एक दिन
मेरे मुल्क के
तटस्थ बुद्धिजीवियों को
कटघरे में खड़ा कर
सवाल करेंगे
हमारे सार्वधिक
साधारण जन.
उनसे पूछा जाएगा
उन्होंने क्या किया
जब उनका मुल्क मर रहा था
धीरे-धीरे
जैसे मद्धिम आग
थोड़ी और अकेली.
कोई नहीं पूछेगा उनसे
उनकी वेशभूषा के बारे में,
दोपहर के भोज के बाद
उनकी लम्बी झपकी के बारे में,
कोई नहीं जानना चाहेगा
‘व्यर्थता के विचार’ पर
उनकी अनुर्वर बहसों के बारे में,
कोई परवाह नहीं करेगा
उनके वित्त सम्बन्धी उच्च ज्ञान की.
उनसे कोई सवाल नहीं किया जाएगा
ग्रीक पौराणिक कथाओं पर,
या उनकी आत्म घृणा पर
जब उनके भीतर
कोई मरना शुरू करता है
एक कायर की मौत.
कुछ भी नहीं पूछा जाएगा
निरे झूठ की छाया में पैदा हुए
उनके मूर्खतापूर्ण
औचित्य के बारे में.
उस दिन
साधारण जन आएंगे.
वे लोग जिन्हें
तटस्थ बुद्धिजीवियों की
किताबों और कविताओं में
कहीं कोई जगह नहीं,
परन्तु जो रोज़ उनके घर
दूध, ब्रेड और अंडे पहुंचाते हैं,
जो उनकी गाड़ियां चलाते हैं,
उनके बगीचों और कुत्तों की
देखभाल करते हैं,
उनके सारे काम करते हैं,
और यही लोग पूछेंगे :
जब गरीब ख़स्ताहाल थे
आप क्या कर रहे थे
जब कोमलता और जीवन
उनकी देह से गायब हो गए थे ?
मेरे प्यारे मुल्क के
तटस्थ बुद्धिजीवियों
तुम कोई जवाब नहीं दे पाओगे.
एक गिद्ध
चुप्पी का
खा जाएगा तुम्हारी हिम्मत और चतुराई.
तुम्हारी अपनी दयनीयता
नोंच लेगी तुम्हारी आत्मा.
और तुम्हारी बोलती
बन्द हो जाएगी
अपनी ही शर्म से.
ग्वाटेमाला के क्रांतिकारी कवि ओटो रेने केस्तिओ (1934-1967) की एक चर्चित कविता का छायानुवाद. अनुवाद : मणि मोहन.
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