रविश कुमार, मैग्सेसे अवार्ड विजेता अन्तर्राष्ट्रीय पत्रकार
दुनिया में भारत के लोकतंत्र को लेकर अच्छी बात नहीं हो रही है. भारत के बारे में अच्छी बातें नहीं हो रही है. दुनिया भर के देश जान गए हैं कि भारत अब वैसा नहीं रहा. कई देशों का मीडिया भारत सरकार या मोदी सरकार के आगे तानाशाही के पर्यायवाची शब्दों का इस्तमाल करने लगा है. सरकार भले ही चुनाव जीत कर इन सबको ग़लत बता दें लेकिन सबको पता है कि यह चुनाव कैसे जीता जा रहा है. इस जगहंसाई का नुक़सान दूरगामी होगा.
कोलकाता में प्रधानमंत्री मोदी ने ममता बनर्जी के बारे में कहा कि ‘हम हर किसी का भला चाहते हैं, हम नहीं चाहते कि किसी को चोट लगे लेकिन लेकिन जब स्कूटी ने नंदीग्राम में गिरना तय किया है तो हम क्या करें.’
प्रधानमंत्री की भाषा का जब कभी अध्ययन होगा तब लोग यह देख पाएँगे कि उन्होंने जिस भाषा और भाषण से जिस पद को पाया, उस पद की गरिमा अपने भाषण और उसकी भाषा में कितनी गिराई है. कभी तेल के दाम कम होने पर खुद को नसीबवाला कहने वाले प्रधानमंत्री के भाषण का यह हिस्सा अजीब है. स्कूटी गिर जाने का रूपक चुनते हैं. किसी दिन यह भी कह देंगे कि आपकी कार पलट जाएगी, जहाज़ गिर जाएगा. बिहार में एक वक्त डीएनए का मसला ले आए थे. संदर्भ यह है कि ममता बनर्जी ने स्कूटी चला कर तेल की क़ीमतों का विरोध किया था. उन्हें चलानी नहीं आती थी तो सुरक्षाकर्मी स्कूटी को सहारा दे रहे थे.
अब इस घटना को प्रधानमंत्री अपने भाषण में किस तरह लाते हैं, आपको देखना चाहिए. वे तेल के दाम के विरोध की बात को गोल कर जाते हैं लेकिन उसके बढ़ने के विरोध के तरीक़े का मज़ाक़ उड़ाना नहीं भूलते. यह भी कहते हैं कि स्कूटी नहीं गिरी नहीं तो दीदी जिस राज्य में स्कूटी बनी है, उस राज्य को दोष देती.
प्रधानमंत्री कितने सतही तरीक़े से बातों को रखते हैं. अगर अन्य कारणों से उनकी लोकप्रियता नहीं होती तो लोग उनके कई भाषणों और कई भाषणों के हिस्से पर शर्म करते. कभी ऐतिहासिक संदर्भों को लेकर सीधे-सीधे झूठ बोल देना तो कभी डीएनए की बात उठाना तो कभी गुजरात दंगों के संदर्भ में यह कहना कि उन्हें तो कार के नीचे पिल्ले के आ जाने पर भी तकलीफ़ होती है.
उनके भाषणों में राजनीतिक मर्यादा की गिरावट के कई प्रसंग भले भुला दिए गए हों लेकिन जब अध्ययन होगा तो लोग जान सकेंगे कि उन्होंने लोकप्रियता के नाम पर किन-किन बातों को अनदेखा किया है. जिस मंच पर प्रधानमंत्री ममता बनर्जी के लिए स्कूटी के गिर जाने का रूपक चुनते हैं तो उसी मंच पर मिथुन चक्रवर्ती कहते हैं कि ‘वे कोबरा है. काटते ही इंसान फ़ोटो में बदल जाता है.’
संवाद भले फ़िल्मी हो मगर संदर्भ तो ममता को लेकर ही था. इस घटिया संवाद के ज़रिए ममता बनर्जी को टार्गेट करते हैं और कहते हैं मैं जिसे मारता हूं उसकी लाश श्मशान में मिलती है. मिथुन कोबरा बन कर बीजेपी में गए हैं या बीजेपी में जाने के बाद कोबरा बन गए हैं ? अगर बीजेपी में नहीं जाते तो ईडी और आयकर विभाग के डर से भीगी बिल्ली बने फिरते.
प्रधानमंत्री की भाषा में राजनीतिक मर्यादा के पतन का असर दूसरे नेताओं में भी दिखता है. उनके समर्थकों की भाषा में भी दिखता है. आप मेरे ही लेख के किसी कमेंट में जाएंगे तो उनके समर्थकों की भाषा देख सकते हैं. नीचे से लेकर ऊपर तक उन्होंने लोकतांत्रिक भाषा को कुचलने का नेतृत्व किया है. मोदी संभवतः सबसे ख़राब भाषण देने वाले नेताओं में से हैं. उनके भाषण में ताली बजवाने और ललकारने की क्षमता तो है मगर वे अपनी भाषा के ज़रिए राजनीति की हर उस मर्यादा को ध्वस्त करते हैं जो किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिए ज़रूरी होती है. कभी लाल क़िले के भाषण से झूठ बोल दिया तो कभी संसद में घुमा फिर कर ऐसे बोल गए जैसे चतुराई ही सत्य हो.
ख़ुद कभी रोज़गार पर आंकड़े नहीं दे पाए. जो आंकड़े आते थे, उसे बंद कर दिया. अपनी सरकार की नौकरियों का हिसाब नहीं दिया. आए दिन ट्विटर पर रेलवे और स्टाफ़ सिलेक्शन कमीशन को लेकर ट्रेंड होता रहता है, उस पर तो प्रधानमंत्री ने न बयान दिया न पहल की लेकिन बंगाल में जाकर रोज़गार का मुद्दा उठा रहे हैं. विपक्ष के राज्यों में भाजपा रोज़गार को मुद्दा बनाने लगी है लेकिन बिहार मध्यप्रदेश सहित अपने राज्यों में रोज़गार की बात ही नहीं करती. मोदी जी के भाषण चतुराई के लिए ही जाने जाते रहेंगे, जिस चतुराई की क़ीमत जनता को ही चुकानी है. प्रधानमंत्री ने एक बार भी नहीं कहा कि किसानों को आतंकवादी मत कहो.
लोकतंत्र के मूल्यों की हत्या
गोदी मीडिया आपके समाज के मूल स्वभाव और लोकतंत्र के मूल्यों की हत्या कर रहा है. न्यूज़ चैनल करोड़ों लोगों तक पहुंचता है. आप देख सकते हैं कि किस तरह की पत्रकारिता हो रही है और इससे क्या लाभ है ? क्या धर्म की राजनीति इस लिए हो रही है कि इस राजनीति के सामने सत्य का धर्म काँपने लगे ? उसकी हत्या हो जाए ? धर्म क्या हमें यही बताता है कि झूठ की ही सत्ता रहेगी ? तब निश्चित रूप से ये धर्म नहीं है, अधर्म है.
यह एंकर कितना चिल्लाता है. गर्मी आ रही है. इन्हें बेल का शर्बत पीने के लिए कहिए. ऐसा क्या हो गया है कि इतना चिल्ला रहे हैं. सड़क पर भारत इनकी तरह बोलने लगे तो ध्वनि प्रदूषण से लोग मरने लगेंगे. भाई प्यार से बोल लो, झूठ ही तो बोलना है. सबको पता है. फिर काहे कूद रहे हैं, चिल्ला रहे हैं कि पूछता है भारत. भारत पूछने वालों को जान गया है. कहने सुनने की संस्कृति अच्छी होनी चाहिए. थोड़ा ऊँचा बोल लीजिए लेकिन इतना मत चिल्लाइये कि स्पीकर का चदरा फट जाए. दो लाइन सुनकर कपार झनझना गया. लोग सुनते कैसे हैं ? व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी के ग्रुप में जितने रिश्तेदार इस तरह की फ़ालतू बात करते हैं, उनके काम के नीचे इस एंकर का ऑडियो फुल भोलूम में बजा दीजिए, भाई साहब अगले दिन से गुडमार्निंग मैसेज पोस्ट करने नहीं आएँगे.
राष्ट्रीय समस्या और रिश्तेदार
भारत में इस विषय पर रिसर्च किए जाने की बहुत ज़रूरत है. कई लोग मुझे लिखते हैं कि व्हाट्स एप ग्रुप में रिश्तेदारों से बहस करना मुश्किल हो गया है. वो इतनी सांप्रदायिक बातें करते हैं कि उनसे बहस करना मुश्किल हो गया है. ये रिश्तेदार अपनी मूर्खता को लेकर इतने उग्र हो चुके हैं कि इनके सामने बहुत लोग खुद को असहाय पाते हैं. आप कुछ भी तर्क दीजिए, तथ्य दीजिए इन रिश्तेदारों पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है. रिश्तेदार एक व्यापक टर्म है इसमें पिता भी शामिल हैं. उनके लिए अलग से कैटेगरी नहीं बनाई है. यह समस्या मामूली नहीं है.
पहले की राजनीति सांप्रदायिकता को घर-घर नहीं पहुँचाती थी. दंगे होते थे और शहर या राज्य के सीमित लोग इसकी चपेट में आते थे लेकिन अब इसका व्यापक रूप से सामाजीकरण हुआ है. इसमें इन रिश्तेदारों का बहुत बड़ा योगदान है. ख़ासकर पेंशन पाने वाले रिश्तेदारों में भयानक क़िस्म की सांप्रदायिकता देखी जा रही है. पिछले साल ठीक इसी वक्त में तब्लीग जमात को लेकर रिश्तेदारों ने फ़ैमिली ग्रुप में ज़हर फैला दिया था. उसकी तीव्रता इतनी अधिक थी कि उनके असर में हर घर में एक से अधिक दंगाई तैयार हो गया था. बाद में अदालतों के कई फ़ैसलों में इस बात को लेकर डांट लगी है कि तब्लीग का कोरोना के फैलने से कोई संबंध नहीं था.
इससे भारत की बदनामी हुई है. इसी तरह इन दिनों बंगाल के फ़ैमिली ग्रुप में सांप्रदायिक बहसें होने लगी हैं. इन रिश्तेदारों के लिए सांप्रदायिकता पहली खुराक है. इसके सरिए वे हर ग़लत को सही बताने लग जाते हैं. इस कारण अलग राय रखने वाले लोगों के लिए फ़ैमिली ग्रुप में रहना असहनीय हो गया है. हालत यह हो गई है कि लड़का बेरोज़गार है लेकिन बेरोज़गारी को लेकर घर में ही बहस नहीं कर पाता है. परिवारों का लोकतांत्रिक वातावरण ख़त्म हो चुका है.
मेरा सुझाव है, इस तरह की बहसों और फार्वर्ड किए जा रहे पोस्ट की सामग्री जमा करें. ख़ुद ही विश्लेषण करें और दो तीन हफ़्तों के अंतराल पर रिश्तेदार को भेज दें कि ये आपके सोचने का पैटर्न है. किस कैटेगरी के रिश्तेदार हैं, अपने जीवन यापन के लिए किया करते हैं, इनके घर में कौन सी किताबें हैं, क्या पढ़ते हैं, कौन सा चैनल देखते हैं और कितनी देर देखते हैं. फ़ेसबुक पर भी अपने विश्लेषण को पोस्ट करें.
रिश्तेदारों की सांप्रदायिकता को लेकर बड़े स्तर पर अभियान चलाने की ज़रूरत है. कौन रिश्ते में क्या लगता है केवल उस रिश्ते का आदर करें मगर उनकी सांप्रदायिक बातों से संघर्ष करना बहुत ज़रूरी है.आपको यह समझना होगा कि इन रिश्तेदारों के असर में आकर कोई बच्चा दंगाई बन सकता है. किसी की हत्या कर सकता है. ये रिश्तेदार हमारे सामाजिक ढाँचे के लिए ख़तरा बन चुके हैं. व्हाट्स एप ग्रुप के रिश्तेदारों से सतर्क होने का समय आ गया है. इनसे दूर मत भागिए. सामने जाकर कहिए कि आप कम्यूनल है. आपकी सोच एक दंगाई की सोच हो चुकी है. परिवारों में लोकतंत्र बचेगा तभी देश में लोकतंत्र बचेगा.
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