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जल, जंगल और ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने की कॉरपोरेट मुहिम के खिलाफ है यह किसान आंदोलन

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जल, जंगल और ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने की कॉरपोरेट मुहिम के खिलाफ है यह किसान आंदोलन

सुब्रतो चटर्जी

किसान लोकतंत्र के रखवालों को रिहा करने की मांंग क्यों कर रहे हैं, ये मूर्ख दंगाबाज नहीं समझ पा रहा है. मतलब, यह कॉरपोरेट कुकुर इस आंदोलन के उद्देश्य को ही नहीं समझ रहा है.

ज़्यादातर मूर्खों की तरह मोदी भी समझ रहा है कि किसानों की समस्या सिर्फ़ तीन नए क़ानूनों से है और जिन राजनीतिक आर्थिक परिस्थितियों में ये क़ानून कॉरपोरेट हित में लाए गए, उनसे नहीं. वे नहीं समझ रहे हैं कि किसानों की लड़ाई सिर्फ़ अपनी उपज का वाजिब दाम और ज़मीन पर मालिकाना हक बनाए रखने की नहीं है.

इस दृष्टि से देखें तो ये तथाकथित अनपढ़ किसान हम पढ़े लिखे लोगों से ज़्यादा समझदार हैं. उनके पास वह समावेशी समझ है जिसके अंतर्गत बरवरा राव और सुधा भारद्वाज जैसों की रिहाई का मामला कहीं न कहीं उनकी समस्या से भी जुड़ी है. सत्ता का स्वेच्छाचारी दुरुपयोग और लोकतंत्र की हत्या दोनों एक ही बात है, जिसका प्रतिस्फलन सरकार के विभिन्न निर्णयों में देखा जा सकता है. एक उदाहरण है आपदा प्रबंधन क़ानून का सरकार हित में दुरुपयोग.

दरअसल नब्बे के दशक से धीरे-धीरे बाज़ार और सरकार का क़ब्ज़ा हमारे जीवन पर बढ़ता जा रहा है. अपनी लाख कमियों के वावजूद, मनमोहन सिंह की सरकार बाज़ार की महात्वाकांक्षा और आम आदमी की ज़रूरतों के बीच एक भारसाम्य बनाए रखने में कामयाब हुई थी.

इसी कारण से कॉरपोरेट जगत उनसे ख़फ़ा था. आर्थिक सुधार की धीमी गति को जो इजारेदार विभिन्न संचार माध्यमों से जो दिन रात पानी पी-पी कर कोसते थे, उनके लिए सुधार का अर्थ सिर्फ़ संपूर्ण राष्ट्रीय संपत्ति का निजी हाथों में सौंपना था, ये बात आज साफ हो चुकी है. अपने इस कुत्सित स्वार्थ को पूरा करने के लिए किस तरह एक मरियल कुत्ते को शेर बनाकर जनमानस में स्थापित किया गया, ये बात भी आज दिन की तरह स्पष्ट है.

ये बात सही है कि भारत के नब्बे प्रतिशत भिखारी किसान नरपिशाच का छ: हज़ार सालाना पाकर खुश हैं, क्योंकि उनके पास न अपने अधिकारों की समझ है, न अपने कर्तव्यों की. संघी कॉरपोरेट ठगबंधन ने बड़ी चतुराई से गरीब और अमीर की लड़ाई को एक नए नैरेटिव में सेट कर दिया है.

लेकिन, यह प्रपंच चिरस्थायी नहीं है. आंदोलनरत किसान समझ रहे हैं कि बस्तर के अभ्यांतर में जल, जंगल और ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने की कॉरपोरेट मुहिम का ही अगला पड़ाव किसानों की ज़मीन पर क़ब्ज़े की कोशिश है इसलिए बरवरा राव और सुधा भारद्वाज जैसे लोग इन किसानों के भी स्वाभाविक नायक हैं, और संजीव भट्ट भी.

मोदी चाहता है कि किसानों के आंदोलन की वैचारिक दृष्टि को सीमित रखा जाए. यह अब संभव नहीं है. कल किसान सशर्त सरकार से वार्ता करने जाने को तैयार हैं, लेकिन मुझे नहीं लगता कि सरकार उनकी शर्तों पर वार्ता करने को तैयार होगी.

वैचारिक लड़ाई बहुत स्पष्ट हो चुकी है. मोदी और गुजराती चंडाल चौकड़ी के पास हारने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है. दिल्ली में होने वाली किसानों की ट्रैक्टर रैली लड़ाई की अंतिम फ़ेज़ की शुरुआत होगी. वैसे अंदर की ख़बर है कि इस बार जय किसान के साथ जय जवान भी खड़े हैं. मोदी का सर्वनाश बहुत क़रीब है.

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ROHIT SHARMA

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