स्क्रिप्ट किसी गधे ने लिखा है.
सीन 1
लांग शॉट में हावड़ा ब्रिज, भागती हुई सवारियां. बैक ग्राउंड से सायरन की आवाज. कैमरा मीडिल शॉट में आता है. एक चमचमाती विदेशी गाड़ी. कैमरा क्लोजप में शीशे के अंदर बन्द नेता जी का मुस्कुराता चेहरा.
कट
सीन 2
कैमरा मिडल शॉट. भागो, मारो का शोर.
कट
सीन 3
क्लोजप में फिर वही शीशे के अंदर बन्द नेता जी का चेहरा.
कट
सीन 4
धड़ाक की आवाज के साथ कैमरा टाइट क्लोजप में दरका हुआ खिड़की का शीशा.
सीन 5
क्लोजप में गमछी से ढंका नेता जी का चेहरा. कैमरा पैन करता है. सीट के ऊपर बड़ा-सा पत्थर का टुकड़ा.
कट
पैक अप.
सीन 6
लांग शॉट में कैमरा पैन करता है. तंबू है. लोग हैं. मेजों पर भोजन है. हाथ बांधे बैरे खड़े हैं.
एक आदमी सूटेड-बूटेड हौले-हौले आया और एलान किया – ‘साहब नही आएंगे, आप लोग खा-पीकर जाय. शहर में गड़बड़ हो गया है. नेता जी के मुह पर पत्थर मारा है किसी ने.
कट
न्यूज रूम.
क्लोजप में एक सजी हुई औरत. एक बॉसनुमा आदमी आता है –
‘मैडम ! बड़ी खबर है ! उसी तरह पढ़ियेगा जैसे रिया की गिरफ्तारी पर पढ़ा था. क्या अदा थी आपकी. कितनी बुलंद आवाज थी. मेकअप तो ठीक करो यार. उम्र तो दबावो.’
एक नौजवान क्लिपिंग दिखाता है.
– सर !
– बोलो
– सर ! क्लिपिंग में गड़बड़ है. स्क्रिप्ट कह रही है पत्थर इतने वेग से मारा गया कि शीशा तोड़ कर अंदर जा घुसा और नेता जी का मुंंह टूट गया. लेकिन विजुवल में खिड़की का शीशा चटका भर है, तो पब्लिक गाली नही देगी कि फिर इतना बड़ा पत्थर का टुकड़ा अंदर गया कैसे ?
– तुम वकील हो कि पत्रकार ?
– नहीं सर ! पत्रकार
– पत्रकार ? अबे दो टके के ! जिस दिन पत्रकार बनोगे इस दफ्तर से बाहर रहोगे. समझे ?
– जी सर, समझ गया लेकिन इस पत्थर का ?
– जनता इतना देखती होती तो आज हालात कुछ और होते. हम अपने पुशतैनी धंधे में लगे ग्राहकों के पैर के नाप ले रहे होते, तुम खुद्दन की दुकान पर पत्तल में गिन-गिन कर भटूरे पकड़ा रहे होते और ये मैडम अपने बच्चों की नाक साफ कर रही होती. सवाल मत उठाया करो. यह नए निजाम का नया दस्तूर है. हम जो कर रहे हैं, यह पत्रकारिता नहीं है लेकिन नाम मिल गया है पत्रकारिता का. जैसे अपाहिज को दिव्यांग, फुटपाथ को हाइवे कर दो. छोड़ो, बकवास मत करो जावो न्यूज दिखाओ. अगले स्क्रिप्ट के लिए माहौल तैयार करो.
- चंचल
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