बहुत दिनों से आकांक्षा रही है
बादलों को छूने की
और आज फिर से चढ़ रहा हूं
चिङकाङशान पर.
फिर से अपने उसी पुराने ठिकाने को
देखने की गरज से
आता हूं लम्बी दूरी तय करके,
पाता हूं नये दृश्य पुराने दृश्यों की जगह पर.
यहां-वहां गाते हैं ओरिओल,
तीर की तरह उड़ते हैं अबाबील,
सोते मचलते हैं
और सड़क जाती है ऊपर आसमान की ओर.
एक बार पार हो जाये हुआङऊयाङचिएह
फिर नहीं नजर आती और कोई जगह खतरनाक.
मथ रही है हवाएं और बिजलियां
लहरा रहे हैं झण्डे और बैनर
जहां कहीं भी रहता है इंसान.
चुटकी बजाते उड़ गये अड़तीस साल.
भींच सकते हैं हम चांद को नवें आसमान में
और पकड़ सकते हैं कछुए
पांच महासमुद्रों की गहराइयों में:
विजयोल्लास भरे गीतों और हंसी के बीच
हम लौटेंगे .
साहस हो यदि ऊंचाइयों को नापने का,
कुछ भी नहीं है असम्भव इस दुनिया में.
(मई 1965)
- टिपण्णी :
{1} माओ ने यह सुप्रसिद्ध कविता उस समय लिखी थी जब चीन में पार्टी के भीतर मौजूद पूंजीवादी पथगामियों (दक्षिणपंथियों को यह संज्ञा उसी समय दी गई थी) के विरुद्ध एक प्रचण्ड क्रान्ति के विस्फोट की पूर्वपीठिका तैयार हो रही थी. महान समाजवादी शिक्षा आन्दोलन के रूप में संघर्ष स्पष्ट हो चुका था. युद्ध की रेखा खिंच गई थी. यह 1966 में शुरू हुई महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की पूर्वबेला थी, जिसने पूंजीवादी पथगामियों के बुर्जुआ हेडक्वार्टरों पर खुले हमले का ऐलान किया था. सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति ने पहली बार सर्वहारा अधिनायकत्व के अन्तर्गत सतत क्रान्ति और अधिरचना में क्रान्ति का सिद्धान्त प्रस्तुत किया और इसे पूंजीवादी पुनर्स्थापना को रोकने का एकमात्र उपाय बताते हुए समाजवाद संक्रमण की दीर्घावधि के लिए एक आम कार्यदिशा दी. इसके सैद्धान्तिक सूत्रीकरणों की प्रस्तृति 1964-65 में ही की जाने लगी थी.
इस कविता में भावी युगान्तरकारी क्रान्ति की पदचापें स्पष्टतः ध्वनित होती हैं. चिङकाङशान में पहली बार देहाती आधार इलाकों का निर्माण हुआ था, भूमि क्रान्ति के प्राथमिक प्रयोग हुए थे, लाल सेना का जन्म हुआ था और यहीं से दीर्घकालिक लोकयुद्ध का मार्ग प्रशस्त हुआ था. यह चीनी क्रान्ति का एक प्रतीक चिन्ह था. 1965 में एक नई क्रान्ति के तूफान का आवाहन करते हुए माओ चिङकाङशान पर फिर से चढ़ने का वर्णन करते हुए एक बार फिर उन दिनों को याद करते हैं और उनसे प्रेरणा लेते हैं. चिङ काङ शान पर फिर से चढ़ना एक और युगान्तरकारी क्रान्तिकारी संघर्ष की तैयारी का प्रतीक है. इस कविता में सर्वहारा साहस, संकल्प और आशावाद की सान्द्र अभिव्यक्ति सामने आई है.
(अनुवाद और टिप्पणी : सत्यव्रत )
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