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ग़ुलाम मीडिया के रहते कोई मुल्क आज़ाद नहीं होता

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ग़ुलाम मीडिया के रहते कोई मुल्क आज़ाद नहीं होता

Ravish Kumarरविश कुमार, मैग्सेसे अवार्ड विजेता अन्तर्राष्ट्रीय पत्रकार
जेल की दीवारें आजाद आवाजों से ऊंची नहीं हो सकती हैं. जो अभिव्यक्ति की आजादी पर पहरा लगाना चाहते हैं, वो देश को जेल में बदलना चाहते हैं.

गांव का एक लड़का पत्रकारिता कर रहा था. शहर की कंपनी वालों को बुरा लग गया. गांव के लड़के को जेल भिजवा दिया. उन्हें पता नहीं था कि शहर में गांव के बहुत से लोग रहते हैं. एक दिन इसी शहर से गांव-गांव निकल आएगा. मनदीप पुनिया की रिहाई के लिए आज दिल्ली में पत्रकारों ने दिल्ली पुलिस के मुख्यालय के सामने मार्च किया है. सबको सलाम.

एक पत्रकार पर हमला जनता की आवाज़ पर हमला है. आज दो बजे दिल्ली पुलिस के नए मुख्यालय के सामने पत्रकार जमा हो रहे हैं. मनदीप की गिफ्तारी के विरोध में. मनदीप को गिरफ्तार किया गया है. किसान आंदोलन को स्वतंत्र पत्रकारों ने कवर किया. अगर ये पत्रकार अपनी जान जोखिम में डाल कर रिर्पोट न कर रहे होते तो किसानों को ही ख़बर नहीं होती कि आंदोलन में क्या हुआ है.

फ़ेसबुक लाइव और यू-ट्यूब चैनलों के ज़रिए गोदी मीडिया का मुक़ाबला किया गया. अब लगता है सरकार इन पत्रकारों को भी मुक़दमों और पूछताछ से डरा कर ख़त्म करना चाहती है. यह बेहद चिन्ताजनक है. बात-बात में एफआईआर के ज़रिए पत्रकारिता की बची-खुची जगह भी ख़त्म हो जाएगी.

जिस तरह से स्वतंत्र पत्रकार मनदीप पूनिया और धर्मेंद्र को पूछताछ के लिए उठाया गया उसकी निंदा की जानी चाहिए. आम लोगों को यह समझना चाहिए कि क्या वे अपनी आवाज़ के हर दरवाज़े को इस तरह से बंद होते देखना चाहेंगे ? एक पत्रकार पर हमला जनता की आवाज़ पर हमला है. जनता से अनुरोध है कि इसका संज्ञान लें और विरोध करे. मनदीप को तुरंत रिहा किया जाना चाहिए.

दिल्ली पुलिस के अफ़सर भी ऐसी गिरफ़्तारियों को सही नहीं मानते होंगे. फिर ऐसा कौन उनसे करवा रहा है ? कौन उनके ज़मीर पर गुनाहों का पत्थर रख रहा है ? उन्हें भी बुरा लगता होगा कि अब ये काम करना पड़ रहा है ? हम उनकी नैतिक दुविधा समझते हैं लेकिन संविधान ने उन्हें कर्तव्य निभाने के पर्याप्त अधिकार दिए हैं. अफ़सरों को भी पत्रकारों की गिरफ़्तारी का विरोध करना चाहिए.

मेरी यह बात लिख कर पर्स में रख लें. गांव और स्कूल की दीवारों से लेकर बस, ट्रैक्टर और ट्रक के पीछे भी लिख कर रख लें. इसका मीम बना कर लाखों लोगों में बांट दें. मेरी राय में सच्चा हिन्दुस्तानी वही है जो गोदी मीडिया का ग़ुलाम नहीं है. गोदी मीडिया के ज़रिए जनता को राजनैतिक रूप से ग़ुलाम बनाया जा रहा है.

यह उसी ग़ुलामी का चरम है कि जनता का एक बड़ा हिस्सा उन किसानों को आतंकवादी कहने लगा है, जिन्हें अन्नदाता कहते नहीं थकता था. इसकी ताक़त ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश हुकूमत से भी दस गुना है. गोदी मीडिया ने पांच साल में ही जनता को ग़ुलाम बना दिया है.

आप पूछेंगे कैसे ? गोदी मीडिया ने जनता को सूचनाविहीन कर दिया है. सूचनाविहीन जनता ग़ुलाम ही होती है. गोदी मीडिया सरकार से सवाल नहीं करता है. सरकार की तरफ़ से जनता के बीच काम करने वाला नया लठैत है. यह सरकार की सरकार है. इसे पुलिस से लेकर तमाम एजेंसियों का सहारा मिलता है. इसका काम है सही सूचनाओं को आप तक नहीं पहुंंचने देना.

सूचनाओं का पता नहीं लगाना. इसकी जगह झूठ फैलाना. फेक न्यूज़ फैलाना और आपके भीतर लगातार धारणाओं का निर्माण करना. सूचना और धारणा के बीच बहुत फ़र्क़ होता है. गोदी मीडिया सूचना की जगह धारणाएंं बनाता है जैसे किसान आतंकवादी हैं और कोरोना तब्लीग जमात से फैला है. यह जिस तरह से अल्पसंख्यक का शिकार करता है उसी तरह से बहुसंख्यक के उस हिस्से का भी करता है जो हक की लड़ाई लड़ते हैं. जो सरकार से सवाल करते हैं.

कई सौ चैनल, हिन्दी के अख़बार और आई-टी सेल का खेल एक है. जनता तक वैसी सूचना मत पहुंंचने दो जिससे वह सतर्क हो जाए. सवाल करने लगे. उसे झांंसे में रखो. आज देश में भयंकर बेरोज़गारी है. सैंकड़ों आंदोलन के बाद भी भर्ती परीक्षा की हालत ठीक नहीं है. गोदी मीडिया ने इस मुद्दे को ख़त्म कर दिया. इसकी जगह लगातार लोगों को एक धर्म के नाम पर डराता रहा और एक झुंड को धर्म का रक्षक बना कर पेश करता रहा.

गोदी मीडिया ने बेरोजगार नौजवानों को भी सांप्रदायिक बनाया है. धर्मांध बनाया है. पूरा प्रोजेक्ट ऐसा है कि जनता एक धर्म से नफ़रत करती रहे और सवाल करने के लायक़ न रहे इसलिए लगातार धारणाओं की सप्लाई की जाती है, सूचनाओं की नहीं.

जैसे अंग्रेज सूचनाओं को पहुंंचने से रोकते थे. पत्रकारों को जेल भेजते थे, उसी तरह से आज हो रहा है. सूचना लाने वाला पत्रकार जेल में है. उसके ख़िलाफ़ मुक़दमे हो रहे हैं. आई-टी सेल ऐसे पत्रकारों को बदनाम करता है ताकि उसके झांंसे में आकर जनता या उनका झुंड पत्रकार पर हमला कर दे. अंग्रेज़ी हुकूमत प्रेस का गला घोंटती थी, आज की सत्ता गोदी मीडिया के ज़रिए प्रेस और जनता का गला घोंटती है.

आप मेरी बात लिख कर रख लें. या तो भारत की जनता अगले सौ साल के लिए ग़ुलाम हो जाएगी या अपनी आज़ादी और स्वाभिमान के लिए गोदी मीडिया के प्रभाव से बाहर आने की अहिंसक और वैचारिक लड़ाई लड़ेगी. नहीं लड़ेगी तो उसकी क़िस्मत. ग़ुलामी तो ही है.

राजदीप सरदेसाई के साथ (भी यही) हुआ. उसे इसी संदर्भ में देखें. गोदी मीडिया के बाक़ी एंकर लगातार झूठ और सूचनाविहीन धारणाएंं फैलाते हैं, उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं होती है. कभी माफ़ी नहीं मांंगते. तब्लीग जमात के कवरेज को लेकर सुप्रीम कोर्ट और बांबे हाईकोर्ट की टिप्पणी पढ़िए. गोदी मीडिया ने कितना ख़तरनाक खेल खेला लेकिन कोई कार्रवाई नहीं. कोई अफ़सोस नहीं कि भूल हुई है.

प्रेस के काम में गलती होती है. तरीक़ा है कि आप सफ़ाई दें और अफ़सोस ज़ाहिर करें. राजदीप से जो हुआ वह गलती थी, जो दोबारा नहीं दोहराई गई. तब्लीग, सुशांत सिंह राजपूत के केस में जो हुआ वो प्रोपेगैंडा था क्योंकि एक दिन नहीं कई हफ़्ते चला. दोनों में अंतर है लेकिन राजदीप की सैलरी बंद कर दी गई. एंकरिंग से हटा दिया गया. अब एफआईआर की जा रही है. क्या आप इस खेल को समझ पा रहे हैं ?

किसी भी घटना में कई तरह के दावे होते हैं. उन दावों की रिपोर्टिंग अपराध है ? सोच समझ कर पेश करनी चाहिए लेकिन राजदीप ने पुलिस का भी मत दिया था. राजदीप ने इन दोनों को लेकर महीनों कार्यक्रम नहीं चलाया, जो गोदी मीडिया करता है और जहां वे काम करते हैं वो भी गोदी मीडिया ही है. संदेश साफ है अब सिर्फ़ पुलिस जो कहेगी वही रिपोर्ट करना होगा वर्ना एफआईआर होगी. इसे ग़ुलामी नहीं तो और क्या कहते हैं ?

न्यूज़लौंड्री के आयुष तिवारी का यह लेख पढ़िए, आपको खेल समझ आ जाएगा. आपको ग़ुलामी दिख जाएगी. आज पत्रकारों के लिए नौकरी असंभव हो चुकी है. एक ही रास्ता है – चुप रहो, समझौता करो लेकिन कहांं तक. इसलिए गोदी बनो वरना बाहर का रास्ता खुला है.

प्रिय जेलर साहब, भारत का इतिहास इन काले दिनों की अमानत आपको सौंप रहा है. आज़ाद आवाज़ों और सवाल करने वाले पत्रकारों को रात में उनकी पुलिस उठा ले जाती है. दूरदराज़ के इलाक़ों में एफआईआर कर देती है. इन आवाज़ों को संभाल कर रखिएगा.

अपने बच्चों को व्हाट्स एप चैट में बताइयेगा कि सवाल करने वाला उनकी जेल में रखा गया है. बुरा लग रहा है लेकिन मेरी नौकरी है. जेल भिजवाने वाला कौन है, उसका नाम आपके बच्चे खुद गूगल सर्च कर लेंगे. जो आपके बड़े अफ़सर हैं, IAS और IPS,अपने बच्चों से नज़रें चुराते हुए उन्हें पत्रकार न बनने के लिए कहेंगे. समझाएंंगे कि मैं नहीं तो फ़लांं अंकल तुम्हें जेल में बंद कर देंगे. ऐसा करो तुम गुलाम बनो और जेल से बाहर रहे.

भारत माता देख रही है, गोदी मीडिया के सर पर ताज पहनाया जा रहा है और आज़ाद आवाजें जेल भेजी जा रही हैं. डिजिटल मीडिया पर स्वतंत्र पत्रकारों ने अच्छा काम किया है. किसानों ने देखा है कि यू-ट्यूब चैनल और फ़ेसबुक लाइव से किसान आंदोलन की ख़बरें गांंव-गांंव पहुंंची हैं. इन्हें बंद करने के लिए मामूली ग़लतियों और अलग दावों पर एफआईआर किया जा रहा है.

आज़ाद आवाज़ की इस जगह पर ‘सबसे बड़े जेलर’ की निगाहें हैं. जेलर साहब आप असली जेलर भी नहीं हैं. जेलर तो कोई और है. अगर यही अच्छा है तो इस बजट में प्रधानमंत्री जेल बंदी योजना लांंच हो, मनरेगा से गांंव-गांंव जेल बने और बोलने वालों को जेल में डाल दिया जाए. जेल बनाने वाले को भी जेल में डाल दिया जाए. उन जेलों की तरफ़ देखने वाला भी जेल में बंद कर दिया जाए. मुनादी की जाए कि प्रधानमंत्री जेल बंदी योजना लांंच हो गई है. कृपया ख़ामोश रहें.

सवाल करने वाले पत्रकार जेल में रखे जाएंंगे तो दो बातें होंगी. जेल से अख़बार निकलेगा और बाहर के अख़बारों में चाटुकार लिखेंगे. विश्व गुरु भारत के लिए यह अच्छी बात नहीं होगी. मेरी गुज़ारिश है कि सिद्धार्थ वरदराजन, राजदीप सरदेसाई, अमित सिंह सहित सभी पत्रकारों के ख़िलाफ़ मामले वापस लिए जाएंं. मनदीप पुनिया को रिहा किया जाए. एफआईआर का खेल बंद हो.

मेरी एक बात नोट कर पर्स में रख लीजिएगा. जिस दिन जनता यह खेल समझ लेगी उस दिन देश के गांंवों में ट्रैक्टरों, बसों और ट्रकों के पीछे, हवाई जहाज़ों, बुलेट ट्रेन, मंडियों, मेलों, बाज़ारों और पेशाबघरों की दीवारों पर यह बात लिख देगी.

‘गुलाम मीडिया के रहते कोई मुल्क आज़ाद नहीं होता है. गोदी मीडिया से आज़ादी से ही नई आज़ादी आएगी.’

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