सर्दियां
सैनिक की विधवा की
सूनी मांग-सी सफेद हैं
हजारों सालों से
करोड़ों अहेतुक युद्ध में
मारे गए श्वेत आत्माओं के
लहू में बुझी
एक विशाल सर्द हथेली पर
टिका है
विदीर्ण उत्तेजनाओं का अनाथालय
विधवाओं के पुंजीभूत आंसू
बिखरे हैं ओस बनकर
दूब घास पर
फूलों पर
इधर
मौसम का पारा लुढ़कते हुए
एक वृत्ताकार समय के वलय पर
स्थिर हो चुका है
मुझे सुबह की सैर करने पर रोक है
मुझे ओस कणों को गिनने पर रोक है
मेरी गिरती हुई सेहत का वास्ता है कि
मेरे लिए ताजा हवा जहर है
ऐसे में
नतजानु हो कर
बुद्धत्व को प्राप्त किए
उनके दुखों की प्रतिमा के सामने
प्रार्थना करने के सिवा
मेरे पास चारा क्या है
आखिर
मैं कोई बच्चा तो हूं नहीं कि
हरे मैदानों को चीरती
सफेद मांगों सी पगडंडी पर दौड़ जाऊं
फटे हुए टायर लेकर
उसके अतीत से बेखबर
तुम मेरी प्रार्थना में
शामिल होने को स्वतंत्र हो
पाचन तंत्र में पड़े
मूंगफली की तरह मेरा खोया हुआ अभिमान
अभी तेजाब के असर में है।
- सुब्रतो चटर्जी
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