथा जीवन के प्रति दृष्टिकोणों के एक पूरे ऊपरी ढांचे का निर्माण होता है। 65 अस्तित्व विचार को निर्धारित करता है। कहा जा सकता है कि समाज-विकास की प्रक्रिया के विश्लेषण में विज्ञान द्वारा की गई, हर उन्नति से आधुनिक भौतिकवाद के इस मूलभूत सिद्धांत के समर्थन में एक नवीन तर्क मिलता है।

1877 में ही लुडविग नोइरे ने लिखा था, ‘एक सामान्य उद्देश्य को प्राप्त करने की दिशा

* जाति के संबंध में देखिए जे. फिनो का रोचक ग्रंथ Le prejuge des races, पेरिस 1905 (1910 के जर्मन संस्करण का परिशिष्ट). वैट्स ने लिखा है, ‘कतिपय नीग्रो जातियों में हमें उनके प्रमुख व्यवसाय तथा राष्ट्रीय चरित्र के संबंध में ज्वलंत उदाहरण प्राप्त होते हैं.’ प्रकृति का नृतत्वशास्त्र, खंड 2, पृ. 107.

** सामाजिक संबंधों पर आर्थिक स्थितियों के प्रभाव के बारे में एंगेल्स की पुस्तक ‘परिवार, व्यक्तिगत संपत्ति तथा राजसत्ता की उत्पत्ति तथा आर हिल्डेब्रांड लिखित विभिन्न (वैज्ञानिक) सोपानों पर कानून और रिवाज, भाग 1, बेना से 1896 ई. में प्रकाशित भी देखिए, दुर्भाग्यवश हिल्डेब्रांड को यह नहीं मालूम था कि आर्थिक तथ्यों का सदुपयोग कैसे किया जाता है. टी. एचेलिस की रोचक पुस्तिका कानून का विकास और कानून का इतिहास, लाइपगि, 1904 ई. में समाज विकास की उपज के रूप में क़ानून पर विचार किया गया। है लेकिन ये इस प्रश्न में गहराई तक नहीं जाते कि इसके विकास का कारण क्या है. एम. ए. बकारो की पुस्तक अधिकार और कर्तव्य का समाजशास्त्रीय आधार पेरिस, 1898 में हमें ऐसे अनेक बिखरे हुए कथन मिलते हैं जो इस प्रश्न के कतिपय पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं. किंतु मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि लेखक के विचार इस विषय पर भी स्पष्ट नहीं है. टेरे सा लैबियोला की पुस्तक अधिकार की उत्पत्ति के कुछ की समीक्षा, रोम, 1901 भी देखिए

में किए गए संयुक्त कार्य ने तथा हमारे पूर्वजों के प्रारंभिक श्रम ने भाषा और तर्क को जन्म दिया।* इस उल्लेखनीय विचार को विकसित करते हुए नोइरे ने बतलाया कि भाषा अपने मूल रूप में वाह्य संसार की वस्तुओं को व्यक्त करती थी – उनके विचार- रूप में नही , वर्ण उस रूप में जिसमें वे हुआ करती थीं; सक्रिय पदार्थ के रूप में नहीं बल्कि निष्क्रिय पदार्थ के रूप में।** इस बात की व्याख्या करते हुए उन्होंने आगे लिखा है, ‘वस्तुएं मनुष्य की दृष्टि में उसी अनुपात में प्रकट होती हैं अथवा उसके लिए वस्तुओं के रूप में आती हैं जिस हद तक उन पर कार्य किया जाता है और इनके अनुकूल ही वस्तुओं के नाम रखे जाते हैं।*** संक्षेप में, नोइरे के अनुसार मानव के कार्य ही भाषा को प्रारंभिक आधार तथा सार प्रदान करते हैं। **** यह बहुत दिलचस्प बात है कि नोइरे को अपने सिद्धांत के बीज फ़ायरबाख़ के विचारों में मौजूद मिले कि मनुष्य की मनुष्यता का मूल कारण समाज में मनुष्य के साथ मनुष्य की एकता में पाया जाता है। स्पष्ट है कि नोइरे को मार्क्स के संबंध में कुछ भी पता नहीं था क्योंकि ऐसा होने पर उन्हें मालूम हो जाता कि उनका यह विचार कि भाषा के निर्माण में मानवीय क्रिया का बहुत बड़ा हाथ होता है, फ़ायरबाख़ की अपेक्षा मार्क्स के सिद्धांत से अधिक मिलता-जुलता है क्योंकि मार्क्स ने अपने ज्ञान के सिद्धांत में मानवीय क्रियाओं के महत्व पर विशेष जोर दिया है। इस तरह फ़ायरबाख़ के साथ उनके विचारों में असादृश्य था क्योंकि फायरबाख ने ‘चिंतन’ पर अधिक जोर दिया है।’

इस संबंध में यह बतलाने की आवश्यकता नहीं है कि उत्पादन प्रक्रिया के दौरान मानवीय क्रिया के स्वरूप को उत्पादन की शक्तियों की स्थिति निर्धारित करती है। यह प्रत्यक्ष है। यह ध्यान देने की बात है कि विचार के ऊपर अस्तित्व का निर्णायक प्रभाव आदिम जातियों में बहुत स्पष्टता से दिखलाई पड़ता है क्योंकि उनका सामाजिक और बौद्धिक जीवन सभ्य जातियों की अपेक्षा अधिक सरल होता है। मध्य ब्राजील के मूल निवासियों के बारे में कार्ल वान डेन स्टीनेन ने लिखा है कि उनको समझने के लिए हम उनको जिंदगी पर यह ध्यान रखते हुए विचार करें कि वे शिकारी हैं। उसने लिखा है कि ‘उनके लिए अनुभव प्राप्ति का मुख्य साधन पशुओं के साथ उसका संपर्क रहा है। वे लोग प्रकृति की व्याख्या करने और अपने विश्व दर्शन को निश्चित करने के प्रयासों में मुख्यतः इन्हीं अनुभवों पर निर्भर रहते हैं। लेखक ने आगे लिखा है कि शिकारी-जीवन की परिस्थितियों ने न केवल उनके जीवन-दर्शन को बल्कि उनके नैतिक विचारों, उनकी भावनाओं और उनकी कलात्मक अभिरुचि तक को निर्धारित किया है। पशुपालक जातियों में भी हम ठीक यही बात पाते हैं।

● भाषा की उत्पत्ति, मैज, 1877 ई. पू. 331.

** वही पुस्तक, पृ. 341,

*** वही पुस्तक, पृ. 347.

**** वही पुस्तक, पृ. 369.

*****मध्य ब्राजील के आदिवासियों के बीच, बर्लिन, 1894, पृ. 201.

उन लोगों में, जिन्हें रेट्जेल ‘पूर्णरूपेण पशुपालक’ कहते हैं, हम पाते हैं कि ‘उनका 90 प्रतिशत वार्तालाप पशुओं, उनकी उत्पत्ति, स्वभाव, गुण और दोषों के संबंध में होता है।* अभागे हेरेरोस’ जाति के लोग, जिन्हें ‘सभ्य जर्मनों’ ने हाल में बड़ी पशुता के साथ ‘शांत’ कर दिया है, इन्हीं ‘पूर्ण पशुपालक जातियों में से हैं। **

चूंकि आदिम शिकारी के लिए जानवर और आखेट अनुभव के प्रमुख साधन थे और इन जातियों का जीवन और विश्वदर्शन इन्हीं अनुभवों पर आधारित था इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि शिकारी जातियों की पौराणिक कथाएं जानवरों की कल्पनाओं से परिपूर्ण हैं और ये ही पौराणिक कथाएं उनकी दृष्टि में दर्शन, धर्मशास्त्र और विज्ञान का स्थान ले लेती हैं। ऐंड्री लांग ने लिखा है, ‘बुशमेन की पौराणिक कथाओं की विशेषता है उनमें पशुओं की क़रीब-क़रीब पूर्ण प्रधानता। एक ‘बुढ़िया’ को छोड़कर जो इन असंबद्ध कथाओं में यत्र तत्र प्रकट होती है, इन कथाओं में शायद ही कोई अन्य मानव प्राणी देखने को मिलता है।*** ब्राड स्मिथ के अनुसार आस्ट्रेलिया वासी ‘काले आदमी’ जो बुशमेन की भांति अब भी शिकारियों की स्थिति में हैं अधिकांश पशुओं तथा पक्षियों को देवताओं के रूप में मानते है।****

आदिवासियों के धर्मों का अभी तक पर्याप्त रूप में अध्ययन नहीं हुआ है। इस विषय के बारे में हम जो कुछ जानते हैं वह फ़ायरबाख़ और मार्क्स के इस संक्षिप्त सूत्र की पुष्टि करने के लिए पर्याप्त है कि ‘मनुष्य को बनाने वाला धर्म नहीं है बल्कि धर्म का निर्माता मनुष्य है।’ टेलर के अनुसार, ‘यह स्पष्ट है कि सब जातियों में मनुष्य ईश्वरत्व का नमूना समझा

* वही पुस्तक, पृ. 205-206,

** पूर्ण पशुपालक जातियों के संबंध में गुस्ताव फिशर की पुस्तक दक्षिण अफ्रीका की आदिम जाति बस्लो, 1872 देखिए, फिशर ने लिखा है, ‘काफ़िर जाति का आदर्श, उसके स्वप्नों की वस्तुएं तथा उसके गीतों का प्रिय विषय- उसका पशु होता है. वह उसकी सबसे मूल्यवान वस्तु है. काफ़िर के जनगीतों में पशुओं का स्थान सरदारों के बाद आता है. सरदारों की प्रशंसा के क्रम में हम उनके पशुओं के संबंध में बहुत कुछ सुनते हैं.’ (खंड 1, पू. 50) हर काफ़िर की दृष्टि में पशुपालन सबसे अधिक सम्मान का पेशा है.’ (खंड 1. पू. 85) ‘यदि युद्ध काफ़िर के विनोद की वस्तु है तो इसका प्रधान कारण यही है कि उसको दृष्टि में युद्ध का संबंध लूट से है जिसमें पशुओं की लूट भी शामिल होती है. ‘ (खंड 1, पृ. 79) ‘काफ़िर जाति के क़ानूनों मुकदर्शी का संबंध पशुओं से ही रहता है. ‘ (खंड 1, पृ. 322) इसी तरह बुशमेन जाति (जो शिकार द्वारा जोवनयापन करती है) के जीवन के एक अत्यंत रोचक वर्णन के लिए हम फिशर के आभारी हैं (खंड पू. 424)

*** मिथ, रिचुअल एंड रिलिजन, लंदन 1877, भाग 2. पृ. 15.

****इस सिलसिले में आर. ऐंड्री का कथन उल्लेखनीय है कि आदिम युग में मनुष्य अपने सामने पशुओं के रूप में देवताओं का चित्रण करता था. ‘बाद में जब लोग यह समझने लगे कि पशुओं में मानवीय गुण मौजूद हैं तो मनुष्यों के पशुओं के रूप में परिवर्तित हो जाने की भ्रांत धारणाएं उठ खड़ी हुई. ‘नृजाति विज्ञान और पशु, नई धारणाएं (मूल जर्मन) लाइपत्तिग, 1889, पृष्ठ 116) पशुओं में मानवीय गुण हैं, यह विचार उत्पादक शक्तियों की विकास की अपेक्षाकृत उच्चतर अवस्था में ही आ सकता है. तुलना के लिए देखें. लिओफ्रोबनियस लिखित आदिम सभ्यता के बारे में वीमर, 1898 ई.पू.. 14.

जाता था। इससे यह बात समझ में आ जाती है कि मानव समाज का ढांचा और शासन प्रणाली क्यों नैसर्गिक समाज तथा शासनप्रणाली के लिए आदर्श बन गए हैं।* यह निश्चय ही धर्म-संबंधी एक भौतिकवादी विचार है। हम जानते हैं कि सेंट साइमन के विचार इसके विपरीत थे। उन्होंने प्राचीन यूनानी सामाजिक एवं राजनीतिक प्रणाली की व्याख्या उनके धार्मिक विचारों द्वारा की। किंतु इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि विज्ञान ने आदिम जातियों की प्राविधिक प्रगति तथा उनके विश्वदर्शन के बीच हेतुवादी संबंध ढूंढ़ना प्रारंभ कर दिया है।** निस्संदेह इस क्षेत्र में कई अत्यंत मूल्यवान अनुसंधान विज्ञान द्वारा किए जाने वाले हैं। ***

आदिम समाज की विचारधारा के क्षेत्र में अन्य सब विषयों की अपेक्षा कला का सबसे अच्छी तरह अध्ययन किया गया है। कला-संबंधी सामग्रियां प्रचुर परिमाण में संग्रहित की गई है जिससे इतिहास संबंधी भौतिकवादी विचार को गंभीरता अथवा यों कह सकते हैं कि इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या की अनिवार्यता के अकाट्य प्रमाण प्राप्त होते हैं। सामग्रियां इतनी अधिक संख्या में हैं कि मैं महत्वपूर्ण ग्रंथों का उल्लेख मात्र करूंगा स्विन अर्थ लिखित अफ्रीकी कलाएं लापइजिग, 1875, आर. ऐंड्रो लिखित नृजाति विज्ञानी समानांतर (‘आदिवासियों के लक्षण’ शीर्षक लेख), वान डेन स्टीनेन लिखित, मध्य ब्राजील की आदिम जातियों के बीच, बर्लिन, 1894 ई. जी. मालेरी लिखित, अमरीकी इंडियनों का चित्र लेखन (ब्यूरो ऑफ एथनालॉजी की दसवीं वार्षिक रिपोर्ट, वाशिंगटन 1893 ई. अन्य वर्षों की रिपोर्टों में इस संबंध की मूल्यवान सूचनाएं उपलब्ध हैं कि प्राविधिक ज्ञान और विशेषकर वस्त्र बुनने की कला का आभूषणिक डिजायन पर क्या प्रभाव पड़ता है); हार्न्स लिखित यूरोप की दृश्य कलाओं का इतिहास, वियना, 1891 ई.; अर्न्स्ट ग्रॉस लिखित, कला का आरंभ और ललित कलाओं का अध्ययन, टूविज्जेन से 1900 ई. में प्रकाशित; अर्जी हर्न लिखित कला का प्रारंभ लाइपजिग, 1904; कार्लबुशर लिखित रचना और लय, तृतीय संस्करण, 1902 ई., गैब्रियेल तथा आद्रिये द मॉर्टिले की पुस्तक प्रागितिहास काल, पेरिस, 1900 ई. पू. 214-30; हॉर्न्स लिखित यूरोप में आप्लावित मनुष्य”, बन्जविक 1903 ई., सोफ़स मूलर लिखित, प्रागैतिहासिक यूरोप जिसका डेनिश भाषा में ई. फ़िलिपट ने अनुवाद किया है, पेरिस से 1907 ई. में प्रकाशित; रिचर्ड वालाशेक लिखित पुस्तक संगीत का प्रारंभ, लाइपजिग, 1903 ई.।

* देखें आदिम सभ्यता के बारे में, पेरिस 1876. पू. 322.

**तुलना के लिए देखें एच. शुर्ज लिखित इतिहास के पहले संस्कृति, लाइपसिंग और वियना, पृ. 559-564. मैं इस विषय पर फिर लौटूंगा.

*** (1910 के जर्मन संस्करण की टिप्पणी) में Sovermenny Mir नामक पत्रिका में प्रकाशित अपने लेख ‘रूस में तथाकथित धार्मिक कार्य’ (1909 सितंबर)” की और पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाहूगां. इस लेख में मैंने धार्मिक अवधारणाओं के विकास के लिए यांत्रिक कलाओं के महत्व के बारे में चर्चा की है.

कला के उदय के संबंध में आधुनिक विज्ञान के निष्कर्ष उपर्युक्त लेखकों के निम्नलिखित उद्धरणों से स्पष्ट हो जाते हैं।

हॉर्न्स* ने लिखा है: शृंगारिक कला का विकास केवल औद्योगिक क्रिया से ही हो सकता है क्योंकि औद्योगिक क्रिया उसकी भौतिक शर्त है… स्थापित उद्योगों से वंचित जातियों के पास कोई आभूषणिक डिजायन नहीं होती।

वान डेन स्टोनेन का विचार है कि चित्रकला का विकास वस्तुओं को निर्देश करने के व्यावहारिक उद्देश्य Zeichen (चिह्न बनाने की क्रिया) से हुआ।

बुशर के निष्कर्ष के अनुसार अपने विकास की प्रारंभिक अवस्था में कार्य, संगीत तथा काव्य पूर्ण रूप से एक-दूसरे में मिले हुए थे, किंतु इस एकता में मुख्य तत्व कार्य का ह अन्य दो तत्वों का महत्व गौण था।’ उनके विचार ‘काव्य का उद्भव कार्य में चाहिए।’ बुशर ने आगे लिखा है कि कोई भी भाषा वाक्य का निर्माण करने वाले शब्दों को कवित्वपूर्ण ढंग से नहीं रखती। इसलिए यह असंभव लगता है कि मनुष्य अपनी साधारण भाषा के व्यवहार में कविता की भांति व्यवस्थित शब्दों का काव्यमय भाषा का प्रयोग लगे। भाषा का आंतरिक तर्क ऐसे विकास के विरुद्ध है। तब हम कवित्वपूर्ण भाषा की उत्पति की व्याख्या कैसे करें ? बुशर का विचार है कि शरीर को लय ताल युक्त गति द्वारा अलंकर भाषा को सुसंबद्धता मिली है। यह सिद्धांत और भी व्यावहारिक लगेगा अगर हम यह रखें कि समाज विकास की आरंभिक अवस्था में शरीर की लय ताल युक्त गति के साथ साथ लोकगीत भी गाते हैं। किंतु अब दूसरा प्रश्न है कि हम शारीरिक गतियों की सुसंबद्धत की व्याख्या कैसे कर सकते हैं ? इसकी व्याख्या उत्पादन की प्रक्रियाओं के स्वरूप के पर की जा सकती है। इस तरह ‘काव्य के उद्भव को उत्पादक क्रियाओं में ढूंढ़ना चाहिए।**

आर. बालाशेक के अनुसार आदिम जातियों के बीच नाटकों का जन्म निम्न प्रकार से हुआ।*** इन प्रारंभिक नाटकों के विषय थे:

1. आखेट, युद्ध, नौका-चालन (शिकारी जातियों में पशुओं का जीवन और स्वभाव****

2.जानवरों के स्वांग और नक़ाबें।) 2. पालतू पशुओं के जीवन और उनकी आदतें (पशुपालक जातियों में)।

3. गतिविधियां (खेतिहरों के बीच विभिन्न प्रकार के कृषिकार्य-बीज बोना, अन निकालना, अंगूर की बेलें लगाना)

सारा क़बीला नाटक में भाग लेता था और साथ मिलकर सब लोग गीत गाते थे। गीतों का कोई अर्थ नहीं होता था, नाटक ही उनको सारपूर्ण बनाता था। इन नाटकों में दैनिक जीवन

* दृश्य कलाएं इत्यादि पू. 38.

**रचना और लय पृ., 342.

*** संगीत का प्रारंभ, पृ. 257.

****ये नकाबें प्रायः पशुओं का प्रतिनिधित्व करती हैं- जी. प्लेखानोव

को केवल उन्हीं गतिविधियों का प्रतिनिधित्व होता था जो अस्तित्व कायम रखने के संघर्ष में अत्यंत आवश्यक होती थीं। वालाशेक के अनुसार बहुत से आदिम क़बीलों में जब ऐसे नाटक होते थे तो गान मंडली दो विरोधी हिस्सों में बांट दी जाती थी। उसका कहना है कि शौक नाटकों का उद्भव भी इसी प्रकार हुआ। प्रारंभ में वे भी पशु-प्रधान नाटक थे। यूनानी अर्थव्यवस्था में बकरे की भूमिका बहुत बड़ी थी। ग्रीक भाषा में बकरे को ‘ट्रैगोस’ (tragos) कहते हैं। इसी से ‘ट्रेजेडी’ (tragedy) दुःखांत नाटक- शब्द बना है।

अस्तित्व विचार द्वारा नहीं निर्धारित होता बल्कि विचार अस्तित्व द्वारा निर्धारित होता है, इस सिद्धांत के लिए इससे अधिक ज्वलन्त उदाहरण देना कठिन होगा।

नौ

आर्थिक जीवन का विकास उत्पादक शक्तियों के विकास के प्रभाव स्वरूप होता है। इस तरह उत्पादन की प्रक्रिया में लगे लोगों के पारस्परिक संबंध बदलते रहते हैं और साथ ही मानवीय मनोवृत्ति में भी परिवर्तन होता है। मार्क्स ने लिखा है-‘विकास की एक विशेष स्थिति में समाज की भौतिक उत्पादक शक्तियों और उत्पादन के तत्कालीन संबंधों (अथवा कानूनी शब्दों में कहा जाए कि उन सांपत्तिक संबंधों जिनके चौखटे में उत्पादक शक्तियां अब 1 तक काम कर रही थीं) में पारस्परिक विरोध शुरू हो जाता है। ये संबंध जो पहले उत्पादन की शक्तियों के विकास के सहायक थे, अब बाधक बन जाते हैं। फिर सामाजिक क्रांति का युग आरंभ हो जाता है। आर्थिक आधार में परिवर्तन होने के साथ ही संपूर्ण विशाल ऊपरी ढांचा भी कमोबश तेजी के साथ परिवर्तित हो जाता है।… कोई समाज व्यवस्था तब तक लुप्त नहीं होती जब तक उत्पादन की सब शक्तियों का यथासंभव विकास नहीं हो जाता और उत्पादन के नए और उच्च संबंध तब तक प्रकट नहीं होते जब तक उनके उद्भव की आवश्यक भौतिक स्थितियां प्राचीन समाज के गर्भ में पूर्णरूपेण परिपक्व नहीं हो जातीं। इसलिए मानव जाति वे ही कार्य करना प्रारंभ करती है जिसके करने में वह सक्षम होती है। अगर इस विषय का सूक्ष्म अध्ययन करें तो हमेशा यह पाएंगे कि नई समस्याएं तभी सामने आती हैं जब उनके समाधान के लिए आवश्यक भौतिक परिस्थितियां तैयार होती हैं या वे जन्म लेने की प्रक्रिया में होती हैं।70

इस प्रकार हमारे सामने समाज विकास का एक सही तथा शुद्ध भौतिकवादी बीजगणित उपस्थित है। शुद्ध भौतिकवादी इस बीजगणित में आकस्मिक परिवर्तनों (सामाजिक क्रांति के काल में) और क्रमिक परिवर्तनों, दोनों ही के लिए स्थान है। किसी समाज व्यवस्था को

* (1910 के जर्मन संस्करण की टिप्पणी) हमारे देश के कतिपय मामवादियों ने 1905 को शरदऋतु में बिलकुल भिन्न विचार प्रकट किए थे. उनके अनुसार रूस में समाजवादी क्रांति संभय भी क्योंकि देश की उत्पादक शक्तियां ऐसी क्रांति के लिए पर्याप्त रूप से विकसित हो चुकी थीं.69

विशेषताओं में क्रमिक परिमाणात्मक परिवर्तनों के फलस्वरूप गुणात्मक परिवर्तन होते हैं। यानी उत्पादन की पुरानी प्रणाली (या मार्क्स के शब्दों में, पुरानी समाज व्यवस्था) खत्म हो जाती है और उसकी जगह पर नई उत्पादन प्रणाली जन्म लेती है। मार्क्स के अनुसार उत्पादन की चार विभिन्न प्रणालियों को जो प्राच्य, प्राचीन, सामंतवादी तथा आधुनिक (पूजावादी) के नाम से विख्यात हैं- साधारणतः समाज के आर्थिक विकास के चार क्रमिक (‘प्रगतिशील’) युगों के रूप में देखा जा सकता है। फिर भी हमारे पास यह विश्वास करने के कारण हैं। कि प्राचीन समाज के संबंध में लेविस मॉर्गन की पुस्तक को बाद में जब मार्क्स ने पढ़ा तो उन्होंने उत्पादन की प्राचीन तथा प्राच्य प्रणालियों के पारस्परिक संबंधों के बारे में अपने विचारों में सुधार किया। वास्तव में उत्पादन की सामंतवादी प्रणाली के आर्थिक विकास की परिणति एक सामाजिक क्रांति में हुई और इस तरह पूंजीवाद की विजय हुई। इसके विपरीत चीन अथवा प्राचीन मिस्र में आर्थिक विकास की प्रक्रिया के फलस्वरूप वहां उत्पादन की प्राचीन प्रणालो का उदय नहीं हो सका। पहले उदाहरण में हमारा संबंध विकास की दो अवस्थाओं से है जिनमें दूसरी अवस्था पहली के बाद आती है और उसका जन्म पहली अवस्था से होता है। दूसरे उदाहरण में हमारा संबंध आर्थिक विकास की साथ-साथ चलने वाली दो प्रणालियों से है। प्राचीन समाज जातीय सामाजिक संगठन के बाद आया और यह जातीय संगठन प्राच्य सामाजिक प्रणाली का भी पूर्वगामी था। इन दोनों ही प्रकार के आर्थिक संगठनों का प्रादुर्भाव उत्पादन की शक्तियों के विकास के फलस्वरूप हुआ। यह विकास जातीय व्यवस्था पर आधारित सामाजिक संगठन के अंतर्गत हुआ और इसके कारण अंत में यह जातीय संगठन भंग हो गया। ये दोनों उत्पादन प्रणालियां एक दूसरे से अत्यंत भिन्न थीं जिसके कारण उनके मुख्य विशिष्ट लक्षणों का विकास भौगोलिक परिस्थितियों से प्रभावित हुआ। भौगोलिक परिस्थितियों के प्रभाव के कारण जब उत्पादन की शक्तियों का एक निश्चित सीमा तक विकास हो गया तो एक विशेष प्रकार के उत्पादन संबंध पैदा हो गए। ये संबंध दोनों प्रणालियों में अलग-अलग थे क्योंकि भौगोलिक परिस्थितियों में अंतर था।

यह स्पष्ट है कि जातीय समाज के अनुसंधान की समाजशास्त्र में वही महत्वपूर्ण भूमिका होगी जो जीवशास्त्र में सेल के अनुसंधान ने अदा की है। चूंकि मार्क्स और एंगेल्स को जातीय संगठन के संबंध में पूर्ण ज्ञान नहीं था इसलिए कुछ हद तक समाज विकास के उनके सिद्धांत में त्रुटियों का होना अवश्यंभावी है। बाद में उन्होंने इसे स्वीकार भी किया।

किंतु जातीय सामाजिक संगठन का अन्वेषण, जिसके कारण सर्वप्रथम समाज विकास के निम्न स्तरों को समझना संभव हो सका, इतिहास के भौतिकवादी दृष्टिकोण के पक्ष में उनके खिलाफ नहीं-केवल एक और अतिरिक्त तथा दृढ तर्क था। इस खोज के फलस्वरूप सामाजिक संगठन के विकास तथा उस सामाजिक संगठन द्वारा निर्धारित होने वाले सामाजिक विचार को नजदीक से देखने और समझने का अवसर प्राप्त हुआ। इस प्रकार इस खोज इस सत्य पर जोर दिया कि सामाजिक चेतना (विचार) सामाजिक अस्तित्व (जीवन) निर्धारित होती है।

मैं केवल सरसरी तौर से इस विषय का उल्लेख कर रहा हूं। जिस मुख्य बात से हमारा संबंध है वह यह है कि मार्क्स ने बतलाया कि संपत्ति संबंधी रिश्ते जब उत्पादन की शक्तियां पर्याप्त रूप से विकसित हो जाती हैं तो जिस प्रकार कुछ समय तक इन शक्तियों की वृद्धि में सहायक होते हैं तथा बाद में उनके विकास में बाधा डालने लगते हैं।* यह इस बात की याद दिलाता है कि यद्यपि उत्पादन की शक्तियों की एक निश्चित स्थिति उत्पादन के संबंधों तथा खास तौर से सांपत्तिक संबंधों को जन्म देती है, किंतु जब ये संबंध पूर्वोल्लिखित कारण के फलस्वरूप उत्पन्न हो जाते हैं तो वे स्वयं इस कारण को प्रभावित करने लगते हैं। इस प्रकार उत्पादक शक्तियों तथा आर्थिक प्रणाली के बीच क्रिया तथा प्रतिक्रिया का जन्म होता है। दूसरी ओर आर्थिक आधार पर सामाजिक संबंधों तथा भावनाओं एवं अवधारणाओं का एक संपूर्ण ऊपरी ढांचा उठ खड़ा होता है। यह ऊपरी ढांचा आरंभ में आर्थिक विकास में सहायक होता है किंतु समय बीतने के साथ ही विकास में बाधक होने लगता है। ऊपरी ढांचे और आधार के बीच क्रिया प्रतिक्रिया का जन्म होता है जिससे उन सब घटनाओं को समझने में मदद मिलती है जो पहली नजर में ऐतिहासिक भौतिकवाद के मूलभूत सिद्धांत का प्रतिवाद करते हुए मालूम पड़ते हैं।

अब तक मार्क्स के ‘आलोचकों’ ने जो कुछ कहा है वह मार्क्सवाद के तथाकथित एकांगीपन से संबंधित है। उनके अनुसार मार्क्स ने आर्थिक तत्व को छोड़कर समाज विकास के अन्य सब ‘तत्वों’ पर ध्यान नहीं दिया है। ये आलोचक मार्क्स और एंगेल्स द्वारा ‘आधार’ और ‘ऊपरी ढांचे’ की पारस्परिक क्रिया को दी गई महत्वपूर्ण भूमिका को नहीं समझ सके हैं। उदाहरण के लिए, यह समझने के वास्ते कि मार्क्स और एंगेल्स ने राजनीतिक तत्व के महत्व को कितना कम नज़रअंदाज़ किया है, कम्युनिस्ट घोषणापत्र के उन पृष्ठों को देखना ही पर्याप्त होगा जिनमें पूंजीपति वर्ग के मुक्ति आंदोलन की चर्चा की गई है। वहां हमें बतलाया गया है:

सामंती प्रभुओं के नीचे दबा हुआ वह एक पीड़ित वर्ग था। मध्ययुगीन यूरोप के स्वायत्त नगरों में उसके स्वशासित और सशस्त्र संघ थे, कहीं पर (जैसे इटली और जर्मनी

* उदाहरणार्थ दासप्रथा को लें. विकास की एक निश्चित अवस्था यह प्रथा उत्पादन की शक्तियों के विकास में सहायक होती है किंतु बाद में उनके विकास में बाधक होने लगती है. पश्चिमी सभ्य राष्ट्रों में दासप्रथा विलीन हो जाने का कारण उन राष्ट्रों का आर्थिक विकास है (प्राचीन काल की दासप्रथा के संबंध में प्रो. ई. सिकोटी का रोचक ग्रंथ || ramonto della schiavitu, तूरिन से 1899 ई. में प्रकाशित), जे. एच. स्पेक ने अपनी पुस्तक जर्नल आफ दि डिस्कवरी ऑफ दि सोर्सेज आफ दि नील 1563 ई. में कहा कि नीग्रो लोगों में दास यह सोचते हैं कि भाग जाने का अर्थ उस मालिक के प्रति अभद्रतापूर्ण व्यवहार करना है जिसने उनके लिए रुपए अदा किए हैं. यह भी बतला देना चाहिए कि यही दास अपनी स्थिति को वेतन प्राप्त करने वालों की अपेक्षा अधिक सम्मानपूर्ण समझते हैं. इस प्रकार का दृष्टिकोण समाज विकास को उस अवस्था के अनुकूल है जिसमें दासप्रथा अभी भी प्रगतिशील तत्व समझी जाती है.

में) उसके स्वतंत्र शहरी प्रजातंत्र थे तो कहीं पर (जैसे फ्रांस में) उसका दर्जा राजतंत्र के अधीन टैक्स (कर) देने वाले ‘तीसरे वर्ग’ का था। बाद में जब कारखानों बोलबाला हुआ तो सामंती सरदारों के विरोधी के रूप में अर्द्ध-सामंती राजतंत्र अथवा का निरंकुश राजतंत्र की शक्तियों के सहायक का उसने काम किया और आम तौर पर बड़े राजतंत्रों का तो वह आधारस्तंभ था। लेकिन आधुनिक उद्योगधंधों और विश्व बाजार की स्थापना के बाद तो पूंजीपति वर्ग ने आज की राजसत्ता में संपूर्ण राजनीतिक अधिकार अपने हाथ में ले लिया है। आधुनिक राजसत्ता की कार्यकारिणी, संपूर्ण पूंजीपति वर्ग के आम कारोबार को चलाने की एक प्रबंध समिति के अलावा और कुछ नहीं है।73

यहां राजनीतिक ‘तत्व’ के महत्व को इतने साफ तौर पर रखा गया है कि कुछ आलोचकों का मत है कि इस पहलू पर ज़ोर अनावश्यक तौर से अधिक हो गया है किंतु इस ‘तत्व’ के प्रभाव और जोर तथा किस प्रकार से यह पूंजीवादी समाज के विकास के किसी निश्चित युग में अपना प्रभाव डालता है, घोषणापत्र में इन सब बातों की व्याख्या आर्थिक विकास के आधार पर की गई है—और इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि विभिन्न प्रकार के ‘तत्व’ बुनियादी उद्देश्य की एकता को किसी भी प्रकार भंग नहीं करते।

निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि राजनीतिक संबंध आर्थिक विकास को प्रभावित करते हैं किंतु यह बात भी कम निर्विवाद नहीं है कि इस विकास पर प्रभाव डालने के पूर्व वे उसी के द्वारा उत्पन्न होते हैं।

यही बात एक सामाजिक प्राणी के रूप में मनुष्य की मनःस्थिति के बारे में कही जा सकती है जिन्हें स्टैमलर ने, कुछ एकांगी ढंग से, सामाजिक अवधारणाओं का नाम दिया है। घोषणापत्र विश्वसनीय सबूतों के आधार पर यह सिद्ध कर देता है कि उसके लेखक वैचारिक तत्व के महत्व से भली भांति परिचित थे। किंतु इसी घोषणपत्र में यह बतलाया गया है कि यद्यपि वैचारिक तत्व की समाज विकास में महत्वपूर्ण भूमिका है लेकिन यह तत्व स्वयं पहले इसी विकास के फलस्वरूप उत्पन्न होता है;

प्राचीन दुनिया जिस समय अपनी अंतिम सांसें गिन रही थी, उस समय प्राचीन धर्मो को ईसाई धर्म ने पराजित कर दिया था। अठाहरवीं शताब्दी में जब बुद्धिवादी विचारों के सामने ईसाई धर्म के विचार धराशायी हो गए, तो उस समय के क्रांतिकारी पूंजीपति वर्ग के खिलाफ लड़ाई में, सामंती समाज अपनी जिंदगी की बाजी हार चुका था।74

इस संबंध में घोषणापत्र का अंतिम अध्याय और भी यक़ीन (विश्वास दिलाने वाला है। यहां पर घोषणापत्र के लेखक हमें बतलाते हैं कि मजदूरों के दिमाग में यह बात जमाने लिए कि पूंजीपति वर्ग तथा सर्वहारा के बीच आवश्यक रूप से विरोध है, कम्युनिस्ट स कुछ करते हैं। यह समझना आसान है कि जिनके लिए वैचारिक ‘तत्व’ का कोई महत्व नहीं है वे किसी भी सामाजिक समूह के सदस्यों के दिमाग में इस प्रकार की किसी बात को जमाने का कोई तर्कसंगत कारण नहीं पा सकते।

दस

मैंने मार्क्स और एंगेल्स के अन्य ग्रंथों को छोड़कर घोषणापत्र से उद्धरण देना पसंद किया है क्योंकि यह ग्रंथ उनके प्रारंभिक कार्यकाल में लिखा गया था जब उनके कतिपय आलोचकों के अनुसार समाज विकास के विभिन्न तत्वों के पारस्परिक संबंधों के बारे में उनका दृष्टिकोण विशेष रूप से ‘एकांगी’ था। हम स्पष्ट रूप से पाते हैं कि उस समय भी किसी भी तरह बाद के युग से कम नहीं) मार्क्स और एंगेल्स की विशेषता वस्तुओं के प्रति ‘एकांगी दृष्टिकोण अपनाने में नहीं थी बल्कि ऐक्यवाद की और निरंतर बढ़ने के प्रयास में झलकती थो वे यत्र तत्र से, बिना सोचे-समझे विचारों को इकट्ठा करने के तीव्र विरोधी थे किंतु यह प्रवृत्ति उनके ‘आलोचकों’ के कथनों में स्पष्ट झलकती है।

एंगेल्स द्वारा लिखे गए दो पत्रों का अकर (हवाला दिया जाता है। इनमें से एक 1890 और दूसरा 1894 ई. में लिखा गया था। ये पत्र समाजवादी अकादमिक में छपे थे। बर्नस्टीन ने इन पत्रों को मार्क्स के मित्र तथा सहयोगी के विचारों में परिवर्तन का प्रमाण समझकर बहुत शोर मचाया। उसने पत्रों से दो उद्धरण दिए जो इस संबंध में उसे बहुत महत्वपूर्ण प्रतीत हुए बर्नस्टीन जो कुछ सिद्ध करना चाहता था उसकी बिलकुल विपरीत बात को साबित करने के लिए मैं स्वयं उन उद्धरणों को दे रहा हूं।

पहला उद्धरण यों है ‘फलस्वरूप एक दूसरे पर क्रिया करने वाली असंख्य शक्तियां होती हैं— शक्तियों के समानांतर चतुर्भुजों का असंख्य समूह होता है जो ऐतिहासिक घटना के परिणाम को जन्म देता है फिर इसे एक ऐसी शक्ति का परिणाम समझा जा सकता है जो संपूर्ण रूप से अचेतन तथा इच्छारहित होकर काम करती है क्योंकि जो बात प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग चाहता है उसमें अन्य सबके द्वारा बाधा पड़ती है और परिणाम ऐसा होता है जिसकी किसी व्यक्ति विशेष ने कामना नहीं की थी।76 (1890 ई. का पत्र )

दूसरा उद्धरण है: ‘राजनीतिक, न्यायिक, दार्शनिक, धार्मिक, साहित्यिक, कलात्मक विकास आदि आर्थिक विकास पर आधारित हैं, किंतु इन सबकी, संयुक्त रूप से और पृथक रूप से, एक दूसरे पर तथा आर्थिक आधार पर अपनी प्रतिक्रिया होती है। ‘ (1894 ई. का पत्र) बर्नस्टीन के मतानुसार यह कथन राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना की उस प्रस्तावना से अत्यंत भिन्न प्रकार का है जिसमें हमें आर्थिक ‘आधार’ और उससे उत्पन्न “ऊपरी ढांचे’ के बीच की कड़ी के बारे में पढ़ने को मिलता है। इनमें अंतर कैसे है? संक्षेप में जो बात प्रस्तावना में कही गई है वही यहां दुहराई गई है कि राजनीतिक विकास और अन्य प्रकार के विकास आर्थिक विकास के ऊपर निर्भर होते हैं। लगता है कि निम्नलिखित वाक्य ने बर्नस्टीन को भ्रम में डाल दिया है, किंतु इन सबकी, संयुक्त रूप से और पृथक रूप से एक दूसरे पर तथा आर्थिक आधार पर अपनी प्रतिक्रिया होती है। जान पड़ता है कि स्वयं बर्नस्टीन ने आलोचनात्मक समीक्षा की प्रस्तावना को दूसरी तरह समझ रखा है। उसकी समझदारी के अनुसार ‘आर्थिक आधार पर खड़ा होने वाले सामाजिक और वैचारिक’ ऊपरी ढांचे’ का ‘आधार’ पर कोई असर नहीं पड़ता। हम अच्छी तरह जानते हैं कि मास के विचारों की इससे अधिक गलत व्याख्या नहीं हो सकती। जिन लोगों ने बर्नस्टीन के’ आलोचनात्मक’ प्रयासों को देखा है वे यह जानकर जरूर आश्चर्यचकित होंगे कि किस प्रकार उस व्यक्ति ने जिसने किसी ज़माने में मार्क्सवादी विचारों को जनप्रिय बनाने का काम उठाया था मार्क्सवादी सिद्धांतों को स्वयं समझने का कष्ट नहीं किया। अगर इस बात को और अधिक सही ढंग से कहें तो वह उन्हें समझने में अक्षम रहा।

बर्नस्टीन द्वारा उद्धृत दूसरे पत्र में ऐसे अनेक अंश हैं जो शायद मेरे द्वारा उद्धृत अंशों की अपेक्षा, मार्क्स और एंगेल्स के ऐतिहासिक सिद्धांत के आकस्मिक महत्व को समझने में ज्यादा सहायक हैं। हालांकि बर्नस्टीन ने स्वयं उन्हें बहुत ही कम समझा है। इनमें से एक अंश यों है :

अतएव आर्थिक स्थिति का स्वयं ही कोई परिणाम नहीं निकलता, जैसा कि कुछ लोग सुविधापूर्वक कल्पना कर लेते हैं । मनुष्य स्वयं अपने इतिहास का निर्माण करते हैं, किंतु एक विशेष वातावरण में ही जिसमें कि वे रहते हैं और उस समय स्थापित संबंधों के आधार पर। इनमें आर्थिक संबंध, उनके ऊपर अन्य राजनीतिक तथा वैचारिक संबंध का चाहे कितना ही बड़ा प्रभाव क्यों न पड़ता हो, वे संबंध हैं जिनका प्रभाव अंततोगत्वा निर्णायक होता है। वे ऐसे मूल तत्व हैं जो अन्य सब संबंधों में अवश्य वर्तमान रहते हैं और हमें उनकी समझदारी प्रदान करते हैं।78

जैसा कि हम जानते हैं बर्नस्टीन जब कट्टरपंथी था, उस समय से ही उसकी गणना उन लोगों में होती थी जो मार्क्स और एंगेल्स के ऐतिहासिक सिद्धांत की व्याख्या करते हुए यह बतलाते हैं कि आर्थिक स्थिति स्वयं ही ऐतिहासिक प्रक्रिया पर अपना प्रभाव डालती है। इन्हीं लोगों में हमें मार्क्स के उन बहुत से आधुनिक आलोचकों को भी गिनना चाहिए जो ‘मार्क्सवाद से पीछे हटकर विचारवाद की ओर चले गए।’ ये महान विचारक उस समय फूले नहीं समाते जब ये मार्क्स और एंगेल्स के ‘एकांगी ‘सिद्धांत के विरोध में बतलाते हैं कि इतिहास का निर्माण मनुष्यों द्वारा होता है न कि एक स्वचालित आर्थिक विकास द्वारा। इस प्रकार वे मार्क्स • समक्ष उन्हीं के सिद्धांतों की बलि चढ़ा देते हैं और उन्हें कभी यह भी संदेह नहीं होता (क्य वे बड़े सरल हृदय हैं!) कि जिस मार्क्स की वे आलोचना कर रहे हैं वह मार्क्स के नाम को छोड़कर अन्य किसी भी बात में समानता नहीं रखता। जिस मार्क्स के वे आलोचना कर रहे हैं वह उनकी अपनी अज्ञानता की सृष्टि है: उस अज्ञानता की सृष्टि जो वास्तव में ‘बहमुखी’ है। यह स्वाभाविक है कि इस प्रकार के आलोचक ऐतिहासिक • भौतिकवाद में अणुमात्र सुधार अथवा पूर्ति करने की योग्यता भी नहीं रखते। इसलिए अब मैं इनके बारे में ज़्यादा जिक्र नहीं करूंगा और सिद्धांत के संस्थापकों’ की चर्चा करने लिए आगे बढूंगा।

इस बात पर ध्यान देना अत्यंत आवश्यक है कि अपनी मृत्यु के कुछ समय पहले एंगेल् ने अर्थव्यवस्था के ऐतिहासिक परिचालन की ‘स्वयंचालित’ समझदारी की बात को गला बतलाया तो उस समय वे उसी बात को दुहरा रहे थे (लगभग उन्हीं शब्दों में) जो माक् ने एक अर्द्धशताब्दी पूर्व फ़ायरबाख पर अपने तृतीय आलेख के उस अंश में लिखी थी जिस मैं ऊपर उद्धृत कर चुका हूं। उसमें मार्क्स ने पहले के भौतिकवादियों के संबंध में शिकायत की थी कि वे इस बात को भूल गए कि ‘यदि एक ओर मनुष्य परिस्थितियों की उपज है… यह भी सही है कि सिर्फ़ मनुष्य ही परिस्थतियों को बदल भी सकते हैं। अतएव मार्क्स की दृष्टि में इतिहास के क्षेत्र में भौतिकवाद का कार्य ठीक तरह से यह समझना था कि परिस्थितियां किस प्रकार उन मनुष्यों द्वारा बदली जा सकती हैं जो स्वयं उन्हीं परिस्थितियों की उपज होते हैं। इस समस्या का हल उत्पादन के संबंधों के संदर्भ में किया गया। उत्पादन के संबंध मनुष्यों की इच्छा से स्वतंत्र स्थितियों के प्रभाव के अंतर्गत उत्पन्न होते हैं। उत्पादन के संबंध के संबंध हैं जो उत्पादन की सामाजिक प्रक्रिया में मनुष्यों के बीच स्थापित होते हैं। उत्पादन के संबंधों में परिवर्तन होने का मतलब है उत्पादन की प्रक्रिया में लगे मनुष्यों के बीच के संबंध में परिवर्तित हो गए हैं। इन संबंधों में कोई परिवर्तन ‘अपने आप’ अर्थात मानवीय क्रियाओं से स्वतंत्र नहीं हो सकता क्योंकि ये उन संबंधों में से हैं जो मनुष्यों के बीच उनके क्रियाकलाप के दौरान पैदा होते हैं।

किंतु इन संबंधों में परिवर्तन हो सकते हैं और होते भी हैं; प्रायः उससे अत्यंत भिन्न दिशा में जिसमें लोग उन्हें परिवर्तित करना चाहते हैं। ‘आर्थिक ढांचे’ का स्वरूप तथा उसके परिवर्तन की दिशा मानवीय इच्छा पर निर्भर नहीं होती वरन उत्पादन की शक्तियों की स्थितियों पर तथा उत्पादन के संबंधों के स्वरूप में होने वाले विशिष्ट परिवर्तनों (जो उन शक्तियों के विकसित होने के कारण होते हैं और समाज के लिए आवश्यक हो जाते हैं) पर निर्भर होती है। एंगेल्स इसकी व्याख्या इन शब्दों में करते हैं:

मनुष्य अपने इतिहास का निर्माण करते हैं किंतु अभी तक बिलकुल अलग-अलग रहने वाले समाजों में भी उन्होंने किसी सामान्य इच्छा के फलस्वरूप अथवा किसी सामूहिक योजना के अनुरूप ऐसा नहीं किया है। उनकी आकांक्षाओं में परस्पर संघर्ष होते हैं और इसीलिए ऐसे सब समाजों का निर्देशन आवश्यकता द्वारा होता है – यह वह आवश्यकता है जिसके लिए संयोग उस परिपूरक तथा स्वरूप का काम करता है जिसके अंतर्गत यह आवश्यकता प्रकट होती है।79

यहां मनुष्य का क्रियाकलाप एक स्वतंत्र कार्य की भांति नहीं बल्कि एक आवश्यक कार्य की भांति सामने आता है अर्थात ऐसे कार्य के रूप में जो नियमानुकूल है तथा जिसका वैज्ञानिक रूप से अध्ययन किया जा सकता है। इस प्रकार ऐतिहासिक भौतिकवाद निरंतर यह बतलाते हुए कि परिस्थितियों में परिवर्तन मनुष्यों द्वारा होता है हमें पहली बार इस परिवर्तन की प्रक्रिया को एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने का सामर्थ्य प्रदान करता है। इसीलिए हमें यह कहने का पूरा अधिकार है कि मानवसमाज से संबंधित हर सिद्धांत के लिए, जो विज्ञान होने का दावा कर सकता है, इतिहास का भौतिकवादी दृष्टिकोण आवश्यक प्रस्तावना’ प्रदान करता है।80

यह बात इतनी सही है कि अभी सामाजिक जीवन के किसी भी पहलू का कोई अध्ययन उसी हद तक वैज्ञानिक महत्व का हो सकता है जिस हद तक वह सामाजिक जीवन को भौतिकवादी व्याख्या के निकट होगा। सामाजिक शास्त्रों में ‘विचारवाद के पुनर्जीवित होने (जिसका बड़े जोरशोर से प्रचार किया गया है) के बावजूद जहां भी शोधकर्ता विचारों के महल बनाने तथा ‘ विचार’ के संबंध में लच्छेदार बातें करने के स्थान पर घटनाओं के पीछे हेत्वात्मक संबंधों को खोजने का प्रयास कर रहे हैं वहां भौतिकवादी व्याख्याएं अधिकाधिक प्रचलित होती जा रही हैं। आज के ज़माने में ऐसे लोग पाए जाते हैं जो इतिहास के संबंध में भौतिकवादी दृष्टिकोण को नहीं मानते, न उसके बारे में उनको कोई ज्ञान ही है, मगर अपने ऐतिहासिक शोधकार्यों द्वारा वे भी अपने को भौतिकवादी सिद्ध कर रहे हैं। इस दृष्टिकोण के प्रति अपनी अज्ञानता तथा उसके ख़िलाफ़ चिढ़ के कारण ही वे उसके ब पहलुओं को समझने में असमर्थ रहते हैं और उनके विचारों में एकांगीपन तथा संकीर्णता पैदा हो जाती है।

ग्यारह

एक सुंदर उदाहरण प्रस्तुत है। 10 वर्ष पूर्व सुविख्यात फ्रेंच विद्वान अल्फ्रेड एस्पिना (जो वर्तमान समाजवादियों के जबर्दस्त विरोधी हैं) ने प्रौद्योगिकी का उद्गम नामक एक दिलचस्प (कम से कम नाम जरूर रोचक है) ‘समाजशास्त्रीय अध्ययन’ प्रकाशित किया। इस पुस्तक में लेखक इस विशुद्ध भौतिकवादी सिद्धांत से, कि मानव जाति के इतिहास में सिद्धांत के पूर्व व्यवहार आता है, शुरू करते हुए विचारधारा के विकास पर प्रौद्योगिकी (प्रविधि) के प्रभाव का अध्ययन करता है या संक्षेप में कहें तो प्राचीन यूनान में धर्म और दर्शन के विकास पर प्रौद्योगिकी (प्रविधि) के प्रभाव के बारे में विचार करता है। वह इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि विकास के हर काल में प्राचीन यूनानियों के विश्वदर्शन का निर्धारण उत्पादन की शक्तियों की स्थिति के द्वारा हुआ। निस्संदेह यह एक अत्यंत दिलचस्प त महत्वपूर्ण निष्कर्ष है, किंतु जो लोग ऐतिहासिक घटनाओं को समझने के लिए भौतिकवाद का व्यवहार करने में अभ्यस्त हो गए हैं उन लोगों को एस्पिना की पुस्तक में प्रकट किए गए विचार एकांगी मालूम पड़ेंगे। यह ग्रंथ एकांगी केवल इसलिए है कि इस फ्रेंच विद्वान ने विचारधारा के विकास से संबद्ध अन्य तत्वों, उदाहरणार्थ वर्ग संघर्ष की ओर ध्यान नहीं दिया है, हालांकि यह ‘तत्व’ (वर्ग संघर्ष) वास्तव में अत्यधिक महत्वपूर्ण है।

आदिम समाज में जहां वर्ग-विभेद नहीं होता, मनुष्य के उत्पादक क्रियाकलाप उसके विश्वदर्शन और अभिरुचियों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। सजावटी डिज़ायन को प्रौद्योगिकी से विषयवस्तु प्राप्त होती है और नृत्य, जो शायद ऐसे समाज में सबसे महत्वपूर्ण कलाओं में से है- प्रायः उत्पादन की प्रक्रिया की ही नक़ल करता है। यह बात उन शिकारी जातियों में विशेषकर दृष्टिगोचर होती है, जो आर्थिक विकास की निम्न अवस्था में हैं।* इसीलिए मैंने यह विचार करते समय कि मनुष्य की मनोवृत्ति किस प्रकार उसके आर्थिक कार्यों पर निर्भर होती है, अपने पाठकों का ध्यान मुख्यतः इन्हीं जातियों की ओर आकर्षित किया था। किंतु वर्गों में विभक्त समाज में उन क्रियाओं का प्रत्यक्ष प्रभाव कम हो जाता है। यह समझ में आने वाली बात है। उदाहरण के लिए आस्ट्रेलिया की आदिवासी औरतों के एक नृत्य में कंदमूल जमा करने के कार्य को दिखलाया गया है क्योंकि यह कहने की आवश्यकता नहीं कि अठारहवीं शताब्दी के फ्रांस की सुंदर महिलाओं का नृत्य उनके उत्पादक कार्यों की नक़ल नहीं हो सकता था क्योंकि वे इस प्रकार का कोई काम नहीं करती थीं और ‘कोमल भावनाओं वाले विज्ञान’ की ओर ध्यान देना अधिक पसंद करती थीं। यदि हम आस्ट्रेलिया के मूल निवासियों के किसी नृत्य को समझना चाहते हैं तो हमारे लिए यह जानना काफ़ी होगा कि उनकी स्त्रियों का जंगली पौधों की जड़ों को इकट्ठा करने में क्या हिस्सा रहता है। किंतु अठाहरवीं शताब्दी के फ्रांस की अर्थव्यवस्था के आधार पर मिन्युवेट (Minuet) नृत्य को नहीं समझा जा सकता। यह एक ऐसा नृत्य है जो अनुत्पादक वर्ग की मनोदशा को अभिव्यक्त करता है। तथाकथित अच्छी समाज’प्रथाएं और परंपराएं’ इसी प्रकार की मनोदशा पर निर्भर करती हैं। फलस्वरूप आर्थिक तत्व का महत्व मनोवैज्ञानिक तत्व के बाद ही होता है। फिर भी, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी समाज में अनुत्पादक वर्गों का प्रकट होना स्वयं उस समाज के आर्थिक विकास का परिणाम है। इसका अर्थ है कि आर्थिक तत्व की प्रधानता उस समय भी रहती है जब उसकी क्रियाशीलता अन्य तत्वों के सामने फीकी पड़ जाती है। वास्तव में ऐसे समय ही उसका विशेष महत्व हो जाता है क्योंकि ऐसे समय में वह अन्य तत्वों के प्रभाव की संभावनाएं और सीमाएं निर्धारित करता है।**

* शिकारी जातियों को उत्पत्ति के पूर्व उनके लोग जातियों के विकास की उस अवस्था से गुजर चुके थे जिसमें ये जातियां फल-मूल खाकर निर्वाह करती थीं (जैसा कि जर्मन समाजशास्त्रियों ने सैमल कर के नाम से उन्हें पुकारा है) किंतु वर्तमान समय के सभी जंगली लोग विकास की इस अत्यंत प्रारंभिक अवस्था से आगे जा चुके हैं.

(1910 के जर्मन संस्करण को टिप्पणी) परिवार उत्पत्ति संबंधी अपनी पुस्तक में एंगेल्स ने कहा है ि विशुद्ध शिकारी जातियां सिर्फ विद्वानों की कल्पना की उपज है. शिकारी जातियां साथ ही फल-मूल भी ‘फरती’ है, हमने देखा है कि आखेट का इन जातियों के विचारों और अभिरूधियों के विकास पर गहरा असर पड़ता है.

** यहां किसी अन्य क्षेत्र से लेकर एक उदाहरण दिया जा रहा है. एक पुस्तक आबादी का कारक और विकास पेरिस 1901) निसन्देह समाज विकास पर काफी→

इसका अंत यहीं नहीं होता है। उच्च वर्ग, उस समय भी जबकि वह शासक वर्ग के रूप में उत्पादन की प्रक्रिया में भाग लेता है, निम्न वर्ग को प्रत्यक्षतः तिरस्कार की दृष्टि से देखता है। दोनों वर्गों की विचारधाराओं में यह बात स्पष्ट रूप से प्रकट होती है।

मध्यकालीन फ्रेंच काव्यमय कथानक और विशेषतः फ्रांसीसी बहादुरी के बारे में गीत उस समय के किसानों का चित्रण अत्यंत अनाकर्षक रूप में करते हैं। अगर हम उन पर विश्वास करें तो मानना पड़ेगा कि :

बदमाश (भूदास और किसान) बड़े कुरूप होते हैं, इनसे अधिक कुरूप इनसान आपको नहीं मिलेंगे,

उनमें से हर किसी का कद पंद्रह फीट ऊंचा,

कुछ तो बिलकुल राक्षसों की तरह,

लेकिन अत्यधिक कुरूप और आगे पीछे कुबड़े।*

निःसंदेह ही किसान लोग अपने को दूसरे ही दृष्टिकोण से देखते थे। सामंतवादी कुलीन के घमंड से क्रुद्ध होकर वे गाते थे :

हम इंसान हैं, ठीक वैसे ही जैसे वे हैं,

और कष्ट उठा सकते हैं ठीक उन्हीं के समान।**

और वे पूछते थे: जब आदम खेत जोतते थे और हौआ सूत कातती थी, तो उस समय भद्रपुरुष कौन था ?”

संक्षेप में, इन दोनों वर्गों में से प्रत्येक अपने दृष्टिकोण से वस्तुओं को देखता था और यह दृष्टिकोण समाज में उस वर्ग की स्थिति द्वारा निर्धारित होता था। वर्ग संघर्ष की छाप संघर्षरत वर्गों की मनःस्थिति पर पड़ती थी। कहना न होगा कि यह स्थिति सिर्फ मध्य युगों और फ्रांस में ही नहीं थी। किसी देश में किसी समय वर्ग संघर्ष ने जब भयानक रूप ले लिया,

→ प्रभाव पड़ता है, किंतु मार्क्स का यह कथन बिलकुल ठीक है कि जनसंख्या के अमूर्त नियम केवल निम्नतर पशुओं और पौधों पर लागू होते हैं। मानव समाज में जनसंख्या की वृद्धि अथवा कमी समाज के संगठन पर निर्भर रहती है, समाज का संगठन स्वयं समाज के आर्थिक ढांचे द्वारा निर्धारित होता है. जनसंख्या संबंधी कोई भी अमूर्त नियम यह नहीं बतला सकेगा कि आधुनिक फ्रांस की जनसंख्या नाममात्र को क्यों बढ़ती है, जनसंख्या की वृद्धि को सामाजिक विकास का प्रमुख कारण समझने वाले समाजशास्त्री एवं अर्थशास्त्री बड़ी भारी भूल करते हैं. (देखिए ए. लोरिया लिखित La legge di popolazione ed if sistema sociale, सिदेना, 1882 ई.)

* बदमाश (भूदास तथा कृषक) बड़े कुरूप होते हैं, इनसे अधिक कुरूप मनुष्य आप नहीं पा सकते, पंद्रह फीट ऊंचा, उनमें से प्रत्येक, कुछ ठोक दैत्यों की भांति, किंतु अत्यधिक कुरूप और आगे पीछे दोनों ओर कुबड़ा. तुलनीय ग्रामीण वर्ग और फ्रांस के डोमेनियल क्षेत्र में औसत उम्र हेनरी सी लिखित पेरिस, 1901 ई. पू. 55 तथा एफ. मेयर लिखित Die Stande ihr Leben und Treiben मारवर्ग 1882 ई. पू. 8),

** हम मनुष्य हैं, ठीक जैसे ये हैं: और कष्ट उठाने योग्य, ठीक उनके समान.

तब संघर्षरत वर्गों की मनःस्थिति पर भी काफी प्रभाव पड़ा। जो कोई वर्गों में विभक्त समाज के सिद्धांतों का अध्ययन करना चाहता है उसे इस प्रभाव की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए अन्यथा वह कुछ भी नहीं समझ सकेगा। यदि आप अठारहवीं शताब्दी के अंत की फ्रेंच चित्र कला की डेविड शैली की सीधे तौर पर आर्थिक व्याख्या करने का प्रयास करेंगे तो निश्चय ही बकवास करेंगे। किंतु इसके विपरीत यदि आप इस शैली को उस वर्ग संघर्ष का सैद्धांतिक प्रतिबिंब समझें जो उस समय फ्रेंच समाज में महान क्रांति के पूर्व चल रहा था, तो यह प्रश्न बिलकुल एक नया रूप ले लेगा और तब डेविड शैली की चित्रकला की कतिपय विशिष्ट यातें जिनका सामाजिक अर्थव्यवस्था से कोई संबंध प्रतीत नहीं होता, पूरे तौर पर समझ में आ जाएंगी।

प्राचीन यूनान की विचारधाराओं के संबंध में भी यही बात कही जा सकती है, वहां वर्ग संघर्ष का प्रभाव काफ़ी गहरा प्रतीत होता है। इस प्रभाव को एस्पिना के दिलचस्प अध्ययन में अपर्याप्त रूप से दिखाया गया है। फलस्वरूप उसके महत्वपूर्ण निष्कर्ष भी एक विशेष आग्रह से ग्रसित हैं। अन्य भी अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं और उन सबसे मालूम होगा कि मार्क्सवादी भौतिकवाद का प्रभाव अनेक शोधकर्ताओं के लिए अत्यंत लाभप्रद सिद्ध होगा क्योंकि इससे उन्हें प्राविधिक तथा आर्थिक तत्वों के अलावा दूसरे तत्वों पर भी ध्यान देने की शिक्षा मिलती है। यह कथन विडंबडनापूर्ण लगता है किंतु इसमें अकाट्य सत्य निहित है। इससे हमें आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए। अगर मार्क्स ने समाज के विकास या परिवर्तनों को समाज के आर्थिक विकास का परिणाम बतलाया है तो उनका संबंध अंतिम परिणाम से है क्योंकि वे मानते हैं कि बीच में कई अन्य तत्व भी क्रियाशील रहते हैं।

बारह

आधुनिक विज्ञान ने एक नवीन प्रवृत्ति को सामने लाना शुरू कर दिया है। यह प्रवृत्ति उस प्रवृत्ति के बिलकुल विपरीत है जिस पर हमने अभी विचार किया है और जो एस्पिना के अध्ययन से स्पष्ट है। यह नवीन प्रवृत्ति विचारों के इतिहास की व्याख्या करते हुए उसे केवल वर्ग संघर्ष का परिणाम बतलाती है। यह बिलकुल नई प्रवृत्ति, जो अब तक बहुत विख्यात नहीं है, मार्क्सवादी ऐतिहासिक भौतिकवाद के प्रत्यक्ष प्रभाव के परिणामस्वरूप विकसित हुई है। इसे हम यूनानी लेखक ए. ईलियथरोपोलोस की रचनाओं में पाते हैं जिसका मुख्य ग्रंथ अर्थशास्त्र और दर्शन, सामाजिक हालात के आधार पर जीवन की व्याख्या और दर्शन (मूल जर्मन में) बर्लिन से 1900 ई. में प्रकाशित हुआ था। इलियथरोपोलोस के अनुसार प्रत्येक युग का दर्शन विश्व तथा जीवन के प्रति अपना निश्चित दृष्टिकोण व्यक्त करता है। यह कोई नया सिद्धांत नहीं है। हीगेल पहले ही बतला चुके थे कि दर्शन की प्रत्येक पद्धति अपने युग को सैद्धांतिक अभिव्यक्ति के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। किंतु होंगेल की दृष्टि में विभिन्न युगों की विशेषताएं और फलस्वरूप दर्शन के विकास के तदनुकूल स्वरूप ‘पूर्ण विचार’ के विकास द्वारा निर्धारित होते हैं। इसके विपरीत ईलियथरोपोलोस के मतानुसार प्रत्येक युग का स्वरूप मुख्यतः उसकी आर्थिक स्थिति द्वारा निश्चित होता है। किसी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था द्वारा ही ‘जीवन और विश्व के प्रति दृष्टिकोण’ का निर्धारण होता है जो अन्य चीजों के अतिरिक्त उसके दर्शन में अभिव्यक्त होता है। समाज के आर्थिक आधार में परिवर्तन होने पर विचारधारा का ऊपरी ढांचा भी बदलता है। चूंकि आर्थिक विकास के कारण समाज वर्गों में बंट जाता है और इन वर्गों में पारस्परिक संघर्ष होता है इसलिए उस युग के ‘जीवन और विश्व के प्रति दृष्टिकोण’ में एकरूपता नहीं होती। यह दृष्टिकोण अलग अलग वर्गों के लिए अलग-अलग होगा। वर्गों की स्थिति में आवश्यकताओं और आकांक्षाओं और वर्ग संघर्ष के उतार-चढ़ाव के अनुसार परिवर्तन होना आवश्यक है।

इसी दृष्टिकोण से ईलियथरोपोलोस के दर्शन के संपूर्ण इतिहास को देखना है। यह स्पष्ट है कि हमें इस विचार के ऊपर गंभीरता से विचार करना चाहिए और इसे मान्यता देनी चाहिए। काफी समय से दार्शनिक साहित्य में आम प्रणाली को छोड़ने की प्रवृत्ति प्रकट हो रही है। इस प्रणाली के अनुसार दर्शन के इतिहास को दार्शनिक प्रणालियों के साधारण योग के सिवा और कुछ नहीं समझा जाता है। दर्शन के इतिहास के अध्ययन की प्रणालियों के संबंध में 19वीं शताब्दी के आठवें दशक के उत्तरार्द्ध में एक पैफलेट प्रकाशित कर प्रसिद्ध फ्रेंच लेखक पिकावे ने बतलाया कि इस तरह के योग का सिद्धांत अपने आप किसी चीज़ की व्याख्या नहीं कर सकता। ईलियथरोपोलोस की पुस्तक के प्रकाशन का स्वागत दर्शन के इतिहास में एक निश्चित प्रगति तथा अर्थशास्त्र से दूर एक विचारधारा पर ऐतिहासिक भौतिकवाद के लागू करने में सफलता के रूप में किया गया। दुर्भाग्यवश इतना होने पर भी इलियथरोपोलोस ने इस भौतिकवाद के द्वंद्वात्मक तरीके का कुशलता के साथ व्यवहार नहीं किया। उसने प्रस्तुत समस्याओं को अवांछनीय रूप से सरल रूप में लिया और इसीलिए वह अत्यधिक एकांगी और असंतोषप्रद निष्कर्षों पर पहुंचा है। उदाहरणार्थ ईलियथरोपोलोस द्वारा जेनोफ़ेन्स के मूल्यांकन को देखें। ईलियथरोपोलोस के अनुसार जेनोफ़ेन्स ने दर्शन में प्राचीन यूनान के सर्वहारा वर्ग की अकांक्षाओं को अभिव्यक्त किया। वह अपने समय का रूसो था। वह सब नागरिकों की समता और एकता के लिए समाजसुधार चाहता था। जीव को एकता का सिद्धांत उसकी सुधार योजनाओं का आधार मात्र था। जेनोफ़ेन्स की सुधार संबंधी रूसो आकांक्षाओं का यह सैद्धांतिक आधार था जिससे उसके दर्शन का पूर्ण विकास हुआ। उसके दर्शन का प्रारंभ ईश्वर के विषय में उसके विचार से हुआ और उसका अंत उसके इस सिद्धांत से हुआ कि हमारी इंद्रियां हमें वाह्य संसार के क्रांतिमूलक चित्र के अलावा और कुछ भी प्रदान नहीं करतीं।

* दर्शन का इतिहास यह क्या है और क्या कर सकता है (मूल फ्रांसीसी में), 1888

** अर्थशास्त्र और दर्शन 1, 98.

*** वही, पृ. 99.

*** वही, पृ. 99- 101,

इलियथरोपोलोस के अनुसार विस्मृति के गर्भ में विलीन हेराक्लिट्स का दर्शन यूनानी सर्वहारा वर्ग को क्रांतिकारी भावनाओं के विरुद्ध अभिजात वर्ग को प्रतिक्रिया के रूप में आया। उस दर्शन के अनुसार व्यापक समानता असंभव है, क्योंकि प्रकृति ने ही मनुष्यों को असमान बनाया है। हर व्यक्ति को अपने भाग्य से संतुष्ट रहना चाहिए। हमें राज्य के अंतर्गत स्थापित व्यवस्था को उलटने के लिए नहीं बल्कि मनमाने ढंग से राजसत्ता के प्रयोग को रोकने के लिए प्रयत्न करना चाहिए जो चंद लोगों या जनता दोनों के ही शासन में समान रूप से संभव है। राजसत्ता का प्रयोग क़ानून के अनुसार होना चाहिए जिसमें ईश्वरीय नियम की अभिव्यक्ति होती है। ईश्वरीय नियम एकता को असंभव नहीं मानता है, किंतु वह एकता, जो इस नियम के अनुकूल है, परस्पर विरोधी पदार्थों की एकता है। इसलिए जेनोफ़ेन्स की योजनाओं के कार्यान्वयन का अर्थ है- ईश्वरीय नियम की एकता का भंग होना। इस विचार को विकसित करने और सिद्ध करने के प्रयास में हेराक्लिट्स ने अस्तित्व धारण के द्वंद्वात्मक सिद्धांत का निर्माण किया।*

इलियथरोपोलोस का यही कहना है। स्थानाभाव के कारण मैं दर्शन के विकास को निर्धारित करने वाले कारणों का उसने जो विश्लेषण किया है, उसके और अधिक उदाहरण नहीं दे सकता। इसकी कोई आवश्यकता भी नहीं है। मुझे आशा है कि पाठक स्वयं महसूस करेंगे कि यह विश्लेषण असंतोषप्रद है। सामान्यतया, विचारधाराओं के विकास की प्रक्रिया, इंलियथरोपोलोस की कल्पना की अपेक्षा कहीं अधिक जटिल है। जब आप इतिहास पर वर्ग संघर्ष के प्रभाव के विषय में उसके अत्यंत सरलीकृत विचारों को पढ़ेंगे तो आप खेद के साथ सोचेंगे कि शायद उसे एस्पिना लिखित उपर्युक्त पुस्तक के बारे में कुछ मालूम ही नहीं है। एस्पिना के एकांगीपन से उसको अपने विश्लेषण के एकांगीपन को दूर करने में सहायता मिलती।

फिर भी ऐतिहासिक भौतिकवाद के दृष्टिकोण से दर्शन के इतिहास पर प्रकाश डालने का ईलियथरोपोलोस का असफल प्रयास इस कथन के पक्ष में एक नवीन तर्क पेश करता है (जो अनेक लोगों को आश्चर्यजनक प्रतीत होगा) कि मार्क्सवादी ऐतिहासिक भौतिकवाद का और अधिक गहरा ज्ञान अनेक समकालीन वैज्ञानिकों के लिए बहुत अधिक लाभदायक सिद्ध होगा और वे अपने अध्ययन के दौरान एकांगीपन से बच जाएंगे। इलियधरोपोलोस मार्क्सवादी ऐतिहासिक भौतिकवाद से परिचित है किंतु इस संबंध में उसका ज्ञान बिलकुल अपर्याप्त है, जैसा कि इस बात से मालूम होता है कि वह अपने ढंग से उसे ‘सुधारना चाहता है।

*वहीं, पू. 103-107.

*इस बात के बारे में कुछ नहीं कहना है कि प्राचीन यूनान के आर्थिक जीवन के अपने वर्णन में ईलियथरोपोलोस कोई ठोस सामग्री नहीं प्रदान करता तथा अपने को केवल सामान्य बातों तक ही सीमित रखता है जिनसे सदा को तरह कोई अर्थ नहीं निकलता.

उसने कहा कि किसी राष्ट्र के आर्थिक संबंध केवल ‘उसके विकास की आवश्यकता को निर्धारित करते हैं। यह विकास स्वयं एक विषय है, इस अर्थ में कि उस राष्ट्र का जीवन और विश्व के प्रति दृष्टिकोण’ (क) उस राष्ट्र के चरित्र तथा उसके देश की प्रकृति (ख) उस राष्ट्र की आवश्यकताओं; और (ग) उन मनुष्यों के व्यक्तिगत गुणों द्वारा निर्धारित होता है जो सुधारकों के रूप में आते हैं। इलियथरोपोलोस के अनुसार हम केवल इस अर्थ में दर्शन और अर्थव्यवस्था के पारस्परिक संबंध की बातें कर सकते हैं। दर्शन अपने समय की मांगों को पूरा करता है और वह इस कार्य को दार्शनिक के व्यक्तित्व के अनुसार करता है।

ईलियथरोपोलोस शायद सोचता है कि दर्शन और अर्थव्यवस्था के पारस्परिक संबंध के विषय में उसके विचार मार्क्स और एंगेल्स के भौतिकवादी दृष्टिकोण से भिन्न हैं। यह इतिहास की अपनी व्याख्या को एक नए नाम’ अस्तित्व ग्रहण के यूनानी सिद्धांत मे पुकारना आवश्यक समझता है। यह बिलकुल हास्यास्पद है और कोई भी व्यक्ति केवल यही कह सकता है कि अस्तित्व ग्रहण का यूनानी सिद्धांत अधूरे ढंग से समझे गए और बेढंगे तथा बेतुकेपन से पेश किए गए ऐतिहासिक भौतिकवाद के अलावा और कुछ नहीं है। इसके अलावा जब वह अपनी प्रणाली का स्पष्टीकरण करने के बाद उसे व्यावहारिक रूप प्रदान करने लगता है तो मालूम होता है कि ईलियथरोपोलोस का कथन उसके कार्य से कहीं अधिक बढ़-चढ़ कर है क्योंकि उस समय वह मार्क्स से बिलकुल दूर हट जाता है।

जहां तक ‘दार्शनिक के व्यक्तित्व’ या सामान्यतया ऐसे व्यक्ति के व्यक्तित्व का प्रश्न है जो मानव जाति के इतिहास पर अपनी छाप छोड़ जाते हैं, कुछ लोगों का विचार है कि मार्क्स और एंगेल्स के सिद्धांत में इस प्रश्न के लिए कोई स्थान नहीं है। ऐसे लोगों की समझ बिलकुल गलत है। इस सिद्धांत में निश्चय ही व्यक्तित्व के प्रभाव के लिए स्थान है किंतु इतना होते हुए भी मार्क्स और एंगेल्स ‘व्यक्तित्व’ के कार्य को ‘घटनाओं’ के मुकाबले पेश करने का विचार स्वप्न में भी नहीं कर सकते थे क्योंकि ‘घटनाओं’ के स्वरूप और दिशा आर्थिक आवश्यकता द्वारा निर्धारित होती है। कोई भी व्यक्ति अगर यह समझता है कि इस प्रकार का कोई विरोध मौजूद है तो वह यही प्रदर्शित करता है कि इतिहास संबंधी भौतिकवादी दृष्टिकोण को वह बहुत कम समझ सका है। जैसा कि मैं बार-बार कह चुका हूं कि भौतिकवाद का बुनियादी सिद्धांत यह है कि इतिहास का निर्माण मनुष्यों द्वारा होता है। स्पष्ट है कि निर्माण करने वालों में महान व्यक्ति’ भी शामिल हैं। अब हमारे कार्य का निर्धारण किसके द्वारा होता है। इस संबंध में एंगेल्स ने, उन पत्रों में से एक में, जिनका कुछ अंश ऊपर उद्धृत किया जा चुका है, लिखा है :

यह बिलकुल संयोग की बात है कि किसी निश्चित देश में तथा किसी निश्चित समय पर और कोई नहीं बल्कि एक विशेष व्यक्ति ही सामने आता है। अगर उस व्यक्ति

*वही, भाग 1, पृ. 16-17.

**वहीं, भाग 1, पृ. 17.

को हटा लें तो उसके स्थान पर किसी दूसरे की आवश्यकता होगी और अच्छा-बुरा कोई आगे चलकर मिल ही जाएगा। यह एक संयोग की बात थी कि वर्षों के युद्ध से थक जाने के बाद फ्रेंच प्रजातंत्र को जिस सैनिक अधिनायक की आवश्यकता हुई वह कॉर्सिका निवासी नेपोलियन निकला। किंतु यह बात कि नेपोलियन के अभाव में किसी अन्य अधिनायक ने उसकी जगह ले ली होती, इससे सिद्ध होता है कि जब कभी आवश्यकता हुई है आवश्यक व्यक्ति; सीज़र, आगस्टस, क्रामवेल, अथवा अन्य कोई व्यक्ति, सामने आ गया है। मार्क्स ने इतिहास के भौतिकवादी दृष्टिकोण को खोज निकाला किंतु थियेरी, मिग्ने, गुइजो तथा 1850 ई. तक के सब अंग्रेज़ इतिहासकारों के कार्य इस बात के प्रमाण हैं कि वे लोग उस ओर जा रहे थे। मॉर्गन द्वारा उसी दृष्टिकोण की खोज से स्पष्ट है कि उसका समय आ गया था और खोज आवश्यक हो गई थी। यह बात इतिहास के सब संयोगों और प्रत्यक्षतः संयोगों के लिए लागू होती है। हमारी खोज का क्षेत्र आर्थिक क्षेत्र से जितना ही अधिक दूर होगा और जितना ही अधिक वह निराकार सिद्धांत का रूप धारण कर लेगा उतना ही घटनाओं पर संयोग का प्रभाव प्रतीत होगा और विकास का मार्ग उतना ही टेढ़ा-मेढ़ा मालूम होगा। अगर आप इस वक्र की औसत धुरी को चित्रित करें तो पाएंगे कि जितने ही बड़े काल को लेंगे और जितने ही बड़े क्षेत्र पर विचार करेंगे इस धुरी की प्रवृत्ति आर्थिक विकास की धुरी के समानांतर जाने की होगी*।

जिस किसी व्यक्ति ने आध्यात्मिक अथवा सामाजिक क्षेत्र में प्रमुख स्थान प्राप्त किया है। उसके व्यक्तित्व का संबंध उन संयोगों से है जिनकी उपस्थिति मनुष्य जाति के बौद्धिक विकास की औसत धुरी को आर्थिक विकास की धुरी के समानांतर होने से नहीं रोकती **। अगर ईलियथरोपोलोस ने मार्क्स के ऐतिहासिक सिद्धांत का और अधिक ध्यानपूर्वक अध्ययन किया होता तो उसने उपर्युक्त बात को अच्छी तरह समझ लिया होता तथा वह अपने ‘यूनानी सिद्धांत’ के निर्माण के लिए उत्सुक नहीं होता ***।

यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि अभी तक हममें किसी काल-विशेष के दौरान उत्पन्न होने वाले दार्शनिक विचारों और उस समय की आर्थिक स्थिति के बीच सदा हेत्वात्मक संबंध स्थापित करने की क्षमता नहीं आई है। इसका कारण यह है कि हमने अभी इन संबंधों का अध्ययन करना आरंभ ही किया है। यदि हम अपने सामने उपस्थित सब प्रश्नों का या उनमें से अधिकांश के भी उत्तर देने की स्थिति में हों तो इसका अर्थ होगा कि हम अपने

*समाजवादी अकादमिक, बर्लिन, 1895, न. 20, पृ. 374.9

**देखिए मेरा लेख ‘इतिहास में व्यक्तित्व की भूमिका मेरी पुस्तक ‘ट्वेन्टी ईयर्स

***उसने अपने सिद्धांत को एक ‘यूनानी’ सिद्धांत कहा क्योंकि उसके अनुसार इस मौलिक सिद्धांत का प्रतिपादन प्राचीन यूनानी दार्शनिक थेल्स पहले ही कर चुका था. एक अन्य यूनानी दार्शनिक ईलियथरोपोलोस ने उसे और विकसित किया. पूर्व उद्धृत पू. 17.

कार्य को समाप्त कर चुके हैं या कर रहे हैं। यह महत्वपूर्ण बात नहीं है कि हम अभी उन समस्त कठिनाइयों को पार नहीं कर सकते हैं जो हमारे सामने हैं। कोई भी ऐसा तरीका नहीं है जिसके द्वारा एकबारगी सब कठिनाइयों को पार किया जा सके। महत्वपूर्ण बात यह है कि इतिहास का भौतिकवादी दृष्टिकोण हमें आदर्शवादी विचारों की अपेक्षा कहीं अधिक शीघ्रता के साथ अपनी कठिनाइयों को पार करने की क्षमता प्रदान करता है। यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि ऐतिहासिक क्षेत्र में वैज्ञानिक विचारधाराओं की प्रवृत्ति घटनाओं की • भौतिकवादी दृष्टिकोण से व्याख्या करने की ओर अधिकाधिक होती जा रही है। यह प्रक्रिया। उन्नीसवीं शताब्दी के द्वितीय अथवा तृतीय दशक में पुनः स्थापन (रेस्टोरेशन) के दौर से शुरू होकर लगातार चलती आ रही है। यह प्रक्रिया आज तक बंद नहीं हुई है। इस बात के बावजूद कि हर स्वाभिमानी पूंजीवादी विचारक ‘भौतिकवाद’ शब्द सुनते ही नाक भी सिकोड़ने लगता है।

मानव संस्कृति के सब पहलुओं की भौतिकवादी व्याख्या प्राप्त करने के प्रयत्न की। वर्तमान अवश्यंभाविकता का तीसरा प्रमाण है फ्रांज फायरहर्ड की 1902 ई. में बनस्विक और लाइपज़िग से प्रकाशित पुस्तक शैली का विकास और राजनीतिक अर्थशास्त्र भाग 1, 86:

मानवीय बुद्धि का विकास उत्पादन की प्रधान प्रणाली तथा उसके द्वारा निर्धारित राज्य के स्वरूप द्वारा निश्चित दिशाओं में होता है क्योंकि अन्य सब दिशाओं का मार्ग अवरुद्ध होता है। इस कारण किसी शैली का (कला में, जी. प्लेखानोव) का प्रादुर्भाव निश्चित राजनीतिक स्थितियों में निवास करने वाले, एक निश्चित उत्पादनप्रणाली के अनुसार वस्तुओं का उत्पादन करने वाले तथा निश्चित विचारों से प्रेरित मनुष्यों के अस्ति पर आधारित होता है। इन स्थितियों के आधार पर ही मनुष्य उपयुक्त शैलियों का निर्माण उसी प्रकार आवश्यक तथा अनिवार्य रूप से करते हैं जिस प्रकार सूर्य के प्रभाव के कारण कपड़ा बिखरता है, ब्रोमाइड ऑफ सिल्वर काला पड़ जाता है और बादलों में इंद्रधनुष प्रकट होता है**।

यह सब सही है और यदि कला का कोई इतिहासकार इसे स्वीकार करता है तो यह विशेष महत्व की बात है। किंतु जब फ़ायरहर्ड यह बतलाने लगता है कि किस प्रकार प्राचीन यूनान की विभिन्न कला शैलियां आर्थिक परिस्थितियों के परिणामस्वरूप हैं तो वह अपनी बात को बहुत अधिक पिटीपिटाई (स्कीमैटिक) बना देता है। मुझे मालूम नहीं कि उसकी पुस्तक का दूसरा भाग अभी तक प्रकाशित हुआ है या नहीं। इसे पढ़ने को मुझे इच्छा भी नहीं है क्योंकि पहले भाग से स्पष्ट है कि आधुनिक भौतिकवादी प्रणालियों का उसे कितना कम ज्ञान है। उसके तर्क हमें फ्रिश और रोज़कोव के तर्कों को याद दिलाते हैं, जिन्हें फ़ायरहर्ड को भाँति

*देखिए कम्युनिस्ट घोषणापत्र के मेरे रूसी अनुवाद के द्वितीय संस्करण की प्रस्तावना”

**वही, पृ. 19-20.

आधुनिक भौतिकवाद का अध्ययन करने की सलाह दी जा सकती है। अत्यधिक प्रणालीवाद से उन्हें सिर्फ मार्क्सवाद ही बचा सकता है।

तेरह

मेरे साथ अपनी वहस के दौरान स्वर्गीय निकोलाई माइखेलोव्स्की ने कहा था कि मार्क्स के ऐतिहासिक सिद्धांत को विद्वत संसार में कभी भी मान्यता नहीं मिलेगी। हम लोग देख चुके हैं और आगे की चर्चा में भी देखेंगे कि माइखेलोव्स्की का कथन सही नहीं है। किंतु पहले कुछ ग़लतफहमियों को दूर करना आवश्यक है जिनसे ऐतिहासिक भौतिकवाद की सही समझदारी प्राप्त करने में कठिनाई होती है।

यदि हम सुप्रसिद्ध ‘आधार’ तथा उसके समान ही विख्यात ‘ऊपरी ढांचे’ के पारस्परिक संबंधों के विषय में मार्क्स और एंगेल्स के विचारों को संक्षिप्त रूप में रखना चाहें तो यों रख सकते हैं:

(1) उत्पादक शक्तियों की स्थिति;

(2) इन शक्तियों द्वारा निर्धारित आर्थिक संबंध;

(3) एक निश्चित आधार पर कायम सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था;

(4) समाज में रहने वाले लोगों की मनोवृत्ति, जिसका (मनोवृत्ति का) निर्धारण अंशत: प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक परिस्थितियों द्वारा तथा कुछ अंशों में आर्थिक आधार पर बनी हुई सामाजिक आर्थिक व्यवस्था द्वारा होता है।

( 5 ) विभिन्न विचारधाराएं जो उपर्युक्त मनोवृत्ति की विशेषताओं को प्रदर्शित करती हैं।

यह सूत्र इतना अधिक व्यापक है कि ऐतिहासिक विकास के सभी ‘स्वरूप इसके अंतर्गत आ जाते हैं। साथ ही यह इधर-उधर से मनचाही बातों को लेकर बनाए गए उस सिद्धांत से बिलकुल भिन्न हैं जो इससे आगे कुछ नहीं कह सकता कि विभिन्न सामाजिक शक्तियां एक दूसरे पर प्रभाव डालती हैं और जो इस तथ्य को अनुभव तक नहीं करता कि इन शक्तियों द्वारा एक दूसरे पर प्रभाव डालने की बात से उत्पत्ति की समस्या का कोई समाधान नहीं होता। यह सूत्र ऐक्यवादी है और भौतिकवाद से परिपूर्ण है। होंगेल ने अपनी पुस्तक ‘विचार तत्व का दर्शन’ (फिलासफी ऑफ दि स्पिीरिट) में कहा था कि विचारतत्व ही इतिहास का एकमात्र प्रेरक सिद्धांत है। यदि हम विचारवादी दृष्टिकोण को स्वीकार कर लें जिसके अनुसार अस्तित्व को चितन निर्धारित करता है तो हम दूसरी तरह नहीं सोच सकते। मार्क्स का भौतिकवाद बतलाता है कि किस प्रकार चितन का इतिहास अस्तित्व के इतिहास द्वारा निर्धारित होता है। किंतु आदर्शवाद के कारण हीगेल को यह मानने में कोई कठिनाई नहीं हुई कि आर्थिक तत्वों को ‘जीवन तत्व का विकास’ प्रभावित करता है। ठीक इसी तरह भौतिकवाद मार्क्स को यह स्वीकार करने से नहीं रोक सका कि इतिहास में ‘जीवन तत्व’ एक ऐसी शक्ति है जिसकी दिशा किसी निश्चितकाल में आर्थिक विकास की दिशा द्वारा निर्धारित होती है।

यह समझना मुश्किल नहीं है कि सामान्य रूप से सब विचारधाराओं का मूल उस युग को मनोदशा होता है। तथ्यों का सरसरी तौर पर अध्ययन करने पर भी यह बात स्पष्ट हो जाएगी। उदाहरण के लिए हम फ्रेंच रोमांटिसिज्म की चर्चा कर सकते हैं। विक्टर ह्यूगो यूजेनडेलाक्रोई और हेक्टर बर्लिओ कला के तीन बिलकुल भिन्न क्षेत्रों में कार्य करते थे। ये तीनों कई दृष्टियों से एक दूसरे से बिलकुल भिन्न थे। विक्टर ह्यूगो को संगीत से बिलकुल प्रेम नहीं था, डेलाक्रोई को रूमानी संगीतज्ञों के लिए श्रद्धा नहीं थी। फिर भी इन तीनों विख्यात व्यक्तियों को रोमांटिसिज्म का त्रिवेद कहना तर्कसंगत है। उनके ग्रंथों में एक ही प्रकार की मनोवृत्ति की अभिव्यक्ति हुई है। कहा जा सकता है कि डेलाक्रोई का चित्र ‘दांते और वर्जिल’ मन की उसी अवस्था को अभिव्यक्त करता है जिसके कारण ह्यूगो ने ‘हर्नानी’ लिखा था। और बलिओ ने ‘उन्मत्त राग’ की रचना की थी। उनके समकालीन लोगों (जो आम तौर पर साहित्य और कला के प्रति उदासीन नहीं थे) ने इस बात को महसूस किया था। शास्त्रीय साहित्य में रुचि रखने वाले इन्ग्रे बर्लिओ को ‘घृणा योग्य संगीतज्ञ, डाकू, ईसा-विरोधी’ कहते थे। इससे हमें उन खुशामदपूर्ण मतों का स्मरण हो आता है जो प्राचीन चित्रकला के प्रेमी डेलाक्रोई के बारे में दुहराते थे। वे उसकी तूलिका को ‘उन्मत्त तूलिका’ की संज्ञा देते थे। ह्यगो की तरह की बर्लिओ की भयंकर आलोचना हुई**। यह हर आदमी को मालूम है कि उसने ह्यगो की अपेक्षा कहीं अधिक कठिन प्रयास किया और उसे सफलता अपेक्षाकृत देर से मिली। यद्यपि उसके संगीत में उसी मनोवृत्ति को व्यक्त किया गया है जिसकी अभिव्यक्ति रोमांटिसिस्ट कविता और नाटकों में हुई है, फिर भी ऐसा क्यों हुआ? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए हमें फ्रेंच संगीत तथा साहित्य*** के तुलनात्मक इतिहास के अनेक विवरणों (जिनकी पूर्ण व्याख्या सदैव नहीं तो बड़े लंबे समय तक असंभव है) को ध्यान में रखना आवश्यक है। निस्संदेह फ्रेंच रोमांटिसिज्म की मनोवृत्ति को तभी समझा जा सकता है जब उस पर एक निश्चित सामाजिक तथा ऐतिहासिक परिस्थितियों में निवास करने वाले एक

*देखिए आगस्टिन चलामेल लिखित Souvenirs dum hugolatre, पेरिस, 1885 पू. 259 डेलाक्रोयें (जो चित्रकला के क्षेत्र में रोमांटिस्ट होते हुए भी प्राचीन संगीत का पक्षपाती था) की अपेक्षा इन्ग्रे के विचार अधिक सुसंगत थे.

** वहीं. पू. 258.

***विशेषतः उस युग के इतिहास में, युग की मानसिक दशा को व्याख्या करने में इन कलाओं ने अपनो भूमिका अदा की है. हम जानते हैं कि विभिन्न युगों में विभिन्न प्रकार की विचारधाराओं और विभिन्न सैद्धांतिक दृष्टिकोणों को प्रमुख स्थान प्राप्त होता है. मध्ययुग में धर्मशास्त्र आज की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता था. आदिम समाज में नृत्य का स्थान कलाओं में सबसे अधिक महत्वपूर्ण था किंतु आज इससे बहुत दूर है- इत्यादि.

वर्ग विशेष की मनोवृत्ति के रूप में विचार किया जाए*। जां बैपटिस्ट टायरसो ने लिखा है :1830 ई. में साहित्य और कला के आंदोलन का चरित्र जनक्रांति के चरित्र से काफी दूर था’**। यह बिलकुल सही है। उपर्युक्त आंदोलन मूलत: पूंजीवादी था। सिर्फ इतनी ही बात नहीं है। पूंजीपति वर्ग से भी उसे व्यापक समर्थन और सहानुभूति नहीं मिली। टायरसो के विचार में उपर्युक्त आंदोलन उन ‘चुने हुए’ लोगों के एक छोटे से समूह की भावनाओं को व्यक्त करता था जो अपनी दूरदर्शिता से अज्ञात प्रतिभा को भी ढूंढ़ कर निकाल सकते थे । यह कथन बिलकुल सतही है या यों कह सकते हैं कि आदर्शवादी ढंग से तर्क करते हुए टायरसो यह निष्कर्ष निकालता है कि उस युग के फ्रेंच पूंजीपति साहित्य और कला के क्षेत्र में अपने विचारकों की आकांक्षाओं और भावनाओं को पर्याप्त रूप में समझने में असमर्थ रहे। विचार शास्त्रियों तथा उस वर्ग के बीच, जिसकी आकांक्षाओं और इच्छाओं का वे प्रतिनिधित्व करते हैं, इस प्रकार की भिन्नता के उदाहरण इतिहास में कम नहीं हैं और इससे मानव जाति के बौद्धिक और कलात्मक विकास की असंख्य विशिष्ट विशेषताओं की व्याख्या करने में सहायता मिलती है। इस समय हम जो उदाहरण दे रहे हैं उसमें अन्य बातों के अलावा यह भी एक कारण था जिससे ‘साधारण’ पूंजीपति के ‘सुसंस्कृत’ लोगों में तिरस्कार की भावना उत्पन्न हुई। इसी प्रवृत्ति के कारण अब भी सीधे-सादे लोग भ्रमित हो जाते हैं और रोमांटिसिज्म के पूंजीवादी चरित्र को समझ नहीं पाते। अन्य परिस्थितियों की तरह यहां भी इस प्रकार के विरोधाभास के मूल तथा स्वरूप का अंतिम रूप से उस सामाजिक वर्ग की आर्थिक स्थिति द्वारा विश्लेषण किया जा सकता है जिसमें यह विरोधाभास प्रकट होता है। यहां भी केवल अस्तित्व (और उसके सिवा कुछ भी नहीं) चिंतन के ‘रहस्यों’ पर प्रकाश डालता है इसलिए यहां भी केवल भौतिकवाद ही ‘विचारों की प्रगति’ की एक सच्ची वैज्ञानिक व्याख्या कर सकता है।

* चेस्नों के ग्रंथ Les chefs d ecole, पेरिस, 1883, पृ. 378-79,” में हमें रोमांटिस्टों की मनःस्थिति का अत्यंत सारपूर्ण निरूपण प्राप्त होता है, लेखक यह निर्देश करता है कि रोमांटिसिज्म क्रांति और साम्राज्य के शीघ्र बाद ही प्रकट हुआ था. ‘साहित्य और कला में भी एक वैसा हो संकट आया था जिस प्रकार ‘आतंक के राज्य के पश्चात नैतिक क्षेत्र में आया था- एक सच्चे ज्ञान का संकट, लोग निरंतर भय की स्थिति में रहते आ रहे थे. अब उनका भय समाप्त हो गया तो वे जीवन के सुखों में तल्लीन हो गए, उनका ध्यान बाहरी दिखाव, बाह्य स्वरूपों में पूर्णतः लग गया. नीला आकाश, सूर्य के प्रकाश की सुंदरता, नारियों का सौंदर्य, भड़कौले मखमल, इंद्रधनुष के रंग वाली रेशम, सोने की चमक, होरों की जगमगाहट—ये ही उन्हें आनंद से परिपूर्ण कर देने वाली वस्तुएं थीं. लोग केवल आंखों से काम लेते थे और उन्होंने विचार करना छोड़ दिया था.’ अनेक बातों में यह उस युग के समान है जिससे हम आज (1905 ई. के फौरन बाद के साल में) रूस में गुजर रहे हैं. किंतु मन की इस अवस्था को जन्म देने वाला घटनाक्रम स्वयं आर्थिक विकासक्रम द्वारा निर्धारित हुआ था.

** Hector Berlioz et la societe de son temps, पेरिस, 1904 पृ. 190.

*** वही, पृ. 190.

****यहां हमें विचारों की वही उलझन दिखाई देती है जिसके कारण कट्टर पूंजीवादी नीत्शे के शिष्यों की स्थिति बड़ी हास्यास्पद हो जाती है जब वे पूंजीपतियों को आलोचना करते हैं.

चौदह

स प्रगति की व्याख्या करने का प्रयास करते हुए आदर्शवादियों ने कभी भी विकास मार्ग को निकट से देखने की आवश्यकता को महसूस नहीं किया है। उदाहरणार्थ टाइन का विचार कि कलाकार के इर्दगिर्द पाए जाने वाले वातावरण की विशेषताएं और गुण ही उसकी कला कृतियों के लिए जिम्मेदार होते हैं। लेकिन वह किन विशेषताओं की चर्चा कर रहा है ? मानसिक विशेषताओं का अर्थात उस सामान्य मनोदशा का जो किसी निश्चित युग में वर्तमान रहती है और जिसकी विशेषताओं की व्याख्या करना खुद बहुत जरूरी है।* भौतिकवाद जब किसी समाज अथवा वर्ग विशेष की मनोवृत्ति की व्याख्या करता है तो वह आर्थिक विकास द्वारा उत्पन्न सामाजिक ढांचे को दृष्टिगत रखता है किंतु टाइन (जो एक विचारवादी था) ने समाज व्यवस्था के उद्भव की व्याख्या सामाजिक मनोविज्ञान के आधार पर की थी, फलस्वरूप वह अंतर्विरोधों के जाल में फंस गया जिससे उसे निकलने की कोई आशा नहीं रही। आजकल किसी भी देश के विचारवादियों की सहानुभूति टाइन के साथ नहीं है। इसका कारण स्पष्ट है। वातावरण से उसका तात्पर्य जनता की आम मनःस्थिति से था। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि उसका तात्पर्य एक विशेष युग और विशेष वर्ग के साधारण व्यक्ति की मनःस्थिति से था। उसके अनुसार यह मनःस्थिति ही शोधकर्ता लिए निर्णायक वस्तु है। फलस्वरूप टाइन के अनुसार हर ‘महान’ व्यक्ति हमेशा साधारण व्यक्तियों की इच्छओं और प्रेरणा के अनुसार ही सोचता और अनुभव करता है और यह विचार तथ्य की दृष्टि से केवल असत्य ही नहीं है बल्कि पूंजीवादी बुद्धिजीवियों के लिए अरुचिकर भी है क्योंकि उनकी प्रवृत्ति हमेशा अपने को कमोबेश महापुरुषों की कोटि में समझने की रहती है। टाइन उस आदमी की तरह था जो एक बार ‘क’ के बाद आगे बढ़ने तथा ‘ख’ कहने में असमर्थ हो और इस तरह स्वयं अपनी बात को बिगाड़ ले। जिन अंतर्विरोधों में वह फंस गया था उनसे बचकर निकलने का केवल एक ही मार्ग था- ऐतिहासिक भौतिकवाद का मार्ग जो व्यक्ति और वातावरण, साधारण व्यक्तियों और भाग्यवान लोगों, सभी को उचित महत्व देता है।

मध्य युग से लेकर 1871 ई. तक पश्चिमी यूरोप के सब देशों में फ्रांस एक ऐसा देश था जहां सामाजिक और राजनीतिक विकास और विभिन्न सामाजिक वर्गों के पारस्परिक संघर्ष को पश्चिमी यूरोप के लिए प्रतिनिधि रूप समझा जा सकता है। फ्रांस में हम सामाजिक विकास के मार्ग तथा पूर्वोल्लिखित (वर्ग) संघर्ष एवं विचारधाराओं के बीच कारण संबंध आसानी से स्थापित कर सकते हैं।

“फ्रांस में रेस्टोरेशन के युग में दर्शन संबंधी दैवी विचारधारा क्यों अधिक प्रचलित थी,

* “L’ocuvere d’art” he writes.”est deternince par un ensemble qui est l’etat general de l’esprit et des moeurs environnantes”. 5

इस बात पर विचार करते हुए राबर्ट पिलंट ने लिखा है, ‘ऐसे सिद्धांत की सफलता व्याख्या से परे होती, अगर कांडिलक के अनुभूतिवाद ने उसका मार्ग प्रशस्त न कर दिया होता और वह प्रत्यक्षतः एक ऐसे दल के स्वार्थों के अनुकूल न होता जो रेस्टोरेशन के पूर्व तथा बाद में फ्रेंच समाज के उच्च वर्गों का प्रतिनिधित्व करता था। यह बिलकुल सही बात है। यह जानने में भी कोई कठिनाई नहीं हो सकती कि वह कौन सा वर्ग था जिसके स्वार्थों को सैद्धांतिक अभिव्यक्ति दैवी विचारधारा में हुई। फ्रेंच इतिहास का अध्ययन करते हुए हम खुद अपने से ही यह प्रश्न पूछें कि क्या अनुभूतिवाद की सफलता के सामाजिक कारणों को क्रांति से पहले के फ्रांस में खोज निकालना संभव नहीं है? क्या वह बौद्धिक आंदोलन जिसने अनुभूतिवाद के सिद्धांतवेत्ताओं को जन्म दिया, स्वयं एक विशेष सामाजिक वर्ग की प्रवृत्तियों को अभिव्यक्त नहीं करता था? यह सब जानते हैं कि बात यही थी, इस आंदोलन के माध्यम से फ्रेंच ‘मध्य वर्ग’ की मुक्ति की आकांक्षाएं अभिव्यक्त हुई। यदि हम इस दिशा में और आगे बढ़ें तो पाएंगे कि देकारों का दर्शन आर्थिक विकास की आवश्यकताओं तथा तत्कालीन सामाजिक शक्तियों के संयोग को स्पष्ट रूप से दिखता है। अंत में यदि हम पीछे की और चौदहवीं शताब्दी में जाएं और वीरता के उन रोमांचक वर्णनों पर विचार करें जिन्हें फ्रेंच दरबार में काफी सराहा गया तो एक बार फिर हमें यह देखने को मिलेगा कि यह रोमांच उस वर्ग के जीवन तथा रुचियों को प्रतिबिंबित करता था जिसकी यहां चर्चा हो रही है । इस विख्यात देश में जिसे अभी हाल तक यह कहने का अधिकार था कि वह ‘सब राष्ट्रों में अग्रगामी है’, बौद्धिक आंदोलन का उतार-चढ़ाव, आर्थिक विकास तथा सामाजिक और राजनीतिक विकास के उतार-चढ़ाव के सामानांतर चलता है। सामाजिक और राजनीतिक विकास आर्थिक विकास द्वारा निर्धारित होते हैं। इस दृष्टि से फ्रांस में विचारधाराओं का इतिहास समाजशास्त्रवेत्ताओं के लिए विशेष रूप से दिलचस्पी का विषय है।

वे लोग जिन्होंने विभिन्न स्वरों में मार्क्स की ‘आलोचना’ की है इस संबंध में तनिक

* फ्रांस और जर्मनी में इतिहास का दर्शन, एडिनबर्ग और लंदन, 1874, पृ. 149, मूल अंग्रेज़ी,

** देखिए जी. लैन्सन लिखित फ्रेंच साहित्य का इतिहास, पेरिस 1996 ई., पृ. 394-397. यहां आपको अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में शासक वर्ग की मनःस्थिति तथा देकार्ते के दर्शन के कुछ पहलुओं के पारस्परिक संबंध का चित्रण मिलेगा.

***(1910 के जर्मन संस्करण की टिप्पणी) बायर बंधुओं के विरुद्ध वाकयुद्ध के दौरान मार्क्स ने लिखा ‘अठारहवीं शताब्दी का फ्रेंच एनलाइटेनमेंट, विशेषकर फ्रेंच भौतिकवाद, न सिर्फ तत्कालीन राजनीतिक संस्थाओं और तत्कालीन धर्म और धर्मशास्त्र के विरुद्ध संघर्ष था बल्कि यह सत्रहवीं शताब्दी के अधिभौतिकवाद और समस्त अधिभौतिकवाद विशेषकर देकार्ते, मैलेबांके स्पिनोसा और लिब्निट्ज के विरुद्ध खुला संघर्ष था. (Nahclass, 2. Band, S. 232)९० यह बात सबको मालूम है.

**** सिसमांदी ने अपनी पुस्तक’ फ्रांस का इतिहास खंड 1, पू. 49 में इन रोमांसों के महत्व के संबंध में रोचक विचार व्यक्त किए हैं, जो अनुरूपण के समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए सामग्री प्रदान करते हैं, पृ. 35.

भी नहीं जानते। उन्होंने यह कभी नहीं सोचा कि यद्यपि आलोचना एक अच्छी चीज है किंतु आलोचना करने के लिए आलोच्य विषय की न्यूनतम जानकारी आवश्यक है। वैज्ञानिक अनुसंधान की किसी खास प्रणाली की आलोचना हमें यह निश्चय करने का सामर्थ्य प्रदान करती है कि वह विधि कितनी दूर तक घटनाओं के बीच हेतुता क्रम को खोजने की योग्यता रखती है। किंतु यह केवल अनुभव द्वारा, उस विधि को लागू करके ही जाना जा सकता है। ऐतिहासिक भौतिकवाद की आलोचना का मतलब है कि मानव जाति के ऐतिहासिक विकास के अध्ययन के लिए हम मार्क्स और एंगेल्स की विधि को प्रयुक्त करें। ऐसा करके ही हम विधि की खूबियों एवं ख़ामियों को जान सकते हैं। जैसा कि एंगेल्स ने अपने ज्ञानवाद की व्याख्या करते हुए कहा था कि ‘भोजन की परीक्षा चखने से ही होती है।” ठीक यही बात ऐतिहासिक भौतिकवाद के लिए लागू होती है। यदि कोई किसी पकवान की आलोचना करना चाहे तो उसे सबसे पहले उस पकवान को चखना चाहिए। जो मार्क्स और एंगेल्स की विधि की परीक्षा करना चाहते हैं उन्हें जानना चाहिए कि उसका प्रयोग किस प्रकार किया जाता है। किंतु मार्क्स और एंगेल्स की विधि को कुशलतापूर्वक इस्तेमाल करने के लिए कहीं अधिक वैज्ञानिक प्रशिक्षण तथा बौद्धिक प्रयास की आवश्यकता है, केवल मिथ्यापूर्ण आलोचना और मार्क्सवाद के ‘एकांगीपन’ पर लच्छेदार लफ़्फ़ाजी से काम नहीं चलेगा।

मार्क्स के आलोचकों में से कुछ दुःखपूर्वक, कुछ तिरस्कारपूर्वक और कुछ ईर्ष्या से यह कहते हैं कि ऐतिहासिक भौतिकवाद के सैद्धांतिक औचित्य को सिद्ध करने वालो अब तक एक भी पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई है। जब वे इस प्रकार की पुस्तक की बात करते हैं। तो उनका तात्पर्य सामान्यतया भौतिकवादी दृष्टि से विश्व के इतिहास पर लिखी गई एक संक्षिप्त पुस्तक से होता है। किंतु इस समय ऐसी पुस्तक किसी भी अकेले विद्वान द्वारा उसका ज्ञान कितना भी व्यापक क्यों न हो-लिखी नहीं जा सकती। यह कार्य विद्वानों के किसी समूह द्वारा भी संपन्न किया जाना असंभव है। अभी ऐसी पुस्तक के लिए पर्याप्त मात्रा में सामग्री उपलब्ध नहीं है और न काफ़ी समय तक पर्याप्त मात्रा में सामग्री उपलब्ध होने की संभावना ही है। विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में मार्क्सवादी विधि की सहायता से किए जाने वाले अनुसंधानों के एक लंबे सिलसिले के फलस्वरूप ही पर्याप्त मात्रा में आवश्यक सामग्री संग्रहित की जा सकती है। दूसरे शब्दों में, वे ‘आलोचक’ जो ऐसी ‘पुस्तक’ की मांग करते हैं इस कार्य को विपरीत दिशा से प्रारंभ करवाना चाहते हैं। वे इतिहास की उसी प्रक्रिया की भौतिकवादी दृष्टि से प्रारंभिक व्याख्या की मांग कर रहे हैं जिसकी व्याख्या का काम अभी बाक़ी है। वास्तविकता यह है कि ऐतिहासिक भौतिकवाद के समर्थन में अपने उद्देश्य से अनभिज्ञ समसामयिक विद्वानों द्वारा उसी अनुपात में किताब’ लिखी जा रही है जिस अनुपात में वे समाजविज्ञान की वर्तमान स्थिति से बाध्य होकर उन घटनाओं की भौतिकवादी व्याख्या करना चाहते हैं जिनका कि वे अध्ययन कर रहे हैं। ऐसे विद्वानों की संख्या थोड़ी नहीं है। यह बात मेरे द्वारा ऊपर दिए गए उदाहरणों से स्पष्ट है।

लाप्लेस ने कहा है कि न्यूटन की महान खोज के पचास वर्ष व्यतीत हो जाने के पश्चात अन्य महत्वपूर्ण अन्वेषणों द्वारा उसकी पूर्ति हुई थी। उस महान सत्य को सामान्यतया समझे जा सकने तथा उसे अपने मार्ग की बाधाओं (जिनमें भंवरों (Vortex) का कार्तेजियन सिद्धांत और शायद न्यूटन* के समकालीन गणितज्ञों का आहत अभिमान भी था) को पार कर सकने के लिए इतने अधिक समय की आवश्यकता पड़ी।

एक सुसंगत और सुसंबद्ध सिद्धांत रूप में आधुनिक भौतिकवाद को न्यूटन के सिद्धांत से कहीं बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। आधुनिक भौतिकवाद का विरोध करना प्रत्यक्ष तथा निश्चित रूप से शासक वर्ग के हित में है। अधिकांश विद्वान आवश्यकतावश उनके प्रभाव में हैं। भौतिकवादो द्वंद्ववाद को ‘जो किसी के सामने नतमस्तक नहीं होता और ऐतिहासिक रूप से विकसित हर सामाजिक स्वरूप को उसके परिवर्तनशील रूप में देखता है दकियानूसी वर्ग (आजकल पश्चिमी देशों में पूंजीपति वर्ग) सहानुभूतिपूर्वक नहीं देख सकता। आधुनिक भौतिकवाद इस वर्ग की मानसिक स्थिति के इतना अधिक विरुद्ध है कि पूंजीवादी सिद्धांतवेत्ता स्वभावतया इसे असा अनुचित और आम इस्जतदार लोगों एवं विशेषकर सम्मानित विद्वानों के विचार करने योग्य नहीं समझते।** इसमें कोई आश्चर्य करने की बात नहीं है कि इनमें से हर विद्वान अपने को भौतिकवाद के प्रति किसी भी प्रकार को सहानुभूति के संदेह से मुक्त रखना अपना नैतिक कर्तव्य समझता है। बहुधा ऐसे विद्वान भौतिकवाद को जितने जोर से निंदा करते हैं उतना ही अधिक अपने विशेष अनुसंधान कार्य में भौतिकवादी दृष्टिकोण ग्रहण करने की और प्रवृत्त होते हैं।*** इसका परिणाम होता है-अर्द्ध-चेतन अवस्था में कहा गया एक ‘लौकिक झूठ’ जिसका हानिकर प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता।

*दुनिया को व्यवस्था का विवरण Peris L’an IV EtIl pp. 291-92.

** इस संबंध में एंगेल्स का उपयुक्त लेख ऐतिहासिक भौतिकवाद के बारे में देखें,

*** पाठक यह याद रखेंगे कि लैकप्रेक्ट ने भौतिकवाद के दोष से अपनी रक्षा कितने जोर-शोर से को ल को पुस्तक Dic Ende und das Leben में उसने पू. 631 पर किस प्रकार भौतिकवाद के अभियोग से अपने को मुक्त करने की कोशिश की, किंतु उसी रेसेस ने लिखा था, ‘हर जाति को संपूर्ण सांस्कृतिक उन्नति तथा उसके विकास की हर अवस्था में, भौतिक एवं आध्यात्मिक शामिल रहते हैं….वे एक ही प्रकार के उपायों से, समान सुविधा से तथा एक ही समय पर सभी को प्राप्त नहीं होते. आध्यात्मिक उन्नति भौतिक उन्नति के कारण होती है. भौतिक आवश्यकताओं के संतुष्ट होने के पश्चात हो आध्यात्मिक कार्य विलास के प में प्रकट होते हैं, फलस्वरूप सभ्यता की उन्नति से संबद्ध प्रत्येक प्रश्न उन तत्वों को और ले जाते हैं जो सभ्यता के भौतिक आधार के विकास में सहायक होते हैं. (हेतु विज्ञान, खंड, प्रथम संस्करण पू. 17) यह सिद्धां निस्संदेश भौतिकवाद है यद्यपि इसका प्रतिपादन बहुत कम सोच विचार कर किया गया है. इसीलिए यह सिद्धांत मार्क्स और एंगेल्स के भौतिकवाद की तुलना में निकृष्ट है.

पंद्रह

वर्गों में बंटा हुआ समाज का ‘लौकिक झूठ’ उतना ही भयंकर होता जाता है जितना कि तत्कालीन समाज व्यवस्था को आर्थिक विकास एवं उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले वर्ग संघर्ष से खतरा बढ़ता जाता है। मार्क्स ने ठीक ही कहा था कि बढ़ती हुई उत्पादक शक्तियों एवं तत्कालीन समाज व्यवस्था के बीच विरोध जितना ही अधिक बढ़ता है शासक वर्ग की विचारधारा उतनी ही अधिक धूर्ततापूर्ण हो जाती है। इसके अतिरिक्त जीवन इस विचारधारा के मिथ्याचरित्र का जितना ही अधिक भंडाफोड़ करता है शासक वर्ग की भाषा उतनी ही अधिक उत्तम एवं सद्भावपूर्ण होती जाती है (देखिए सेंट मैक्स, समाजवाद के बारे में दस्तावेज अगस्त 1904, पृ. 370-71)। इस कथन की सत्यता स्पष्ट होती जा रही है। हार्डेन-मोल्टके के मुकदमे” से स्पष्ट है कि जर्मनी में फैली लंपटता समाजविज्ञान में ‘विचारवाद के पुनर्जीवन’ से संबद्ध है। हमारे देश में भी ‘सर्वहारा के सिद्धांतवेत्ताओं तक में हमें ऐसे व्यक्ति मिलते हैं जो इस ‘पुनर्जीवन’ के सामाजिक कारणों को नहीं समझते और उससे प्रभावित हैं। मैं बोगडानोवों, बाजारोवों आदि की बात सोच रहा हूं।

संयोग की बात है कि मार्क्सवादी विधि से शोधकर्ताओं को इतने अधिक लाभ होते हैं कि वे लोग भी जो अन्य मामलों में हमारे युग के ‘लौकिक झूठ’ के शिकार हो गए हैं, इसे स्वीकार करने लगे हैं। ऐसे लोगों में उदाहरण के लिए अमरीकी लेखक एडविन सेलिगमैन का नाम लिया जा सकता है। उसकी पुस्तक ‘इतिहास की आर्थिक व्याख्या’ इंटरप्रीटेशन ऑफ हिस्ट्री 1902 में प्रकाशित हुई। सेलिगमैन ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत से विद्वानों के भड़कने का मुख्य कारण, इससे मार्क्स द्वारा निकाले गए समाजवादी निष्कर्ष हैं। निश्चय ही उसका विचार यह है कि हम अंडों को बिना तोड़े हुए आमलेट बना सकते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि कोई व्यक्ति आर्थिक भौतिकवादी’ भी हो सकता है और साथ ही समाजवाद का विरोधी भी। आगे चलकर उसने लिखा है, ‘मार्क्स के अर्थशास्त्र के त्रुटिपूर्ण होने से इतिहास संबंधी उसके दर्शन की सत्यता असत्यता पर कोई असर नहीं पड़ता।* वस्तुतः मार्क्स के आर्थिक विचार उनके राजनीतिक विचारों के साथ घनिष्ठ रूप से संबद्ध थे। मार्क्स के ग्रंथ पूंजी को ठीक तरह से समझ के लिए उनके द्वारा पहले लिखी गई पुस्तक राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना की प्रसिद्ध प्रस्तावना को भली भांति समझ लेना आवश्यक है। किंतु यह स्थान मार्क्स के आर्थिक विचारों का प्रतिपादन करने अथवा इस निर्विवाद सत्य को प्रदर्शित करने के लिए नहीं है कि यह सिद्धांत ऐतिहासिक भौतिकवाद के नाम से विख्यात सिद्धांत का एक अपरिहार्य भाग है।** मैं यही कहूंगा कि सेलिगमैन इतना बड़ा पंडित है कि उसे भौतिकवाद से डर लगता है।

*इतिहास की आर्थिक व्याख्या, पू. 24 और 109.

** मूल ग्रंथ में जो कुछ कहा गया है उसकी व्याख्या में कुछ शब्द, मार्क्स के कथनानुसार आर्थिक श्रेणियां केवल उत्पादन के संबंधों के सैद्धांतिक स्वरूप, उनके विचारात्मक रूप हैं.’ ( दर्शन की दरिद्रता, भाग, 2 →

इस आर्थिक भौतिकवादी का विचार है कि जिन लोगों ने ‘स्वयं ईसाई धर्म की व्याख्या केवल आर्थिक तत्वों के आधार पर करने का प्रयास किया है। उन्होंने मामले को असहनीय सीमा तक पहुंचा दिया है।* इन बातों से स्पष्ट है कि प्रतिकूल भावों की जड़ें कितनी गहरी हैं और इसलिए मार्क्सवादी सिद्धांत को जिन बाधाओं को पार करना है वे कितनी भयानक हैं। फिर भी स्वयं सेलिगमैन की पुस्तक की रचना तथा लेखक द्वारा सुरक्षित सम्मतियों की प्रकृति इस विश्वास के लिए आधार प्रदान करती है कि ऐतिहासिक भौतिकवाद- चाहे वह कितना ही काटा-छांटा या ‘विशुद्ध’ किया जाए- अंत में उन पूंजीवादी सिद्धांतवेत्ताओं को भी मान्य होगा जिन्होंने अभी तक इतिहास संबंधी अपने दृष्टिकोण को सुव्यवस्थित करने की आशा बिलकुल ही नहीं छोड़ी है। **

किंतु समाजवाद, भौतिकवाद और अन्य अप्रिय उग्र सिद्धांतों के विरुद्ध होने वाला संघर्ष एक ‘आध्यात्मिक अस्त्र’ की पूर्व कल्पना करके चलता है। समाजवाद के विरुद्ध लड़ने के आध्यात्मिक अस्त्र हैं ‘मनोवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र’ और कमोबेश चतुरता के साथ बनाए हुए झूठे आंकड़े। भौतिकवाद विरोधी संघर्ष के प्रमुख गढ़ का प्रतिनिधित्व कांटवाद के सभी संभव विभेदों द्वारा किया जाता है। समाजविज्ञान के क्षेत्र में कांटवाद का इस्तेमाल इस उद्देश्य के लिए एक ऐसे द्वैतवादी सिद्धांत के रूप में किया जाता है जो अस्तित्व और चिंतन के पारस्परिक संबंध को तोड़ देता है। चूंकि आर्थिक प्रश्नों का अध्ययन इस पुस्तक की चर्चा के विषय नहीं हैं इसलिए मैं पूंजीवादी प्रतिक्रियावाद द्वारा सैद्धांतिक क्षेत्र में व्यवहार किए जाने वाले अस्त्रों की ही चर्चा करूंगा।

अपनी पुस्तक ‘समाजवाद-काल्पनिक तथा वैज्ञानिक’ को समाप्त करते हुए एंगेल्स ने लिखा है कि जब पूंजीवादी युग द्वारा उत्पन्न उत्पादन के शक्तिशाली साधन सामाजिक

→ टिप्पणी 2)94 इसका अर्थ है कि मार्क्स आर्थिक श्रेणियों को भी उसी प्रकार उत्पादन की सामाजिक प्रक्रिया में लगे हुए मनुष्यों के पारस्परिक संबंधों की दृष्टि से देखते हैं. इन संबंधों के विकास के आधार पर ही मानव जाति के ऐतिहासिक विकास के मार्ग को व्याख्या होती है.

* इतिहास की आर्थिक व्याख्या पू. 137 (1910 के जर्मन संस्करण की टिप्पणी) ‘ईसाई धर्म की उत्पत्ति’ भी इसी प्रकार की उम्र पुस्तक है इसलिए यह पुस्तक भी सेलिगमैन की दृष्टि में निन्दा के योग्य है.

** निम्नलिखित तुलना काफी शिक्षाप्रद है. मार्क्स के कथनानुसार भौतिकवादी द्वंद्ववाद जब उस वस्तु को व्याख्या करता है जो वर्तमान है तो उसी समय यह भी बतला देता है कि उसका विलीन होना अनिवार्य है. मार्क्स के मतानुसार इसीलिए भौतिकवादी द्वंद्ववाद प्रगति की दृष्टि से इतना महत्वपूर्ण है, किंतु सेलिगमैन के अनुसार ‘समाजवाद का सिद्धांत बतलाता है कि क्या होना चाहिए, ऐतिहासिक भौतिकवाद का सिद्धांत यह बतलाता है कि क्या हो चुका है.’ (पू. 108) यही एकमात्र कारण है जिससे सेलिगमैन के लिए ऐतिहासिक भौतिकवाद की रक्षा करना संभव है. इस कथन का अर्थ है कि जहां तक भौतिकवाद वर्तमान के अनिवार्य अंत को समझाता है, वहां तक हम उसको उपेक्षा कर सकते हैं, साथ ही भूतकाल की घटनाओं की व्याख्या के लिए हम उसका प्रयोग कर सकते हैं. यहां हमें सैद्धांतिक क्षेत्र में ‘दो प्रकार के जमा खर्च वाले वही खाते (अर्थात मनमाने हिसाब) का एक उदाहरण मिलता है, जो कि आर्थिक कारणों से उत्पन्न हिसाब-किताब की एक किस्म है.

संपत्ति बन जाएंगे और जब उत्पादन ऐसी प्रणाली के अंतर्गत होगा जो सामाजिक आवश्यकताओं के अनुकूल होगी, तब ऐसा होने पर मनुष्य समाज व्यवस्था के स्वामी बन जाएंगे और इस तरह अंत में प्रकृति के तथा स्वयं अपने स्वामी बन जाएंगे। अब मनुष्य सचेतन मन से अपने इतिहास का निर्माण करना आरंभ करेंगे और उनके द्वारा संचालित सामाजिक कारण उनके मनोवांछित परिणामों को अधिकाधिक उत्पन्न करने लगेंगे। ‘मानवता आवश्यकता के राज्य से कूदकर स्वाधीनता के राज्य में चली जाएगी।95

एंगेल्स के इन शब्दों का उन लोगों ने विरोध किया है जो सामान्यतया ‘छलांगों के विचार से असहमत होने के कारण आवश्यकता के राज्य से स्वाधीनता के राज्य में जाने वाली इस प्रकार की किसी छलांग को न तो आज संभव मान सकते हैं और न भविष्य में हो संभव समझ सकेंगे। वे समझते हैं कि छलांग की यह बात वास्तव में स्वाधीनता संबंधी उस विचार के विरुद्ध है जिसे स्वयं एंगेल्स ने ड्यूहरिंग मत-खंडन के प्रथम खंड में व्यक्त किया है। इस विषय पर विचारों की जो उलझन पाई जाती है हम यदि उसका कारण समझना चाहें तो हमें यह देखना होगा कि उपर्युक्त पुस्तक में एंगेल्स ने क्या लिखा है।

हीगेल के इन शब्दों की व्याख्या करते हुए कि’ आवश्यकता केवल वहीं तक अंधी होती है जहां तक वह समझी नहीं जाती’ एंगेल्स ने कहा था कि ‘स्वाधीनता का निर्माण स्वयं हमारे तथा वाह्य प्रकृति के ऊपर स्थापित साम्राज्य में प्रकृति की निहित आवश्यकता के ज्ञान पर आधारित साम्राज्य में होता है।* एंगेल्स ने इस विचार को ऐसे ढंग से रखा है कि वह होगेल के सिद्धांत से परिचित लोगों के लिए अत्यंत स्पष्ट है किंतु दुर्भाग्य की बात यह है कि आधुनिक कांटवादी बिना होंगेल का अध्ययन किए ही उसकी आलोचना करने लगते हैं। हीगेल के सिद्धांत की जानकारी न होने के कारण वे एंगेल्स को समझने में असमर्थ हैं। एंगेल्स की आलोचना करते हुए वे कहते हैं कि जहां आवश्यकता के सामने समर्पण की बात है वहां स्वाधीनता नहीं हो सकती। ऐसा विचार उन लोगों को दृष्टि में बिलकुल सही है जिनके दार्शनिक विचार एक ऐसे द्वैतवाद से परिपूर्ण हैं जो उनके लिए चिंतन तथा अस्तित्व की एकता की स्थापना असंभव बना देता है। इस द्वैतवाद की दृष्टि से आवश्यकता से स्वाधीनता को जाने वाली ‘छलांग’ निस्संदेह समझ से परे है। किंतु मार्क्स का दर्शन फ़ायरबा के दर्शन की भांति चिंतन और अस्तित्व की एकता की घोषणा करता है। यद्यपि (जैसा कि फायरबा के विचारों का अध्ययन करते हुए हम देख चुके हैं) मार्क्स इस एकता को उससे भिन्न अर्थ में समझते हैं जिस अर्थ में विशुद्ध विचारवाद के समर्थक होगेल ने समझा था, किंतु उनका दर्शन अपने को हीगेल के दर्शन से इस विषय में अलग नहीं करता जिससे हम यहां संबंधित हैं अर्थात स्वाधीनता और आवश्यकता के पारस्परिक संबंध।

पूरी चर्चा का सार यह है कि आवश्यकता का ठीक-ठीक क्या अर्थ होना चाहिए। अरस्तू** पहले ही बतला चुका था कि आवश्यकता के कई अर्थ लगाए जाते हैं : निरोग होने

* ड्यूहरिंग मत खंडन पृ. 113.

** मेटाफिजिक्स (तत्वमीमांसा), खंड 5, अध्याय 5.

के लिए दवा खाना आवश्यक है, जीवित रहने के लिए सांस लेना आवश्यक है, पंजिना में किसी व्यक्ति को उधार दिया हुआ रुपया वापस लेने के लिए वहां जाना आवश्यक है। इन सब आवश्यकताओं को शर्तिया आवश्यकताएं कहा जा सकता है, यदि हम जीवित रहना चाहते हैं तो हमें सांस लेनी चाहिए, यदि बीमारी से मुक्ति चाहते हैं तो हमें दवा लेनी चाहिए, इत्यादि। मनुष्य को अपने से बाहर की प्रकृति पर कार्य करते हुए इस प्रकार की आवश्यकताओं का लगातार सामना करना चाहिए। यदि हम फसल काटना चाहते हैं तो बोना आवश्यक है, यदि हम हिरन को मारना चाहते हैं तो तीर छोड़ना आवश्यक है, यदि हम भाप के इंजिन को संचालित करना चाहते हैं तो ईंधन के ढेर का प्रबंध करना आवश्यक है, इत्यादि। मार्क्स की नवकांटवादी आलोचना की दृष्टि से देखने पर भी हमें यह स्वीकार करना होगा कि इस शर्तिया आवश्यकता में भी समर्पण का एक तत्व है। यदि मनुष्य बिना मेहनत किए अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता तो वह और अधिक आजाद होता। वह उस समय भी प्रकृति के सामने समर्पण करता है जब वह प्रकृति को अपने उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए बाध्य करता है। किंतु यह समर्पण उसकी मुक्ति की शर्त है। प्रकृति के सामने समर्पण करके वह प्रकृति के ऊपर अपना प्रभाव बढ़ा लेता है। इसका अर्थ है कि वह अपनी स्वाधीनता को बढ़ा लेता है। प्राविधिक तथा आर्थिक आवश्यकताओं की अनिवार्यता के सामने समर्पण करके मनुष्य उस प्रचलित निकम्मी प्रणाली का अंत कर देंगे जिसमें वे अपने निजी कार्यों के उत्पादन द्वारा ही शासित होते हैं, अर्थात वे अपनी स्वाधिनता का विस्तार कर लेंगे। यहां भी उनका समर्पण उनकी मुक्ति का साधन बन जाएगा।

इतना ही नहीं, यह सोचने के अभ्यस्त होने के कारण कि अस्तित्व और चिंतन के बीच एक बहुत बड़ी खाई है, मार्क्स के आलोचक आवश्यकता के केवल एक पहलू को स्वीकार करते हैं। एक बार फिर अरस्तू के शब्दों में कहा जा सकता है कि वे आवश्यकता को बिलकुल ऐसी शक्ति समझते हैं जो हमें अपनी इच्छाओं के अनुसार कार्य करने से रोकती है तथा हमें ऐसा कार्य करने के लिए बाध्य करती है जो हमारी इच्छाओं के विपरीत होते हैं। इस प्रकार की आवश्यकता निश्चय ही प्रत्यक्ष रूप से स्वाधीनता के विरुद्ध है और उसका न्यूनाधिक कष्टप्रद प्रभाव हमारे ऊपर पड़े बिना नहीं रह सकता। लेकिन हमें यहां भी यह नहीं भूलना चाहिए कि एक शक्ति जो मनुष्य के सामने उसकी इच्छाओं का विरोध करने वाले एक बाहरी दबाव के रूप में उपस्थित होती है, अन्य परिस्थितियों में वह अपने को एक बिलकुल भिन्न रूप में प्रकट कर सकती है। उदाहरणार्थ हम रूस की वर्तमान कृषि समस्या को लें। एक बुद्धिमान भूस्वामी- एक कैडेट (वैधानिक प्रजातंत्रवादी) की दृष्टि में ‘जमीन का जबर्दस्ती लिया जाना” कमोवेश एक कष्टदायी ऐतिहासिक आवश्यकता प्रतीत हो सकती है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं वह कष्ट जमींदार को दिए जाने वाले उचित मुआविजे की मात्रा के विपरीत अनुपात में होगा। किंतु उस किसान के विचार में जिसकी अभिलाषा बड़े बड़े भूस्वामियों की जमीन को जब्त करने की रही है, जो वस्तु न्यूनाधिक परिमाण में कष्टदायक प्रतीत होगी वह इसके विपरीत यही उचित मुआविजा है। वह अनिवार्य जब्ती को अपनी स्वतंत्र इच्छा का प्रदर्शन तथा अपनी स्वाधीनता की सबसे मूल्यवान जमानत समझेगा।

यहां मैं उस प्रश्न को छू रहा हूं जो शायद स्वाधीनता के सिद्धांत का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। इस पहलू पर एंगेल्स ने विचार नहीं किया था क्योंकि इसका अर्थ बिना अधिक व्याख्या के ही हीगेल के दर्शन से परिचित लोगों को स्पष्ट था।

हीगेल ने धर्म के अपने दर्शन में कहा था* ‘स्वाधीनता स्वयं’ अपने अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तु की इच्छा न करने में है।** यह कथन स्वाधीनता के पूरे प्रश्न पर, जहां तक उसका संबंध सामाजिक मनोविज्ञान से है, जबर्दस्त प्रभाव डालता है। वह किसान जो बड़े भूस्वामी की जमीन लेना चाहता है वह अपने आपके अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहता है। जो वैधानिक प्रजातंत्रवादी भूस्वामी किसान को जमीन देने के लिए राजी हो जाता है वह ‘अपनी बात’ नहीं करता बल्कि वही बात करता है जिसे करने के लिए इतिहास उसे बाध्य करता है। किसान स्वाधीन है किंतु जमींदार इतना बुद्धिमान है कि वह आवश्यकता के सामने समर्पण कर देता है।

किसानों की तरह ही यह बात सर्वहारा वर्ग के बारे में लागू होगी। सर्वहारा वर्ग उत्पादन के साधनों को सामाजिक संपत्ति बना देता है और सामाजिक उत्पादन का संगठन एक नए आधार पर करता है। इस तरह वह सिर्फ अपनी बात’ करता है और अपने आपको पूर्णतः स्वतंत्र अनुभव करेगा। इसके विपरीत, यदि ऐसा हो जाता है तो, पूंजीपति सबसे अच्छी हालत में भी उस भूस्वामी की हालत में होंगे जिसने वैधानिक प्रजातंत्रवादियों के कृषि संबंधी कार्यक्रम९८ को स्वीकार कर लिया था। वे निश्चय ही यह कहेंगे कि स्वाधीनता एक चीज़ है और ऐतिहासिक आवश्यकता दूसरी।

मेरा विश्वास है कि जिन लोगों ने एंगेल्स की आलोचना की है वे उन्हें समझने में असफल रहे हैं। मेरा यह भी विश्वास है कि समझ न सकने का कारण यह था कि यद्यपि वे एक पूंजीपति को स्थिति में अपनी कल्पना कर सकते थे किंतु अपने को एक मज़दूर स्थिति में रखकर सोचने में असमर्थ थे क्योंकि सामाजिक और आर्थिक कारणों से वे मजबूर थे।

* होगेल ग्रंथावली, भाग 12. पू. 98.

** (1910 के जर्मन संस्करण की टिप्पणी) स्पिनोजा पहले ही कह चुका था (Ethics Part II. Propostion 2, Scholium) कि बहुत से लोग सोचते हैं कि वे स्वतंत्रतापूर्वक काम कर रहे हैं क्योंकि वे अपने कार्यों को जानते हैं लेकिन उन कार्यों के कारणों को नहीं जानते. ‘इसी तरह बच्चा समझता है कि वह अपनो इच्छा से मां का दूध पो रहा है, कुद्ध बालक समझता है कि वह अपनी इच्छा से झगड़ा मोल ले रहा है और कायर आदमी समझता है कि वह अपनी इच्छा से भाग रहा है. इसी प्रकार के विचार दिदेरों ने भी व्यक्त किए थे. उसके भौतिकवादी सिद्धांत को धार्मिक पृष्ठभूमि से मुक्त स्पिनोसाबाद की संज्ञा दे सकते हैं.

सोलह

आधुनिक द्वैतवादी विचारधाराओं द्वारा प्रभावित पूंजीवादी सिद्धांतवेत्ता ऐतिहासिक भौतिकवाद के विरुद्ध एक और अभियोग लगाते हैं। स्टैमलर के माध्यम से वे घोषित करते हैं कि ऐतिहासिक भौतिकवाद सामाजिक प्रयोजनवाद की उपेक्षा करता है। यह दूसरी आलोचना (जो पहली आलोचना से संबद्ध है) पहली आलोचना की तरह ही आधारहीन है।

मार्क्स ने लिखा है कि ‘सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान मनुष्यों के बीच निश्चित पारस्परिक संबंध स्थापित होते हैं। स्टैमलर के कथनानुसार इस सूत्र से मालूम होता है कि स्वयं मार्क्स अपने सिद्धांत के बावजूद प्रयोजनवादी दृष्टिकोण से नहीं बच सके हैं। स्टैमलर के अनुसार मार्क्स के इन शब्दों का अर्थ है कि मनुष्य सचेतन रूप से ऐसे संबंध स्थापित करते हैं जिनके बिना उत्पादन कार्य असंभव है। वह कहता है कि इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ये संबंध एक पूर्वदर्शित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किए गए कार्यों के परिणाम होते हैं।*

यह दिखलाना आसान है कि स्टैमलर अपनी तर्क-श्रृंखला में किस जगह तार्किक भूल करता है जिससे आगे की उसकी समस्त आलोचना सारहीन हो जाती है।

हम एक उदाहरण लेकर देखें मान लें कि किसी शिकारी जाति के कुछ बर्बर लोग शिकार की खोज में हैं। वे एक हाथी का पीछा करते हैं। शिकार का पीछा करने के लिए वे एक दल बनाते हैं। अपनी ताक़तों का संगठन एक निश्चित ढंग से करते हैं। अब लक्ष्य क्या है और लक्ष्य प्राप्ति के साधन क्या हैं? प्रत्यक्षतः लक्ष्य है हाथी को पकड़ना या मारना और साधन है शिकार के लिए शक्तियों को इकट्ठा करना। लक्ष्य कैसे निर्धारित होता है ? मानव शरीर की आवश्यकताओं के द्वारा साधन कैसे निर्धारित होते हैं ? शिकार की परिस्थितियों से क्या मानव शरीर की आवश्यकताएं मनुष्य पर, मानवीय इच्छा पर निर्भर करती हैं ? नहीं, यह प्रश्न मुख्यतया शरीरविज्ञान के अंतर्गत आता है, समाजशास्त्र के अंतर्गत नहीं। इस सिलसिले में हम समाजशास्त्र से क्या मांग कर सकते हैं ? हम उससे यह बतलाने को मांग कर सकते हैं कि इस बात का क्या कारण है कि मनुष्य अपनी आवश्यकता की पूर्ति (इस उदाहरण में भोजन संबंधी आवश्यकता) के लिए अलग-अलग समय में अलग-अलग संबंध स्थापित करते हैं ? वह समाजशास्त्र, जिसके प्रवक्ता मार्क्स हैं इस प्रश्न की व्याख्या उत्पादन की शक्तियों की स्थिति को ध्यान में रखकर करता है। क्या इन शक्तियों की स्थिति मनुष्यों की इच्छा तथा उनके उद्देश्यों पर निर्भर करती है जिनको प्राप्त करने के लिए वे प्रयास करते हैं ? यहां भी समाजशास्त्र मार्क्स के माध्यम से स्पष्ट कर देता है कि इस प्रकार को कोई निर्भरता नहीं है। यदि ऐसी कोई निर्भरता नहीं है तो इसका अर्थ है कि उत्पादन की • शक्तियां एक निश्चित आवश्यकता का परिणाम हैं। यह आवश्यकता उन शक्तियों द्वारा

* अर्थव्यवस्था और कानून (जर्मन) दूसरा संस्करण, पृ. 421.

निर्धारित होती है जो मनुष्य के बाहर होती हैं।

उपर्युक्त विचारों का निष्कर्ष क्या है? निष्कर्ष यह है कि यद्यपि आखेट एक ऐसा कार्य है जो उस लक्ष्य के अनुकूल है जिसके लिए बर्बर लोग प्रयासशील हैं; फिर भी यह निर्विवाद सत्य मार्क्स के इस कथन को किंचित मात्र असत्य नहीं ठहराता कि शिकार करने वाले बर्बर लोगों के बीच भी उत्पादन के संबंध स्थापित होते हैं। उत्पादन के संबंधों की स्थापना एक ही उद्देश्य के लिए किए जाने वाले कार्य पर बिल्कुल निर्भर परिस्थितियों के कारण नहीं होती है। दूसरे शब्दों में, यद्यपि आदिम शिकारी यथासंभव शिकार मारने के लिए सचेत रूप से इच्छुक रहता है किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि वह कम्युनिज्म जो एक शिकारी जाति के जीवन की विशेषता है उसके कार्यों के लक्ष्य के अनुकूल वस्तु के रूप में उत्पन्न हुआ। है। नहीं, यह कम्युनिज्म श्रम के एक ऐसे संगठन के अचेतन अर्थात आवश्यक परिणाम के तौर पर पैदा हुआ है। अथवा यह दृष्टिगत रखते हुए कि वह दीर्घकाल से वर्तमान है, यह कहना उचित होगा कि वह क़ायम रह सका है जिसका स्वरूप मनुष्यों की इच्छा से पूर्णत: स्वतंत्र है।* कांटवादी स्टैमलर इसी बात को समझने में असफल रहा है। इसी जगह पर वह रास्ते से भटक गया है और उसका अनुकरण स्टूवे बुलगाकोव आदि तथा अन्य असंख्य अस्थायी मार्क्सवादियों ने किया है।**

अपनी आलोचना जारी रखते हुए स्टैमलर कहता है कि यदि समाज विकास केवल हेतुतात्मक (प्रयोजनमूलक) आवश्यकता के परिणामस्वरूप घटित होता है तो इस विकास में सहायक होने का कोई भी सचेतन प्रयास प्रत्यक्षतः निरर्थक होगा। उसके दो विकल्पों में से एक को पसंद करना चाहिए या तो हम किसी विशेष घटना को आवश्यक मतानुसार हमें अर्थात अनिवार्य समझते हैं और इस हालत में उसके घटित होने में हमें सहायक होने का कोई अवसर नहीं रहता है या फिर उस घटना के घटित होने में हमारा सहयोग है और यदि ऐसा होता है तो हम उस घटना को अपने सहयोग से आवश्यक रूप में परे नहीं कह सकते हैं। सूर्य के उदय होने में सहयोग देने का कौन प्रयत्न करता है ? सूर्य का उदय होना आवश्यक अर्थात अनिवार्य है। ***

कांटवाद में पगे लोगों की विशेषता है उनका द्वैतवाद। यहां उनके द्वैतवाद का ज्वलंत उदाहरण मिलता है। उनकी दृष्टि में चिंतन सदैव अस्तित्व से अलग होता है।

सूर्य के उदय होने का किसी भी प्रकार कार्य या कारण रूप में मनुष्य के सामाजिक संबंधों से कोई वास्ता नहीं है। इसीलिए हम उसे मनुष्यों की सचेतन आकांक्षाओं के मुकाबले

*’आवश्यकता स्वाधीनता की तुलना में अचेतनता के अलावा और कुछ भी नहीं मालूम पड़ती है. ‘शेलिंग, अनुभववातीत आदर्शवाद की प्रणाली, 1800 ई., पृ. 424.

** स पहलू की विस्तृत चर्चा मेरी पुस्तक ऐतिहासिक ऐक्यवाद के विभिन्न भागों में है।100

***अर्थव्यवस्था और कानून, पृ. 421, तुलनीय, साथ ही, शासन कला का शब्दकोश में स्टैमलर का लेख, इस पहलू की विस्तृत चर्चा मेरी पुस्तक ऐतिहासिक ऐक्यवाद के विभिन्न भागों में हैं. ‘इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या, पृ. 735-37..

एक प्राकृतिक घटना के तौर पर पेश कर सकते हैं, जिसका उनसे (मनुष्य की सचेतन आकांक्षाओं से) कोई हेतुतात्मक संबंध नहीं है। किंतु जब हम इतिहास की सामाजिक घटनाओं पर विचार करने लगते हैं तो यह मामला बहुत भिन्न प्रकार का हो जाता है। हम पहले से ही जानते हैं कि इतिहास का निर्माण मनुष्यों द्वारा होता है, इसलिए मानवीय आकांक्षाओं की गणना ऐतिहासिक विकास के तत्वों के रूप में करनी ही होगी। किंतु मनुष्य इतिहास का निर्माण एक विशेष ढंग से करते हैं और यह ढंग एक आवश्यकता के ऊपर निर्भर करता है जिसके बारे में हम पहले ही काफ़ी कह चुके हैं। इस आवश्यकता के निश्चित हो जाते ही मनुष्यों की आकांक्षाएं जो इतिहास के विकास में एक महत्वपूर्ण तत्व हैं, भी निश्चित हो जाती हैं। ये आकांक्षाएं आवश्यकता से पृथक नहीं होती हैं बल्कि स्वयं उसके द्वारा निर्धारित होती हैं। अतः उन्हें इसी आवश्यकता के विपरीत बतलाना एक महान तार्किक भूल है।

जब मुक्ति की आकांक्षा रखने वाला कोई वर्ग सामाजिक क्रांति करना चाहता है तो वह ऐसे ढंग से काम करता है जो उसके इच्छित उद्देश्य के अत्यधिक अनुकूल रहता है और हर हालत में उसका कार्य उस क्रांति का कारण होता है। किंतु यह कार्य उन सब आकांक्षाओं के सहित, जिनके कारण यह संपन्न होता है, स्वयं आर्थिक विकास का परिणाम होता है और इसलिए वह स्वयं आवश्यकता द्वारा निर्धारित होता है।

समाजशास्त्र केवल उसी अंश में विज्ञान बनता है जिस हद तक समाजशास्त्री सामाजिक मनुष्य में विशेष लक्ष्यों के प्रकट होने (सामाजिक प्रयोजनवाद’) को सामाजिक प्रक्रिया के एक आवश्यक परिणाम के रूप में समझने में सफल होते हैं जो अंतिम तौर पर आर्थिक विकास के घटनाक्रम द्वारा निर्धारित होती है।

एक विशेष परिस्थिति आ गई है कि इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या के निरंतर विरोधी यह सिद्ध करना आवश्यक समझते हैं कि समाजशास्त्र का अस्तित्व एक विज्ञान के रूप में कायम नहीं रह सकता है। इसका अर्थ है कि उनकी आलोचनात्मक ‘दृष्टि’ हमारे युग की वैज्ञानिक उन्नति में बाधक बन जाती है। जो लोग दार्शनिक सिद्धांतों के इतिहास की एक वैज्ञानिक व्याख्या की खोज मेहैं उनके लिए यह अध्ययन करना रुचिकर होगा कि किस ‘प्रकार ‘आलोचना’ की यह भूमिका आधुनिक समाज में चलने वाले वर्ग संघर्ष से संबद्ध है।

यदि मेरी प्रवृत्ति एक ऐसे आंदोलन में भाग लेने की है जिसकी विजय मुझे एक ऐतिहासिक आवश्यकता प्रतीत होती है, तो इसका केवल यही अर्थ है कि मैं अपने निजी कार्य को भी उसी प्रकार उन परिस्थितियों की श्रृंखला में एक आवश्यक कड़ी समझता हूं जिनका योग आवश्यक रूप से मेरे प्रिय आंदोलन की विजय को निश्चित कर देगा। इसका मतलब न तो इससे ज्यादा है और न कम। एक द्वैतवादी के लिए यह समझना मुश्किल होगा किंतु मेरी बात कोई भी ऐसा व्यक्ति स्पष्टतः समझ सकेगा जिसने मन तथा वस्तु की एकता के सिद्धांत को भली भांति समझ लिया है और जो यह भी समझ गया है कि किसी सामाजिक घटना में यह एकता किस प्रकार अपने को प्रदर्शित करती है।

यह तथ्य इतना महत्वपूर्ण है कि उत्तरी अमरीका में प्रोटेस्टेंट धर्म के सिद्धांतवेत्ता यह समझने में बिलकुल असमर्थ हैं कि स्वाधीनता और आवश्यकता के बीच कोई विरोध भी है। कहने का मतलब कि ऐसा भी कोई विरोध है जिसने यूरोप के पूंजीपतियों के अनेक सिद्धांतवेत्ताओं के मन पर काफ़ी प्रभाव डाला है और अब भी डाल रहा है। एच. बार्गी ने लिखा है कि ‘ अमरीका में ऊर्जा के शिक्षकों की प्रवृत्ति इच्छा की स्वाधीनता को मान्यता देने की नहीं है।” वह इस कथन को यह कहकर समझता है कि चूंकि ऐसे लोग व्यावहारिक आदमी होते हैं, इसलिए वे ‘भाग्यवादी निर्णयों’ को पसंद करते हैं। बार्गी गलत है। भाग्यवाद का इस विषय से कोई संबंध नहीं है। यह स्वयं उसी के कथन से स्पष्ट है जो उसने नैतिकतावादी जोनाथन एडवर्ड्स के बारे में कहा था कि ‘एडवर्ड्स का दृष्टिकोण… किसी भी व्यावहारिक मनुष्य का दृष्टिकोण है। उस हर व्यक्ति के लिए जिसने कभी भी अपने जीवन में एक निश्चित लक्ष्य तक पहुंचने के लिए कार्य किया है, स्वाधीनता का अर्थ है अपनी सब शक्तियों को इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए लगाने की योग्यता। इसको सुंदर ढंग से रखा गया है। यह ही गेल के उस कथन से बहुत मिलता-जुलता है कि मनुष्य’ अपने आपके अलावा और कुछ नहीं चाहता है। जब कोई व्यक्ति अपने आपके अलावा और कुछ नहीं चाहता है तब वह भाग्यवादी नहीं बल्कि एक बिलकुल कर्मठ मनुष्य है।

कांटवाद संघर्ष का दर्शन नहीं है या यों कहें कि वह कर्मठ मनुष्यों का दर्शन नहीं है। यह आधे मन से काम करने वालों का समझौते का दर्शन है।

एंगेल्स के अनुसार वर्तमान सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन के उपायों की खोज उत्पादन की वर्तमान भौतिक परिस्थितियों में करनी होगी। उन उपायों का आविष्कार कोई समाज सुधारक नहीं कर सकता। स्टैमलर यहां एंगेल्स से सहमत है किंतु वह एंगेल्स पर अस्पष्टता का आरोप लगाता है और कहता है कि मूल प्रश्न है कि हमें यह जानना चाहिए कि ‘किस प्रणाली की सहायता से खोज की जानी चाहिए।** इस आपत्ति से केवल यही मालूम होता है कि स्टैमलर के अपने मन में ही उलझन का साम्राज्य है। अगर हम इस बात को दृष्टिगत रखें कि यद्यपि ऐसे मामलों में इस प्रणाली का स्वरूप अनेक विभिन्न तत्वों द्वारा निर्धारित होता है किंतु अंततोगत्वा इन तत्वों के संबंध में भी उनके मूल निर्धारकों अर्थात आर्थिक विकास की प्रगति का उल्लेख किया जा सकता है, तो आपत्ति अपने आप समाप्त हो जाती है। मार्क्सवादी सिद्धांत का जन्म पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के विकास द्वारा निश्चित हुआ, जबकि मार्क्स से पहले समाजवाद में काल्पनिकता की प्रधानता को उस समाज के सिलसिले में पूरी तरह समझा जा सकता है जो कि केवल पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के विकास के कारण ही पीड़ित नहीं था वरन उसके विकास की अपूर्णता से (और भी अधिक) कष्ट उठा रहा था।

* एच. बाग, धर्म और समाज के बीच के संबंध (मूल फ्रांसीसी में) पेरिस, 1902, पृ. 88-89.

** वहीं पृ. 97-98.

*** शब्दकोष, खंड V पृ. 736.

मुझे इस विषय पर और विस्तारपूर्वक कहने की आवश्यकता नहीं है। किंतु शायद पाठक इसे अनुचित नहीं समझेंगे यदि मैं इस बहस को खत्म करने के पहले उनका ध्यान मार्क्स और एंगेल्स की कार्यनीति संबंधी प्रणाली तथा उनके ऐतिहासिक सिद्धांत के मूलभूत सूत्रों के बीच के गहरे संबंधों की और आकर्षित करूं।

हम यह जान चुके हैं कि मानव जाति अपने सामने कभी भी ऐसा लक्ष्य नहीं रखती जिसे पूरा करने की उसमें क्षमता न हो ‘क्योंकि नया लक्ष्य केवल उसी समय आता है जब अस्तित्व की भौतिक परिस्थितियां उसको सफलतापूर्वक प्राप्त करने के लिए परिपक्व हो चुकी होती हैं या हर हालत में परिपक्व होने लगती है। किंतु जहां परिस्थितियां पहले से मौजूद होती हैं वहां हमारे सामने एक बिलकुल भिन्न नई स्थिति होती है उस हालत की तुलना में जिसमें परिस्थितियां ‘परिपक्व होने लगी हैं)। पहली हालत में आकस्मिक परिवर्तन का क्षण आ चुका होता है, जबकि बाद में बताई गई स्थिति में आकस्मिक परिवर्तन कमोवेश दूर का विषय होता है- एक ‘अंतिम लक्ष्य’ जहां तक पहुंचने का रास्ता सामाजिक वर्गों के पारस्परिक संबंधों में क्रमिक परिवर्तनों के पूरे सिलसिले द्वारा तय होता है। उस समय जबकि’ छलांग’ नामुमकिन होती है, परिवर्तनवादियों की क्या भूमिका होनी चाहिए ? स्पष्ट है कि ये क्रमिक परिवर्तनों में योगदान करने के अलावा अधिक कुछ नहीं कर सकते हैं यानी वे सुधारों के लिए प्रयास कर सकते हैं। इस तरह अंतिम लक्ष्य और सुधारों के अलग अलग महत्व है। सुधारों को अंतिम लक्ष्य का विरोधी बताना निरर्थक है और ऐसा केवल काल्पनिक कहानियों के क्षेत्र में ही हो सकता है। जो इस प्रकार के विरोध पर जोर देते हैं, चाहे वे एडवर्ड बर्नस्टीन की तरह जर्मन संशोधनवादी हो या फेरारा के हाल के सम्मेलन के इटालियन क्रांतिकारी सिंडिकलिस्टों जैसे लोग हों, वे सिद्ध कर देते हैं कि वे आधुनिक वैज्ञानिक समाजवाद के मूलतत्व तथा उसकी प्रणाली को समझने में अक्षम हैं। इस बात पर उस समय तौर देना ठीक होगा जब सुधारवादी और सिंडिकलिस्ट मार्क्स के नाम पर बोलने का साहस करें।

इन शब्दों में कितना स्वस्थ आशावाद है ‘मानव जाति अपने सामने कभी ऐसा कोई लक्ष्य नहीं रखती जिसे प्राप्त करने में वह समर्थ न हो।’ स्पष्ट है कि इन शब्दों का अर्थ यह नहीं है कि मानवता की महान समस्याओं के प्रत्येक हल को संयोगवश आने वाले कल्पनावादी को प्रत्येक योजना को अच्छा मान लेना चाहिए। कल्पनावादी और मानव जाति एक दूसरे भिन्न है। इसी बात को और भी निश्चित शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है- कल्पनावादी और वह सामाजिक वर्ग जो किसी विशेष समय में मानव जाति के महान हितों का प्रतिनिधित्व करता है, एक दूसरे से भिन्न होते हैं। मार्क्स ने ठीक हो कहा है:

एक निश्चित ऐतिहासिक कार्य द्वारा जीवन जितना ही अधिक प्रभावित होता है, उसमें भाग लेने वाली जनता की संख्या उतनी ही अधिक होती है।64

ये शब्द ऐतिहासिक प्रश्नों के संबंध में किसी भी कल्पनावादी प्रवृत्ति की निश्चित रूप से निंदा करते हैं। फिर यदि मार्क्स कहते हैं कि मानव जाति कभी भी अपने सामने कोई ऐसी समस्या नहीं रखती जिसे हल करना संभव न हो तो उनके ये शब्द सैद्धांतिक दृष्टि से मन और वस्तु को एकता को एक नए रूप में पेश करते हैं। यह बतलाया गया है कि ह विचार ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया पर कैसे लागू होता है। व्यावहारिक दृष्टि से इन शब्दों के द्वारा अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति में धैर्यपूर्ण प्रबल विश्वास की अभिव्यक्ति होती है जिससे प्रेरित होकर अविस्मरणीय एन. जी. चेनशेव्सकी ने उत्साहपूर्ण दृढ़ता के साथ एक बार कहा था, जो कुछ भी हो, विजय हमारी होगी।105

परिशिष्ट 106

मार्क्स और एंगेल्स का दर्शन भौतिकवादी दर्शन मात्र नहीं है, वह द्वंद्वात्मक भौतिकवाद है। इस विचारधारा के ख़िलाफ़ दो प्रकार की आपत्तियां उठाई जाती हैं, पहली आपत्ति तो यह है कि द्वंद्ववाद आलोचना के सामने ठहर नहीं सकता तथा दूसरी यह कि भौतिकवाद से द्वंद्वावाद का कोई तालमेल नहीं है। आइए इन दोनों ही आपत्तियों पर विचार किया जाए।

पाठकों को शायद याद होगा कि बर्नस्टीन ने मार्क्स और एंगेल्स की गलतियों का बयान करते हुए कहा था कि उनकी विचारधारा पर द्वंद्ववाद ने हानिकारक प्रभाव डाला है। सामान्य तर्कशास्त्र तो इस फार्मूले को मानता है कि ‘हां हां है और नहीं नहीं’, जबकि द्वंद्वात्मक तरीके में यह फ़ार्मूला बिलकुल उलट जाता है, मिसाल के लिए ‘हां नहीं बन जाता है, तथा नहीं ‘हां’। इस दूसरे फार्मूले के प्रति अपनी घृणा के मातहत बर्नस्टीन ने एलान कर डाला कि इससे मनुष्य खतरनाक तार्किक लालचों और ग़लतियों का शिकार हो जाएगा। पाठकों का एक बहुत बड़ा समुदाय – जिसको शिक्षित समझा जाता है- शायद उनसे (बर्नस्टीन) सहमत भी हो गया जिसका कारण यही था ‘हां को नहीं और नहीं को हां बताने वाला फ़ार्मूला चिंतन के बुनियादी और निश्चित नियमों का विरोधी प्रतीत होता था। हमें मामले के इसी पहलू पर विचार करना चाहिए।

चितन के बुनियादी नियम तीन माने जाते हैं: (1) समानता का नियम (2) अंतर्विरोध का नियम तथा (3) खारिजशुदा मध्य का नियम।

समानता के नियम के अनुसार ‘अ”अ’ है अर्थात अ-अ।

अंतर्विरोध के नियम के अनुसार ‘अ अ नहीं है, वह तो केवल पहले नियम का प्रतिकूल रूप है।

खारिजशुदा मध्य के नियम के अनुसार दो परस्पर विरोधी निर्णय, जो अपना अलग अलग स्थान रखते हों, दोनों ही गलत नहीं हो सकते। अर्थात ‘अ या तो ब है या ब नहीं है।’ इन दोनों निर्णयों में से किसी एक को सत्यता आवश्यक रूप से दूसरे को असत्यता को प्रमाणित कर देती है। इसलिए न तो कोई मध्य है और न हो हो सकता है।

उबरवेग ने बताया है कि अंतर्विरोध के नियम तथा खारिजशुदा मध्य के नियम को निम्नलिखित तार्किक नियम में एकताबद्ध किया जा सकता है। हर ठोस या विशिष्ट प्रश्न जिसे प्रत्यक्ष रूप में समझा जाता हो- का उत्तर हमें हां या नहीं में देना चाहिए, उसमें चाहे किसी विशिष्ट कर्ता के लिए कोई विशिष्ट विधेय हो या नहीं।* हम उस प्रश्न का उत्तर हां

तर्कशास्त्र की प्रणाली, बान, 1874 219 (मूल)

84 • मार्क्सवाद की मूल समस्याएं

और नहीं दोनों में नहीं दे सकते।

इस नियम की यथार्थता पर आपत्ति उठाना बड़ा ही कठिन है। परंतु अगर यह नियम दुरुस्त है तो ‘हां नहीं है तथा नहीं हां है’ का फार्मूला ग़लत मान लेना चाहिए और फिर अगर हम से पूछा जाए कि हेराक्लिट्स, हीगेल और मार्क्स जैसे दिग्गज विचारकों ने इस फार्मूले को ‘हां-हां है तथा नहीं-नहीं’ की अपेक्षा अधिक संतोषजनक कैसे बताया तो हमारे पास इसके अलावा कोई जवाब नहीं होगा कि हम भी हर बर्नस्टीन की तरह सवाल को सुनकर उसकी खिल्ली उड़ाते हुए हंस पड़ें और स्वीकार करें कि हम स्वयं इस बात को समझ नहीं पा रहे हैं; क्योंकि यह फ़ार्मूला उपरोक्त बयान किए गए चिंतन के बुनियादी नियमों के साथ बड़ी मजबूती से जुड़ा हुआ है।

यह निष्कर्ष द्वंद्ववाद के लिए घातक है और निर्विवाद सा प्रतीत होता है, परंतु इसे ग्रहण करने से पहले विषय को दूसरे दृष्टिकोण से भी देख लेना चाहिए।

तमाम प्राकृतिक प्रक्रियाओं की जड़ में पदार्थ की गतिशीलता विद्यमान है।* लेकिन यह गतिशीलता क्या चीज़ है? कुछ परस्पर विरोधी बात सी प्रतीत होती है। अगर आपसे पूछा जाए कि कोई गतिशील वस्तु किसी विशेष समय पर किस विशेष स्थान पर होगी तो आप चाहे जितना प्रयास करें, उबरवेग के नियम, अर्थात ‘हां हां है तथा नहीं-नहीं’ के प्रयोग से इस प्रश्न का उत्तर न दे सकेंगे। कोई भी गतिशील वस्तु किसी विशेष स्थान पर होती भी है और नहीं भी होती है ** |

उक्त वस्तु के बारे में निर्णय लेने का केवल एक ही तरीक़ा है और वह ‘हां नहीं है तथा नहीं हां’ वाले फार्मूले के अनुसार है। इस तरह यह तथ्य अकाट्य रूप से ‘अंतर्विरोध के तर्क’ के पक्ष में जाता है। जो कोई भी व्यक्ति इस तर्क को स्वीकार नहीं करता उसे जेनो और ईलिया के साथ यह एलान करना पड़ेगा कि गतिशीलता कोई चीज है ही नहीं, वह तो केवल अनुभूतियों का भ्रम मात्र है। हमारे सहयोगी श्री एन. जी. 10′ भी द्वंद्ववाद के घनघोर विरोधी हैं परंतु वह गंभीर बिलकुल नहीं हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि वह उसको समझते ही नहीं हैं। उनका कहना है कि सर्वांग रूप से, गतिशील कोई भी वस्तु ‘जब किसी स्थान पर होती है तो उसी समय उसके किसी दूसरे स्थान पर उपस्थित होने के फलस्वरूप अकाट्य

* मैं प्रक्रिया के वस्तुगत पहलू का जिक्र कर रहा हूं। “Une volition est, pour le cerveau, un mouvment d’un certain systeme de hibres. Dans lame cest cequ’elle eprouve en consequence du mouvement des fibres.” Robinet, De la nature, t. 1. ch XXIII partie IV p. 440 if की’ मेरे लिए या मनोगत रूप से जो पूरी तरह बौद्धिक या दार्शनिक गतिविधि है, वह खुद के लिए वस्तुनिष्ठ रूप से क्या है, रचनावली 11. पू. 350.

** यह ऐसा तब्य है जिसे द्वंद्ववादी तरीके के घोर विरोधियों को भी स्वीकार करना ही पड़ेगा. ए. ट्रेडेलेन का कहना है कि’ गति’… ‘उन बिंदुओं के संभावित शब्द जो एक जैसे हैं या नहीं है (तार्किक प्रश्न, लाइमंजिंग, 1870 1, 189) इस स्थान पर उबरवेग के इस कथन को दुहराना बिलकुल बेकार है कि ट्रेनडेलेनबर्ग को ‘गति के स्थान पर ‘गतिशील वस्तु’ की चर्चा करनी चाहिए थी.

रूप से यह प्रमाणित हो जाता है कि वह नहीं है, नहीं तो यह फिर दूसरे स्थान पर कैसे पहुंच जाती ? क्या वह पहले स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचती है?’ आगे चलकर वह कहते हैं कि अगर हम यह मान लें कि कोई वस्तु किसी निश्चित समय में किसी निश्चित स्थान पर तो होती है, परंतु सर्वांग रूप से नहीं, तो भी हमें यह याद रखना चाहिए कि टहराव की में भी किसी भी वस्तु के विभिन्न अंग भिन्न-भिन्न स्थानों पर होते हैं।*

यद्यपि यह सब पिटी पिटाई दलीलें हैं परंतु हम मान लेते हैं। लेकिन श्री एन. जी द्वारा प्रस्तुत उपरोक्त दलीलों से साबित क्या होता है ? उनसे साबित होता है कि गति या गतिशीलता एक असंभव बात है। बहुत ही खूब यह एक ऐसा नतीजा है जिसके बारे में मैं बिलकुल बहस नहीं करूंगा लेकिन मैं उन्हें अरस्तू का एक कथन, जिसे प्राकृतिक विज्ञान दिन प्रतिदिन और अधिक साबित करता जा रहा है, की याद दिलाना चाहूंगा। उन्होंने कहा था कि गतिशीलता से इनकार करके हम प्रकृति के बारे में किसी भी तरह के अध्ययन की असंभव बना देते हैं।** क्या श्री एन. जी. का उद्देश्य भी यही है? क्या उस ‘प्रमाणित पत्रिका’ का उद्देश्य भी यही था जिसने उनका घोर विद्वत्तापूर्ण लेख प्रकाशित किया था ? यदि उन दोनों में ही गतिशीलता से इनकार करने का साहस नहीं था तो दोनों को ही सेनों की असाध्य कठिनाई (aporia) को ध्यान में रखना चाहिए था जिसमें स्पष्ट तौर पर गतिशीलता को कार्यरूप में अंतर्विरोध की शक्ल में स्वीकार किया गया है। अर्थात श्री एन. जी. जिस बात को गलत साबित करने निकले थे वही उनके माथे मढ़ दी गई। श्री एन.जी. न भूलें कि उनके भी आलोचक पड़े हुए हैं।

मैं उन सभी लोगों से, जो गतिशीलता से इनकार नहीं करते, यह पूछना चाहता हूं कि चिंतन के ऐसे ‘बुनियादी नियम’ को लेकर हम क्या करें जो अस्तित्व के बुनियादी तथ्य के विपरीत है। हमें इस प्रकार के ‘नियम’ को क्या खूब सावधानी की दृष्टि से देखना नहीं चाहिए ?

ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे सामने दो विकल्प प्रस्तुत कर दिए गए हैं, या तो हम चालू तर्कशास्त्र के ‘बुनियादी नियमों को स्वीकार करते हुए गतिशीलता से इनकार कर दें, या इसके विपरीत हम गतिशीलता को स्वीकार करें और उपरोक्त नियमों को अस्वीकार कर दें। इस प्रकार के विकल्पों के बारे में अगर कम से कम बात भी कही जाए तो यही होगी कि यह अरुचिकर हैं। आइए इस पर विचार करें कि क्या इससे बचने का कोई उपाय है।

पदार्थ की गतिशीलता सभी प्राकृतिक प्रक्रियाओं की जड़ में विद्यमान है। परंतु गतिशीलता एक अंतर्विरोध है। उसे द्वंद्वात्मक तरीके से देखना चाहिए अर्थात हर बर्नस्टीन के फार्मूले के कथनानुसार ‘ हां नहीं है और नहीं हो।’ अतएव हमें स्वीकार करना चाहिए कि जब तक हम सभी प्रक्रियाओं के आधार की चर्चा करते हैं उस समय तक ‘अंतर्विरोध के तर्कशास्त्र’ की सीमाओं के अंदर रहते हैं। परंतु पदार्थ के कण जब गतिशील होते हैं तो

* भौतिकवाद और द्वंद्वात्मक तर्कशास्त्र, रूपकोये बोगादस्वी, जुलाई 1898,पृ. 94-96.

** मैटाफिजिक्स I, VII, 59.

के कुछ दूसरे कणों से मिलते हैं और वस्तुओं का निर्माण करते हैं। इस प्रकार के सम्मिलन कमोबेश शक्तिशाली होते हैं, एक विशेष समय तक क़ायम रहते हैं और फिर दूसरी वस्तुओं रूप में विलीन हो जाते हैं। केवल पदार्थ की गतिशीलता ही अमर है और पदार्थ ही ऐस वस्तु है जिसे नष्ट नहीं किया जा सकता। परंतु पदार्थ की गतिशीलता के फलस्वरूप जब किसी अस्थायी सम्मिलन का स्वरूप सामने आता है और जब तक उसी पदार्थ की गतिशीलता के फलस्वरूप सम्मिलन विलीन नहीं हो जाता उस समय तक उसके अस्तित्व के प्रश्न का उत्तर आवश्यकतावश सकारात्मक रूप से दिया जाना चाहिए। इसलिए अगर कोई व्यक्ति मंगलग्रह की ओर इशारा करते हुए हम से प्रश्न करेगा कि क्या उसका अस्तित्व है तो हमारा जवाब यही होगा कि हां उसका अस्तित्व है। परंतु अगर हमसे पूछा जाए कि क्या जादूगरनियों का अस्तित्व है तो हम फैसलाकुन तौर पर जवाब देंगे कि नहीं उनका अस्तित्व नहीं है। इस सारी बात को कैसे समझा जाए? इसको इस तरह समझा जा सकता है कि जब हम अलग अलग वस्तुओं के बारे में विचार कर रहे हों तो हमें अपने निर्णय में उबरवेग के उपरोक्त नियम का पालन करना चाहिए और सामान्य तरीक़े पर विचार करते समय ‘चिंतन के बुनियादी नियमों का पालन करना चाहिए। इस क्षेत्र में हर बर्नस्टीन के प्रिय ‘फ़ार्मूले ‘हां हां है और नहीं नहीं’ का प्रभाव सबसे अधिक है। *

यहां भी, आकस्मिक तौर पर, इस फ़ार्मूले का अमल असीमित नहीं है। कोई भी वस्तु, जो अस्तित्व में आ चुकी है, की वास्तविकता के सवाल का जवाब सकारात्मक ही होना चाहिए। परंतु यदि कोई वस्तु अस्तित्व में आने की प्रक्रिया में ही हो तो हम जवाब देने में हिचकिचाहट दिखा सकते हैं। जब किसी आदमी के सर से आधे बाल गिर जाते हैं तो हम उसे गंजा कहने लगते हैं परंतु यह कैसे निश्चित किया जाए कि कितने बालों के गिरने पर वह विशेष अवस्था आती है जिसमें गंजे शब्द का प्रयोग उपयुक्त हो जाता है।

किसी वस्तु विशेष में कोई विशेष गुण हैं या नहीं, इस ठोस सवाल का जवाब हां या नहीं में ही दिया जा सकता है। उसके जवाब के बारे में कोई संदेह नहीं हो सकता। लेकिन जब कोई वस्तु परिवर्तन की प्रक्रिया में हो, किसी गुण विशेष को छोड़ रही हो, या कोई अन्य गुण ग्रहण कर रही हो तो उसके बारे में भला क्या जवाब दिया जा सकता है ? इसमें भी दो रायें नहीं हैं कि इस मामले में निश्चित जवाब देना लाज़मी है: कुल मामले का निष्कर्ष यह है कि वही जवाब निश्चित और ठोस होगा जो ‘हां हां है और नहीं-नहीं है’ के फ़ार्मूले पर

• इस फार्मूले में, उबरवेग द्वारा बयान किए गए (लॉजिक 196), ऐतिहासिक निर्णय, उदाहरण के लिए अफलातून ईसा से 429, 428 या 427 वर्ष पहले कब पैदा हुए थे, भी शामिल हैं. मुझे इस सिलसिले में एक नौजवान रूसी क्रांतिकारी-जो सन् 1882 में जेनेवा आया था- का उत्तर बरबस याद आता है, उससे पुलिस में अनेक सवाल पूछ डाले. एन. आई. सुकोवोस्की ने, जिन्होंने उसके वहां पहुंचने का प्रबंध किया था, पूछा : ‘तुम कहां पैदा हुए थे ?’ अत्यंत सतर्क षड्यंत्रकारी ने उत्तर दिया, ‘कई गांवों में।’ इस उत्तर पर गरज कर बोले थे, ‘तुम्हारी इस बात पर कौन विश्वास कर सकता है ?’ द्वंद्ववादी तरीक़े के अधिकांश कट्टर समर्थक भी इस बात से सहमत होंगे. जुकोवोस्की

आधारित है। उबरवेग द्वारा प्रतिपादित फ़ार्मूले ‘हां भी हो सकता है और नहीं भी’ के अनुसार कोई निश्चित जवाब नहीं दिया जा सकता।

निश्चित रूप से यह आपत्ति की जा सकती है कि किसी वस्तु का गुण विशेष जो नष्ट हो रहा है अभी भी उसमें विद्यमान है और जो गुण ग्रहण किया जा रहा है वह भी प्रविष्ट हो चुका है, इसलिए अगर परीक्षण वस्तु परिवर्तन की अवस्था में भी है तो भी ‘हां या नहीं’ फ़ार्मूले के अनुसार निश्चित जवाब दिया जाना संभव भी है और लाजमी भी। लेकिन यह आपत्ति बिलकुल ग़लत है। एक नवयुवक जिसकी ठुड्ढी के नीचे बाल उगने शुरू हो जाएं, उसके बारे में यह बात तो निस्संदेह कही जा सकती है कि उसके दाढ़ी उग रही है मगर उसे दढ़ियल कहने के लिए यही पर्याप्त कारण नहीं है। उसके ढुड्ढी के नीचे अभी पूरी तरह दाढ़ी उग नहीं पाई है हालांकि उगने वाले बाल दाढ़ी बनते जा रहे हैं। गुणात्मक रूप धारण करने के लिए किसी भी परिवर्तन को एक निश्चित परिमाण तक पहुंचना जरूरी है। जो आदमी इस बात को भूल जाता है वह पदार्थों के गुणों के बारे में निश्चयात्मक निर्णय देने की संभावना से वंचित हो जाता है।

इफ़ेसस’0′ के एक पुरातन विचारक ने कहा है, ‘हर वस्तु गतिशील है तथा हर वस्तु में परिवर्तन हुआ करता है।’ जिन मिले-जुले तत्वों को हम वस्तु या पदार्थ की संज्ञा देते हैं वह लगातार या कमोबेश तीव्र परिवर्तन के दौर से गुजरते रहते हैं। जब तक वह मिले-जुले तत्व अपनी पुरानी अवस्था में क़ायम रहते हैं उस समय तक हम उन्हें हां हां है और नहीं नहीं’ के फ़ार्मूले के अनुसार देखने के लिए मजबूर रहते हैं। और जब वही मिले-जुले तत्व परिवर्तित हो जाते हैं और अपनी पुरानी अवस्था में नहीं रहते उस समय हमें अंतर्विरोध के तर्क का सहारा लेना पड़ता है; हमें तमाम बर्नस्टीनों, श्री एन. जी. तथा समस्त अध्यात्मवादी बिरादरी की नाखुशी मोल लेकर भी कहना चाहिए, ‘इसका जवाब हां और नहीं दोनों में दिया जा सकता है, दोनों ही अवस्थाएं मौजूद हैं भी और नहीं भी।’

जिस प्रकार किसी वस्तु का ठहराव की स्थिति में होना गतिशीलता की एक निश्चित अवस्था है, उसी प्रकार औपचारिक तर्कशास्त्र के नियमों (अर्थात विचारधारा के बुनियादी नियमों) के अनुसार चिंतन भी द्वंद्वात्मक विचारधारा की एक निश्चित अवस्था है।

प्लेटो (अफ़लातून) के एक शिक्षक क्राटिलस का कहना था कि वह हेराक्लीट्स के इस कथन से सहमत नहीं था कि ‘हम किसी एक ही नदी में दो बार अंदर नहीं जा सकते।’ क्राटिलस ने इस बात पर जोर दिया कि हम एक बार भी अंदर नहीं जा सकते क्योंकि जब हम किसी नदी में अंदर जा रहे होते हैं तो उसी समय उस नदी में परिवर्तन हो रहा होता है और वह दूसरी नदी बन रही होती है। इस प्रकार के निर्णयों में विद्यमान अस्तित्व (Dasein) का तत्व काम करता है तथा बनने (Werden) का तत्व रद्द हो जाता है। यह द्वंद्ववादी तरीके का ठीक प्रयोग नहीं है बल्कि उसका कुप्रयोग है। जैसा कि हीगेल ने कहा था, ‘नकारात्मक का पहला नकार भी कोई वस्तु होता है*’ ।

* रचनाएं III. पू. 114.

हमारे कुछ आलोचक जो दर्शनशास्त्र संबंधी साहित्य से बिलकुल ही अनभिज्ञ नहीं है ट्रेनडे लेनबर्ग के बारे में कहते हैं कि उसने द्वंद्ववाद के पक्ष में दी गई सभी दलीलों का खंडन कर दिया है। इन महापुरुषों ने, यदि ट्रेनडेलेनबर्ग को पढ़ने का कष्ट उठाया है, तो उसे ठीक से समझा नहीं है और गलत समझा है। वह लोग नीचे लिखी मामूली सी बात भी भूल जाते हैं (अगर उन्होंने उसे कभी भी याद किया हो, जिसके बारे में मुझे बिलकुल यक़ीन नहीं है)। ट्रेनडेनवर्ग अंतविरोध के सिद्धांत को गतिशीलता के ऊपर लागू नहीं मानता बल्कि उसके अनुसार यह सिद्धांत केवल उन्हीं वस्तुओं पर लागू होता है जिनको यह पैदा करता है*। यह बात तो सही है लेकिन गतिशीलता केवल वस्तुओं को बनाती ही नहीं है बल्कि जैसा मैंने पहले कहा है वह उनको लगातार परिवर्तित भी करती रहती है। यही कारण है कि गतिशीलता का तर्क (‘अंतर्विरोध का तर्क’) गतिशीलता द्वारा उत्पन्न वस्तुओं पर अपने अधिकारों को कभी नहीं छोड़ता। इसलिए हमें औपचारिक तर्कशास्त्र के बुनियादी सिद्धांतों को उचित स्थान देते हुए यह याद रखना चाहिए कि कुछ सीमाओं के अंदर ही महत्वपूर्ण है, वह केवल उसी हद तक महत्वपूर्ण हैं जब तक वे हमें द्वंद्वात्मक नियमों को उनका उचित स्थान देने से नहीं रोकते। ट्रेनडेलेनबर्ग ने इसी तरह से अपने मामले को पेश किया है हालांकि वह अपने द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत से उचित तार्किक निष्कर्ष नहीं निकाल सके- ज्ञान की वैज्ञानिक विचारधारा का जो एक सर्वोच्च महत्व है।

मैं, चलते चलाते, यह बात भी जोड़ देना चाहता हूं कि बहुत सी मज़बूत स्थापनाएं जो मेरे पक्ष में हैं- विरोध में नहीं हैं- समस्त तार्किक प्रश्न में बिखरी हुई हैं। यह बात अजीब मालूम हो सकती है, मगर ट्रेनडेलेनबर्ग आदर्शवादी द्वंद्ववाद के ख़िलाफ़ जो संघर्ष चला रहे थे उसी से यह बात आसानी से साफ़ हो जाती है। इस तरह, मिसाल के लिए उन्होंने द्वंद्ववाद की कमजोरी इस बात में देखी कि वह शुद्ध विचार की स्व-गतिशीलता पर जोर देता है जबकि वह उसी समय पर बनने का स्वनिर्माण कर रहा होता है। **

वाकई यह बहुत ही बड़ी गलती है मगर कोई भी व्यक्ति यह बात आसानी से समझ सकता है कि यह कमजोरी आदर्शवादी द्वंद्ववाद में निहित है। इस बात की आम जानकारी है कि जब मार्क्स ने द्वंद्ववाद को ‘सीधा’ करने का प्रयत्न किया तो उन्होंने इसे ग़लती की दुरुस्तगी से ही अपना काम शुरू किया और इसे इसकी आदर्शवादी बुनियादों से अलग किया। एक दूसरी मिसाल ले लीजिए ट्रेनडेलेनबर्ग का कहना है कि वास्तव में हीगेल के यहां गति एक ऐसे तर्कशास्त्र की बुनियाद है जिसको साबित करने की कोई जरूरत नहीं प्रतीत होती***। यह बात बिलकुल सही है लेकिन यह भी भौतिकवादी द्वंद्ववाद के पक्ष में ही एक दलील है। तीसरी मिसाल-तथा तीनों में सबसे महत्वपूर्ण-यह है कि ट्रेनडेलेनबर्ग के

* तार्किक प्रश्न, तीसरा संस्करण लाइपजिंग, 1870, दूसरा खंड, पृ. 175.

** वही खंड 1 पृष्ठ 36.

*** वहीं खंड 1, पृष्ठ 42.

अनुसार यह समझना कि हीगेल के यहां प्रकृति केवल प्रयोगात्मक तर्कशास्त्र का ही स्थान रखती है बिलकुल गलत है। सही बात इसके बिलकुल विपरीत है। हीगेल का तर्कशास्त्र विशुद्ध चिंतन की पैदावार मात्र नहीं है, बल्कि वह प्रकृति से पूर्व ज्ञान द्वारा पृथक्करण का परिणाम है ही गेल के द्वंद्ववाद में प्रायः हर चीज अनुभव द्वारा अर्जित की गई है इसलिए अगर उस द्वंद्ववाद से वह सारे अंश निकाल लिए जाएं जो उसने अनुभव द्वारा प्राप्त किए हैं तो वह बिलकुल ही कंगाल हो जाएगा। ठोस रूप से बात बिलकुल ऐसी ही है मगर इस बात को बिलकुल इसी प्रकार हीगेल के उन शागिदों ने कहा था जिन्होंने अपने आचार्य के आदर्शवाद के ख़िलाफ बगावत करके भौतिकवाद का दामन थाम लिया था।

इस तरह की बहुत सी मिसालें दी जा सकती हैं लेकिन ऐसा करने से मैं अपने विषय से भटक जाऊंगा। मैंने यहां अपने आलोचकों को यह दिखाने का प्रयास किया है कि मेरे ख़िलाफ़ संघर्ष में उन्हें ट्रेनडेलेनबर्ग के हवाले देने से बचना चाहिए।

मैं पहले यह कह चुका हूं कि गतिशीलता अमल में एक अंतर्विरोध है तथा इसके परिणामस्वरूप औपचारिक तर्कशास्त्र के ‘बुनियादी नियम’ इस पर लागू नहीं होते। ग़लतफ़हमी से बचने के लिए मैं अपने इस थन की व्याख्या करना चाहूंगा। जब हमें एक ऐसी समस्या का सामना करना होता है जिसमें गतिशीलता अपने एक स्वरूप से दूसरे स्वरूप में रूपांतरित होती है मिसाल के लिए जब यांत्रिक गतिशीलता ताप का रूप धारण करती है तो हमें भी उबरवेग के बुनियादी नियम के अनुसार ही दलील देनी पड़ती है। इस प्रकार की गतिशीलता या तो ताप होती है, या यांत्रिक गतिशीलता या कुछ और… यह बात बिलकुल स्पष्ट है। परंतु यदि ऐसा है तो औपचारिक तर्कशास्त्र के बुनियादी नियम, किसी हद तक, गतिशीलता पर भी लागू होते हैं। इससे यह नतीजा निकलता है कि द्वंद्ववाद औपचारिक तर्कशास्त्र को समाप्त नहीं कर देता बल्कि अध्यात्मवादियों ने उसके नियमों को जो संपूर्ण मान्यता दे रखी है वह उससे छीन लेता है।

अगर पाठकों ने ऊपर बयान की गई बातों पर ध्यान दिया है तो वे आसानी से समझ जाएंगे कि आजकल बहुप्रचारित विचार, कि द्वंद्ववाद का भौतिकवाद के साथ कोई मेल नहीं है, का ‘मूल्य’ क्या है। बात तो इसके विपरीत ही सच्ची है। हमारा द्वंद्ववाद प्रकृति की भौतिकवादी समझ पर आधारित है, उसी समझ द्वारा प्रतिपादित है और भौतिकवाद के) असफल हो जाने पर हमारा द्वंद्ववाद भी चूर हो जाएगा। इसी तरह द्वंद्ववाद के बिना ज्ञान संबंधी भौतिकवादी सिद्धांत अपूर्ण, विकृत तथा असंभव हो जाएगा।

हीगेल के मतानुसार द्वंद्ववाद का मेल अध्यात्मवाद से है परंतु हमारे लिए तो द्वंद्ववाद

* वही खंड, पू. 78-79,

** श्री एन. जी. का कथन है, ‘मेरा विचार है कि भौतिकवाद तथा द्वंद्ववादी तर्कशास्त्र दो ऐसे तत्व हैं कि यदि दर्शनशास्त्र की भाषा का इस्तेमाल किया जाए तो यही कहा जाएगा कि दोनों एक दूसरे के साथ मेल नहीं खाते.११०

प्रकृति के सिद्धांत पर आधारित है।

“होगेल के अनुसार, मार्क्स के शब्दों में, संपूर्ण विचार वास्तविकता की लघु आकांक्षा का नाम था हमारे लिए संपूर्ण विचार केवल गतिशीलता का पृथक्करण मात्र है जो बाद में पदार्थ के सभी सम्मिलनों और उसके स्वरूपों का कारण बन जाता है।

हीगेल के अनुसार चिंतन अंतर्विरोधों के जाहिर होने और उनके निश्चित होने के अनुसार विकसित होता है। हमारे भौतिकवादी सिद्धांत के अनुसार अंतर्विरोध प्रक्रिया के उन अंतर्विरोधों का प्रतिबिंब मात्र हैं-चितन की भाषा में अनुवाद हैं- जो उनके समान आधार को अंतर्विरोधी प्रकृति अर्थात गतिशीलता में पाए जाते हैं।

होगेल के अनुसार वस्तुओं का मार्ग विचारों के मार्ग द्वारा निर्धारित होता है। हमारे। अनुसार विचारों का मार्ग वस्तुओं के मार्ग से ही समझा जा सकता है अर्थात चितन का मार्ग जोवन के मार्ग पर आधारित है।

भौतिकवाद द्वंद्ववाद को सीधा खड़ा कर देता है तथा हीगेल ने उसके चारों ओर रहस्य का जो पर्दा खड़ा किया था उसे हटा देता है। ऐसा करके भौतिकवाद अपने क्रांतिकारी चरित्र को प्रकट करता है।

मार्क्स का कथन है, ‘द्वंद्ववाद, अपने रहस्यवादी ढांचे में लिपटकर, जर्मनी में एक आम फैशन की बात बन गया था क्योंकि जान ऐसा पड़ता है कि वह वर्तमान व्यवस्था को थोड़ा बहुत बदलकर उसकी प्रशंसा कर रहा था। अपने विकसित स्वरूप में यह विचार पूंजीवादी व्यवस्था और उसके सिद्धांतकार प्रोफ़ेसरों के लिए बड़ा ही घृणित तथा बदनामी पूर्ण था। क्योंकि वह अपने विचारों और व्याख्या में मौजूदा व्यवस्था को स्वीकार तो कर लेता था मगर इसके साथ ही इसके अवश्यंभावी तौर पर टूटने अर्थात मौजूदा व्यवस्था के समाप्त होने की बात भी करता था। गेवर्डेन-जी. पी., जो इस मत के प्रचारक थे, के अनुसार हर सामाजिक व्यवस्था अस्थिर या अस्थायी अवस्था में है। इसलिए यह विचार सामाजिक व्यवस्था को अस्थायी क्षणिक अस्तित्व की तरह ही मानता था। वह अपने ऊपर किसी चीज को थोपने नहीं देता। सारतत्व में यह विचार आलोचनात्मक तथा क्रांतिकारी है।*

यह बात तो बिलकुल उचित ही है कि भौतिकवादी द्वंद्ववाद पूंजीवादी वर्ग के लिए जो प्रतिक्रियावादी भावनाओं से ओतप्रोत है, अत्यंत घृणित और बदनामी पूर्ण चीज़ हो मगर जब क्रांतिकारी आंदोलन से सच्ची हमदर्दी रखने वाले कुछ लोग भौतिकवादी द्वंद्ववाद से अलग हट जाते हैं तो बात बहुत हो हास्यास्पद तथा दुखद हो जाती है। यह मूर्खता को पराकाष्ठा होती है।

जो कुछ मैंने अब तक कहा है, उसके बाद, मेरा विचार है कि श्री एन. जी. ने जो आश्चर्यजनक मनगढ़ंत रचना की है और मुझ पर ‘बुद्धि के दोहरे संगठन’ के आरोप को चय कर दिया है; उस पर मैं घृणा से केवल अपने कंधे ही झटक सकता हूं। उस सिद्धांत

कैपिटल, खंड 1 के द्वितीय जर्मन संस्करण को प्रस्तावना को देखें.111

के बारे में बयान करते हुए यह कहा गया है कि वही एक ऐसा आधार है जो हमारे द्वंद्वात्मक तर्कशास्त्र को किसी हद तक समझने योग्य बनाता है वास्तव में, हमारी आलोचना करने वाले महाशय निशाने से कितनी दूर चले गए हैं।

एक और बात पर भी हमारा ध्यान देना जरूरी है। हम समझ चुके हैं कि उबरवेग जब किन्हीं निश्चित वस्तुओं के गुणों के संबंध में- अर्थात कोई गुणविशेष उनमें मौजूद है या नहीं, तर्कपूर्ण निश्चित उत्तर तलब करते थे तो वह सही थे या नहीं और किस मात्रा में सही थे? मगर इसके बावजूद आप इस बात का अनुमान कीजिए कि वह वस्तुविशेष साधारण वस्तु न होकर एक मिश्रित वस्तु है जिसमें परस्पर विरोधी तत्व शामिल हैं, इसलिए उसमें ऐसे गुण पाए जाते हैं जो परस्पर विरोधी हैं। क्या ऐसी वस्तुओं के परीक्षण के संबंध में भी उबरवेग की मांग उचित है ? नहीं, ऐसा नहीं है। उबरवेग, जो होगेलवादी द्वंद्ववाद के उतने ही कट्टर विरोधी थे जितने कि ट्रेनडेलेनबर्ग थे, ने कहा कि ऐसे मामलों में हमारे तर्क एक दूसरे नियम-विरोधी तत्वों के नियम पर आधारित होने चाहिए परंतु प्राकृतिक तथा सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में जो पदार्थ आते हैं उनका अधिकांश इसी तरह की ‘वस्तुओं’ का होता है। परस्पर विरोधी पदार्थ जीवद्रव्य के साधारणतम दायरों में जुड़े होते हैं और अत्यंत अविकसित समाज में मौजूद रहते हैं। इसलिए प्राकृतिक तथा सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में द्वंद्वात्मक तरीक़े को महत्वपूर्ण स्थान दिया जाना चाहिए। इन विज्ञानों में जिस समय से इस तरीक़े ने अपना, वास्तव में, स्थान हासिल किया; तब से आज तक इस तरीक़े ने बड़ी भारी प्रगति हासिल की है।

शायद हमारे पाठक यह जानना चाहेंगे कि जीवविज्ञान के क्षेत्र में द्वंद्ववाद ने अपना स्थान कैसे बनाया। इस मामले में पाठकों को जातियों के स्वरूप के बारे में होने वाले विवाद को याद करना चाहिए। यह विवाद रूपांतरवाद के सिद्धांत के उदय के साथ ही शुरू हुआ था। डारविन और उनके अनुयायियों का मत था कि पशुओं तथा पौधों की एक ही नस्ल की विभिन्न किस्में एक ही आदिम स्वरूप को विभिन्न शक्लों के अलावा और कुछ नहीं थीं। विकास के सिद्धांत के अनुसार एक ही प्रकार के जीवों को विभिन्न शक्लें समान स्वरूप से हो उत्पन्न होती हैं। डारविन के विरोधियों के मतानुसार कि पशुओं तथा वनस्पतियों की सभी क़िस्में एक दूसरे से बिलकुल स्वतंत्र होती हैं तथा केवल एक ही क़िस्म के अलग-अलग जीव, व्यक्तिगत रूप से, समान स्वरूप से पैदा होते हैं। जातियों और क़िस्मों के बारे में इस विचार की शुरुआत लिनाएस द्वारा की गई थी, उन्होंने कहा ‘उतनी ही जातियां या क़िस्में आज मौजूद हैं जितनी कि सर्वोच्च शक्ति ने आरंभ में बनाई थीं’। यह दृष्टिकोण पूर्णतया अध्यात्मवादी

*रुस्कोये बोगाट्सवो, जून पू. 64 (११२)पार्मेनोडेस ने हेराक्लोट्स के शिष्यों के साथ अपने वाकयुद्ध में उन्हें ‘दो सर वाले दर्शनशास्त्री’ की उपाधि दी थी कि वह चीजों को एक समय पर दो स्वरूपों में उनके अस्तित्व और अस्तित्वविहीन स्वरूप में देखते हैं श्री एन. जी. ने पार्मेनोडेस के इस व्यंग्य को एक दर्शनशास्त्रीय स्थापना बना दिया है. दर्शनशास्त्र की बुनियादी समस्याओं’ को ‘ईश्वर की सहायता से समझने में उन्होंने कितनी प्रगति की है.

है क्योंकि एक अध्यात्मवादी की नजर में वस्तुएं और विचारधाराएं ‘बिलकुल अलग अलग होती हैं, उन पर बिलकुल पृथक रूप से अलग अलग ही विचार करना चाहिए, परीक्षण की वस्तुएं बिलकुल निश्चित, अटल तथा हमेशा के लिए स्थिर होती हैं’ (एंगेल्स)*। इसके विपरीत एक द्वंद्ववादी विचारक, एंगेल्स के शब्दों में, वस्तुओं और विचारधाराओं को उनके अपने आपसी और अवश्यंभावी संबंधों, उनके घटनाक्रम, उनकी गतिशीलता, उदय और समाप्ति’ में देखता है(११४)। डारविन के समय से ही इस दृष्टिकोण ने जीवविज्ञान के क्षेत्र में अपना स्थान बना लिया था और रूपांतरवाद के सिद्धांत में विज्ञान द्वारा चाहे जितने ही संशोधन क्यों न किए जाएं यह दृष्टिकोण वहां बराबर क़ायम रहेगा।

समाजशास्त्र के क्षेत्र में द्वंद्ववाद के महान महत्व को समझने के लिए समाजवाद के विकास के इतिहास – कल्पना लोक से विज्ञान के आधार तक-को स्मरण करना ही पर्याप्त होगा।

कल्पना लोक में विचरने वाले समाजवादियों ने, सामाजिक प्रक्रियाओं पर विचार करते समय, मानवीय प्रकृति के बारे में एक भाववादी दृष्टिकोण अपनाया था तथा ‘हां-हां है और नहीं-नहीं’ के फ़ार्मूले को इस्तेमाल किया था। संपत्ति पर अधिकार कायम करना मानवीय प्रकृति के अनुकूल है या नहीं, इसी तरह से एक विवाह मानवीय प्रकृति से मेल खाता है या नहीं खाता है आदि आदि। चूंकि यह समझा जाता था कि मानवीय प्रकृति अचल तथा अटल है इसलिए समाजवादियों को यह आशा करने का हक़ पहुंचता था कि सामाजिक संगठन की अनेक संभव व्यवस्थाओं में उस प्रकृति के अनुरूप, औरों की अपेक्षा एक व्यवस्था और अधिक होना चाहिए। इसलिए सभी व्यवस्थाओं में सर्वोत्तम अर्थात मानवीय प्रकृति के बिलकुल अनुरूप व्यवस्था के लिए तलाश बनी रहती है। हर विचारधारा के प्रवर्तक ने अपनी काल्पनिक व्यवस्था को स्वीकार किए जाने का प्रस्ताव किया। मार्क्स ने समाजवाद में द्वंद्ववादी तरीके को लागू किया और इस तरह उसको एक विज्ञान में बदल डाला तथा कल्पना लोक में विचरने वाले लोगों और काल्पनिक व्यवस्थाओं पर संहातिक प्रहार किया। मार्क्स मानवीय प्रकृति से कोई अपील नहीं करते। वह किन्हीं ऐसी सामाजिक संस्थाओं को नहीं मानते जो मानवीय प्रकृति के अनुकूल हैं या नहीं। उनकी ‘दर्शन की दरिद्रता’ नामक पुस्तक में श्री प्रूधों को फटकारते हुए उनका निम्नलिखित उद्धरण बहुत ही महत्वपूर्ण है, ‘श्री ध यह नहीं जानते कि समस्त इतिहास मानवीय प्रकृति के लगातार रूपांतरित होते जाने कि अलावा और कुछ नहीं है**।’ कैपिटल (पूंजी) में मार्क्स ने कहा है कि मनुष्य अपने गिर्द संसार में काम करते हुए तथा उसको बदलते हुए स्वयं अपनी प्रकृति को भी बदलता रहता। है***। यह एक ऐसा द्वंद्ववादी दृष्टिकोण है जो सामाजिक जीवन की समस्याओं पर नया

*ड्यूरिंग मतखंडन, मास्को 1959, पृ. 34. ** दर्शन की दरिद्रता, पेरिस,पृ.204 (115)

1896, पृ. पूंजी, खंड ।।।, पृ. 155-56 (116)

प्रकाश डालता है। उदाहरण के लिए, हम निजी संपत्ति के सवाल पर ही विचार करें। काल्पनिक समाजवादियों ने अपने आपस में तथा अर्थशास्त्रियों से इस बात पर काफी वाद विवाद किया कि इसे कायम रहना चाहिए या नहीं। अर्थात दूसरे शब्दों में यह मानवीय प्रकृति के अनुकूल है या नहीं। मार्क्स ने इस सवाल को एक ठोस रूप प्रदान किया। उसके सिद्धांत के अनुसार मिलकियत के स्वरूप तथा संपत्ति संबंधी रिश्ते उत्पादक शक्तियों के विकास द्वारा निश्चित होते हैं। इन शक्तियों के विकास की एक मंजिल तक कोई विशेष स्वरूप उससे मेल खाता है या उसके अनुरूप होता है और दूसरी मंजिल आ जाने पर कोई दूसरा ही स्वरूप उसके अनुरूप हो जाता है। कोई स्थायी हल न है और न हो सकता है क्योंकि हर चीज़ अस्थायी है तथा परिवर्तित होती रहती है; ‘बुद्धिमानी दीवानगी का रूप लेती है तथा सुख और आनंद दुख में बदल जाते हैं।

हीगेल ने कहा था, ‘अंतर्विरोध आगे की ओर ले जाता है।’ वर्ग संघर्षों के दौरान विज्ञान ने इसकी पुष्टि निहायत मजबूती के साथ की है, इसके भूलने से वर्गों में विभाजित इस समाज के सामाजिक तथा आत्मिक जीवन के विकास के बारे में कोई समझ पैदा नहीं हो सकती।

परंतु ‘अंतर्विरोध के तर्कशास्त्र’ को, जिसे हम लोग देख चुके हैं कि वह मनुष्य के मस्तिष्क पर गतिशीलता की अटल प्रक्रिया का प्रतिबिंब है, द्वंद्ववाद क्यों कहा जाता है? मैं इस बारे में लंबी बहस में पड़ने के बजाए कुनो फ़िशर का निम्नलिखित उद्धरण देना ही ज़्यादा पसंद करूंगा:

मानव जीवन की तुलना वादविवाद से की जा सकती है, जिस प्रकार जब वक्तागण किसी उपयोगी तथा विचारों से परिपूर्ण विचार विनिमय में संलग्न होते हैं तो उनके मत बदलते रहते हैं उसी तरह आयु और अनुभव के बढ़ते रहने से मनुष्यों और वस्तुओं के बारे में हमारे विचार भी लगातार बदलते रहते हैं। जीवन और संसार के बारे में हमारे विचारों में यह आवश्यक और लाजमी रूपांतरण मुख्यतया अनुभव द्वारा होता है। यही कारण है कि जब ही गेल ने चेतना के विकास की तुलना दर्शनशास्त्र के विकास से की तो उसे द्वंद्ववाद या द्वंद्वात्मक क्रिया के नाम से पुकारा 13 नाम को प्लेटो (अफलातून), अरिस्टाटल (अरस्तू) और कांट सभी ने इस्तेमाल किया, उनमें से हर एक के लिए। यह बहुत ही महत्वपूर्ण था मगर अर्थ सबका भिन्न-भिन्न था। लेकिन होगेल की विचारधारा में इसको जितना अधिक महत्व प्राप्त हुआ उतना किसी भी दूसरे की विचार प्रणाली में नहीं हुआ था।

संदर्भ और टिप्पणियां

1. यहां दर्शनशास्त्र के उस वर्ग की चर्चा की गई है जिसका उदय ईसा से पूर्व छठी शताब्दी में एशिया माइनर में हुआ था और जो भौतिकवाद और द्वंद्वात्मक तरीक़े को मोटे तौर पर स्वीकार करता था. इस वर्ग के दर्शनशास्त्रियों का विचार था कि पदार्थ के विभिन्न रूप ही संसार के आधार को बनाते हैं. इस तरह थेल्स के अनुसार यह आधार जल था, अनैक्सीमेनेज के अनुसार वायु, तथा हेराक्लीट्स के अनुसार अग्नि था. प्रकृति के बारे में बयान की गई विभिन्न प्रक्रियाएं इसी बुनियादी नियम में संशोधन या परिवर्तन के फलस्वरूप हुई थीं.

2. हायलोजोइज़्म-एक ऐसी दार्शनिक विचारधारा जो पदार्थ को जीवन या अनुभूति की वस्तु स्वीकार करती है तथा जो सजीव या मृत पदार्थ में कोई भेद नहीं करती. यह विचारधारा कभी-कभी (उदाहरण के लिए स्पिनोजा) भौतिकवादी विचारों को व्यक्त करती है.

3. इस पुस्तक की जो प्रति प्लेखानोव के पुस्तकालय में सुरक्षित है उसमें एडलर के उद्धरण के सामने प्लेखानोव का हस्तलिखित यह नोट मौजूद है ‘एडलर स्वयं इस बात को भूल गया है.’ 4. एंगेल्स, ड्यूहरिंग मतखंडन, द्वितीय संस्करण, मास्को, 1959 पृ. 19.

5. आधुनिकवाद: उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तथा बीसवीं शताब्दी के शुरुआत में रोमन कैथोलिक धर्म संप्रदाय में पैदा होने वाला रुझान. इस रुझान में धर्म संबंधी सूत्रों को समकालीन विज्ञान से जोड़ने का प्रयास किया गया था. पोप पायस X ने सितंबर 1907 में धार्मिक जारी करके इस रुझान की निंदा की थी.

6. टामस अक्यूनास द्वारा ‘ मार्क्स को पूर्ण करने का प्रयास किए जाने के बारे में प्लेखानोव ने जो कुछ कहा था वह भविष्यवाणी सही साबित हुई. आज के नव टामसवादियों अर्थात टामस अक्यूनास के अनुयायियों (नव टामसवाद आज रोमन चर्च का अधिकृत दर्शन हो गया है) ने प्रायः जनता को धोखा देने के लिए ‘मार्क्स का पूरक’ बनने का प्रयास किया है. एक ऐसा ही प्रयास नव टामसवादी मार्सेल रीडिंग ने 1953 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘सेन्ट टामस अक्यूनास और कार्ल मार्क्स में किया है जिसमें यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि कार्ल मार्क्स और टामस अक्यूनास दोनों एक ही गुरु अरस्तू के शिष्य थे और दोनों के दार्शनिक विचारों में काफ़ी समानता पाई जाती है. उसको यह समानता’ भौतिकवादी संसार के पुनर्स्थापित के संघर्ष में तथा सामान्य के हित में विशिष्ट को दबाने पर जोर दिए जाने आदि में दिखाई देती है.

7. देखिए मार्क्स और एंगेल्स: ‘संकलित रचनाएं’ खंड 2, मास्को, 1958, पृ. 358 से 402 तक इस पुस्तक में प्लेखानोव की प्रस्तावना के लिए उनकी संकलित दार्शनिक रचनाएं, खंड 1, मास्को, पृ. 484 से 318 तक देखिए,

8. मार्क्स और एंगेल्स का लेख ‘समाजवाद: काल्पनिक तथा वैज्ञानिक’ देखिए, संकलित रचनाएं, खंड 2, मास्को, 1958, पृ. 93 से 155.

9. डाई न्यू जाईट-जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी का मुखपत्र जो 1883 से लेकर 1923 तक स्टुटगार्ट से प्रकाशित होता था. 1885 से लेकर 1895 तक उसमें एंगेल्स के कई लेख प्रकाशित हुए थे. एंगेल्स प्रायः संपादक मंडल को सलाह दिया करते थे और मार्क्सवाद से भटकने पर कड़ी आलोचना भी करते थे. 1890 के अंतिम दशक में और विशेष रूप से एंगेल्स की मृत्यु के बाद इस पत्र ने लगातार मार्क्सवाद में संशोधन करने वालों के लेख प्रकाशित किए, प्रथम विश्वयुद्ध के काल में इस पत्र ने काट्स्कीवादी मध्यवादी नीति अपनाई और सामाजिक अंध राष्ट्रवादियों का समर्थन किया.

10. यहां कार्ल मार्क्स की पुस्तक ‘दर्शन की दरिद्रता’का हवाला दिया गया है.

11. इस प्रकाशन के पहले तीन खेडों का पूरा नाम इस प्रकार है:

साहित्य के बारे में (संपादित) कार्ल मार्क्स फ्रेडरिक एंगेल्स और फर्डिनांद लासाल, फ्रेंज मेहरिंग स्टुटगार्ट, 1902, खंड I,II,III, संकलित रचनाएं कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स (मार्च 1841 से अक्टूबर 1850)

12. कार्ल मार्क्स एवं फ्रेडिरक एंगेल्स, ‘प्रारंभिक रचनाएं (Early works) रूसी संस्करण 1856, पू. 17-98.

13. जर्मन-फ्रांसीसी वर्ष वृतांत का प्रकाशन पेरिस में हुआ था, संपादन कार्ल मार्क्स और अर्नाल्ड रूज ने किया था. 1844 में पत्रिका का केवल पहला अंक प्रकाशित हुआ जिसमें मार्क्स के निम्नलिखित लेख शामिल थे: ‘यहूदी प्रश्न के बारे में’ (संकलित लेख, न्यूयार्क 1926 पू. 40-97) ‘हीगेल के दक्षिणपक्षी दर्शन की आलोचना में योगदान. प्रस्तावना (कार्ल मार्क्स एवं फ्रेडरिक एंगेल्स, धर्म के बारे में मास्को (1957, पृ. 41-58). एंगेल्स की नीचे लिखी रचनाएं भी उस अंक में थीं राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की आलोचना की रूपरेखा ( रचनावली, डाएट्ज़ वर्लाग, बर्लिन, 1956, पृ. 477); तथा ‘इंगलैंड की राज सत्ता’ उसका भूत तथा वर्तमान, टामस कार्लाइल, कार्ल मार्क्स एवं फ्रेडरिक एंगेल्स, ग्रंथावली रूसी संस्करण, खंड 1, मास्को 1955, पृ. 572-597.

14. कार्ल मार्क्स एवं फ्रेडरिक एंगेल्स ‘प्रारंभिक रचनाएँ’ (Early works) रूसी संस्करण पृ. 258.

15. पाथेइज्म एक ऐसा दार्शनिक सिद्धांत जो ईश्वर तथा प्रकृति को समान मानता है, बल्कि प्रकृति को ईश्वर का भौतिकवादी स्वरूप स्वीकार करता है, 16वीं और 17वीं शताब्दियों में पान्थेइज्म (Panthicism) कभी-कभी भौतिकवादी तथा अनीश्वरवादी विचारों के प्रचारक के रूप में सामने आया, उदाहरण के लिए गिआरडैनो ब्रूनो और बेनेडिक्ट स्पिनौजा के विचारों को देखा जा सकता है.

16. कार्ल मार्क्स एवं फ्रेडरिक एंगेल्स, ‘पवित्र परिवार’ (Holy Family), मास्को, 1956

17. देखिए कार्ल मार्क्स एवं फ्रेडरिक एंगेल्स, ‘संकलित रचनाएं” खंड 2, मास्को 1958. प्लेखानोव जब दर्शन संबंधी समस्याओं की चर्चा कर रहे थे तब उन्हें मार्क्स और एंगेल्स के दूसरे ग्रंथों, जैसे ‘जर्मन विचारधारा’ अर्थशास्त्र तथा दर्शन संबंधी 1844 में लिखे मार्क्स के लेखों की पांडुलिपियां तथा एंगेल्स की पुस्तक ‘प्रकृति की द्वंद्ववादी प्रक्रिया’ आदि का कोई ज्ञान नहीं था.

18. यहां प्लेखानोव ने एक नए कांटवादी एफ लांगे की एक पुस्तक ‘भौतिकवाद का इतिहास और वर्तमान युग में उसके महत्व की आलोचना का हवाला दिया है.

19. मार्क्स एवं एंगेल्स, ‘संकलित रचनाएं’ खंड 2. मास्को, 1958, पू. 372-73.

20. यहां, आगे चलकर प्लेखानोव ने फायरबा का हवाला Santliche welks, Leipzig O, Wigand, Bd1-X18461866 पुस्तक से दिया है.

21. प्लेखानोव ने फायरबाख की पुस्तक Geschichte der neuern Philosophic von Bacon von Vernlam Bis Benedict Spinoza से हवाला दिया है.

22. कार्ल मार्क्स एवं फ्रेडरिक एंगेल्स, ‘पवित्र परिवार’ (Holly Family), मास्को, 1956 पृ. 177.

23. कार्ल मार्क्स एवं फ्रेडरिक एंगेल्स, ‘पवित्र परिवार’ (Holy Family), मास्को 1956 पृ. 168-69.

24. अध्यात्मवाद- दर्शनशास्त्र में पाया जाने वाला एक धार्मिक सिद्धांत जो आत्मा को संसार का आधार तथा मूलतत्व मानता है. वर्तमान संदर्भ में उसे आदर्शवाद या विचारवाद का पर्यायवाची समझना चाहिए.

25. कार्ल मार्क्स एवं फ्रेडरिक एंगेल्स, ‘पवित्र पवार’, (Holy Family), मास्को, 1956, पृ. 168-69 और 126

26. पदार्थ (Substance) – सभी वस्तुओं और प्राकृतिक चीजों का आधार और मूलतत्व, एक आदर्शवादी को उत्तर में यह पदार्थ आत्मा या विचार है जबकि भौतिकवादी की दृष्टि में भौतिक पदार्थ, द्वंद्वात्मक शील पदार्थ के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता तथा भौतिकवाद अपरिवर्तनशील पदार्थ के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता तथा भौतिक पदार्थ को निरंतर विकास और परिवर्तन की अवस्था में मानता है.

27. फायरबाख़ की पुस्तक नए दर्शन शास्त्र का इतिहास ग्रंथावली IV. पृ. 380 से उद्धरण दिया गया है.

28. यहां गलत हवाला दिया गया है. हवाला इस तरह होना चाहिए, ग्रंथावली IV पृ. 392. उद्धरण उसी पुस्तक से दिया गया है।

29. कार्ल मार्क्स एवं फ्रेडरिक एंगेल्स, ‘पवित्र परिवार’ (Holy Family),

30. एंगेल्स, ड्यूहरिंग मतखंडन, द्वितीय संस्करण, मास्को, 1959, पृष्ठ 197. मास्को, 1956, पृष्ठ 177.

31. काल्पनिक दर्शन स्पेकुलेटिव फिलासफी-काल्पनिक तर्कों पर आधारित आदर्शवादी दार्शनिक व्यवस्था के लिए आम तौर पर इस नाम का प्रयोग किया जाता है. जो अमल और अनुभव से बिलकुल ही अलग हो.

32. ज्ञानमीमांसा (एपिस्टेमालोजी)- ज्ञान का सिद्धांत, दर्शनशास्त्र का वह विभाग जो ज्ञान के स्रोतों, साधनों तथा परिस्थितियों का अध्ययन करता है.

33. मार्क्स एवं एंगेल्स, ‘संकलित रचनाएं,’ खंड 2, मास्को, 1958. पृ. 403.

34. यहां दिया गया उद्धरण सटीक नहीं है; Leiden (पीड़ा) के स्थान पर Sein (अस्तित्व ) शब्द का प्रयोग किया गया है. इसके अतिरिक्त वाक्यों का क्रम भी बदल दिया गया है. फ़ायरब के शब्द इस प्रकार है: आप गुण के बारे में सोचते हैं, उसके पहले ही उसे महसूस कर लेते हैं. गुणवत्ता खुद अपना बयान होती है.

35. प्लेखानोव की दार्शनिक संकलित रचनाएं रूसी संस्करण, खंड 2, 1956, पृ. 346-61.

36. चेनशेवस्की के ‘दार्शनिक संकलित आलेख, मास्को, 1953, पृ. 166-84. 37. प्लेखानोव ने रूसी दार्शनिकों तथा इस विशेष मामले में चेर्नोशेवस्की, पर मार्क्स के पूर्वकालीन भौतिकवाद के पश्चिमी यूरोपीय प्रतिनिधियों के पड़ने वाले प्रभाव पर आवश्यकता से अधिक जोर दे डाला है. इस प्रभाव को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर आंका गया है. जिसका परिणाम यह हुआ है, कि मामले के दूसरे पहलू यानी रूसी दर्शन की मौलिक तथा सृजनात्मक प्रकृति को खामोशी से नजरअंदाज़ कर दिया गया है. इस प्रकार प्लेखानोव ने चेनशेवस्की को फायरबाख़ का वफ़ादार शिष्य और अनुयायी कहा है. चेनशेवस्की और फ़ायरबाख़ के भौतिकवाद की समानता बयान करते हुए उन्होंने चेर्नोशेवस्की के विचारों के स्वतंत्र और सृजनात्मक स्वरूप से इनकार किया है तथा उनके दार्शनिक भौतिकवाद के महत्व को कम करके दिखाया है.

38. हवाला ग़लत है पृष्ठ संख्या 263 के स्थान पर 249 होना चाहिए.

39. सर्वोत्मदवाद (Animism) प्राकृतिक पदार्थों तथा शक्तियों में आत्मा मौजूद रहती है, इस प्रकार का विश्वास आदिम समाज के जमाने में ही पैदा हो गया था.

40. प्लेखानोव ने जिन पृष्ठों का हवाला दिया है उनमें गोमपर्ज का कहना है कि आपस में नज़दीक से संबंधित वस्तुओं के समूहों, विशेष रूप से पशुओं पौधों की जातियों में, के अस्तित्व के बारे में जानकारी प्राप्त करने की आवश्यकता मनुष्यों में इस प्रकार के जीवों के बारे में विश्वास पैदा करती है जो आत्मा के संसार में रहते हैं और वही वस्तुओं के मूल रूप होते हैं. गोमपर्ज लिखते हैं कि मानव मस्तिष्क का यह रुझान ही प्लेटो के सिद्धांत का आधार था.

41. निम्नकोटि का शोरबा-एंगेल्स ने लुडविग फायरबाख और शास्त्रीय जर्मन दर्शन का अंत, नामक पुस्तक की प्रस्तावना में इस नाम का प्रयोग किया है. यहां पर एंगेल्स ने 19 वीं शताब्दी के अंत में जर्मन विश्व विद्यालयों में पढ़ाए जाने वाले जर्मन दर्शन की व्याख्या की है.

42. पूरा नाम इस प्रकार है: Festschrift 1 Rosenthal zur Vollendung seines 70. Lebensjahres gewidmet, Leipzig, 1906.

43. यहां समानता के दर्शन का हवाला दिया गया है, इसके मुख्य प्रतिनिधि शैलिंग और होगेल थे.

44. किताब का हवाला गलत दिया गया है, खंड 2 पृष्ठ 340 के स्थान पर खंड 2 पृ. 239 पढ़ें.

45. हवाला ग़लत है, खंड 10 पृष्ठ 187 के स्थान पर खंड 2 पृष्ठ 208 होना चाहिए.

46. मार्क्स एवं एंगेल्स की, ‘संकलित रचनाएं’ पुस्तक, खंड 2, मास्को, 1958, पृ. 403 405.

47. मार्क्स एवं एंगेल्स, ‘संकलित दार्शनिक रचनाएं, खंड 2, मास्को, 1958, पृ. 403404.

48. जी. प्लेखानोव, ‘संकलित दार्शनिक रचनाएं’, खंड 1, मास्को, पृ. 453-83.

49. राजनीतिक अर्थतंत्र की आलोचना में योग पुस्तक की कार्ल मार्क्स द्वारा लिखित प्रस्तावना (मार्क्स एवं एंगेल्स, संकलित रचनाएं, खंड 1, मास्को, 1958, पृ. 362) देखिए, लेख के पहले प्रारूप की पांडुलिपि को देखने से मालूम होता है कि; ‘हीगेलवादी दक्षिण पक्ष के दर्शन की ओलाचना में उसने दिखाया कि समाज में आपसी संबंध’… शब्दों को लिखने के बाद उसने अपने विचार को जारी रखने का इरादा किया मगर फिर अपने ही लिखे शब्दों को काट कर दूसरा उद्धरण दिया जो ‘कानूनी संबंधों’ के शब्दों से शुरू होता था तथा यह शब्द भी जोड़े गए थे कि ‘उसने लिखा’. यहां यह ग़लत प्रभाव पड़ता है कि उद्धरण द्वारा होगेलवादी दक्षिण पक्ष के दर्शन की आलोचना का हवाला दिया गया है.

50. प्लेखानोव टामस कार्कलायल की पुस्तक ‘इंग्लैंड की राजसत्ता’, भूत और वर्तमान पर एंगेल्स के विचारों का हवाला दे रहे हैं. देखिए कार्ल मार्क्स एवं फ्रेडरिक एंगेल्स की ‘ग्रंथावली’ दूसरा रूसी संस्करण, खंड 1. पू. 585.

51. मार्क्स की पुस्तक ‘दर्शन की दरिद्रता’, मास्को, पृ. 116-21 तक.

52. देखिए कार्ल मार्क्स की पुस्तक, ‘पूंजी’ खंड , मास्को, 1959, पृ. 19.

53. जी. प्लेखानोव की ‘संकलित दार्शनिक रचनाएं खंड 1, मास्को, पृ. 413-21 में तानाशाही के नए समर्थक शीर्षक लेख का दूसरा भाग देखिए

54. एंगेल्स, ‘इयूहरिंग मतखंडन दूसरा संस्करण, मास्को 1959, पृ. 95.

55. परिशिष्ट देखिए,

56 प्लेखानोव ने डी. राईज की रचनाओं के महत्व को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर आंका है तिमिरयाजेव ने अपने लेख ’19वीं शताब्दी में जीवशास्त्र के विकास के इतिहास की बुनियादी विशेषताएं’ में यह लिखा था ‘डी. राईस ने जो प्रयास किया है.. उससे सिद्धांत में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, न डारविन की स्थापनाओं में किसी बात का इज़ाफ़ा ही हुआ है, परिवर्तन की विशिष्ट समस्या में भी नहीं डारविन ने स्वयं अचानक अर्थात छलांगों द्वारा होने वाले तथा धीरे-धीरे सामान्य रूप से होने वाले दोनों ही प्रकार के परिवर्तनों को संभावना को स्वीकार किया था. आज भी कोई चीज़ ऐसी सामने नहीं आई है जिसके ·आधार पर डी. राईज को इस क्षेत्र में न सिर्फ एकमात्र विचारक की पदवी बल्कि अधिकारपूर्ण महत्व का दिया जाना लाजमी बन गया हो. ‘के, तिमिरयातेव, ग्रंथावली, खंड 8 सीखोजगिज प्रकाशन गृह, मास्को 1939, पृ. 123.

57. हर्जेन की पुस्तक ‘मेरा जीवन और विचार ‘के 25वें अध्याय के चौथे भाग में होगेल के दर्शन का ज़िक्र ‘क्रांति के असली बीजगणित के रूप में किया गया है. (ए हर्ज़ेन, सोवियत संघ के विज्ञान अकादमी के प्रकाशन गृह से 1956 में प्रकाशित, खंड 9, पृ. 23). एंगेल्स को पुस्तक ‘लुडबिग फायरबाख का हवाला देते हुए प्लेखानोव की नजर हीगेलवादी दर्शन के बारे में एंगेल्स की व्याख्या पर है. मार्क्स एवं एंगेल्स, ‘संकलित रचनाएं’, खंड 2, मास्को, 1958,पृ. 360-65.

58. कार्ल मार्क्स, पूंजी, खंड 1, मास्को 1959 पृ. 20.

59. जी. वी. प्लेखानोय, ‘ग्रंथावली’, रूसी संस्करण, खंड 10. पृ. 199-252.

60. कार्ल मार्क्स एवं एंगेल्स, ‘संकलित रचनाएं, खंड 1, मास्को, 1955, पृ. 362-63.

61. देखिए कार्ल मार्क्स, ‘पूंजी’ खंड , मास्को, 1959, पृ. 513-14.

62. देखिए कार्ल मार्क्स एवं एंगेल्स ‘संकलित रचनाएं खंड 1, मास्को, 1958, पृ. 89-90.

63. प्रकाशन का साल गलत दिया गया है. रुसेट की किताब का पूरा नाम इस प्रकार है: युद्ध के मसले, फ्रेडरिक II, नेपोलियन, मोल्टके, जनरल बोनाल के विचारों की आलोचना, पेरिस, 1899.

64. देखिए कार्ल मार्क्स, ‘पूंजी’, खंड 1, मास्को, 1959, पृ. 514.

65. देखिए कार्ल मार्क्स एवं एंगेल्स, ‘संकलित रचनाएं, खंड 1, मास्को, 1958.

66. हेरेरोस-दक्षिणी-पश्चिमी अफ्रीका की एक जाति का नाम है. 1848 में इस जाति पर जर्मन साम्राज्यवादियों का शासन स्थापित हो गया जिन्होंने हेरेरोस लोगों को गुलाम बनाकर आतंक का राज्य स्थापित कर दिया. साम्राज्यवादियों ने ग्रामों को धराशायी कर दिया; मद, औरतों और बच्चों को तलवार के घाट उतारा और जिंदा बचे लोगों को रेगिस्तानी क्षेत्रों में भगा दिया. जर्मनों को पूरे बीस वर्षों तक इस जाति के लोगों के वीरतापूर्ण प्रतिरोध का सामना करना पड़ा. यह संघर्ष 1904 में अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया जब जनवरी के महीने में पूर्ण विद्रोह शुरू हो गया, उसी वर्ष अगस्त के महीने में हेरेरोस फ़ौजों को परास्त होना पड़ा और उनका पीछा किया जाने लगा, 1907 में, ओमाहे के नामक पानी विहीन रेगिस्तान में उनका सफाया किया गया, लेनिन ने हेरेरोस जाति के विद्रोह को अपनी पुस्तक ‘1870 के बाद विश्व इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं की तालिका में शामिल किया. ‘1904-1907 : हेरेरोस के खिलाफ़ युद्ध, वी. आई. लेनिन, ग्रंथावली, चौथा रूसी संस्करण, खंड 39, पृ. 682.

67. देखिए जी. प्लेखानोव, ‘संकलित दार्शनिक रचनाएं, रूसी संस्करण, खंड 3, मास्को, 1957, पृ. 326- 364.

68. डाइल्यूवियल मैन हिमयुग की समाप्ति के पहले की मानव जातियों के लिए प्रयोग में आने वाला सामान्य नाम.

69. प्लेखानोव का यह कथन रूसी क्रांति की प्रेरक शक्तियों और उसके स्वरूप के बारे में उनकी विशेष मैनशेविक विचारधारा का परिचायक है. चूंकि प्लेखानोव का खयाल था कि रूस में क्रांति पश्चिमी यूरोप की पूंजीवादी क्रांतियों के ढंग पर ही होगी, इसलिए द्वितीय इंटरनेशनल के अधिकांश नेताओं की तरह उनमें भी यह गलत धारणा पाई जाती थी कि सर्वहारा क्रांति और पूंजीवादी क्रांति के बीच में एक बड़ा ऐतिहासिक काल अवश्य होगा. प्लेखानोव को नए युग-साम्राज्यवादी युग की परिस्थितियों की सही समझदारी नहीं थी इसलिए उनका ख़याल था कि रूस जैसे कृषि प्रधान देश में, जिसका औद्योगिक विकास सब यूरोपीय देशों के बाद हुआ था, उत्पादक शक्तियों और पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के बीच संघर्ष के लिए समय उपयुक्त नहीं था. इसीलिए उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि रूस में समाजवादी क्रांति के लिए वस्तुगत परिस्थितियां तैयार नहीं थीं.

70. देखिए, मार्क्स एवं एंगेल्स, ‘संकलित रचनाएं, ‘खंड 1, मास्को, 1958, पृ. 363,

71. वही पू. 363-64.

72. स्पष्टत: प्लेखानोव ‘पूंजी के तीसरे संस्करण (1883) में लिखे एंगेल्स के नोट का जिक्र कर रहे जिसमें कहा गया है: ‘मनुष्य की आदिकालीन परिस्थितियों का गहरा अध्ययन करने के बाद लेखक (अर्थात मार्क्स) इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि बात ऐसी नहीं है कि परिवार ने आगे चलकर क़बीले का रूप ले लिया बल्कि इसके विपरीत क़बौला ही मनुष्यों के संगठन का सबसे आदिम तथा स्वविकसित स्वरूप था जो रक्त संबंधों पर आधारित था; क़बीलों के प्रारंभिक बंधन ढीले पड़ने पर ही परिवार के अनेकानेक रूप पैदा हुए,’ (देखिए कार्ल मार्क्स, पूंजी, खंड 1, मास्को, पृ. 351 के हाशिए पर नोट). ‘परिवार, निजी संपत्ति तथा राजसत्ता की उत्पत्ति’ पुस्तक के प्रथम संस्करण (1848) में एंगेल्स की लिखी प्रस्तावना भी देखिए, मार्क्स एवं एंगेल्स, ‘संकलित रचनाएं’, खंड 2, मास्को 1958, पृ. 170-71.

73. देखिए, कार्ल मार्क्स एवं एंगेल्स, ‘संकलित रचनाएं’, खंड 1, मास्को 1958, पृ. 35-36,

74. देखिए, मार्क्स एवं एंगेल्स, ‘संकलित रचनाएं खंड 1, मास्को 1958, पृ. 52.

75. प्लेखानोव मार्च 1889 में प्रकाशित बर्नस्टीन द्वारा लिखित पंफलेट विज्ञान की क्षमता में भविष्य में उभरने वाले किसी अधिभूतवाद का प्राक्कथन का हवाला दे रहे हैं। बर्नस्टीन ने विशेष रूप से जोर दिया था….. मार्क्स और एंगेल्स ने प्रारंभ में गैर-आर्थिक पहलुओं के प्रभाव के भाग पर बहुत कम जोर दिया है….यद्यपि उनके बाद के ग्रंथों में अपेक्षाकृत ज्यादा जोर दिया गया है, ‘

76. 25 जनवरी 1894 को एच. स्टारकैनबर्ग को एंगेल्स द्वारा लिखे गए पत्र से उधृत, देखिए, मार्क्स एवं एंगेल्स, ‘संकलित पत्र व्यवहार, मास्को, पृ. 499.

77. 25 जनवरी 1894 को एच. स्टारकेनबर्ग को एंगेल्स द्वारा लिखे गए पत्र से उद्धृत देखिए, मार्क्स एवं एंगेल्स ‘संकलित पत्र व्यवहार, मास्को, पृ. 549.

78. 25 जनवरी 1894 को एच. स्टारकेनबर्ग को एंगेल्स द्वारा लिखे गए पत्र से उधृत देखिए, मार्क्स एवं एंगेल्स, ‘संकलित पत्र व्यवहार, मास्को, पृ. 549.

79. देखिए, माक्र्क्स एवं एंगेल्स, ‘संकलित पत्र व्यवहार मास्को, पू. 549.

80. अंतिम शब्द कांट की पुस्तक Prolegomena to Any Future Metaphysics That May Arise in the Capacity oh a Science’ के शीर्षक के विपरीत हैं,

81. Fabliau– पुरातन फ्रांसीसी काव्यों की संक्षिप्त कथाओं रूखी और हास्य प्रधान में से एक आम तौर पर यह कचाएं 8 शब्दों की होती थीं और उनमें से दो-दो मिलकर संगीत की धुनों पर आधारित होती थी. फ्रेंच बहादुरी के बारे में गोत फ्रांस की पुरानी वीररस प्रधान लंबी कविताओं का एक नमूना.

82. डेविड शैलों, प्लेखानोव ने अपने एक लेख ‘समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से 18वीं शताब्दी का फ्रांसीसी नाटक साहित्य तथा फ्रांसीसी चित्रकला’ में इस विचार की विस्तृत विवेचना की थी जिसमें उन्होंने डेविड शैली के उदय के सामाजिक कारणों पर प्रकाश डाला था. (ग्रंथावली, रूसी संस्करण, खंड 14, पृ. 111-14).

83. देखिए, मार्क्स एवं एंगेल्स, ‘संकलित पत्र व्यवहार, मास्को, पृ. 549-50.

84. देखिए जो प्लेखानोव ‘संकलित दार्शनिक रचनाएं ‘रूसी संस्करण, खंड 2, पृ. 300-34.

85. वही, पृ. 453-503,

86. फ़ायरहर्ड की पुस्तक का पूरा नाम इस प्रकार है: Die Entstehung der Stile aus der politischen Okonomie. Eine Kunstgeschichte von Franz Feurherd, Erster Teil. Der bildende Kunst der Criechen und Romer. Braunschweig und Leipzig. Verlag von R. Sattler. 1902.

87. लेख के पहले प्रारूप की पांडुलिपि में स्वरूप (Forms) शब्द के स्थान पर कारण (Factors) शब्द का।प्रयोग किया गया है.

88. चेसनों की किताब का पूरा नाम इस प्रकार है: Emest Chesneau La pcinture francaise au XIX siecle, les chefs de’cole: L. David Gros, Cericault Decamps, Ingres. E. Delacroix, 3rd edition, Paris 1883.

89. हिप्पो लाइट टेने, कला का दर्शनशास्त्र, पांचवां संस्करण, पेरिस, 1890, 1 पृ. 116.

90. देखिए, कार्ल मार्क्स एवं फ्रेडरिक एंगेल्स, ‘पवित्र परिवार’ (Holy Family), मास्को 1956, पृ. 168.

91. मार्क्स एवं एंगेल्स, ‘संकलित रचनाएं’, खंड 2, मास्को 1958 पृ. 100. 92. Sankt Max- कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स द्वारा लिखित पुस्तक ‘जर्मन विचारधारा का एक अध्याय प्लेखानोव ने डाक्यूमेंट्स ऑफ शोसयलिज्म नामक पत्रिका से हवाला दिया है, (देखिए, कार्ल मार्क्स एवं फ्रेडरिक एंगेल्स, ‘ग्रंथावली’ दूसरा रूसी संस्करण, खंड 3, पृ. 283-84),

93. दि हार्डेन मोल्टके ट्रायल 1907 में विख्यात पत्रकार मैक्सीमिलियन हार्डेन (विटकोवस्की का उपनाम हार्डेन था) ने कैंसर विलियम द्वितीय के साथियों और सहयोगियों (लेफ्टीनेंट जनरल मोल्टेक, एफ ईलेनबर्ग आदि) के भ्रष्टाचार और बुराइयों के बारे में कई सनसनीखेज लेख प्रकाशित किए थे. इन लेखों ने कैंसर के गुट का फर्दाफाश करने में बड़ा जर्बदस्त काम किया.

94. देखिए, कार्ल मार्क्स की पुस्तक ‘दर्शन की दरिद्रता (The Poverty of Philosophy) मास्को, पृ. 122 23.

95. देखिए, एंगेल्स की पुस्तक ‘ड्यूहरिंग मतखंडन, मास्को, 1947, पृ. 421.

96. देखिए, एंगेल्स की पुस्तक, ‘ड्यूरिंग मतखंडन ‘दूसरा संस्करण, मास्को, 1957 पृ. 157.

97. देखिए टिप्पणी 98.

98. कैडेटों का खेतिहर कार्यक्रम अक्तूबर 1905 में हुई पार्टी कांग्रेस में स्वीकार किया गया था. किसानों का समर्थन प्राप्त करने के लिए कैडेटों ने अपने कार्यक्रम में यह धारा जोड़ी थी कि राज्य, गिरजाघरों और निजी जमीनों को ‘उचित’ क़ीमत पर हासिल करके किसानों की मिल्कियत बढ़ाने की सुविधा कायम रहेगी. कार्यक्रम में यह भी कहा गया था कि इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए भूस्वामियों को जमीनों को. ‘सर्बदस्ती हस्तगत’ किया जाएगा. मगर इसके बावजूद कैडेट उदार पूंजीपति वर्ग की मुख्य राजनीतिक पार्टी थी, उसकी खेतिहर नीति भूस्वामियों को बरक़रार रखने और कृषि में पूंजीवादी संबंधों को विकसित करने की थी. लेनिन ने लिखा था: ‘कैडेट लोग जमींदारी व्यवस्था को, कुछ रिआयतें देकर, कायम रखना चाहते हैं. जिन लोगों ने इससे पहले 1861 में किसानों को बर्बाद किया था अब वह उन्हीं को मुआविजा दिलवाने की बातें करते हैं.’ (ग्रंथावली, खंड 2, पृ. 328)

99. देखिए, मार्क्स एवं एंगेल्स ‘संकलित रचनाएं’, खंड 1 मास्को, 1958, पृ. 362-63. 100. देखिए, जी. प्लेखानोव की पुस्तक ‘इतिहास के ऐक्यवादी दृष्टिकोण का विकास’, ‘संकलित दार्शनिक रचनाएं’, खंड 1, पृ. 542-782.

101. यहां नव कांटवादी दर्शन की विभिन्न धाराओं विशेषकर बैडेन विचारधारा का हवाला दिया गया है. रिर्केट, विन्डेलबैंड तथा इस विचारधारा के अन्य प्रतिनिधियों ने यह साबित करने का प्रयास किया कि समाज विकास के कोई वस्तुगत नियम नहीं होते. जिसका अर्थ यही होता था कि समाज विज्ञान का कोई अस्तित्व ही नहीं है. इस विचारधारा के प्रतिनिधियों का कहना था कि प्राकृतिक विज्ञान आम नजरियों के साथ चलता है और विशिष्टताओं को नज़रअंदाज करता है तथा इसके विपरीत समाज विज्ञान तो केवल व्यक्ति विशेष तथा बार-बार दोहराई न जाने वाली घटनाओं को लेकर चलता है, जिसके परिणामस्वरूप वह वस्तुओं के सामाजिक जीवन के वाह्य वर्णन के अलावा और कुछ बता नहीं सकता. नव कांटवादियों ने ‘आलोचना’ का नारा लगाकर (कांट ने अपने दर्शन की व्याख्या करने के लिए इस शब्द को इस्तेमाल किया था) कांट की विचारधारा के प्रतिक्रियावादी तथा आदर्शवादी पहलू को ही. ज्यादा विकसित किया.

102. देखिए, मार्क्स एवं एंगेल्स, ‘संकलित रचनाएं’ खंड 2, मास्को 1958, पृ. 136.

103. वही, खंड 1, पृ. 363.

104. देखिए, कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स, ‘पवित्र परिवार’, मास्को, 1959, पृ. 110.

105. यह शब्द चेनॉशेवस्की की पुस्तक क्रिटीक आफ फिलासोफिकल प्रेजूडिसेज अगेन्स्ट कम्युनल ओनरशिप में पाए जाते हैं, देखिए, एन. जो. चेनॉशेवस्को, ‘संकलित दार्शनिक रचनाएं’, खंड 2. गौसपोलिटिशहाट प्रकाशन गृह, 1950, पृ. 492,

106. प्लेखानोव ने फ्रेडरिक एंगेल्स की पुस्तक ‘लुडविग फ़ायरबाख तथा प्राचीन जर्मन दर्शन का अंत’ के लिए एक प्रस्तावना लिखो थी. यह परिशिष्ट उसी प्रस्तावना का एक अंश है. प्लेखानोव की इच्छा के अनुसार, तर्कशास्त्र और द्वंद्ववाद के बारे में उनकी यह टिप्पणियां पुस्तक के जर्मन संस्करण में शामिल कर दी गई थीं.

107: एन.जी. के. जिहतलोवस्की का उपनाम इसने ‘भौतिकवाद और द्वंद्वात्मक तर्कशास्त्र’ शीर्षक से एक लेख लिखा था जो 1898 में ‘रुस्कोये बोगाट्स्ट्यो’ पत्रिका के छठे सातवें (जून, जुलाई) में प्रकाशित हुआ था.

108. एपोरिया- एक दूर न हो सकने वाली तार्किक कठिनाई. उदाहरण के लिए जेनो की यह कठिनाई थी कि अगर तुम्हें किसी फ़ासले को तय करना है तो उसके लिए पहले आधा रास्ता तय कर लेना चाहिए, लेकिन उससे भी पहले चौथाई भाग आठवां भाग आदि तय होने चाहिए, फ़ासले की असीम विभाज्यता के कारण कोई भी फ़ासला तय नहीं किया जा सकता, जेनो ने गति, समय तथा स्थान के वस्तुगत अंतर्विरोधों को जाहिर किया परंतु उससे उसने ‘गति” को असिद्ध करने का गलत नतीजा निकाला.

109. यह हवाला हेराक्लिट्स के लिए है.

110. प्लेखानोव टिप्पणी 107 में जिक्र किए गए लेख से उद्धरण दे रहे हैं.

111. कार्ल मार्क्स, ‘पूंजी खंड 1, मास्को, पृ. 20.

112. प्लेखानोव टिप्पणी 107 में जिक्र किए गए लेख से फिर उद्धरण दे रहे हैं.

113. पार्मेनिडेज की कविता ‘प्रकृति के बारे में’ (of Nature) से, उद्धृत, पृ. 115.

114. देखिए, एंगेल्स, ‘ड्यूहरिंग मतखंडन ‘दूसरा संस्करण, मास्को 1959, पृ. 34, 36.

115. कार्ल मार्क्स, ‘दर्शन की दरिद्रता, मास्को, पृ. 165.

116. कार्ल मार्क्स, ‘पूंजी, खंड 1, मास्को, पृ. 177.

 

  • अनुवाद : गिरीश मिश्र
  • @ग्रंथ शिल्पी

    प्रथम हिंदी संस्करण: 1966

    दूसरा संशोधित हिंदी संस्करण 2004 ISBN 81-7917-018-7 (Hb) ISBN 81-7917-017-7 (Pb)

    श्यामबिहारी राय द्वारा ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड के लिए बी-7. सुभाष चौक, लक्ष्मी नगर, दिल्ली-110092 से प्रकाशित तथा क्वालिटी प्रिंटर्स, ईस्ट ज्योति नगर, दिल्ली-110093 द्वारा लेजर सेट होकर नाइस प्रिंटिंग प्रेस, दिल्ली-110051 में मुद्रित.

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