Home गेस्ट ब्लॉग भारत इंसानों को इंसान नहीं समझता

भारत इंसानों को इंसान नहीं समझता

4 second read
0
0
422

भारत इंसानों को इंसान नहीं समझता

हिमांशु कुमार, सामाजिक कार्यकर्त्ताहिमांशु कुमार, गांधीवादी कार्यकर्ता

रात को मैंने अपनी बेटी को मानव अधिकारों के बारे में समझाया, वह मैं आपके साथ भी बांटना चाहता हूं. प्रकृति ने जो हर इंसान को अधिकार दिए हैं वही संविधान और कानून में मानव अधिकारों के रूप में ले लिए गए हैं. प्रकृति ने हर इंसान को क्या अधिकार दिया है ?

ध्यान दीजिए हर इंसान का पहला अधिकार है जिंदा रहने का अधिकार. संविधान में इसे ही ‘राइट टू लाइफ’ कहा गया है यानी आपका जिंदा रहने का अधिकार. हर इंसान का जिंदा रहने का अधिकार. इसलिए जब कभी पुलिस या राज्य का कोई भी बंदूकधारी प्रतिनिधि किसी नागरिक को मारता है तो इस अधिकार का हनन होता है.

दूसरा अधिकार है बराबरी का अधिकार. संयुक्त राष्ट्र संघ के मानव अधिकारों की घोषणा की पहली लाइन है. हर मनुष्य समान है. उसके अधिकार उसका सम्मान और अवसर बराबर है लेकिन जब कभी कोई समाज कहता है कि मुसलमान के मुकाबले हिंदू बेहतर है या एक दलित के मुकाबले ब्राह्मण बेहतर है तो वह असल में मानव अधिकार का हनन कर रहा है. इसलिए सांप्रदायिकता और जातिवाद मानव अधिकारों का हनन है. इसके साथ-साथ ही न्याय का अधिकार हर व्यक्ति का मानव अधिकार है.

संविधान ने तीन तरह के न्याय की पहचान की है. पहला है आर्थिक न्याय. यानी हर एक को उसकी मेहनत का फल उसी को मिलना चाहिए. ऐसा नहीं होना चाहिए कि मेहनत मजदूर करें और अमीर अंबानी बने. यह अन्याय है. यह आर्थिक अन्याय है. आजादी के वक्त से ही यह वादा किया गया था कि कमाने वाला खाएगा लूटने वाला जाएगा. लेकिन अभी लूटने वाले ही सर्वशक्तिमान बने बैठे हैं.

दूसरा न्याय है सामाजिक न्याय. अर्थात समाज में स्त्री और पुरुष समान हों जाति के आधार पर कोई छोटा-बड़ा न समझा जाए. मजहब के आधार पर कोई छोटा-बड़ा ना समझा जाए. शहर में रहने या आदिवासी इलाके में रहने की वजह से कोई भेदभाव ना किया जाए. विकलांग होने के कारण या आपकी लैंगिक स्थिति के कारण चाहे आप ट्रांसजेंडर हो या कोई और आपके साथ भेदभाव ना किया जाए.

तीसरा है राजनीतिक न्याय. हर व्यक्ति को राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने की आजादी वोट देने की आजादी होनी चाहिए राजनैतिक फैसलों में हर नागरिक की भागीदारी और सहमति होनी चाहिए. लेकिन अभी तो चुने हुए प्रतिनिधि अपनी मर्जी से फैसला लेते हैं और चुनाव में पैसे का इस्तेमाल किया जाता है. अब तो ईवीएम भी इस्तेमाल की जा रही है और राजनैतिक न्याय की अवधारणा खतरे में पड़ती जा रही है. इन अधिकारों का हनन होने पर व्यक्ति न्यायालय में जाकर अपने मानव अधिकारों की रक्षा के लिए शिकायत कर सकता है.

भारत में न्यायालय को सरकार से आजाद रखा गया है. बड़े ही दु:ख की बात है कि अब न्यायालय सरकारों से डरकर काम कर रहे हैं. इसके अलावा बहुत सारे जज अमीर और बड़ी जातियों के हैं वह सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय की अवधारणा की इज्जत नहीं कर रहे हैं. इसलिए आज आदिवासियों को धड़ल्ले से मारा जाता है. दलितों की बस्तियां जला दी जाती है मुसलमानों को सबके सामने मार दिया जाता है. लेकिन न्यायालय कभी भी पुलिस या सरकार को इसके लिए दंडित नहीं करते. इसी वजह से आज भारत की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानव अधिकार के मामले में बहुत ही खराब स्थिति है.

हम अगर देश के किसी भी एक इंसान के मानव अधिकारों के हनन को स्वीकार कर लेते हैं तो इसका मतलब है हम हर एक के मानव अधिकारों का हनन स्वीकार कर रहे हैं. और यही हो रहा है जब आदिवासियों के मानव अधिकारों का हनन होता है तो मुसलमान चुप रहते हैं. जब मुसलमानों के मानव अधिकारों का हनन होता है तो हिंदू चुप रहते हैं. जब दलितों के मानव अधिकारों का हनन होता है तो आदिवासी चुप रहते हैं. इस तरह बारी-बारी सबके मानव अधिकारों का हनन होता है और मिलकर कोई आवाज नहीं उठ पाती है.

आज बहुत सारे मानवाधिकार कार्यकर्ता जेलों में पड़े हैं. ये वे लोग हैं जिन्होंने अपनी जाति धर्म आर्थिक स्थिति पर आधारित सोच को छोड़ा और देश के दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के संविधान तथा कानून और इंसानियत के पक्ष में आवाज उठाई. इन लोगों को जेल में डाल कर भारत ने यह साबित कर दिया है कि वह एक जातिवादी सांप्रदायिक क्रूर तथा बदमाश सत्ता द्वारा शासित देश है.

छत्तीसगढ़ का माटवाड़ा. पुलिस ने 3 आदिवासियों की चाकू से आंखें निकाल कर हत्या कर दी और लाशों को पास में ही दफना दिया. बाद में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस मामले पर आदिवासियों के पक्ष में रिपोर्ट दी.तीन पुलिस वाले जेल गए.

सिंगाराम 2009. पुलिस ने 19 आदिवासियों को मार डाला और कहा कि यह लोग नक्सलवादी थे. बाद में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने रिपोर्ट दी कि यह एक फर्जी मुठभेड़ थी और लोगों को लाइन में खड़ा करके गोली से मारा गया था. मारे गए लोगों में 4 लड़कियां थी. उनके साथ बलात्कार किया था पुलिस वालों ने.

ताड़मेटला 2013. पुलिस वालों ने 5 महिलाओं से बलात्कार किया 3 आदिवासियों की हत्या की. सीबीआई की जांच रिपोर्ट में कहा कि पुलिस वाले दोषी हैं. 6 पुलिस वालों की नौकरी गई क्योंकि मामला हमने उठाया था इसलिए हमारे पुतले जलाए पुलिस वालों ने. सारकेगुड़ा 2012 में 17 आदिवासियों को पुलिस ने गोलियों से भून दिया. अभी जांच आयोग की रिपोर्ट आई है कि मारे गए सभी लोग निर्दोष निहत्थे आदिवासी थे. मैं आपसे बार-बार कह रहा हूं फर्जी मुठभेड़ों का समर्थन मत कीजिए. दुनियाभर में भारत मानवाधिकारों के बारे में सबसे ज्यादा तिरस्कार का भाव रखने वाला देश है.

भारत इंसानों को इंसान नहीं समझता. भारत इंसान को जाति और धर्म के आधार पर तौलता है और फिर फैसला देता है. भारत जो दावा करता है कि वह एक महान संस्कृति वाला देश है. उसे अभी दूसरे देशों के बराबर बनने के लिए भी बहुत कुछ समझना पड़ेगा और मेहनत करनी पड़ेगी. महान बनने का भ्रम तो छोड़ ही दीजिए.

भारत देश को अगर अपनी छवि सुधारनी है तो भारत की जनता को जाति, सांप्रदायिकता, आर्थिक वर्ग भेद से ऊपर उठकर हर इंसान के मानव अधिकार के हनन पर आवाज उठानी होगी अन्यथा किसी के भी मानव अधिकार नहीं बच सकते. अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार दिवस पर आपको कम से कम इतना तो करना ही चाहिए.

Read Also –

झारखंड : राहत कार्य में जुटे कार्यकर्ताओं पर पुलिसिया धमकी
पुलिस : राजनीतिक सत्ता को बनाये रखने का औजार
गरीब को सैनिकों की कोई ज़रूरत नहीं होती
सारकेगुड़ा : आदिवासियों की दुःखों से भरी कहानियां
मानवाधिकार किसके लिए ?
आदिवासी समस्या
छत्तीसगढ़ : पोटाली गांव में सुरक्षा बलों का आदिवासियों के खिलाफ तांडव

[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

शातिर हत्यारे

हत्यारे हमारे जीवन में बहुत दूर से नहीं आते हैं हमारे आसपास ही होते हैं आत्महत्या के लिए ज…