Home गेस्ट ब्लॉग तीव्र आर्थिक विकास के लिये सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण जरूरी है ?

तीव्र आर्थिक विकास के लिये सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण जरूरी है ?

2 second read
0
0
561
हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

इसमें क्या हैरत कि आज तक किसी भी सरकार ने ऐसा अध्ययन नहीं करवाया जिससे यह तथ्य सामने आ सके कि 1991 के बाद जितने भी सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण हुआ है, निजी हाथों में जाने के बाद देश के विकास में उनका क्या योगदान रहा ? हमें बताया जाता रहा कि सार्वजनिक क्षेत्र का दौर बीत चुका है और उनका निजीकरण देश के विकास और अर्थव्यवस्था को गति देने के लिये बेहद जरूरी है.

अब, जबकि प्रधानमंत्री ‘सबको बेच डालूंगा’ की उत्साहित मुद्रा में हैं, यह सवाल प्रासंगिक है कि आज तक जितने भी उपक्रम बेचे गए उन्होंने राष्ट्रीय विकास में कैसा योगदान दिया है ? कि आज वे किस अवस्था में है ? निजी हाथों में जाने के बाद उन्होंने कितना मुनाफा कमाया और इस मुनाफे का कितना हिस्सा देश के काम आया ? कितना हिस्सा कर्मचारियों के काम आया ?

देखने की बात यह भी होनी चाहिये कि निजीकृत होने के बाद किसी सार्वजनिक उपक्रम में कर्मचारियों की नियुक्ति प्रक्रिया क्या रही ? उनकी सेवा शर्त्तों में किस तरह के परिवर्त्तन आए ? उनके काम की परिस्थितियों में कैसे बदलाव आए ?

इस तथ्य पर विशेष रूप से गौर करना होगा कि निजीकृत होने के पहले उस सार्वजनिक उपक्रम में कितने प्रतिशत कर्मचारी पिछड़े ग्रामीण इलाकों के, पिछड़ी और अनुसूचित जातियों, जनजातियों के थे और निजी होने के बाद की नियुक्तियों में इनकी कितनी भागीदारी रही ?

जैसा कि सब जानते हैं, सार्वजनिक क्षेत्र अपने मुनाफे का बड़ा हिस्सा सरकार को भी देते हैं, जो अंततः जनता के ही काम आता है. यह भी सब जानते हैं कि इनकी नियुक्तियों में सरकारी प्रावधानों का कड़ाई से पालन होता है और सेवा शर्त्तों में तमाम सरकारी मापदंडों का अनुसरण किया जाता है. जाहिर है, निजी होने के बाद प्रबंधन के सामने ऐसी कोई भी बाध्यता नहीं रहती.

1990 के दशक में सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण के पीछे सरकारें तर्क देती थीं कि ऐसे ही संस्थानों को बेचा जा रहा है जो भारी घाटे में हैं और सरकार के लिये बोझ बन गई हैं. निजीकरण को ‘हवा के ताजे झोंके’ की संज्ञा देते हुए देश के खाते-पीते वर्ग ने इसका स्वागत ही किया. उस दौर में, सार्वजनिक क्षेत्र को बेचने का विरोध करने वाले लोग जो भी तर्क देते थे, उनकी बातों को ‘अप्रसंगिकताओं का अरण्यरोदन’ करार दिया गया.

फिर, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार आई जिसने बाकायदा एक विनिवेश मंत्रालय का गठन किया और इन उपक्रमों की हिस्सेदारी बेचने के लिये इनका सिर्फ घाटे में रहना कोई तर्क नहीं रह गया. कहा गया कि बहुत सारे उपक्रम, जो घाटे में नहीं भी हैं, उनका विनिवेश इसलिये किया जा रहा है क्योंकि उनकी संरचना और कार्यप्रणाली में बदलावों की जरूरत है और यह रास्ता निजीकरण की ओर ही जाता है.

मनमोहन सिंह के कार्यकाल में यह प्रक्रिया कभी धीमी, कभी तेज चलती रही और हमेशा वही तर्क दिए जाते रहे कि आर्थिक विकास को गति देने के लिये यह जरूरी है.
नरेंद्र मोदी ने तो सत्ता में आने के बाद पूरे आत्मविश्वास के साथ यह घोषणा कर डाली कि वे भारत को ‘दुनिया की सर्वाधिक मुक्त अर्थव्यवस्था’ बना कर ही मानेंगे.

यह पहले से ही तय था कि मोदी अगर दोबारा सत्ता में आएंगे तो सार्वजनिक क्षेत्र इतिहास के मलबों में तब्दील हो जाएगा. यद्यपि, उन्हें वोट इसके लिये नहीं मिले थे और न ही अपनी चुनावी सभाओं में वे आर्थिक मुद्दों को उठाते थे.

लेकिन, सत्ता में पुनर्वापसी के बाद उनकी मंशा बिल्कुल स्पष्ट है और बीते सप्ताह के उनके बयान कि ‘सरकारें व्यापार करने के लिये नहीं होती’ के बाद अब इसमें कोई संशय नहीं रहा कि कुछेक खास उपक्रमों को छोड़ सार्वजनिक क्षेत्र की तमाम इकाइयां बिकने की लाइन में लग जाएगी. वित्त मंत्री के बजट भाषण में भी ऐसे ही संकेत दिए गए. इससे फर्क नहीं पड़ता कि कौन से संस्थान लगातार मुनाफे में हैं और इसका लाभ जनता के हिस्से आता रहा है. अब इन तर्कों की कोई जगह नहीं बची.

देश को सिर्फ बताया जाता है कि तीव्र आर्थिक विकास के लिये निजीकरण बेहद जरूरी है लेकिन यह कभी नहीं बताया जाता कि निजीकृत होने के बाद देश के और नागरिकों के आर्थिक विकास में इन कम्पनियों की कैसी भूमिका रही ? सवाल अगर उठते हैं तो सवाल दर सवाल उठते जाते हैं, जिनका कोई जवाब कभी नहीं मिलता.

संभव है कि विकास दर की वृद्धि में निजीकृत कंपनियों की सकारात्मक भूमिकाएं रही हों, लेकिन जब विकास दर के लाभों की वितरण पद्धति ही संदिग्ध हो तो इस तर्क में कोई खास दम नहीं दिखता कि देश के व्यापक विकास के लिये सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण जरूरी है.

दरअसल, बात सिर्फ नरेंद्र मोदी की नहीं है. यह एक खुला सत्य है कि वैश्विक कारपोरेट शक्तियों की नजरें भारत के विशाल बाजार पर लगी हैं और वे इसके दोहन के लिये हरसंभव कोशिशें करती रही हैं. राजनीतिक समुदाय, जो कारपोरेट के हितपोषण के लिये प्रतिबद्ध है, इस संदर्भ में उन आर्थिक अवधारणाओं की आड़ लेता है जिनकी प्रामाणिकताओं के संदर्भ में उसके पास अध्ययनों के कोई तार्किक साक्ष्य नहीं हैं.

कारपोरेट को भारत के खुदरा बाजार से लेकर कृषि क्षेत्र तक, बीमा बाजार से लेकर बैंकिंग क्षेत्र तक, रेलवे प्लेटफार्मों से लेकर हवाई अड्डों तक, युद्धक शस्त्रास्त्रों से लेकर शिक्षा और चिकित्सा के बाजार तक… हर क्षेत्र पर आधिपत्य चाहिये. इसके लिये राजनीतिक प्रतिष्ठान, जो कारपोरेट शक्तियों के अनुगामी की पराजित भूमिका में आ चुका है, का दायित्व है कि वह इस मार्ग को निष्कंटक करे.

इसके लिये ऐसे पिटे-पिटाए तर्कों को भी दोबारा धो-पोंछ कर जनता के सामने लाया जाता है जो अतीत में व्यवहार की कसौटियों पर खरे नहीं उतर पाए हैं. जैसे, प्रधानमंत्री मोदी ने जो कहा उसकी प्रेरणा उन्हें थैचरवाद से मिली. जबकि, थैचरवाद ब्रिटेन में ही पुनर्विचार के घेरे में है और इसकी प्रणेता मार्गरेट थैचर ने जिस ब्रिटिश रेलवे का निजीकरण कर दिया था, उसके इतने दुष्प्रभाव सामने आए कि बाद में फिर से ब्रिटिश रेलवे को सरकारी संरक्षण में लेना पड़ा. जब ब्रिटेन जैसे धनी और विकसित देश में रेलवे निजी क्षेत्र में स्वीकार्य नहीं हो सका तो भारत जैसे निर्धन देश में क्या होगा, कल्पना से ही भय का संचार होने लगता है.

जब शक्तिशाली जमात के हित दांव पर होते हैं तो तर्क बहुत मायने नहीं रखते. नए नए तर्क गढ़ भी लिये जा सकते हैं. इसमें दुनिया के तमाम प्रभावशाली सत्ता प्रतिष्ठानों के स्वर भी प्रायः एक ही होते हैं.

जैसे, नए कृषि कानून को ही लें. भारत में इसके खिलाफ बावेला मचने के बाद इसकी अनुगूंज अंतरराष्ट्रीय स्तरों पर भी गूंजी. किसान आंदोलन के समर्थन में निजी तौर पर कुछ अंतरराष्ट्रीय हस्तियों ने बयान दिए किन्तु अमेरिकी सरकार की प्रतिक्रिया बेहद सधी थी. अमेरिका ने किसानों के दमन पर भारत सरकार को मानवाधिकारों की सुरक्षा को लेकर हल्का-सा उलाहना जरूर दिया लेकिन ‘भारत के नए कृषि कानून बहुत अच्छे हैं’ का सर्टिफिकेट भी साथ ही जारी कर दिया.

जैसा कि प्रधानमंत्री ने कहा है, अब सिर्फ यह समय की बात है कि भारत की सार्वजनिक कंपनियां निजी हाथों को मजबूत करेंगी. इससे देश कितना मजबूत होगा, देश के लोग कितने मजबूत होंगे, यह कोई नहीं बता सकता क्योंकि इस विषयक अतीत का कोई सुसंगत अध्ययन उपलब्ध ही नहीं है. बस, जो सत्ता प्रतिष्ठान कह रहा है, वही सत्य है, वही तार्किक है.

[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

शातिर हत्यारे

हत्यारे हमारे जीवन में बहुत दूर से नहीं आते हैं हमारे आसपास ही होते हैं आत्महत्या के लिए ज…