संत समीर
क्या आपके मुहल्ले में कोरोना का असर सचमुच बढ़ता हुआ दिख रहा है या टीवी और अख़बार पढ़कर ही आप भी इसे बढ़ता हुआ मान रहे हैं ? लाल घेरे में रहे अपने मुहल्ले को मैं सामान्य स्थिति में देख रहा हूं. उम्मीद करता हूं आपका मुहल्ला भी सामान्य होगा. जैसा मेरा और आपका मुहल्ला है, समझिए कि पूरा देश भी कमोबेश वैसा ही है.
संक्रमण का बढ़ना-घटना सहज नहीं है. बढ़े तो भी ख़तरा नहीं है, पर इसे दुबारा बढ़ता हुआ दिखाकर ख़तरनाक इसलिए बताया जा रहा है, ताकि लोग किसी भी तरह स्वेच्छा से टीका लगवाने को तैयार हो जाएं. वह टीका, जिसे लगाने के बाद भी सख़्त हिदायत दी जा रही है कि मास्क लगाते रहें, हाथों को रसायनयुक्त दारू से धोते रहें, वरना आप कभी भी फंस सकते हैं. इसका क्या यही अर्थ लगाया जाए कि टीके से बनी एण्टीबॉडी मास्क और हैण्डसेनेटाइज़र के बिना काम नहीं करेगी ?
टीकाकरण का पहला दौर बुरी तरह फेल होने लगा तो मीडिया को सचेत किया गया कि वह फेल होने की बात को तूल न दे. हमारे प्रधानमन्त्री जी भी ज़िम्मेदारी के साथ आगे आए और टीका लगवाया. यह सवाल मत कीजिए कि कौन-सा टीका लगवाया. बहरहाल, माहौल तो कुछ बना ही और अब आमजन को भी टीका कुछ-कुछ ज़रूरी लगने लगा है.
कोरोना के पूरे खेल में कृपया सरकार को ज़्यादा मत घसीटिए. अगर सचमुच कोरोना को ख़तरनाक मान लिया जाय तो यह भी मानना पड़ेगा कि हमारी सरकार ने सही समय पर कई सही क़दम उठाए हैं. परेशानी यह है कि विज्ञान के एक हिस्से को हमने फार्मा सेक्टर के हाथों गिरवी रख दिया है, तो सरकार को वही करना पड़ेगा, जो गुलाम विशेषज्ञ कहेंगे.
बीते कुछ महीनों में कोरोनाग्रस्त क़रीब हज़ार लोगों का मैंने इलाज किया है. तमाम बीमारों से व्यक्तिगत मिला हूं. यह संख्या भी सैकड़े के आसपास होगी. किसी की तबीयत ज़्यादा ख़राब होती तो उससे सीधे कहता कि ‘मैं आ रहा हूं’ ज़्यादातर लोग डरकर मना करते कि आप मत आइए, परेशानी में पड़ सकते हैं. पर जब मैं उनके पास जाकर बिना मास्क के कुछ देर बैठता तो अजब तरीक़े से उनके मन का डर निकल जाता. कई लोगों का हौसला इसी तरह मैंने बढ़ाया.
मैं और बिस्वरूप रॉय चौधरी इन्तज़ार करते रहे कि हमें भी कोरोना हो, तो चार-छह दिन में ख़ुद को ठीक करके लोगों को दिखाएं, पर पता नहीं कोरोना हमारे पास आया, नहीं आया या टकरा कर चला गया. इसका मतलब यह नहीं है कि यह बीमारी नहीं है. है, पर बेहद छोटी और आसानी से ठीक होने वाली. आपका डर इसे कठिन बनाता है.
मज़ेदार यह भी है कि जो लोग गम्भीर रूप से बीमार होने के बाद किसी तरह अस्पताल से बाहर निकले हैं, उनमें से कइयों से मैंने पूछा कि ‘क्या आपके साथ कुछ इस तरह हुआ था’, तो लोगों को ताज्जुब हुआ कि मैंने इतना सटीक अनुमान कैसे लगाया. बात बस इतनी है कि जो भी फार्मा सेक्टर का खेल समझ रहा है, उसे इसके पीछे का जाल-बट्टा भी समझ में आ रहा है.
किसी और गम्भीर बीमारी से मरना अलग बात है, पर ऐसा एक भी सामान्य स्वस्थ व्यक्ति मुझे नहीं मिला, जिसकी कोरोनाग्रस्त होने के बाद अस्पताल न जाने और रसायनयुक्त दवाएं न खाने से मृत्यु हो गई हो. याद रखिए कि दिल्ली सहित तमाम सीरो सर्वे के निष्कर्ष हैं कि देश के कम-से-कम तीस-पैंतीस करोड़ लोग कब कोरोना से संक्रमित हुए और सर्दी-जुकाम वग़ैरह झेलकर कब ठीक हो गए, उन्हें पता ही नहीं चला.
जिन इलाक़ों में लोगों ने मास्क और हैण्ड-सेनेटाइज़र की सावधानी नहीं बरती, वे ज़्यादा मज़े में रहे. ध्यान देंगे तो पता चलेगा कि भारत में कोरोना के नए स्ट्रेन से जितने भी लोग संक्रमित पाए गए, वे सब-के-सब पहले से मास्क और हैण्डसेनेटाइज़र की सावधानी बरतने वाले लोग थे. वास्तव में मौत के मुंह में वे ही लोग गए हैं, जिनका इलाज कुछ ज़्यादा किया गया.
इलाज के तरीक़े और डर को एक साथ समझना हो तो याद कीजिए कि कई अस्पतालों ने सावधानी के तौर अपने भले-चङ्गे डॉक्टरों को महीनों हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन खाने को कह दिया और जब कुछ डॉक्टर हृदयाघात की चपेट में आ गए, तब इसे मना किया गया.
यह भी याद कीजिए कि सन् 1904 में महात्मा गान्धी ने अफ्रीका की कुली बस्ती में मौत का पर्याय माने जाने वाले प्लेग के मरीज़ों को बिना दवा के सिर्फ़ प्राकृतिक उपचार करके बचा लिया था, जबकि वहीं पड़ोस में जिनका इलाज एलोपैथी तरीक़े से भांति-भांति के रसायनों से हुआ, उन्हें मौत के मुंह में जाने से नहीं बचाया जा सका.
इतिहास बताता है कि दुर्घटना-जैसी आपातस्थितियों में एलोपैथी ज़बरदस्त कारगर साबित हुई है, पर महामारी-जैसी स्थितियों में प्राकृतिक चिकित्सा और होम्योपैथी का कोई सानी नहीं है. दुर्भाग्य यही है कि जिन पद्धतियों से लोगों की जान आसानी से बचाई जा सकती है, फार्मा सेक्टर के दबाव में उन पर ही पाबन्दी लगा दी जाती है.
कोरोना की वजह से मौत के शिकार हुए लोगों के लिए दुःख व्यक्त कीजिए. जो लोग गम्भीर रूप से बीमार हुए, उनके प्रति भी मन में सहानुभूति है. आप सोच सकते हैं कि फेफड़े काम करना बन्द करने लगें और सांस लेना दूभर हो जाए, तो एक-एक पल कितनी मुश्किल से गुज़रता है; लेकिन काश, मुश्किल में फंसे तमाम लोग इस रहस्य को समझ पाते कि उनकी बीमारी आख़िर कठिन कैसे बनती गई.
जिन्हें लगवाना हो, टीका लगवाएं, पर मैं नहीं लगवाने जा रहा. जो डरते हैं, वे ज़रूर लगवाएं. कुछ दिनों से मेट्रो में लगातार यात्रा कर रहा हूं और कोरोना से बचाव के नाम पर विशुद्ध तमाशा देख रहा हूं. कुछ मूर्ख और कुछ धूर्त मीडिया के धतकरम भी रोज़ देख रहा हूं. लगता है विज्ञापनों का दबाव सवाल करने से रोक रहा है. जिन रवीश कुमार जैसों की रिपोर्टिङ्ग की तारीफ़ करने का मन करता था, कोरोना के मामले में वे भी मूर्खों के सरदार नज़र आए.
हम तकनीकी वर्चस्व के अजब दौर में पहुंच आए हैं, जहां किसी एक देश को नहीं, पूरी दुनिया को बेवकूफ़ बनाया जा सकता है. राजीव दीक्षित पर आप चाहे जितने अतिशयोक्तिपूर्ण भाषण देने के आरोप लगाएं, पर दस-ग्यारह साल पहले स्वाइन फ्लू पर बोले गए उनके भाषण में स्वाइन फ्लू के स्थान पर कोरोना या कोविड-19 कर देने पर अगर वह एकदम आज का भाषण लगने लगता है तो सोचना पड़ेगा कि सच वही नहीं है, जो मीडिया चीख-चीखकर हमें बता रहा है.
मुद्दे इतने हैं कि लगातार लिखने की ज़रूरत है, पर बीते दिन कुछ यों गुज़रे कि सोशल मीडिया को खोलने तक का वक़्त निकाल पाना मुश्किल रहा. बहरहाल, जो लोग आमजन के मन में बैठे भय को भगाने वाले लेखन में लगातार लगे हुए हैं, वे महान् काम कर रहे हैं.
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