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आइये, इस महान किसान-आंदोलन को एक जमीनी और एकताबद्ध जन-आंदोलन में बदल डालें!  

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भारत किसानों का देश हैं, यह बात मौजूदा जारी किसान आन्दोलन ने पूरी ताकत से स्थापित कर दिया है. शासक वर्ग के एक के बाद एक जारी जनविरोधी कानूनों व नीतियों के विरूद्ध केवल किसान ही वह तबका है, जो मजबूती से टिका रह सकता है, वरना दक्षिणपंथी फासिस्ट शासक ने 2014 के बाद जिस तरह एक के बाद देश के हर समुदाय, तबकों को पूरी क्रूरता और षड्यंत्रों के साथ दमन किया है, वह हर आन्दोलनकारी तबकों की आंखें खोलने के लिए काफी है. बच्चा प्रसाद सिंह द्वारा यह लेख किसान आंदोलन के 40 दिन पूरे होने के बाद लेखक द्वारा लिखा गया था, परन्तु, इस महत्वपूर्ण लेख ‘आइये, इस महान किसान-आंदोलन को एक जमीनी और एकताबद्ध जन-आंदोलन में बदल डालें!’ के बिलम्ब से प्राप्त होने के बावजूद आज यहां अपने पाठकों के सामने प्रस्तुत कर रहा हूं, ताकि किसान आंदोलन को सही ढंग से समझने में मदद मिल सके और यथासंभव मौजूदा जारी विख्यात किसान आंदोलन में किसी हद तक मदद की जा सके.  – सम्पादक

आइये, इस महान किसान-आंदोलन को एक जमीनी और एकताबद्ध जन-आंदोलन में बदल डालें!  

देशी और विदेशी कॉरपोरेटों और उनके राजनीतिक चाकरों के विरुद्ध आज 40 दिनों से जारी किसानों के सुनामी जैसे आंदोलन ने समूचे देश और विदेश में भी एक अच्छी-खासी हलचल पैदा की है. दिल्ली के चारों ओर घेरा और डेरा डालकर बैठे किसानों में तकरीबन 12 राज्यों के किसानों के शामिल होने की खबरें आयी हैं, वह भी बाल-बच्चे-बूढ़े पूरे परिवार समेत. अभी तक 57 के करीब किसान शहीद हो चुके हैं. 1 से 2 डिग्री सेल्सियस की कड़कड़ाती सर्दी और उसपर से घातक बारिश की फुहारों को फौलाद की तरह झेलते हजारों-हजार किसानों का लगातार बढ़ता जाता हुजूम इस आंदोलन के तेज और तेवर का सबूत दे रहा है.

इनको दिल्ली तक पहुंचने से रोकने के लिए बौराई सत्ता ने क्या-क्या कदम नहीं उठाए ? सड़कों पर बड़े-बड़े गड्ढे खोदना, लाठीचार्ज, आंसू गैस, तेज धार वाली पानी की बौछारें, हजारों-लाखों की संख्या में पुलिस, ऊपर से धौंस-धमकी. पर यह सब जरा भी नहीं डिगा पाया इन संकल्पित किसानों को. और नतीजा सामने है. किसानों की उमड़ती सुनामी से  घिरी दिल्ली बेहाल पड़ी है और धुंआ रहा है समूचा देश.

आज जब समग्रता में इस आंदोलन की विशालता और व्यापकता को देखते हैं, तो स्वाभाविक रूप से याद आती है करीब आज से 90-95 साल पहले  एक पिछड़े हुए देश में किसान-आंदोलनों के निर्णायक स्वरूप को सामने लाती माओ की मशहूर वाणी –

किसान-आंदोलन का मौजूदा उभार एक बहुत बड़ी घटना है. कुछ ही दिनों के अंदर चीन के (भारत पढ़ें) मध्यवर्ती, दक्षिणी और उत्तरी प्रांतों में दसियों करोड़ किसान एक प्रबल झंझावात या प्रचंड तूफान की तरह उठ खड़े होंगे. यह एक ऐसी अद्भुत वेगवान और विध्वंसकारी शक्ति होगी कि बड़ी से बड़ी ताकत भी उसे दबा न सकेगी. किसान अपने उन समस्त बंधनों को, जो अभी उन्हें बांधे हुए हैं, तोड़ डालेंगें और मुक्ति के मार्ग पर तेजी से बढ़ चलेंगे. वे सभी साम्राज्यवादियों, युद्ध सरदारों, भ्रष्टाचारी अफसरों, स्थानीय अत्याचारियों और बुरे शरीफजादों को यमलोक भेज देंगे. सभी क्रांतिकारी, पार्टियों को और सभी क्रांतिकारी साथियों को जांचा-परखा जाएगा और जैसा वे फैसला करेंगे, उसी के अनुसार उन्हें अपनाया या ठुकराया जाएगा. इस बारे में तीन रास्ते हो सकते हैं. उनके आगे-आगे चलें और उनका नेतृत्व करें ? या उनके पीछे-पीछे चलें और उंगली उठा-उठाकर उनकी आलोचना करते रहें ? या सामने खड़े होकर उनका विरोध करें ? हर चीनी (यहां भी भारतीय पढ़ें) इन तीनों रास्तों में से कोई भी एक चुनने को स्वतंत्र है, और परिस्थितियां आपको इस बात के लिए मजबूर कर देंगी कि आप यह चुनाव तुरंत करें.

इस आंदोलन की मांगों का जहां तक सवाल है, लगभग हम सभी इनसे वाकिफ हैं. पर अभी ये मांगें एक ही सवाल पर आकर केंद्रित हो गयी हैं. वह है पिछले दिनों लाये गये तीनों कृषि-कानूनों को निरस्त करो और MSP की गारंटी करनेवाला कानून लाओ !

इधर तीनों कृषि-कानूनों के बारे में बहुत सारी सामग्री आयी है और आ रही है. अतः अभी उन तीनों कानूनों के बारे में विस्तृत व्योरा देना यहां हमारी मंशा नहीं है, पर हम इस पर चर्चा जरूर करेंगे कि इन कानूनों को लाने की प्रक्रिया कितनी फासिस्ट जैसी रही.

एक तो लॉकडाउन, देश और देश के सारे संस्थान ठप, दूसरे, कोई इतनी बड़ी इमर्जेंसी भी नहीं कि देश तबाह हो रहा हो, तब भी आखिर इतनी हड़बड़ी में ये कानून अध्यादेश के रूप में लाये गये, आखिर क्यों ? न किसी से सलाह न किसी से बातचीत. किसानों, व्यापारियों, आम लोगों, बुद्धिजीवियों, कृषि-विशेषज्ञों, कृषि-अर्थनीति से जुड़े अर्थशास्त्रियों, किन्हीं से सलाह तो नहीं ही ली गयी. यहां तक कि उन्हें भनक भी नहीं लगने दी गयी और अध्यादेश ला दिए गये. फिर लॉकडाउन के चलते पूरे देश में कर्फ्यू जैसी स्थिति में सिर्फ इन्हीं कानूनों को पारित कराने के लिए जबरन संसद-सत्र बुलाया गया. कोई चर्चा नहीं, कोई बहस नहीं, कोई विशेषज्ञ समिति बनाकर उसे इन बिलों को भेजकर उन्हें हर नजरिये से जांचने, समझने, सुधारने का किसी को कोई मौका नही, विपक्ष की बार-बार की जोरदार मांग को ठोकर मार कर ऐसे ध्वनि मत से इसे जबरन पारित किया गया, जिसमें कहते हैं ध्वनि ही ध्वनि थी और मत गायब था. लोकतंत्र के सारे ढकोसलों को बिल्कुल दूर हटाकर विशुद्ध फासिस्ट तरीके से बनाये गये इन कानूनों को जनता और खासकर किसानों के ग़ुस्से का निशाना तो बनना ही था.

ऐसी नाजुक परिस्थिति में इतनी हड़बड़ी में ये कानून बनाने के कारणों पर भी एक बार गौर करना जरूरी होगा. हम सभी जानते हैं कि लॉकडाउन के पहले से ही हमारी पूरी अर्थव्यवस्था पहले तो नोटबंदी की मार से और फिर GST को जैसे-तैसे हड़बड़ी में थोपने की वजह से मंदी का शिकार थी. तिस पर से लॉकडाउन ने अर्थव्यवस्था को और भी गहरी खाई में धकेल दिया था. आठों कोर सेक्टरों और सेवा से लेकर औद्योगिक क्षेत्रों तक सभी जगह अर्थव्यवस्था गोते लगाने लगी थी. पर इतनी प्रतिकूलता में भी देखा गया 2020 की तीसरी तिमाही में कृषि विकास-दर थी 4%, जबकि पूरी अर्थव्यवस्था की विकास-दर कुछ ही पहले –23% थी. तो लगभग सभी क्षेत्रों में भयंकर घाटा देनेवाली परिस्थितियों में भी मुनाफे का अमृत देती इस कृषि की कामधेनु के लिए कॉरपोरेट कसाइयों की क्रूरता से बच पाना भला कैसे संभव था ? अतः ताक लगाये गिद्धों ने कृषि क्षेत्र पर झपट्टा मारा और नतीजा थे संसदीय लोकतंत्र और इस संविधान के सभी प्रावधानों के धज्जी उड़ाते जबरदस्ती लाये गये ये तीनों कृषि-कानून.

हालांकि कृषि को मुनाफे के एक क्षेत्र के रूप में साम्राज्यवाद ने यानी देशी-विदेशी निगमों ने बहुत पहले से ही ढालना शुरु कर दिया था, पर कृषि का पूरी तरह कारपोरेटीकरण करने और उसपर अपनी मुट्ठी कस लेने की हाल की प्रकिया भी इन कृषि-कानूनों को लाने के पहले से ही शुरु थी. इसकी शुरुआत हम तब देखते हैं जब भू-हदबन्दी कानूनों में बदलाव लाया गया. किसी भी व्यक्ति या संस्था की जमीन की मालकियत की जमींदारी-उन्मूलन के समय ही निर्धारित की गई सीमा को खत्म कर दिया गया. फिर तुरंत ही हमने देखा कि भारत के शहरी क्षेत्र और यहां तक कि खनिजों से समृद्ध जंगली इलाके भी नये-नये कॉरपोरेटी जमींदारों से पट गये. देशी-विदेशी कॉरपोरेटों ने कृषि-भूमि पर भी थोक भाव से कब्जा करना शुरू कर दिया. हजारों-लाखों एकड़ कृषि-भूमि को विभिन्न केंद्रीय व राज्य सरकारों ने सुनियोजित तरीके से देशी-विदेशी कॉरपोरेटों के हवाले कर दिया.

फिर दूसरे अजूबे सामने आने लगे. भंडारण की सीमा को खत्म कर देने वाले इन कानूनों में से एक के सामने आने के महीनों पहले से ही अडाणियों ने विशालकाय गोदाम बनवाने शुरू कर दिये थे. इन सच्चाइयों ने यह साफ कर दिया कि बड़े-बड़े निगमों के इशारों पर ही उनके इन राजनीतिक एजेंटों ने ये कानून बनाये हैं और अब उन्हें लागू करने पर आमादा हैं.

इधर ‘द हिन्दू’ के 30 दिसम्बर, 2020 के अंक में प्रख्यात अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक ने साफ इशारा किया है कि –

इन कृषि-कानूनों का लक्ष्य केवल कृषि को कॉरपोरेट के हवाले करना ही नहीं है. उससे भी आगे इन कानूनों को लाने का एक मकसद भारत की दशकों पुरानी और परीक्षित सार्वजनिक खाद्य संग्रहण व्यवस्था और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को भी समाप्त करने का मार्ग प्रशस्त करना है. यह तो साफ ही दिखता है कि अनाज खरीदने और मन-मुताबिक फसल लगवाने तथा पैदा करवाने का एकाधिकार जब देशी-विदेशी कॉरपोरेटों के हाथों में चल जाएगा तो FCI द्वारा अनाज खरीदना वैसे ही घटता चला जायेगा. जैसे-जैसे सरकारी स्टॉक घटेगा, सार्वजनिक अनाज वितरण व्यवस्था पहले तो अनियमित और फिर धीरे-धीरे ठप होती चली जाएगी. इस तरह देश की अवाम द्वारा इतने संघर्ष के बाद हासिल सार्वजनिक खाद्य सुरक्षा व्यवस्था को पूरी तरह बर्बाद करने और अनाज के एक-एक दाने के लिए पूरी जनता को बहुराष्ट्रीय कृषि-निगमों पर निर्भर होने को बाध्य करने की परिस्थितियां बनायी जा रही हैं. वैसे भी उत्तरी ग्लोब के कृषि-उत्पादों से समृद्ध अमरीका, कनाडा और यूरोपीय संघ जैसे देशों में अपने खाद्यान्नों के अतिरिक्त की खपत के लिए उनका अपना  बाजार नाकाफी हो रहा है. ऐसे में भारत जैसे पिछड़े देशों में सार्वजनिक वितरण प्रणालियों को समाप्त करने वाली नीतियां बनाने के लिए इनकी सरकारों पर दबाव लगातार बढ़ रहे हैं ताकि उनके खाद्यान्नों और खाद्यान्न-उत्पादों के लिए एक उन्मुक्त बाजार बन सके. इस तरह इन कृषि-कानूनों के जरिए साम्राज्यवाद और देशी-विदेशी कॉरपोरेटों के चाकर न सिर्फ भारत की खेती-किसानी को लूटने का, बल्कि समूची अवाम को भी अपने खाद्य-उपभोक्ता में बदलकर उनकी बेलगाम लूट-खसोट का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं.

कुल मिलाकर इन कृषि-कानूनों को लागू करने के जो परिणाम सामने आते दिखते हैं, वे न सिर्फ भारतीय खेती-किसानी को कॉरपोरेट के हवाले कर देंगे, बल्कि साथ-साथ समूची भारतीय जनता को भी उनके रहमो-करम पर जीवित रहने की दिशा में धकेल देंगे इसलिए इस भ्रम को दूर करना अत्यंत जरूरी है कि इन कानूनों से भारतीय किसानों, और वह भी सिर्फ धनी किसानों का एक छोटा तबका ही प्रभावित होगा. इस विशाल किसान-आंदोलन को तोड़ने और बाकी अवाम से इसे अलगाव में डालने के लिए ऐसे दुष्प्रचार शासक वर्गों और कॉरपोरेट मीडिया द्वारा जमकर फैलाये जा रहे हैं. हमें इन कानूनों के समग्र जन-विरोधी, देश-विरोधी, राष्ट्र-विरोधी चरित्र को पूरी तरह उजागर करना होगा.

इसी बीच इस किसान-आंदोलन के अब तक के विकास के मद्देनजर कई चीजें स्पष्ट हैं –

  1. भारत के स्वातन्त्र्योत्तर इतिहास में यह पहला आंदोलन देखा जा रहा है जिसका स्वरूप देशव्यापी है, जो सचमुच अहिंसक है और विस्मय की सीमा तक अनुशासनबद्ध.
  2. इस आंदोलन ने खेती-किसानी, उसके संकट, उसके कॉरपोरेटीकरण को पहली बार देश के एक मुख्य एजेंडे के रूप में सामने ला हाजिर किया है.
  3. सामंतवाद के साथ किसानों और आम जनता के आम अंतरविरोध के साथ ही साथ कृषि में बड़े पैमाने पर साम्राज्यवादी पूंजी की घुसपैठ की वजह से साम्राज्यवाद, और खासकर देशी-विदेशी कॉरपोरेटों के साथ उत्पादक किसानों के अंतरविरोध तेजी से बढ़ते जा रहे थे. इस आंदोलन ने कृषि बनाम कॉरपोरेट के अंतरविरोध को अपनी पूरी व्यापकता और तीव्रता से उजागर किया है. इसने देशी-विदेशी कॉरपोरेटों और उनके राजनीतिक प्रतिनिधियों को किसानों और भारतीय अवाम के एक मुख्य और आम दुश्मन के रूप में चिन्हित करते हुऐ सामने ला दिया है.
  4. इस आंदोलन ने पूरे देश में एक ओर बड़े भूमिपति, बड़े पूंजीपति, देशी-विदेशी कॉरपोरेटों, साम्राज्यवादी शक्तियों और इनके चाकर मनुवादी फासिस्टों तथा दूसरी ओर, किसानों, मजदूरों, छात्र-युवाओं, दलितों अल्पसंख्यको, महिलाओं और अन्य राजनीतिक सचेत जनवादी, प्रगतिशील, देशभक्त व धर्मनिरपेक्ष ताकतों समेत समूची भारतीय जनता के बीच के धुव्रीकरण को तेज कर दिया है.
  5. इस ऐतिहासिक आंदोलन ने मनुवादी फासिस्टों के जन-विरोधी, किसान-विरोधी, जनवाद-विरोधी और साम्राज्यवाद, बड़े पूंजीपति और कॉरपोरेटपरस्त चरित्र को आम जनता के सामने बेपर्द कर के रख दिया है.

अभी इस आंदोलन की कमी-बेशी के आकलन का सटीक समय नहीं है, पर भारतीय अवाम तथा भारत के तमाम राजनीतिक सचेत ताकतों को इस किसान-आंदोलन के मद्देनज़र अपना रुख और अपने कार्यभार तो तय करने ही होंगे. बिंदुवार कहें तो आज जरूरी है कि –

  • इस किसान-आंदोलन की अगली कतार में खड़े हो कर इसका भरपूर साथ दिया जाय.
  • इसे देश भर में, खासकर विस्तीर्ण देहाती क्षेत्रों, किसानी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर फैलाया जाए. इसमें सभी ताकतें अपनी समूची शक्ति झोकें ताकि देश के कोने-कोने में किसान-जनता और बाकी अवाम को, जो जहां है, वहां भी बड़े पैमाने पर लामबंद और आंदोलित किया जा सके.
  • एक दूरगामी योजना के तहत सभी क्षेत्रों में किसान-आंदोलन के समर्थन में आंदोलन निर्मित करने व कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने के लिए तथा साथ ही बाकी अवाम को भी जागरूक और संगठित करने के लिए स्तर दर स्तर कमेटियां – ‘किसान संघर्ष एकजुटता कमेटी’ जैसे संगठन बनाये जा सकते हैं, इनमे सभी संघर्षरत ताकतों को शामिल किया जा सकता है.
  • स्थानीय पहलकदमियों को बढ़ावा देने के लिए स्थानीय कार्यकर्ताओं को तरजीह दी जानी चाहिए. नये नौजवानों/नवयुवतियों को साहस के साथ कमेटियों में शामिल करते हुए जिम्मेदारियां दी जानी चाहिए.
  • इस सच्चाई को हर तरह से प्रचारित किया जाना चाहिए कि ये कानून न सिर्फ किसानों के खिलाफ, बल्कि भारत के समूची शोषित-वंचित-उत्पीड़ित वर्गों, तबकों और समुदायों के खिलाफ है. इनके जो नतीजे सामने आएंगे वे भी सिर्फ किसानों को ही प्रभावित नहीं करेंगे, बल्कि समूची जनता, उसका हर हिस्सा, तबका और समुदाय बुरी तरह इनसे प्रभावित होगा. ये कानून सिर्फ खेती-किसानी पर ही नहीं, बल्कि देश की समूची अर्थव्यवस्था पर ही कॉरपोरेटी कब्जे को मुकम्मिल करने का मार्ग खोल रहे हैं. अतः इस किसान-आंदोलन के नेतागण भूमिहीन किसानों, खेतिहर मजदूरों या फिर अन्य मेहनतकशों की मांगों को नहीं उठा रहे हैं, इसी आधार पर इस आंदोलन को केवल किसानों के एक तबके के आंदोलन के एक सीमित रूप में ही देखना एक सामग्रिक दृष्टिकोण नहीं होगा. ऐसे में इस किसान-आंदोलन के पक्ष में समूची जनता को ही गोलबंद करना हमारी-आपकी तत्काल एक जरूरी जिम्मेदारी बन जाती है. इसके साथ ही साथ निश्चित रूप से इस आंदोलन में भारी संख्या में खेतिहर मजदूरों, समस्त किसानों, मजदूरों, छात्र-युवाओं, मध्यवर्गीय तबकों, दलितों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों और पिछड़ों समेत समूची मेहनतकश अवाम को गोलबंद और एकजुट करने पर खुद को केंद्रित किया जाना चाहिए. अतः आज हमें इस मुख्य नारे को लेकर सामने आना चाहिए –इस किसान-आंदोलन को भारतीय जनता के लुटेरे व दमनकारी कॉरपोरेटों, बड़े पूंजीपति और साम्राज्यवादी शक्तियों तथा उनके राजनीतिक प्रतिनिधियों, खासकर मनुवादी फासिस्टों के खिलाफ एक देशव्यापी जमीनी जन-आंदोलन में बदल डालना आज का हमारा मुख्य कार्यभार है.
  • साथ ही हमें ऐसा माहौल बनाना चाहिए जिसमें कि वर्तमान किसान-आंदोलन का नेतृत्व भी खेतिहर मजदूरों, छोटे किसानों सहित समूचे किसान वर्ग के साथ-साथ सभी शोषित-उत्पीड़ित वर्गों, तबकों व समुदायों की मांगों को भी उठाने और उन्हें संघर्ष का मुद्दा बनाने की ओर बढ़े.
  • परिस्थितियां जिस ढंग से विकसित हो रही हैं, इस आंदोलन पर, इसकी बेमिसाल अनुशासनबद्धता के बावजूद, जबरदस्त दमन-पीड़न ढाया जाएगा. अतः आंदोलनकारी ताकतों और उनके समर्थन में खड़ी शक्तियों को भी भावी दमन-पीड़न अभियानों का अनुशासनबद्ध रहते हुए और अपनी शक्तियों की हिफाजत करते हुए मुकाबला करने की तैयारी अभी से ही लेनी होगी. साथ ही आंदोलन को सरकार लम्बा खींचने को बाध्य कर थका डालने की कार्यनीति ले रही है. ऐसे में एक लम्बी अवधि के टिकाऊ जन-आंदोलन के निर्माण व विकास का लक्ष्य लेकर अभी से चौतरफा तैयारियां की जानी चाहिए.
  • इस आंदोलन के दौर से आगे आने वाली नयी ताकतों को और भी भारी एवं व्यापक जन-आन्दोलनों के लिए आकर्षित करना, उन्हें प्रशिक्षित करना और टिका लेने का लक्ष्य भी हमें सामने रखना चाहिए. इसके लिए जरूरी होगा कि हम युवा शक्तियों पर खुद को केंद्रित करें.
  • किसान-आंदोलन की एकजुटता और अनुशासन- बद्धता को तोड़ने की सरकार की हर साजिश के खिलाफ हमें चौकस रहना चाहिए. हमें हर हालत में अपनी एकजुटता बनाये रखनी होगी. साथ ही बहुसंख्यक ताकतों को, कहें तो सभी सकारात्मक ताकतों को गोलबंद करना होगा. इस मामले में हमारी नीति यह होनी चाहिए कि  इस आंदोलन के पक्ष में सर्वाधिक ताकतों को एकताबद्ध किया जाए और आंदोलन-विरोधी सभी शक्तियों को बिल्कुल अलगाव में डाल दिया जाय.

इस आंदोलन के दौरान हमारे बहुत से किसान-साथी बहादुरी से अपनी जिन्दगियां कुर्बान कर रहे हैं. हमें अपनी शहादत की परम्परा को आगे बढ़ाते जाना चाहिए.  हमें मालूम है कि शहीदों की नयी कतारें सामने आती रहेंगी और इस परम्परा को जारी रखते हुए अपने लहू से सींच कर इस महान किसान-आंदोलन को अपने अंतिम लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ती रहेंगी.

अतः आवें, एकबार फिर हम सभी परिवर्तनकामी शक्तियां एकजुट होकर एक मंच पर आकर इस किसान-आंदोलन को एक ऐतिहासिक देशव्यापी जन-आंदोलन में बदल डालने में अपनी सारी ऊर्जा झोंक दें !

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