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किसान आन्दोलन और उनकी मांग

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किसान आन्दोलन और उनकी मांग

अमेरिकन कार्टूनिस्ट बेन गारिसन : भारत की स्थिति का चित्रण

संजय श्याम

किसान आन्दोलन और उनकी मांगों पर बात शुरू करने से पहले हमें यहां कुछ बुनियादी तथ्य को जान लेना चाहिए.

1 लाख रुपये से ज्यादा का औसत कर्ज है किसानों पर : राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा करीब 3.36 लाख करोड़ की सब्सिडी प्रदान करने के बावजूद देश के प्रत्येक किसान पर एक लाख रुपये से ज्यादा कर्ज है और 52 . 6 लाख फीसद किसान परिवार कर्ज के दायरे में है. एनएसओ के अनुसार, साल 2012 – 13 में प्रत्येक कृषक परिवार की औसत मासिक आय 6426 रूपये थी. नाबार्ड की एक रिपोर्ट में 2016 में औसतन इसे 8931 रुपये बताया गया है.

28 किसान प्रतिदिन करते हैं आत्महत्या : राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी ), 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2019 में खेती पर निर्भर 10,281 लोगों ने आत्महत्या कर ली थी यानी 28 लोगों ने हर दिन आत्महत्या की. आत्महत्या के सर्वाधिक मामले महाराष्ट्र से आए. वर्ष 2019 में महाराष्ट्र में 3927 खेती से जुड़े लोगों ने आत्महत्या की थी. कर्नाटक में यह आंकड़ा 1992 है और आंध्र प्रदेश में 1024 तथा मध्य प्रदेश में 541 है.

68 फीसद किसानों के पास एक हेक्टेयर से भी कम जमीन : कृषि जनगणना (2015-16) के मुताबिक 68 फीसदी किसानों के पास एक हेक्टेयर से भी कम जमीन है. देश के 86 फीसद कृषि भूमि सीमांत और छोटे किसानों के पास है. कृषि सेंसस (2015-16) के मुताबिक देश के तीन राज्यों में एक करोड लोग खेती से जुड़े हैं. उत्तर प्रदेश में 2.38 करोड, बिहार में 1. 6 4 करोड और महाराष्ट्र में 1.52 करोड लोग खेती से जुङे हैं.

40 फीसद लोगों को कृषि से रोजगार : देश में रोजगार में खेती की संख्या अब भी सबसे ज्यादा 41.49 फीसदी है. 2016 और 2017 में यह संख्या क्रमश: 45.14 फीसद और 44 .05 थी.

इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए अब किसान आन्दोलन और उसके बाद की स्थिति पर विचार करते हैं.

तीन नये कृषि कानूनों के विरोध में सड़क पर उतरे किसानों की शंकाओं का समाधान केन्द्र में सत्तारूढ मोदी सरकार के अडियल रवैये के कारण अधर में लटका पड़ा है. सरकार लाख कहे कि ये कानून किसानों की बेहतरी के लिए हैं, लेकिन बदलाव को लेकर सहज नहीं रहनेवाली सरकार की मनःस्थिति फैसलाकुन हालात नहीं उभरने दे रही.

ज्ञात हो कि देश के किसानों द्वारा दिल्ली में 26- 27 नवंबर से तीनों किसान बिलों को वापस करने और बिजली बिल 2020 (संशोधन) वापस लेने की मांग को लेकर अहिंसक एवं लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन किया जा रहा हैं. ये किसान ठंड में ठिठुरते, खुले आसमान के नीचे असीम धैर्य, साहस और जज्बे के साथ दिल्ली की सरहदों पर धरना दिए डटे हैं. दिल्ली बार्डर पर पत्थरों के बड़े-बड़े टीले, पुलिस से धक्का-मुक्की और पानी बौछारें, बुलडोजर, जेसीबी मशीनें, पुलिस की लाठियां और यहां तक कि हाइवे को खोद देने की कोशिशों के बावजूद इन का इस कदर बैठे रहना यह साबित करता है कि उन्हें किसी ने बहकाया नहीं है और न ही वे यूं ही उठ जाएंगे. सच तो यह है कि राजनीतिक पार्टियां उनके हौसले को देखकर ही उनका समर्थन करने को मजबूर हुई हैं.

इससे अधिक दुखद स्थिति और क्या हो सकती है कि देश में जारी कृषि संकट के इस दौर में, जिस समय देश के किसानों को सरकार का भरपूर समर्थन मिलना चाहिए, भारत सरकार बड़ी कंपनियों की हिमायत और किसानों को कमजोर कर रही है. दिलचस्प बात है कि आज जब कॉरपोरेट सेक्टर को अपने परंपरागत कारोबारी सेक्टरों ऊर्जा, गैस, तेल, सिमेंट, इन्फ्रास्ट्रकचर में मुनाफा खत्म होता दिख रहा है, तो वे कृषि क्षेत्र पर कब्जा करना चाहते हैं क्योंकि उनके लिए कृषि हमेशा मुनाफे का सौदा रहेगी. लोग जीने के लिए खाना तो खाएंगे ही.

हमारा स्पष्ट मत है कि भारत सरकार को प्रदर्शनकारी किसानों की मांगों को पूरा करना चाहिए और लोकतांत्रिक मानदंडों की धज्जियां उड़ाते हुए संसद में सितंबर, 2020 में जिन तीन कृषि कानूनों को पारित किया गया है, उन्हें रद्द कर देना चाहिए. इन नए पारित कानूनों से भारत में कृषि का परिदृश्य ही बदल जाने का खतरा है. इन्हें ऐसे वक्त में लागू किया गया है, जब देश कोरोना महामारी से जूझ रहा है. इन्हें पारित करने से पहले राष्ट्रीय स्तर पर किसी प्रकार चर्चा नहीं की गयी. इतने दूरगामी परिवर्तन वाले कानूनों को ऐसे समय में लाया गया, जब कोरोना महामारी के कारण आम लोगों की सामान्य गतिविधियां और आर्थिक कार्यकलाप प्रतिबंधित थे.

आज किसानों का यह संघर्ष न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की हिफाजत और कृषि संबंंधित दो नए कानूनों तथा एक संशोधित कानून को निरस्त करने की मांग से काफी आगे निकल चुका है. ये तीन कानून हैं – ( 1) मंडियों (एपीएमसी) के बाहर फसल बेचने से संबंधित ‘कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020’; (2) निजी कंपनियों के बीच में संविदा खेती से संबंधित ‘कृषि (सशक्तिकरण और संरक्षण) मूल्य अश्वासन और कृषि सेवा करार विधेयक, 2020’ और (3) ‘आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक, 2020’, जिसके जरिए उपज की जमाखोरी पर से प्रतिबंध खत्म करके निजी निवेश के लिए छूट प्रदान की गई है.

हम सभी समझते हैं कि इन कानूनों के खिलाफ किसानों का जारी संघर्ष देश की एक बडी़ आबादी के लिए अस्तित्व की रक्षा का संघर्ष है. यह संघर्ष कृषि में उत्पादन, उचित मूल्य निर्धारण, भंडारण (जमाखोरी), बाजारों और खुदरा विपणन पर कम्पनियों (कॉर्पोरेट पूंजी) के चहुँमुखी नियंत्रण के खिलाफ है. अगर इन कानूनों को बरकरार रखा गया तो किसानों से उनकी जमीन छिन जाने और उनके भूमिहीन, बंधुआ स्थिति में आ जाने का खतरा है. किसानों की मांग को इन कुछ धनकुबेरों के लिए नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. वैसे भी इन दो वर्षों से कृषि क्षेत्र जबरदस्त संकट के दौर से गुजर रहा है.

किसानों के इस संघर्ष के साथ केंद्र द्वारा देश के संघात्मक ढांचे पर भी आघात ह‌ुआ है. संविधान के अनुसार कृषि राज्य सरकार का विषय है. ये कानून किसानों या राज्य सरकारों से सलाह मशविरा किए बगैर बनाए गए हैं. इस संघर्ष के साथ यह भी जाहिर हुआ है कि किस तरह विधायिका और न्यायिक प्रक्रिया को कमजोर करके विधि निर्माण में कार्यपालिका के माध्यम से कानून बनाए जा रहे हैं. किसानों का यह संघर्ष जनता के संगठित होने, विरोध प्रदर्शित करने और अपनी बात कहने-सुने जाने के मूल लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकारों की हिफाजत का संघर्ष है, जिसे कुचलने के लिए सरकार लाठी चार्ज, गिरफ्तारी जैसे दमन के सारे तरीके अपना रही है जिसकी हम तीव्र निंदा करते हैं. किसानों की मांगों पर लोकतांत्रिक तरीके से विचार करने की जगह सरकार ने आन्दोलन का इस तरीके से दमन करने की कोशिश की है जैसे कि शत्रु से जंग छिडी़ है.

इतना ही नहीं, किसानों की मांगों को तिरस्कृत और बदनाम करने के खातिर भाजपा के कुछ सदस्यों, मंत्रियों, सोशल मीडिया और मीडिया के एक वर्ग ने प्रदर्शनकारियों को देशद्रोही, खालिस्तानी और आतंकवादी करार देते ह‌ुए दुष्प्रचार अभियान शुरू कर दिया है. राजसत्ता और उसके समर्थकों द्वारा किसानों की मांगों को खारिज, तिरस्कृत करने और उसका उपहास करने के तहत महिला प्रदर्शनकारियों को भाड़े पर लाई गई बता करके न केवल महिला-किसानों के प्रति अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया गया है, बल्कि संघर्ष की अहमियत कम करने की भी कोशिश की गई है. सरकार और आन्दोलनकारियों के बीच व‌ार्ता के अनेक दौर चले परंतु बेनतीजा रहे. इनसे जाहिर हो गया कि सरकार का मकसद आन्दोलन को थकाना, कुचलना, अधिकाधिक दुष्प्रचार करके बदनाम करना भर है, समस्या का समाधान करना नहीं है.

सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह सुनिश्चित करे कि देश में कोई भूखा नहीं रहे. ये नए कानून और संशोधन एक बड़ी योजना का हिस्सा हैं, सरकार खाद्य सुरक्षा के दायित्व से मुक्त होना चाहती है. हम सभी का मानना है कि कृषि उपज विपणन समिति (मंंडियों) व्यवस्था को कमजोर करने से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की सम्पूर्ण व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी. इस प्रकार खरीद की सार्वजनिक व्यवस्था को कमजोर करने क‌े बाद, सरकार नकद भ‌ुगता‌न करके सार्वजनिक वितरण प्रणाली (राशन व्यवस्था) से हाथ खींच लेगी. खाद्यान्नों में निर्यात रोकने के लिए देश में कानून नहीं हैं, ऐसे में कामकाजी गरीबों की क्रय शक्ति में गिरावट के साथ खाद्यान्नों में निर्यात बढ़ेगा और देश में लोग भूख से मर रहे होंगे.

किसानों का यह मानना है कि इन कानूनों को संशोधित करने की जगह इन्हें खत्म करने की जरूरत है. ऐसा लगता है कि ये कानून किसानों के खिलाफ़ बदनीयती के साथ बनाए ही गए हैं.

किसानों के उत्पाद व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम, 2020 की धारा 13 में साफ कहा गया है, ‘इस अधिनियम के तहत किसी भी नियम या आदेश के तहत सद्भावना से किए गए किसी भी कृत्य के लिए केंद्र सरकार, राज्य सरकार या किसी भी अधिकारी या अन्य किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कोई मुकदमा, अभियोजन या अन्य कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकेगी.’ धारा 15 में यह भी कहा गया है, ‘इस अधिनियम या उसके तहत अधिकार प्राप्त किसी भी प्राधिकारी द्वारा जिस मामले में संज्ञान लिया जा सकता है या मामले का निपटान किया जा सकता है, ऐसे किसी भी मामले पर विचार करने का दीवानी अदालत का क्षेत्राधिकार नहीं होगा. वह ऐसे मामलों में दीवानी ‌अदालत में कोई मुकदमा, कार्यवाही या किसी मामले का निबटारा नहीं किया जा सकेगा.’ इस तरह के मामले परगना अधिकारी (SDM) के स्तर पर निपटाए जाएंगे.

इसी प्रकार, किसानों के उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकारण) अधिनियम, 2020 की धारा 18 में कहा गया है कि ‘केंद्र सरकार, राज्य सरकार, पंजीकरण प्राधिकरण, उप- प्रखंडीय प्राधिकरण, अपीलीय प्राधिकरण या किसी भी इस अधिनियम के प्रावधानों या उसके नियमों के तहत अन्य किसी व्यक्ति द्वारा सद्भावना से किए गए किसी भी कार्य के खिलाफ कोई मुकदमा, अभियोजन या अन्य कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकेगी. दीवानी अदालतों के जरिए समाधान के विकल्प को बाधित क्यों किया गया है, जबकि भविष्य में व्यापारियों, ठेकेदार और अन्य पक्षों के बीच विवादों की संभावना, जिंदा हकीकत है. किसान इन्हीं खतरों को भांपकर लड़ाई में उतरे हैं. किसानी के खतरे में आमतौर पर अर्थव्यवस्था तथा खासतौर पर खाद्य सुरक्षा के लिए खतरे को पहचानकर मेहनतकशों के अन्य तबके भी उनका साथ दे रहे हैं. इस लड़ाई में किसानों की जीत ही देश की जीत है.

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