बसन्त कभी अलग होकर नहीं आता
ग्रीष्म से मिलकर आता है,
झरे हुए फूलों की याद
शेष रही कोंपलों के पास
नई कोंपलें फूटती हैं
आज के पत्तों की ओट में
अदृश्य भविष्य की तरह,
कोयल सुनाती है बीते हुए दु:ख का माधुर्य
प्रतीक्षा के क्षणों की अवधि बढ़कर स्वप्न-समय घटता है,
सारा दिन गर्भ आकाश में
माखन के कौर-सा पिघलता रहता है चांद,
यह मुझे कैसे पता चलता
यादें, चांदनी कभी अलग होकर नहीं आती
रात के साथ आती है,
सपना कभी अकेला नहीं आता
व्यथाओं को सो जाना होता है,
सपनों की आंंत तोड़ कर
उखड़ कर गिरे सूर्य बिम्ब की तरह
जागना नहीं होता,
आनन्द कभी अलग नहीं आता
पलकों की खाली जगहों में
वह कुछ भीगा-सा वज़न लिए
इधर-उधर मचलता रहता है,
- वरवरा राव
(सामाजिक कार्यकर्ता एवं कालजयी कवि साहित्यकार)
अनुवादक : शशि नारायण स्वाधीन
पुस्तक : साहस गाथा
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