रविश कुमार, मैग्सेसे अवार्ड विजेता अन्तर्राष्ट्रीय पत्रकार
किसानों को आतंकवादी कहने से पहले इस लेख को पढ़ लें –
- ज्ञान सिंह संघा, 20 नवंबर 1992,
- जयमल सिंह पड्डा, 17.3.1988
- सरबजीत सिंह भिट्टेवड, 2.5.1990
तीन नाम हैं, जिन्होंने इंसानियत के लिए अपनी जान दी. पंजाब जब उग्रवाद की चपेट में था तब पंजाब के भीतर लोग उसका मुकाबला कर रहे थे. ये वो नाम हैं जो इतिहास में बड़े नाम नहीं कहलाए लेकिन अपने वर्तमान में बड़ा काम कर गए. ज्ञान सिंह संघा, जयमाल सिंह पड्डा और सरबजीत सिंह भिट्टेवड कीर्ति किसान यूनियन के प्रदेश अध्यक्ष थे. ख़ालिस्तानियों ने इनकी हत्या कर दी क्योंकि ये आतंकवाद का विरोध कर रहे थे. गांव-गांव जाकर आतंक से लोहा ले रहे थे. एक के बाद एक तीन-तीन अध्यक्षों का शहीद होना बताता है कि कीर्ति किसान यूनियन प्रतिबद्धता की किस मिट्टी से बना होगा. इस संगठन के दर्जन भर सामान्य कार्यकर्ता भी शहीद हो गए.
गोदी मीडिया, आई टी सेल, व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी और बीजेपी के नेता कितनी सहजता से किसान आंदोलन को खालिस्तान और आतंकवाद का नाम दे रहे हैं. यह सिर्फ विरोध की बात नहीं है कि बल्कि उन नामों को सामने लाने का मौक़ा भी है, जो आतंक और सांप्रदायिकता से मुक्त एक सुंदर हिंदुस्तान के लिए शहीद हो गए. यह समय पंजाब के किसान संगठनों के बारे में जानने और समझने का भी है. जेबी संगठन नहीं हैं जो किराये पर कुछ लोगों को लेकर आ गए हैं बल्कि इन संगठनों ने किसानों के सवाल पर लंबा संघर्ष किया है. गांव-गांव में इनकी जड़ें हैं.
कई किसान संगठनों के नेताओं ने बताया कि केंद्र सरकार के तीनों किसान बिल आने के बाद गांव-गांव में उनके संगठन के सदस्यों की संख्या कई गुना बढ़ गई है. नए-नए लोग शामिल हो रहे हैं. यह तथ्य बता रहा है कि लोगों की नज़र में इन संगठनों की कितनी विश्वसनीयता होगी कि वे राजनीतिक दलों की जगह किसान संगठनों में शामिल हो रहे हैं. किसान संगठनों ने कानून के हर प्रावधान को लेकर चर्चा की है. नेताओं के बीच नहीं बल्कि सभी सदस्यों और गांव-गांव जाकर. तभी इतनी बड़ी संख्या में लोग इन नेताओं के साथ आए हैं.
कीर्ति किसान यूनियन 70 के दशक में बना था. हर तरह के आतंक का विरोध करता है. कर चुका है. अख़बार में नाम छपवाने के लिए नहीं बल्कि जान देकर गुमनाम रह जाने के बाद भी करता रहा है. इस किसान संगठन ने राज्य के आतंकवाद का भी विरोध किया है, जब पंजाब में सुरक्षा एजेंसियां आतंक के नाम पर निर्दोष सिखों की हत्या कर रही थी. इन लोगों ने हिन्दू नौजवानों की हत्या का भी विरोध कर आतंकवादियों से लोहा लिया था. संगठन के लिए हर तरह की सांप्रदायिकता का खुला विरोध करते हैं. उनका विरोध रस्मी नहीं है.
2007-8 में गुरुदासपुर में शिरोमणी सिख गुरुद्वारा प्रबंध कमेटी की ज़मीनों से बंटाईदार किसानों को बेदखल किया जा रहा था. कीर्ति किसान यूनियन ने विरोध किया, जिसमें उसके दो किसान सदस्य शहीद भी हुए. इस संगठन के मौजूदा अध्यक्ष आपातकाल के दौरान जेल में रहे थे. क्या ऐसे संगठनों के चलाए आंदोलन को कोई भी आतंकवादी या ख़ालिस्तानी कहने की ज़ुर्रत कर सकता है ? गोदी मीडिया, बीजेपी और मंत्री कर सकते हैं. पहले भी कर चुके हैं.
पंजाब किसान यूनियन उग्राहां की हरिंदर बिन्दु के पिता की हत्या खालिस्तानियों ने कर दी थी. उनकी टोली गांव-गांव में आतंकवाद का विरोध करती थी. ऐसे संगठनों के पास सरकार का सपोर्ट नहीं था. उसकी दी हुई सुरक्षा नहीं थी क्योंकि ये लोग निहत्था आतंकवादियों से लोहा ले रहे थे. इस संगठन के नेता अमोलक सिंह मंच पर भाषण दे रहे थे, उसी वक्त हरिंदर बिन्दु के पिता पर ग्रेनेड से हमला हुआ और वे शहीद हो गए. पिता की कुर्बानी के बाद बेटी ने उस संघर्ष को बढ़ाया. पंजाब किसान यूनियन उग्रांहा ने महिला किसानों को संगठित कर किसान आंदोलन को पूरी तरह से बदल दिया है. शहीद भगत सिंह के आदर्शों पर चलने वाले इस संगठन का मानना है कि किसानी के मुद्दे पर महिलाओं को आगे आना चाहिए. इनके मंच पर जितने भी भाषण होते हैं, महिला नेताओं के भी होते हैं. संगठन के बड़े पदों पर महिलाएं हैं.
2014 के बाद से यह मान लिया गया है कि देश में जनता नहीं है. वह जनता होने के टाइम में हिन्दू होती है. गोदी मीडिया से उसे हिन्दू बनाया जाता है. जनता हिन्दू बन जाती है, जो हिन्दू नहीं बनते हैं उनके सामने किसी को मुसलमान बना दिया जाता है. जो मुसलमान होते हैं उन्हें पाकिस्तानी कहा जाता है. हर विरोध और सवाल को मुसलमान और पाकिस्तानी बना दिया जाता है. जनता हिन्दू बन जाती है. जनता जनता नहीं रह जाती. यह बात ठीक है. जनता के एक बड़े वर्ग के आगे हिन्दू होने का कनात तान दिया गया है. कनात के बाहर वह कुछ भी होने का दृश्य नहीं देखना चाहती है. अपने कनात में ख़ुश रहना चाहती है. वह हर किसी को इसी चश्मे से देखने लगी है.
जनता के गुणसूत्र और जनधर्म को बदल कर सहमतियों का दायरा इतना बड़ा तो कर ही लिया गया है कि किसान को आतंकवादी कहा जा सकता है. किसी लेखक को पाकिस्तानी कहा जा सकता है. पाकिस्तानी, आतंकवादी, नक्सली ये सब मुसलमान के लिए इस्तमाल होने वाले पर्यायवाची हैं. आईटी-सेल, गोदी मीडिया के अख़बार, चैनल सबने मिल कर बिजली की गति से इस देश की जनता के दिमाग़ में एक नया यथार्थ लोक बना दिया है, जिसका सामने के यथार्थ से कोई नाता नहीं होता है. उस यथार्थ लोक में जनता की ज़रूरत नहीं है. वहां ज़रूरी होने की पहली शर्त ही यही है कि जनता होना छोड़ दें.
नीति आयोग के कार्यकारी अधिकारी अमिताभ कांत ने इसे दूसरे शब्दों में कहा है. भारत में कुछ ज़्यादा ही लोकतंत्र हैं. too much democracy. उनके लिए लोकतंत्र नमक हो गया है, जिसका ज़्यादा होना ठीक नहीं है. तानाशाही मिठाई है. ज़्यादा हो जाए तो कोई बात नहीं. अहंकारी होने का स्वर्ण युग है.
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