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क्या यह लोकतंत्र की आखिरी हिचकियां हैं ?

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क्या यह लोकतंत्र की आखिरी हिचकियां हैं ?

kanak tiwariकनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़

स्कूली पढ़ाई से लेकर शोधप्रबंध लिखने तक भारत ने सबने रट लिया है कि लोकतंत्र जनता द्वारा, जनता का और जनता के लिए शासनतंत्र है. वाक्य का मर्म कई वर्षों से जनता की पीड़ा और कराह में बिसूर रहा है. फिर भी रटा हुआ वाक्य किसी की जुबान से हटता नहीं है. वह ज़ेहन की दीवार पर फोटो फ्रेम की तरह जड़ा हुआ है. हाल में ही म्यामांर में फिर सैनिक शासन ने सबसे लोकप्रिय जननेता आन सांग सू की को गिरफ्तार कर संसद और लोकप्रिय सरकार को भंग कर दिया. पहले भी दशकों तक जनरल ने विन ने निर्मम हुकूमत की थी. पाकिस्तान लगातार सेना के कब्जे या दबदबे में उलटपलट होता रहता है. नेपाल में भी राजशाही, लोकतंत्र और कम्युनिस्ट ताकतों के बीच लगातार रस्साकशी होते समझ नहीं आता कि शासन की केन्द्रीय ताकत का अगला पड़ाव कहां है ?

रूस का काफी बड़ा इलाका एशिया में रहा है. राष्ट्रपति पुतिन और चीनी राष्ट्रपति शी जिन पिंग ने अपने संविधानों का कचूमर निकालते खुद को सत्ता के जीवनपर्यन्त निजाम के रूप में ताजपोशी कर ली है. यही हाल अन्य कम्युनिस्ट देशों का भी है. अंगरेजों के गुलाम रहे बहुत छोटे द्वीप सिंगापुर में लोकतंत्र का सुंदर पुलिसिया नाटक अभिनीत होते व्यक्ति और अभिव्यक्ति की आजादी के बदले भौतिक, आर्थिक, तकनीकी, समृद्धि के विश्व बाजार का मुहाना ह. अफगानिस्तान की हालत तो अमेरिका और रूस के बीच ‘गरीब की लुगाई सबकी भौजाई‘ से भी बदतर रही है. उत्तर कोरिया के तानाशाह किंग जोन जैसा सनकी और पागल धरती में अकेला माॅडल है. इंडोनेशिया, थाइलैंड, श्रीलंका, मलेशिया, मालद्वीव, कम्बोडिया, वियतनाम जैसे कई मुल्कों की हालत भी अस्थिर और संशकित होती रही है.

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एशियाई देशों में दरअसल यूरोपीय बल्कि अंगरेजी नस्ल की शासन व्यवस्था रोपी गई है. भारत उनमें सबसे बहुसंख्यक गुणग्राहक कर्जदार देश है. ज्यादातर संविधान निर्माता विलायत में पढ़े और विकसित हुए थे. उस समय विमर्श करने की स्थिति नहीं थी कि अंगरेज़ियत के संस्कारों, संस्कृति और इतिहास की चुनौतियों के समानांतर भारत के भविष्य का बीज कैसे बोया जा सकता है. लिहाज़ा प्रयोग तो इंगलिस्तानी हुआ लेकिन भारतीय जनता की परंपराएं उसके जेहन, कर्म, चरित्र और चुनौतियों के संदर्भ में अब भी प्रौढ़ हैं. पढ़ने में रोमांचक, उत्तेजक और उन्माद भरा लगता है कि हर नागरिक को सरकार के खिलाफ बोलने, प्रदर्शन और आंदोलन और विरोध करने की पूरी आज़ादी है.

जनता अपने अधिकारों को लेकर संविधानसम्मत होने का जब ऐलान करती है, तब सरकारी दमन, गोलियां, लाठियां, पुलिसिया अत्याचार और जनअधिकारों को कुचलने की हर तरह की धमकी संविधान की पोथी नहीं बचाती. अत्याचार के खिलाफ विधिनिर्माताओं ने पुरोहिती भाषा में लिख दिया नागरिक हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में दस्तक दे. हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जनता को इंसाफ देने के तीर्थ स्थान घोषित किए गए. नहीं बताया गया कि तीर्थाटन करने में कितनी दक्षिणा लगेगी भले ही घर बिक जाए.

अदालतों में मौसम रुआबदार होगा. न्यायरक्षक समझाए जाते लोग मनसबदार, चोबदार और बड़े दरबारियों की किस्म के दिखेंगे. सुप्रीम कोर्ट में संविधान निर्माताओं की मंशा के अनुसार आचरण करने में जनता को इतनी ढिलाई दिखती है कि उसके बदले घुटने टेककर न्याय मिलने की उम्मीद की नई शैली विकसित हो रही है. समझदार और सभ्य आदमी कायरों की तरह घर में छुपा है, जिससे उसका असंतोष जाहिर होने से सरकारी तेवर का सामना नहीं करना पड़ जाए.

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हम सदियों से दब्बू, कमजोर, डरपोक और सत्ता के सामने घुटने टेकने वाले रहे हैं. इसके ठीक साथ साथ हमारे महान विचारक, ऋषि और समाज सुधारक धरती के इतिहास में सबसे बडे मनुष्य प्रयोगों और संभावनाओं के सर्जक रहे हैं. ऐसी दुविधा वाला भारत इक्कीसवीं सदी में अपने अस्तित्व के सबसे तेज ढलान पर है. संसदीय व्यवस्था के तहत पांच साल के लिए जीतने वाले जनप्रतिनिधि-हुक्काम मतदाताओं के विश्वास, आश्वासनों और अस्तित्व का भी जिबह करते हुए अट्टहास करते हैं. उसमें रामायण और महाभारतकालीन मिथकों के खलनायक राक्षसों की प्रतिध्वनि गूंजने लगती है. कैसा लोकतंत्र ! काहे का लोकतंत्र ! कितना लोकतंत्र ! मर रही नसीहत वाली किताबों में जीने की उम्मीद कुलबुलाती हुई लोकतंत्र की परिभाषा, मंत्रियों की ड्योढ़ियों पर नाक रगड़ते कराह रही है.

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संविधान का संस्कृति से सीधा और अंतनिर्भर संबंध होता है. देश को चलाने की माकूल व्यवस्था आसमानी ख्यालों में नहीं पाई जाती. हर मुल्क धरती की भूगोल के साथ संस्कारजनित परंपराआंे का भी स्मृतिघर होता है इसलिए अंगरेजों के बनाए संविधान, कानून, प्रशासन व्यवस्था, व्यापार, वाणिज्य और सैन्य शक्ति वगैरह में उनके अनुभवसिद्ध इतिहास का लेखा जोखा है. उस अनुभव संसार को अन्य देश की किताबी इबारत में लिख देने से आयातक देश का चरित्र नहीं बन सकता.

अंगरेजों से बौद्धिक ऋण लेते समय दुनिया के जिन मुल्कों में संस्कार विभिन्नता बल्कि वैमनस्य की स्थिति रही है, वहां अनुभव अच्छे नहीं रहे. भारत उनमें प्रमुख है. यही कारण है भारतीय शासक खुद को गोरे अंगरेजों के बदले गेहंुआ शासक बना बैठे लेकिन जनता का मन अंगरेजियत से सराबोर होने का कोई सवाल नहीं होता. यह पेंच हमारे महान मनीषियों ने उन्नीसवीं बीसवीं सदी में समझा और जनता के गले उतारा भी था. बाद की पीढ़ी के हुक्मरान क्रमशः न तो उनके मुकाबले शिक्षित, दीक्षित या परीक्षित रहे बल्कि एक तरह से पश्चिम की फूहड़ नकल में दत्तचित्त भी रहे.

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काले बाजारिए, भ्रष्ट, बलात्कारी, टैक्स चोर, दलाल और कमीशनखोर काॅरपोरेटी गुलाम लोकतंत्र की केंचुल में घुसकर सत्ताधीश बनते जा रहे हैं. अब्राहम लिंकन की प्रसिद्ध उक्ति जिन संघर्षधर्मी तेवरों वाले अवाम के नुमाइंदों के लिए यकायक उद्भासित हुई थी, वह कौम तो कब की इतिहास की खंदकों में दफ्न हो गई. पुरानी परिभाषाओं की चमड़ी नए मूल्यों, तेवरों, साजिशों और अपराधों के जिस्म पर चढ़ी हुई दिख जाने से उसे लोकतंत्र तामीर हो गया ऐसा समझाया जाता है. लाखों किसान अपने परिवारों के साथ सड़कों पर अपने कौैल के लिए नेस्तनाबूद होने को तैयार हैं लेकिन खुद को जनता का सेवक घोषित करने वाले जनप्रतिनिधि अपने अहंकार में रोज नया शिगूफा छेड़ रहे हैं.

हैरत है उसके बाद भी अधिकारच्युत गरीब, भुखमरी के शिकार, बेकार, टैक्स पीड़ित और नागरिक अधिकारों से बेदखल लोग दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में निजाम के अत्याचार के सामने लाचारी से कोर्निश बजा रहे हैं. उतनी कमजोरी, घबराहट और निराशा ओढ़कर उनके पूर्वजों ने भी अंगरेजों के सामने चाकरी नहीं की थी. इतिहास चक्र उलट दिशा में चलने लगे. तब उसे प्रतिक्रांति कहते हैं. इसलिए अन्य मुल्कों से कहीं ज्यादा भारत का लोकतंत्र आत्मनिर्भर बनने की उम्मीद के बरक्स लगभग आत्महत्या करने की ओर चल रहा है, जैसे ‘किसी ढलान पर तेज गति की मोटरगाड़ी चले जिसका ब्रेक फेल हो गया हो.’

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