यह मेरा देश है…
हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक
फैला हुआ
जली हुई मिट्टी का ढेर है
जहांं हर तीसरी जुबान का मतलब –
नफ़रत है.
साज़िश है.
अन्धेर है.
यह मेरा देश है
और यह मेरे देश की जनता है
जनता क्या है ?
एक शब्द…सिर्फ एक शब्द है:
कुहरा, कीचड़ और कांच से
बना हुआ…
एक भेड़ है
जो दूसरों की ठण्ड के लिये
अपनी पीठ पर
ऊन की फसल ढो रही है.
एक पेड़ है
जो ढलान पर
हर आती-जाती हवा की जुबान में
हांंऽऽ..हांंऽऽ करता है
क्योंकि अपनी हरियाली से
डरता है.
गांंवों में गन्दे पनालों से लेकर
शहर के शिवालों तक फैली हुई
‘कथकलि’ की अंमूर्त मुद्रा है
यह जनता…
उसकी श्रद्धा अटूट है
उसको समझा दिया गया है कि यहांं
ऐसा जनतन्त्र है जिसमें
घोड़े और घास को
एक-जैसी छूट है
कैसी विडम्बना है
कैसा झूठ है
दरअसल, अपने यहांं जनतन्त्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है.
हर तरफ धुआंं है
हर तरफ कुहासा है
जो दांंतों और दलदलों का दलाल है
वही देशभक्त है
अन्धकार में सुरक्षित होने का नाम है –
तटस्थता. यहांं
कायरता के चेहरे पर
सबसे ज्यादा रक्त है.
जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिये, सबसे भद्दी गाली है.
- धूमिल
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