अरुंधति रॉय भारत की उन चंद लेखकों में हैं, जिनकी समकालीन भारत की नब्ज़ पर उंगली है और जो भारत की हर धड़कन को कान लगाकर सुनती हैं और उसे अभिव्यक्त करने की कोशिश करती हैं. आज का भारत उनके भीतर एक खौफ़ पैदा करता है और भारत के भविष्य को लेकर दहशत भरी गहरी दुश्चिंता भी. इस खौफ़ और दुश्चिंता को उनकी हाल में ही प्रकाशित किताब ‘आज़ादी’ में महसूस किया जा सकता है.
यह खौफ़ हिंदू राष्ट्रवाद का खौफ़ है, जिसने अश्वमेध के अपने घोड़े को छोड़ दिया है. जो आज़ादी के बाद के भारत की जितनी भी और जैसी भी सकारात्मक उपलब्धियां थीं, उन सबको रौंदता आगे बढ़ रहा है. जो कोई भी उसे लगाम लगाने की कोशिश करता या किसी तरह से उसके मार्ग में बाधा बनता है, उस पर घोड़े के पीछे-पीछे चल रही आक्रमक सेना हमला बोल देती है और रौंद डालती है.
अब इस सेना में संघ और उसके सैकड़ों आनुषांगिक संगठनों के साथ भारतीय राज्य की करीब-करीब पूरी मशीनरी शामिल हो गई है. पुलिस तो संघ के लिए एक राज्य पोषित हथियारबंद संगठित गिरोह की तरह उन राज्यों में काम कर रही है, जहां भाजपा की सरकारें हैं, जिसका सबसे ज्वलंत उदाहरण उत्तर प्रदेश है. पुलिस की कौन कहे, अब भारतीय सेना पर भी संघ की काली छाया पड़ गई है.
केंद्रीय एजेंसियां संघ के विस्तारित हाथ-पांव बन गई हैं और कार्पोरेट पोषित मीडिया उनके विचारों के प्रचार-प्रसार का आक्रामक उपकरण. हर वह व्यक्ति और समुदाय संघ के निशाने पर है, जो विश्व विजय के लिए निकले घोड़े के रास्ते में किसी तरह से रुकावट बनता है.
इस घोड़े की लगाम उस आरएसएस के पास है, जिसके बारे में अरुंधति रॉय लिखती हैं- ‘आज दुनिया-भर में जो गोरे श्रेष्ठतावादी, नव-नाजी समूह उभार पर हैं, उनमें किसी के पास भी ऐसा ढ़ांचा और इतने लोग नहीं हैं, जैसा आरएसएस के पास है. आरएसएस बताता है कि देश-भर में उसके पास सत्तावन हजार शखाएं हैं, और छह लाख से अधिक ‘स्वयं सेवकों का एक हथियारबंद, समर्पित मिलिशिया है. यह स्कूल चलाता है, जिसमें लाखों छात्र पढ़ते हैं, इसके अपने मेडिकल मिशन, मज़दूर संघ, किसान संगठन, महिला-समूह और अपना मीडिया है.’
‘हाल में इसने घोषणा की है कि यह भारतीय सेना में शामिल होने के लिए एक प्रशिक्षण स्कूल खोलने जा रहा है. इसके भगवा ध्वज के नीचे आक्रामक दक्षिणपंथी संगठनों का एक भरा-पूरा कुनबा फला-फूला है, जिसे संघ परिवार के नाम से जाना जाता है. ( पृ.121) .’
इस संगठित गिरोह के इतर आरएसएस ने जनता के एक हिस्से को भी अपनी आक्रामक लंपट सेना में तब्दील कर लिया है, जो कहीं भी, कभी भी और किसी नाम पर भी मुसलमानों को अपना निशाना बना सकती है और उनकी मॉब लिंचिंग कर सकती है या उनका सामूहिक कत्लेआम कर सकती है, जिसका हालिया उदाहरण दिल्ली में देखा गया.
अरुंधति दिल्ली दंगे (सन् 2020) को मुसलमानों का सुनियोजित कत्लेआम कहती हैं. संघ की सेना की मॉब लिंचिंग के शिकार गाहे-बगाहे मुसलमानों के साथ दलित एवं आदिवासी भी होते रहते हैं. वैसे तो मॉब लिंचिंग के लिए तैयार यह लंपट सेना हर उस व्यक्ति की मॉब लिंचिंग के लिए उद्धत है, जो संघ-परिवार के मानंदड़ों पर देशभक्त नहीं हैं यानि देशद्रोही है.
संघ-परिवार के देशद्रोही की परिभाषा का दायरा बढ़ता जा रहा है. अब इसमें मुसलमानों, ईसाईयों और वामपंथियों के साथ वे लोग भी शामिल हो गए हैं, जो किसी भी तरह से और किसी भी कारण से संघ-भाजपा से सहमत नहीं हैं. इस दायरे में उन लोगों को भी शामिल किया जा रहा है, जो भाजपा को वोट नहीं देते हैं. संघ-भाजपा से किसी भी तरह की मुखर असहमति देशद्रोह की श्रेणी में शामिल होता जा रहा है.
दूसरी तरफ हिंदू राष्ट्रवाद के पक्ष में खड़े दुर्दांत से दुर्दांत अपराधी, बलात्कारी एवं भ्रष्टाचारियों को संघ और भारतीय राज्य मशीनरी का सुरक्षा कवच उपलब्ध है और वे भारतीय राज्य के शीर्ष पदों पर आसानी से विराजमान हो सकते हैं.
2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा को पूर्ण बहुमत और 2019 में उनकी प्रचंड बहुमत के साथ वापसी के साथ भारतीय राज्य की सभी संस्थाओं पर संघ-परिवार का शिकंजा कसता जा रहा है और राज्य मशीनरी संघ के टूल की तरह कार्य कर रही है. आजादी के साथ सांस लेने के जरूरी सभी स्पेस बंद किए जा रहे हैं.
अरुंधति हिंदू राष्ट्रवाद, फ़ासीवाद और हिंदू बहुसंख्यवाद को एक दूसरे के पर्याय के रूप में देखती हैं और यूरोपीय फ़ासीवाद से इसकी समानताओं को रेखांकित करते हुए लिखती हैं कि ‘यूरोपीय फ़ासीवाद की बुलंदी और तबाही के बारे में बरसों से पढ़ते हुए, मैं सोचने लगी हूं कि क्यों फ़ासीवाद अलग-अलग इतिहासों और संस्कृतियों में भी इतनी आसानी से पहचान में आ जाता है. हालांकि किसी भी लिहाज से हर जगह एक समान नहीं है, लेकिन हर जगह वही मजबूत मर्द, विचारधारात्मक फ़ौज, आर्य श्रेष्ठता का घिनौना सपना, ‘अंदरूनी दुश्मन’ को इंसान नहीं मानना और भारी-भरकम बेरहम प्रचार मशीन, फर्जी हमले और हत्याएं, ख़ुशामदी बिजनेसमैन और फिल्मी सितारे, विश्वविद्यालयों पर हमले, बुद्धिजीवियों से खौफ, डिटेंशन कैंपों का भूत, और नफरत से भरी हुई वही मर्दनुमा आबादी जो बस ‘हाइल! हाइल! हाइल!’ के भारतीय संस्करण का जाप करती रहती है.’ ( पृ.186-87)
अरुंधति हिंदू राष्ट्रवाद या फ़ासीवाद की जड़ों की तलाश यूरोपीय फ़ासीवाद में नहीं करती हैं, भले उसने उसे प्रेरणा और प्रोत्साहन हिटलर और मुसोलिन से मिला हो और वे हिटलर को अपने प्रेरणापुरूष की तरह याद करते हों. अरुंधति का मानना है कि हिंदू राष्ट्रवाद की जड़ें भारतीय वर्ण-जाति व्यवस्था में है.
इस संदर्भ में वे लिखती हैं कि ‘हिंदू राष्ट्रवाद और हिंदू श्रेष्ठता की सनक की बुनियाद में वर्णाश्रम धर्म का सिद्धांत, जाति व्यवस्था है, जिसे जाति विरोधी परंपरा में ब्राह्मणवाद कहा जाता है. ब्राह्मणवाद समाज को एक सीढ़ीदार ऊंच-नीच की परंपरा में बांटता है जिसे ईश्वरी विधान बताया जाता है…बराबरी, भाईचारा या बहनावे के उसूलों से जाति व्यवस्था को दुश्मनी है.
इसलिए यह देखना मुश्किल नहीं है कि यह विचार (वर्णाश्रमी विचार) कितनी आसानी से ‘मालिक नस्ल’ के फ़ासीवादी विचार में ढ़ल जाता है, जो पहले से ही इंसानों को एक ईश्वर के विधान के रूप में पैदाइशी तौर पर दूसरे से बेहतर या कमतर मानती हो. …आज भी जाति भारतीय समाज के करीब-करीब हरेक पहलू को चलाने वाला इंजन भी है और उसूल भी.’ ( पृ.171-72)
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