रफीक आजाद
बांग्लादेश के कवि ‘रफ़ीक़ आज़ाद’ की मूल रूप से बांग्ला भाषा में लिखी ‘भात दे हरामी.’ यह कविता 1974 में तब प्रकाशित हुई जब बांग्लादेश अपनी पैदाइश के बाद के वर्षों में एक स्वतंत्र राष्ट्र के तौर पर खड़े होने की कोशिश में था, और तब वहाँ की परेशानी को देखकर एक कवि होने के नाते उसे बयां करने से वे ख़ुद को रोक ना सके, हालाँकि बाद में उन्हें इस कविता के प्रकाशन के लिए वहाँ की तत्कालीन सरकार के सामने लम्बी तहरीर देनी पड़ी थी. इस मूल कविता का हिंदी अनुवाद किया है ‘अशोक भौमिक’ ने.
भात दे हरामजादे
बहुत भूखा हूँ
पेट के भीतर लगी है आग,
शरीर की समस्त क्रियायों से ऊपर
अनुभूत हो रही है हर क्षण सर्वग्रासी भूख
अनावृष्टि जिस तरह
चैत के खेतों में
फैलाती है तपन
उसी तरह भूख की ज्वाला से
जल रही है देह
दोनों शाम
दो मुट्ठी मिले भात तो
और माँग नहीं है;
लोग तो बहुत कुछ
माँग रहे हैं
बाड़ी, गाड़ी, पैसा
किसी को चाहिए यश,
मेरी माँग बहुत छोटी है
जल रहा है पेट
मुझे भात चाहिए
ठंडा हो या गरम
महीन हो या मोटा
राशन का लाल चावल
वह भी चलेगा
थाल भरकर चाहिए
दोनों शाम दो मुट्ठी मिले तो
छोड़ सकता हूँ अन्य सभी माँगें
अतिरिक्त लोभ नहीं है
यौन क्षुधा भी नहीं है
नहीं चाहिए
नाभि के नीचे की साड़ी
साड़ी में लिपटी गुड़िया
जिसे चाहिए उसे दे दो
याद रखो
मुझे उसकी जरूरत नहीं है
नहीं मिटा सकते यदि
मेरी यह छोटी माँग, तो
तुम्हारे संपूर्ण राज्य में
मचा दूँगा उथल-पुथल
भूखों के लिए नहीं होते
हित-अहित, न्याय-अन्याय
सामने जो कुछ मिलेगा
निगलता चला जाऊँगा निर्विचार
कुछ भी नहीं छोड़ूँगा शेष
यदि तुम भी मिल गए सामने
राक्षसी मेरी भूख के लिए
बन जाओगे उपादेय आहार
सर्वग्रासी हो उठे यदि
सामान्य भूख, तो
परिणाम भयावह होते हैं
याद रखना
दृश्य से द्रष्टा तक की
धारावाहिकता को खाने के बाद
क्रमश: खाऊँगा
पेड़-पौधे, नदी-नाले
गाँव-कस्बे, फुटपाथ-रास्ते
पथचारी, नितंब-प्रधान नारी
झंडे के साथ खाद्यमंत्री
मंत्री की गाड़ी
मेरी भूख की ज्वाला से
कोई नहीं बचेगा,
भात दे हरामजादे
नहीं तो खा जाऊँगा
तेरा मानचित्र
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