Home गेस्ट ब्लॉग मंगलेश डबराल : जब हवा ने सूचना दी – मर गया वो

मंगलेश डबराल : जब हवा ने सूचना दी – मर गया वो

9 second read
0
0
603

मंगलेश डबराल : जब हवा ने सूचना दी - मर गया वो

खबर सिर्फ इतनी नहीं है कि 1948 में टिहरी गढ़वाल के काफलपानी गांव में वह पैदा हुआ था, पढ़ाई- लिखाई देहरादून में हुई, नौकरी उसने देश के मुख्तलिफ शहरों में की. वह कवि पहले था और जिंदगी की जरूरतों ने उसे पत्रकार बाद में बनाया. लेकिन पत्रकारिता में भी वही खनक, वही पहाड़ से उतरती किसी मेघाछन्न नदी का वेग. वह शख्स मर गया. अब नहीं है वह. उसका नाम था मंगलेश डबराल. खबर सिर्फ इतनी नहीं है कि उसे कोरोना ने निगल लिया और राजधानी दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में उसने जिंदगी से कहा- अब तुमसे रुखसत होता हूं.

खबर यह भी है कि वह एक जुझारू कवि था. समय के आर-पार लड़ने वाला और जीवन के महा-महासमरों में भी जिबह होने के बावजूद हर बार उठ खड़ा होने वाला, जैसे शमशेर की कविता का पुनर्पाठ उनका कोई चश्मे चराग़ कर रहा हो : काल तुझसे होड़ है मेरी..जैसे विजयदेव नारायण साही के’ मछलीघर’ के फंदे काट रहा हो वह बूढ़ा, जिसका तसव्वुर अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने किया था, जैसे रो रहा है कोई बाजबहादुर और उसके साथ समूचा मालवा जारोकतार रो रहा हो कि इस मोहब्बत को उसके अंजाम तक पहुंचाने के लिए हमें और कितने रतजगे करने होंगे, कि कब वह घड़ी आएगी और बोलने लगेंगे पेड़. मंगलेश की कविताएं कुछ वैसी ही हैं. लड़ती-भिड़ती, निजता को सामूहिकता में बदलती और अंतत: अपनी जड़ों ( मनुष्यत्व) की ओर लौटती.

गौर से देखें तो 1960 के दशक के बीतते न बीतते और 1970 के दशक की आवक के आसपास हिंदी कविता ने भी अपना चोला बदला था और बिल्कुल ताजातरीन सपनों के साथ उसने अपनी हाजिरी दर्ज करायी. जैसे साठोत्तरी कहानी का जिक्र होता है, उसके मुकाबले साठोत्तरी कविता का जिक्र कम हुआ. लेकिन सोचने, देखने, समझने और एक नयी सौंदर्य चेतना को कविता का जरूरी उपादान बनाने का जो काम इन बीसेक वर्षों में हुआ, वह चकित करने वाला है. धूमिल और राजकमल चौधरी के फौरन बाद का बिल्कुल नया अंदाज.

जो पीढ़ी उस दौर में सामने आयी और जिसके पास बदली हुई दुनिया को देखने का कुछ अलग ही किस्म का बाइस्कोप था, जो नक्सलबाड़ी आंदोलन के ताप से पैदा हुई थी. और जिसे इस शोशे में रत्ती भर भी एतबार नहीं था कि नक्सलबाड़ी का जातक तो मार डाला गया, कि उसे सिद्धार्थ शंकर राय की बेलगाम पुलिस ने ढेर कर दिया. अब नक्सलबाड़ी रहा कहां ? वह तो इतिहास हो गया. अब काहे का नक्सलबाड़ी, कैसा नक्सलबाड़ी ? समूचा देश सन्निपात की स्थिति में था. न वह आह भर पा रहा था और न वाह कह पा रहा था. इस निपट सन्नाटे में भी जो आवाज मुनादी कर रही थी और जो इस दावे पर अंत अंत तक कायम रही कि लड़ाई कभी मरती नहीं, वह अपनी विरासत नये और कारगर कंधों को अंतर्विरोधों के बीच सौंपती चलती है- वह आवाज नक्सलबाड़ी से बौद्धिक ताप ले कर आये रचनाधर्मियों की थी.

यह जमात चिल्ला चिल्ला कर कह रही थी कि देख लेना.. एक दिन कोंपलें फूटेंगी इन्हीं नंगी शाखों से.. देख लेना यह आग दहकेगी, दहकती ही जाएगी. वीरेन डंगवाल, आलोक धन्वा, राजेश जोशी, ज्ञानेंद्रपति, असद जैदी, मंगलेश डबराल- ये कुछ ऐसे नाम हैं जिन्होंने ‘कविता में आदमी होने’ और आदमी के रूप में बचे रहने की तमीज को धार दी. साठ और सत्तर के दशक का जब कभी मूल्यांकन होगा, आप इस गंभीर बदलाव और एकदम नयी प्रवृत्तियों की कविता में इंट्री को खारिज कर ही नहीं सकते.

आलोक धन्वा ‘ गोली दागो पोस्टर’ और ‘ जनता का आदमी’ से अपना होना साबित कर रहे थे तो राजेश जोशी उस ‘ जादू जंगल’ की कैफियत समझा रहे थे जो झूठ और मक्कारी पर टिका था और जिसका सफाया निश्चित था. ज्ञानेंद्रपति को याद आ रही थी ‘चेतना पारीक’ जिसे भयानक अंधड़ में भी वह नहीं भूले और जो कलकत्ता की भीड़भाड़, रेलमपेल, ट्रामों की आवाजाही के बीच भी उनकी चेतना के साथ निरंतर प्रवहमान रही. वीरेन डंगवाल को याद आता रहा ‘ राम सिंह’- वह नेपाली बहादुर जो अपना देस छोड़ कर भारत आया, चौकीदारी में मसरूफ हुआ, जिसके पास अब नये जूते हैं, नयी जुराबें हैं, खुखरी की जगह बंदूक ने ले ली है और जो खटका होते ही मालिक के एक इशारे पर गोली चलाने को आजाद है लेकिन वह बिसूरता भी है. वह रोज मरता है जिंदा रहने और उजले दिन की आस में.

गौर से देखें तो इन तमाम कविताओं में एक खास तरह की बेचैनी है. आजाद होने की बेचैनी. आजाद दिखने की बेचैनी. आजाद करने की बेचैनी. आजादी का यह दावानल फैला तो फिर फैलता ही गया. मंगलेश डबराल ने इस मोर्चे पर अपने को अपने बिरादरों से थोड़ा सा बचाये रखा. यह थोड़ा-सा है उनकी कविता का अंडरकरंट जो सहधर्मियों की चिंताओं को जायज तो ठहराता है, लेकिन कविता के कवितापन का उतना ही हामी भी है. वह कविता के घर- आंगन में ही विरोध के नये प्रतिमान गढ़ता और पुरानों को खंडित करता चलता है. मिसाल के तौर पर उनकी एक कविता का जिक्र यहां लाजिमी है :

वसंत आएगा हमारी स्मृति में
ठंड से मरी हुई इच्छाओं को फिर से जीवित करता
धीमे-धीमे धुंधवाता ख़ाली कोटरों में
घाटी की घास फैलती रहेगी रात को
ढलानों से मुसाफ़िर की तरह
गुज़रता रहेगा अंधकार

चारों ओर पत्थरों में दबा हुआ मुख
फिर उभरेगा, झाँकेगा कभी
किसी दरार से अचानक
पिघल जाएगी जैसे बीते साल की बर्फ़
शिखरों से टूटते आएंगे फूल
अंतहीन आलिंगनों के बीच एक आवाज़

छटपटाती रहेगी
चिड़िया की तरह लहूलुहान।।

मंगलेश डबराल के खाते में पांच कविता संग्रह हैं-  ‘पहाड़ पर लालटेन’, ‘घर का रास्ता’, ‘ हम जो देखते हैं’, ‘आवाज भी एक जगह है’ और ‘नये युग में शत्रु. ‘ इनके अलावा ‘लेखक की रोटी’ और ‘कवि का अकेलापन’ जैसे गद्य संग्रह और यात्रा वृतांत (एक बार आयोवा) भी प्रकाशित हो चुके हैं.

साहित्य के गंभीर अध्येताओं को छोड़ दें तो बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि मंगलेश डबराल ने अनुवादक के रूप में भी बेहद गंभीर काम किया है. इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि जिस बड़े पैमाने पर उनकी खुद की कविताओं का तर्जुमा डच, स्पैनिश, रूसी, अंग्रेजी जैसी भाषाओं में हुआ, वैसा गौरव उनके समकालीनों में अधिकांश को मयस्सर नहीं हो सका. जाहिर है, सरोकार बड़े थे. आप खरे हो सकते हैं लेकिन बड़े होने के लिए सरोकारों का बड़ा होना जरूरी है. अगर इस उक्ति को हम पैरामीटर मानें तो फिर उनकी अजमत से इनकार करने की कोई सूरत नहीं दिखती. उनके पत्रकारीय जीवन पर अलग से फिर कभी. फिलहाल मन उदास है. बहुत उदास. जाओ कवि ! आना.. जब राह न सूझे और लगे कि हमें सन्नाटा मार डालेगा. आते रहना.

  • मिथिलेश कुमार सिंह

Read Also –

गिरीश कर्नाड : अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रहरी
प्रेमचंद की पुण्यतिथि पर : प्रेमचन्द, एक प्रेरणादायी व्यक्तित्व
जनकवि शील – कुछ अप्रासंगिक प्रसंग
प्रेमचंद की पुण्यतिथि पर : प्रेमचन्द, एक प्रेरणादायी व्यक्तित्व
कालजयी अरविन्द : जिसने अंतिम सांस तक जनता की सेवा की
सावित्रीबाई का यही कॉन्ट्रिब्यूशन है इस देश के लिए

[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

कामरेडस जोसेफ (दर्शन पाल) एवं संजीत (अर्जुन प्रसाद सिंह) भाकपा (माओवादी) से बर्खास्त

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने पंजाब और बिहार के अपने कामरेडसद्वय जोसेफ (दर्शन पाल…