शाहजहांपुर के निगोही से खबर आ रही है. अनूप कक्षा 12 का छात्र था. पिता से स्कूल फीस जमा करने को अनेक दिनों से कह रहा था. एक कमरे के मकान में रहने वाला पिता बेरोज़गारी के चलते असमर्थ था. निराश होकर लड़के ने कहीं से कट्टे का इंतिज़ाम किया और खुद को गोली मार ली. अब आप बताइए हिन्दू जगाने वाला गजेंद्र चौहान इस हिन्दू किशोर की कोई खबर रखता है ?
रामजन्मभूमि मंदिर की आग में साठ-सत्तर साल देश को जलाने वाले संघी प्रमुख अब कृष्ण मंदिर की बात शुरू कर दिए हैं. क्या उन्हें इस हिन्दू किशोर की शिक्षा से कुछ लेना देना है ? मेरी मां प्राथमिक विद्यालय की अध्यापिका थी. उन्होंने सीमित तनख्वाह और संसाधनों के बावजूद हमें शिक्षा दे ली.
मैंने क्रिस्चियन मिशनरी सेंट मैरी से शिक्षा प्रारम्भ की. बाद में इस्लामिया इंटर कॉलेज इटावा से इंटर और कानपुर विश्विद्यालय से ग्रेजुएशन व पोस्ट ग्रेजुएशन पूर्ण करने के बाद बी.एड., आर.बी.एस. कॉलेज डॉ. भीम राव अम्बेडकर विश्विविद्यालय, आगरा से सरकारी सीट पर, एम.एड, चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी से कैंपस में सरकारी सीट पर, एम. फिल., बुंदेलखंड यूनिवर्सिटी कैंपस, और पीएचडी हेतु भी बनारस हिन्दू विश्विविद्यालय में सीट पा ली.
ये सब बहुत कम फीस में संभव हुआ. मुझे याद है मेरे बी.एड. की फीस तो शायद दो या ढाई हजार रुपये जमा हुए थे, जिसमें 1500 का शायद कोर्स के उपरांत वापसी भी हुआ था.
मेरी मां अपने प्राथमिक शिक्षक के बहुत कम वेतन में (जो पहले तो काफी कम था) बड़ी मुश्किल से ये सम्भव कर पाई क्योंकि मेरे चार अन्य भाई-बहन भी समानांतर रूप से शिक्षा ले रहे थे. हमारी इंटर तक की फीस तो शिक्षक गार्डियन होने चलते तकरीबन माफ ही हो जाती थी. आज मेरे व एक भाई व बहन प्रवक्ता, एक अन्य बहन अस्सिटेंट प्रोफेसर और एक भाई अपने व्यवसाय में रत हैं.
ज़रा सोचिए कि एक साधारण-सी तनख्वाह पाने वाली शिक्षिका अपने बच्चों की ऐसी शिक्षा इसलिए संभव कर पाई क्योंकि शिक्षा का भार सरकार के कंधे पर था. प्रोफेशनल कोर्सेज के लिए भी हम भाई-बहन ऊंची मेरिट में स्थान बना तकरीबन मुफ्त वाली सीट पा जाते थे. शायद इसीलिए हम इंजिनीरिंग या मेडिकल की तरफ न जा सके. चारों शिक्षक ही बने.
मुद्दे की बात अब ये है कि वर्तमान सरकार ने शिक्षा का स्वयत्तिकरण के नाम पर जो बाज़ारीकरण किया है, उसमें अब कोई अकेली ईमानदार शिक्षिका अपने चार तो दूर दो बच्चों को भी कामचलाऊ शिक्षा कभी नहीं दे पाएगी.
हम लोग तो पढ़ गए. इतनी सारी यूनिवर्सिटीज का मुंह देख लिए. हमारी आने वाली पीढ़ी ऐसी बाजारू शिक्षा व्यवस्था के तहत शायद ही ऐसा न कर पाए. शिक्षा के संदर्भ में यह हमारे समय का सच है. शिक्षित नेतृत्व को नकार व्यापारी मानसिकता के अशिक्षित नेतृत्व को चुन कर जो पाप हमने किया था, उसकी कीमत मध्यवर्गीय आर्थिक पृष्ठभूमि के मां-बाप के बच्चे भुगतेंगे.
भारतीय समाज का हाल देखिये. जब आम भारतीय छात्र अपने माता-पिता के साथ व्रत रखें मंदिर में दर्शन हेतु लाइन लगाए खड़ा था, तब मध्यमवर्ग के निम्न आय वर्गों के छात्रों के शिक्षा अधिकार की रक्षा के लिए दिल्ली पुलिस की लाठी और पानी की बौछार जेएनयू के लड़के लड़कियां खा रहे थे. वैसे हमारा निम्न आर्थिक स्थिति वाला माध्यम वर्गीय समाज इन्हें लेफ्टिस्ट, वामी, देशद्रोही, धर्म विरोधी, बौद्धिक आतंकी, नक्सली और हिंदुत्व का विरोधी कह कर गाली देता है.
यही गालीबाज़ समाज कुम्भ नहा रहा है, हिन्दू मुस्लिम कर रहा है, फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद के नशे में शिक्षा के अवसरों को मुश्किल बनाये जा रहे कुचक्रों से अनभिज्ञ हो ‘वंदे मातरम’ के नारे लगाए जा रहा है. और देश के नेतृत्व ने देश के नागरिक के धार्मिक, आस्थावादी और सांप्रदायिक वोटिंग पैटर्न को पहचानते हुए हज़ारो लाखों ‘अनूपों’ को अभिशप्त कर दिया है कि वे फीस का इंतज़ाम न हो पाने के चलते खुद को गोली मार लें.
- फरीदी अल हसन तनवीर
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