द्विवेदी, निराला, रेणु
रामचन्द्र शुक्ल
हिंदी के अधिकांश सेवियों के जीवन के आखिरी दिन बेहद त्रासद स्थितियों में बीते. प्रेमचंद, महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, गजानन माधव मुक्ति बोध तथा फणीश्वर नाथ रेणु के जीवन के आखिरी दिनों को उदाहरण के रूप में देखा व समझा जा सकता है.
प्रेमचंद जहांं बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हिंदी के कथा संसार की नुमाइंदगी करते हैं तो इस सदी के उत्तरार्ध की नुमाइंदगी फणीश्वर नाथ रेणु जी करते हैं. ये दोनों ही अपने जीवन के 60 साल भी पूरे नहीं कर सके, जो कि एक सरकारी सेवक के सेवानिवृत्ति की उम्र होती है.
1880 में जन्मे प्रेमचंद जी का निधन 1936 में हो गया तथा 1921 में जन्मे फणीश्वर नाथ रेणु का निधन 11 अप्रैल 1977 को हो गया था. दोनों ही अपने जीवनकाल के 60 साल पूरे नही कर सके. आज भी मात्र लेखन पर गुजारा चलाने वाले रचनाकार की स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है.
हिंदी भाषा व हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता को सरस्वती पत्रिका के माध्यम से उत्कर्ष प्रदान करने वाले आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को अपनी जिंदगी के आखिरी के 14-15 साल गुमनामी में अपने गांंव दौलतपुर में बिताने पड़े.
पत्रकारों तथा अधिवक्ताओं की तरह रचनाकारों के रचनाकर्म से निवृत्त हो जाने के बाद के जीवन के लिए सरकारी आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए. बेहतर हो कि संबंधित रचनाकार की रचनाओं के प्रकाशक इस काम की पहल करें, क्योंकि रचनाकार की किताबों की बिक्री का फायदा तो उन्हें ही मिलता रहा होता है.
दूसरी बात यह कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के प्रकरण की छानबीन करने पर मुझे पता चला कि उन्होंने अपनी अधिकांश रचनाओं के प्रकाशन अधिकार खड्ग विलास प्रेस, पटना को दे दिये थे, लेकिन प्रकाशक का रवैया बाद में ठीक नहीं रहा तथा आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी को अपनी जिंदगी के आखिरी 14-15 बेहद आर्थिक तंगहाली में अपने गांंव दौलतपुर में गुजारने पड़े.
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी द्वारा हिंदी की सेवा के लिए अपनी रेलवे की सरकारी नौकरी छोड़ दी गयी थी और इंडियन प्रेस इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली हिंदी की पत्रिका ‘सरस्वती’ के संपादक के दायित्वों का निर्वहन लगभग 20 सालों तक वे करते रहे.
बाद में जब आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की रचनाएंं उनकी मृत्यु के 60 साल बाद कापीराइट के दायरे से बाहर हो गयीं तो उनकी रचनावली का प्रकाशन सात खंडों में किताब घर द्वारा किया गया.
14 फरवरी 2021 को आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के रायबरेली जनपद स्थित गांव दौलतपुर के दर्शन करके आया हूंं. हिंदी के लिए दधीच की भूमिका निभाने वाले आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का अधबना पड़ा घर पूरे हिंदी साहित्य संसार की हीन स्थिति का परिचय दे रहा है. यह स्थिति बहुत दुःखद व दुर्भाग्यपूर्ण है.
महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के जीवन के आखिरी 14-15 साल बेहद त्रासद स्थितियों में बीते. उनका 1943-44 में लखनऊ छोड़कर इलाहाबाद के दारागंज में बस जाने को सही निर्णय नहीं माना जा सकता है. इलाहाबाद में महाकवि निराला को उनके जीवन के आखिरी सालों में उनकी त्रासद स्थितियों में देखने वाले जब उनकी अर्धविक्षिप्त छवि का चित्रण करते हैं तो इसे पढ़ कर व सुन कर बहुत मानसिक क्लेश व दुःख होता है.
हिंदी भाषा व साहित्य से जुड़े लोगों को इस विषय पर जरूर विचार करना चाहिए कि हिंदी के रचनाकारों को जीवन के तीसरे व चौथे चरण में किस प्रकार से सामाजिक व आर्थिक सुरक्षा उपलब्ध कराई जा सकती है. यह सवाल बेहद महत्वपूर्ण है.
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